सम्मन तथा नेकी ने देखा कि गर्दन पर कोई चिन्ह भी नहीं है। लड़का जीवित कैसे हुआ? अन्दर जा कर देखा तो वहाँ शव तथा शीश नहीं था। केवल रक्त के छीटें लगे थे जो इस पापी मन के संश्य को समाप्त करने के लिए प्रमाण बकाया था।
साहेब कबीर द्वारा भैंसे से वेद मन्त्र बुलवाना
एक समय तोताद्रि नामक स्थान पर विद्वानों (पंडितों) का महासम्मेलन हुआ। उसमें दूर-दूर के ब्रह्मवेता, वेदों, गीता जी आदि के विशेष ज्ञाता महापुरुष आए हुए थे। उसी महासम्मेलन में वेदों और पुराणों तथा शास्त्रों व गीता जी के प्राकाण्ड ज्ञाता महर्षि स्वामी रामानन्द जी भीआमन्त्रिात किए गए थे। स्वामी रामानन्द जी के साथ उनके परम शिष्य साहेब कबीर भी पहुँच गए। श्री रामानन्द जी साहेब कबीर को अपने साथ ही रखतेथे। क्योंकि स्वामी रामानन्द जी जानते थे कि यह कबीर (कविर्देव) साहेब परम पुरुष हैं। इनके रहते मुझे कोई ज्ञान और सिद्धि में पराजितनहीं कर सकता।
सम्मेलन में इस बात की विशेष चर्चा हो गई कि श्री रामानन्द जी के शिष्य कबीर साहेब (छोटी जाति के) जुलाहा हैं। यदि हमारे भण्डारे में भोजन करेंगे तो हम अपवित्र हो जाएंगे। हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। यदि सीधे शब्दों में मना करेंगे तो हो सकता है श्री रामानन्द जी नाराज हो जाऐं क्योंकि श्री रामानन्द जी उस समय के जाने-माने विद्वानों में से एक थे। यहसोच कर एक युक्ति निकाली कि भण्डारा दो स्थानों पर शुरु किया जाए। एक तो पंडितों के लिए, जो पंडितों (ब्राह्मणों) वाले भण्डारे में प्रवेश करे उसे चारों वेदों के एक-2 मंत्र संस्कृत में सुनाने पड़ेंगे।
ऐसा न करने वालों को दूसरे भण्डारे में जो आम संगत (साधारण व्यक्तियों) के लिए बना है में जाएंगे। क्योंकि उनका मानना था कि श्री रामानन्द जी तो विद्वान (पंडित) हैं। वेद मंत्र सुना कर उत्तम भण्डारे में आ जाएंगे तथा साहेब कबीर (कविर्देव) ऐसा नहीं कर पाएगें क्योंकि उन्हें वे पंडितजन अशिक्षित मानते थे। अपने आप आम (साधारण) भण्डारे में चले जाएंगे। फिर सतसंग (प्रवचन)चल रहा था।
उसमें वही उपस्थित पंडित जन संगत में मीठी-2 बातें बना कर कथाएँ सुनारहे थे कि - एक अछूत जाति की भीलनी (शबरी) परमात्मा के वियोग में वर्षों से तड़फ-2 कर राहजोह रही थी कि मेरे भगवान राम आएंगे। मैं उन्हें बेरों का भोग लगवाऊँगी। प्रतिदिन बहुत दूर तक रास्ता बुहार कर आती है। कहीं मेरे भगवानको कांटा न लग जाए। एक दिन वह समय भी आ गया कि भगवान श्रीरामचन्द्र जी आते दिखाई दिए। भिलनी सुध-बुद्ध भूल कर श्री रामचन्द्र जी के मुख कमलकी ओर बावलों की तरह निहार रही है। श्री राम व लक्ष्मण खड़े-2 देख रहे हैं। इस पर लक्ष्मण ने कहाशबरी भगवान को बैठने के लिए भी कहेगी या ऐसे ही ठडेसरी (खड़े तपस्वी)बनाए रखेगी। तब मानो नींद से जागी हो।
हड़बड़ा कर अपने सिर का फटा पुराना मैला- कुचैला चीर उतार कर एक पत्थर के टुकड़ेपर बिछा दिया और कहा कि
भगवन! बैठो इस पर। श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि नहीं बेटी, चीर उठाओ यह कह कर उसका चीर उठा कर उसी के सिर पर रखना चाहा। भिलनी (शबरी) रोने लगी और रोती हुई ने कहा यह गन्दा (मैला) है न भगवान! इसलिए स्वीकार नहीं किया न। मैं कितनी अभागिन हूँ। आपके लिए उत्तम कपड़ा नहीं ला सकी। क्षमा करना भगवन। यह कह कर आँखों से अश्रुधार बह चली।
तब श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि शबरी! यह कपड़ा मेरे लिए मखमल से भी अच्छा कपड़ा है। लाओ बिछाओ!
फिर भगवान उसी मैले कुचैले चीर पर विराजमान हो गए और शबरी के आँसुओं को अपने पिताम्बर से पौंछने लगे।
फिर शबरी ने बेरों का भोग भगवान को लगवाया। पहले बेर को स्वयं थोड़ा सा खाती (चखती) है फिर वही बेर श्री राम को अपने हाथों से खिला रही है। भगवान श्री राम ने उस काली कलूटी, लम्बे-2 दाँतों वाली मैली कुचैली, अछूत शबरीके हाथ के झूठे बेरों का भोग रूचि-2 लगाया तथा कहा शबरी, बहुत स्वादिष्ट हैं। क्या मिलाया है इन बेरो में? शबरी ने कहा आपका प्यार मिलाया है आपकी बेटी ने। फिर लक्ष्मण को भी दिए कि खाओ बेर। लक्ष्मण ग्लानि करके श्री राम जी के भय से खाने का बहाना करके हाथ मेंलेकर पीछे फैंक देता है। जो बाद में द्रौणागिरी पर (शबरी के झूठे बेर)संजीवनी बूटी बन गए और लक्ष्मण के युद्ध में मूर्छित हो जाने पर वही बेर फिर खाने पड़े। भक्तकी भावना का अनादर हानिकारक होता है।
जब आस-पासके ऋषियों को मालूम हुआ कि श्री राम आए हैं।
वो हमारे यहाँ आश्रमों में अवश्य आएंगे क्योंकि हम ब्राह्मण हैं और भगवान श्री राम (शत्रिय हैं) अवश्य आएंगे। जब ऐसा नहीं हुआ तो सर्व ऋषि जन बन में साधना करने वाले (कर्मसन्यासी) श्री राम को मिले तथा कहा भगवन! एक ही नदी है जो साथ बह रही है। उसका पानी गंदा हो गया है।कृपया इसे स्चच्छ करने की कृपा करें। श्री राम ने कहा कि आप सर्व योगी जन बारी-2 अपना दायां पैर नदी के जल में डुबोएँ। फिर निकाल लें। सब उपस्थित ऋषियों ने ऐसा ही किया। परंतु जलनिर्मल नहीं हुआ। फिर श्री राम ने उस प्रेमभक्ति युक्त शबरी से कहा आप भी ऐसा ही करें। तब शबरी ने अपने दायां पैर नदी के जल में डाला तो उसी समय नदी का जल निर्मल हो गया। सर्व उपस्थित साधुजन शबरी की प्रशंसा करने लगे तथा शर्मिन्दा होकर श्री राम से पूछा कि प्रभु! क्या कारण है जो इस अछूत के स्पर्श मात्रा से जल निर्मल हुआ जबकि हमारे से नहीं।
तब श्री राम ने कहा - जो व्यक्ति परमात्मा का सच्चे प्रेम से भजन करता है तथा विकारों से रहित है वह उच्च प्राणी है। जाति ऊँची नीची नहीं होती है। आपको भक्ति साधना के साथ-2 जाति अहंकार भी है जो भक्ति का दुश्मन है। गीता जी भी यह सिद्ध करती है कि कर्मसन्यासी (गृहत्यागी) को अपनेकत्र्तापन का अभिमान हुए बिना नहीं रहता। इसलिए कर्मयोगी (ब्रह्मचारी या गृहस्थी कार्य करते.2 साधना करने वाला) भक्त कर्म सन्यासी (गृहत्यागी) भक्तों से श्रेष्ठ हैं तथा जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति करते हैं वो सर्वोंत्तम हैं।
कबीर साहेब कहते हैं कि --
"कबीर, पोथी पढ-2 जग मुआ, पंडित भया न कोय।अढ़ाई अक्षर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय।।"
प्रेम में जाति कुल का कोई अभिमान नहीं रहता है। केवल अपने महबूब का ही ध्यान बना रहता है। (सतसंग समाप्त हुआ)
सत्संग समाप्न के पश्चात् भण्डारे का समय हुआ। दो ब्राह्मण वेदों के मन्त्र सुनने के लिए परीक्षार्थ पंडितों वाले भण्डार के द्वार पर खड़े हो गए तथा परीक्षा लेकर वेद मन्त्र सुन कर भण्डारे में प्रवेश करवा रहे थे। साहेब कबीर (कविरग्नि) भी पंक्ति में खड़े अपनी वारी का इन्तजार कर रहे थे। जब साहेब कबीर की बारी आई उसी समय एक पास में घास चर रहे भैंसे को साहेब कबीर ने पुकारा -
इतना कहना था कि भैंसा दौड़ा-2 आया तथा साहेब कबीर के चरणों में शीश झुका कर अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तब कविर्देव ने उस भैंसे कीकमर परहाथ रखकर कहा कि - हे भैंसा! चारों वेदों का एक-2 श्लोक सुनाओ! उसी समय भैंसे ने शुद्ध संस्कृत भाषा में चारों वेदां के एक-2 मन्त्र कह सुनाए।
साहेब कबीर ने कहा - भैंसा इन श्लोकों का हिन्दी अनुवाद भी करो, कहीं पंडित जन यह न सोच बैठें कि भैंसा हिन्दी नहीं जानता। भैंसे ने साहेब कबीर की शक्ति से चारों वेदों के एक-2 मन्त्र का हिन्दी अनुवाद भी कर दिया।
कबीर साहेब ने कहा - जाओ भैंसा पंडित! इन उत्तम जनों के भण्डारे में भोजन पाओ। मैं तो उस साधारण भण्डारे में प्रसाद पाऊँगा।
कबीर साहेब जी की यह लीला देखकर सैकड़ों कथित पंडितों ने नाम लिया तथा आत्म कल्याण करवाया और अपनी भूल का पश्चाताप किया। साहेब कबीर ने कहा नादानों कथा सुना रहे थे शबरी और श्री राम की, आप समझे नहीं। अपने आप को उच्च समझ कर भक्त आत्माओं का अनादर करते हो। यह आप भक्तों का अनादर नहीं बल्कि भगवान का अनादर करते हो। जो गीता जी में कहते हैं कि अर्जुन कोई व्यक्ति कितना ही दुराचारी हो यदि वह भगवत विश्वासी है, साधु समान मान्य है।
गरीबदास जी महाराज कहते हैं -
कुष्टि होवे साध बन्दगी कीजिए।
वैश्या के विश्वास चरण चित्त दीजिए।।
ऐसे अनजानों को जो कहते कुछ और करते कुछ हैं।
कबीर साहेब कहते हैं-
"कबीर, कहते हैं करते नहीं, मुख के बड़े लबार।
दोजख धक्के खाएगें, धर्मराय दरबार।।"
"कबीर, करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात।
कुकर ज्यों भौंकत फिरै, सुनी सुनाई बात।।"
"गरीब, कहन सुनन की करते बातां ।
कोई न देख्या अमृत खाता।।"
"कबीर सत्यनाम सुमरण बिन, मिटे न मन का दाग।
विकार मरे मत जानियो, ज्यों भूभल में आग।
परमेश्वर कबीर (कविर्देव) द्वारा महर्षि सर्वानन्द को शरण में लेना
एक सर्वानन्द नाम के महर्षि थे। उसकी पूज्य माता श्रीमति शारदा देवी पाप कर्म फल से पीडि़त थी। उसने सर्व पुजाऐं व जन्त्र-मन्त्र कष्ट निवारण के लिए वर्षों किए। शारीरिक पीड़ा निवारण के लिए वैद्यों की दवाईयाँ भी खाई, परन्तु कोई राहत नहीं मिली। उस समय के महर्षियों से उपदेश भी प्राप्त किया, परन्तु सर्व महर्षियों ने कहा कि बेटी शारदा यह आप का पाप कर्म दण्ड प्रारब्ध कर्म का है, यह क्षमा नहीं हो सकता, यह भोगना ही पड़ता है। भगवान श्री राम ने बाली का वध किया था, उस पाप कर्म का दण्ड श्री राम (विष्णु) वाली आत्मा ने श्री कृष्ण बन कर भोगा। श्री बाली वाली आत्मा शिकारी बनी। जिसने श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर मार कर वध किया।
इस प्रकार गुरु जी व महन्तांे व संतों - ऋषियों के विचार सुनकर दुःखी मन से भक्तमति शारदा अपना प्रारब्ध पापकर्म का कष्ट रो-रो कर भोग रही थी। एक दिन किसी निजी रिश्तेदार के कहने पर काशी में (स्वयंभू) स्वयं सशरीर प्रकट हुए (कविर्देव) कविर परमेश्वर अर्थात् कबीर प्रभु से उपदेश प्राप्त किया तथा उसी दिन कष्ट मुक्त हो गई। क्योंकि पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में लिखा है कि ‘‘कविरंघारिरसि‘‘ अर्थात् (कविर्) कबीर (अंघारि) पाप का शत्राु (असि) है। फिर इसी पवित्रा यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13 में लिखा है कि परमात्मा (एनसः एनसः) अधर्म के अधर्म अर्थात् पापों के भी पाप घोर पाप को भी समाप्त कर देता है। प्रभु कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा बेटी शारदा यह सुख आप के भाग्य में नहीं था, मैंने अपने कोष से प्रदान किया है तथा पाप विनाशक होने का प्रमाण दिया है।
आप का पुत्रा महर्षि सर्वानन्द जी कहा करता है कि प्रभु पाप क्षमा (विनाश)नहीं कर सकता तथा आप मेरे से उपदेश प्राप्त करके आत्म कल्याण करो। भक्तमति शारदा जी ने स्वयं आए परमेश्वर कबीर प्रभु (कविर्देव)से उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाया। महर्षि सर्वानन्द जी को जो भक्तमति शारदा का पुत्रा था, शास्त्रार्थ का बहुत चाव था। उसने अपने समकालीन सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ करके पराजित कर दिया। फिर सोचा कि जन - जन को कहना पड़ता है कि मैंने सर्व विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली है। क्यों न अपनी माता जी से अपना नाम सर्वाजीत रखवा लूं। यह सोच कर अपनी माता श्रीमति शारदा जी के पास जाकर प्रार्थना की। कहा कि माता जी मेरा नाम बदल कर सर्वाजीत रख दो। माता ने कहा कि बेटा सर्वानन्द क्या बुरा नाम है ? महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा माता जी मैंने सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया है। इसलिए मेरा नाम सर्वाजीत रख दो।
माता जी ने कहा कि बेटा एक विद्वान मेरे गुरु महाराज कविर्देव (कबीर प्रभु)को भी पराजित कर दे, फिर अपने पुत्र का नाम आते ही सर्वाजीत रख दूंगी। माता के ये वचन सुन कर श्री सर्वानन्द पहले तो हँसा, फिर कहा माता जी आप भी भोली हो। वह जुलाहा (धाणक)कबीर तो अशिक्षित है। उसको क्या पराजित करना? अभी गया, अभी आया।
महर्षि सर्वानन्द जी सर्व शास्त्रों को एक बैल पर रख कर कविर्देव (कबीर परमेश्वर)की झौंपड़ी के सामने गया। परमेश्वर कबीर जी की धर्म की बेटी कमाली पहले कूएँ पर मिली, फिर द्वार पर आकर कहा आओ महर्षि जी यही है परमपिता कबीर का घर। श्री सर्वानन्द जी ने लड़की कमाली से अपना लोटा पानी से इतना भरवाया कि यदि जरा-सा जल और डाले तो बाहर निकल जाए तथा कहा कि बेटी यह लोटा धीरे-धीरे ले जाकर कबीर को दे तथा जो उत्तर वह देवें वह मुझे बताना।
लड़की कमाली द्वारा लाए लोटे में परमेश्वर कबीर (कविर्देव)जी ने एक कपड़े सीने वाली बड़ी सुई डाल दी, कुछ जल लोटे से बाहर निकल कर पृथ्वी पर गिर गया तथा कहा पुत्राी यह लोटा श्री सर्वानन्द जी को लौटा दो। लोटा वापिस लेकर आई लड़की कमाली से सर्वानन्द जी ने पूछा कि क्या उत्तर दिया कबीर ने? कमाली ने प्रभु द्वारा सुई डालने का वृतांत सुनाया। तब महर्षि सर्वानन्द जी ने परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव)से पूछा कि आपने मेरे प्रश्न का क्या उत्तर दिया? प्रभु कबीर जी ने पूछा कि क्या प्रश्न था आपका?
श्री सर्वानन्द महर्षि जी ने कहा ‘‘मैंने सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया है। मैंने अपनी माता जी से प्रार्थना की थी कि मेरा नाम सर्वाजीत रख दो। मेरी माता जी ने आपको पराजीत करने के पश्चात् मेरा नाम परिवर्तन करने को कहा है। आपके पास लोटे को पूर्ण रूपेण जल से भर कर भेजने का तात्पर्य है कि मैं ज्ञान से ऐसे परिपूर्ण हूँ जैसे लोटा जल से। इसमें और जल नहीं समाएगा, वह बाहर ही गिरेगा अर्थात् मेरे साथ ज्ञान चर्चा करने से कोई लाभ नहीं होगा। आपका ज्ञान मेरे अन्दर नहीं समाएगा, व्यर्थ ही थूक मथोगे। इसलिए हार लिख दो, इसी में आपका हित है।
पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा कि आपके जल से परिपूर्ण लोटे में लोहे की सूई डालने का अभिप्राय है कि मेरा ज्ञान (तत्वज्ञान) इतना भारी (सत्य) है कि जैसे सुई लोटे के जल को बाहर निकालती हुई नीचे जाकर रूकी है। इसी प्रकार मेरा तत्वज्ञान आपके असत्य ज्ञान (लोक वेद) को निकाल कर आपके हृदय में समा जाएगा।
महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा प्रश्न करो। एक बहु चर्चित विद्वान को जुलाहों (धाणकों) के मौहल्ले (काॅलोनी) में आया देखकर आस-पास के भोले-भाले अशिक्षित जुलाहे शास्त्रार्थ सुनने के लिए एकत्रित हो गए।
पूज्य कविर्देव ने प्रश्न किया:
कौन ब्रह्मा का पिता है, कौन विष्णु की माँ।
शंकर का दादा कौन है, सर्वानन्द दे बताए।।
उत्तर महर्षि सर्वानन्द जी का: - श्री ब्रह्मा जी रजोगुण हैं तथा श्री विष्णु जी सतगुण युक्त हैं तथा श्री शिव जी तमोगुण युक्त हैं। यह तीनों अजर-अमर अर्थात् अविनाशी हैं, सर्वेश्वर - महेश्वर - मृत्यु×जय हैं। इनके माता-पिता कोई नहीं। आप अज्ञानी हो। आपने शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। ऐसे ही उट-पटांग प्रश्न किया है। सर्व उपस्थित श्रोताओं ने ताली बजाई तथा महर्षि सर्वानन्द जी का समर्थन किया।
पूज्य कबीर प्रभु (कविर्देव) जी ने कहा कि महर्षि जी आप श्रीमद्देवी भागवत पुराण के तीसरे स्कंद तथा श्री शिव पुराण का छटा तथा सातवां रूद्र संहिता अध्याय प्रभु को साक्षी रखकर गीता जी पर हाथ रख कर पढ़ें तथा अनुवाद सुनाऐं। महर्षि सर्वानन्द जी ने पवित्रा गीता जी पर हाथ रख कर शपथ ली कि सही-सही सुनाऊँगा।
पवित्र पुराणों को प्रभु कबीर (कविर्देव) जी के कहने के पश्चात् ध्यान पूर्वक पढ़ा। श्री शिव पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवादक हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार) में पृष्ठ नं. 100 से 103 पर लिखा है कि सदाशिव अर्थात् काल रूपी ब्रह्म तथा प्रकृति (दुर्गा) के संयोग (पति-पत्नी व्यवहार) से सतगुण श्री विष्णु जी, रजगुण श्री ब्रह्मा जी तथा तमगुण श्री शिवजी का जन्म हुआ। यही प्रकृति (दुर्गा) जो अष्टंगी कहलाती है, त्रिदेव जननी (तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी) की माता कहलाती है।
पवित्र श्री मद्देवी पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, अनुवादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा चिमन लाल गोस्वामी) तीसरे स्कंध में पृष्ठ नं. 114 से 123 तक में स्पष्ट वर्णन है कि भगवान विष्णु जी कह रहे हैं कि यह प्रकृति (दुर्गा) हम तीनों की जननी है। मैंने इसे उस समय देखा था जब मैं छोटा-सा बच्चा था। माता की स्तुति करते हुए श्री विष्णु जी ने कहा कि हे माता मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शिव तो नाशवान हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होती है।
आप प्रकृति देवी हो। भगवान शंकर ने कहा कि हे माता यदि ब्रह्मा व विष्णु आप से उत्पन्न हुए हैं तो मैं शंकर भी आप से ही उत्पन्न हुआ हूँ अर्थात् आप मेरी भी माता हो।
महर्षि सर्वानन्द जी पहले सुने सुनाए अधूरे शास्त्र विरुद्ध ज्ञान (लोकवेद) के आधार पर तीनों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव)को अविनाशी व अजन्मा कहा करता था। पुराणों को पढ़ता भी था फिर भी अज्ञानी ही था। क्योंकि ब्रह्म (काल)पवित्र गीता जी में कहता है कि मैं सर्व प्राणियों (जो मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों में मेरे अधीन हैं)की बुद्धि हूँ। जब चाहूँ ज्ञान प्रदान कर दूं तथा जब चाहूँ अज्ञान भर दूं। उस समय पूर्ण परमात्मा के कहने के बाद काल (ब्रह्म) का दबाव हट गया तथा सर्वानन्द जी को स्पष्ट ज्ञान हुआ। वास्तव में ऐसा ही लिखा है। परन्तु मान हानि के भय से कहा मैंने सर्व पढ़ लिया ऐसा कहीं नहीं लिखा है। कविर्देव (कबीर परमेश्वर)से कहा तू झूठा है। तू क्या जाने शास्त्रों के विषय में। हम प्रतिदिन पढ़ते हैं। फिर क्या था, सर्वानन्द जी ने धारा प्रवाहिक संस्कृत बोलना प्रारम्भ कर दिया। बीस मिनट तक कण्ठस्थ की हुई कोई और ही वेदवाणी बोलता रहा, पुराण नहीं सुनाया।
सर्व उपस्थित भोले-भाले श्रोतागण जो उस संस्कृत को समझ भी नहीं रहे थे, प्रभावित होकर सर्वानन्द महर्षि जी के समर्थन में वाह-वाह महाज्ञानी कहने लगे। भावार्थ है कि परमेश्वर कबीर (कविर्देव)जी को पराजीत कर दिया तथा महर्षि सर्वानन्द जी को विजयी घोषित कर दिया। परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव)जी ने कहा कि सर्वानन्द जी आपने पवित्रा गीता जी की कसम खाई थी, वह भी भूल गए। जब आप सामने लिखी शास्त्रों की सच्चाई को भी नहीं मानते हो तो मैं हारा तुम जीते।
एक जमींदार का पुत्र सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने कुछ अंग्रेजी भाषा को जान लिया था। एक दिन दोनों पिता पुत्रा खेतों में बैल गाड़ी लेकर जा रहे थे। सामने से एक अंगे्रज आ गया। उसने बैलगाड़ी वालों से अंग्रेजी भाषा में रास्त्ता जानना चाहा। पिता ने पुत्र से कहा बेटा यह अंग्रेज अपने आप को ज्यादा ही शिक्षित सिद्ध करना चाहता है। आप भी तो अंग्रेजी भाषा जानते हो। निकाल दे इसकी मरोड़। सुना दे अंग्रेजी बोल कर। किसान के लड़के ने अंग्रेजी भाषा में बीमारी की छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्रा पूरी सुना दी।
अंग्रेज उस नादान बच्चे की नादानी पर कि पूछ रहा हूँ रास्त्ता सुना रहा है बीमारी की छुट्टी की प्रार्थना - पत्र। अपनी कार लेकर माथे में हाथ मार कर चल पड़ा। किसान ने अपने विजेता पुत्र की कमर थप-थपाई तथा कहा वाह पुत्रा मेरा तो जीवन सफल कर दिया। आज तुने अंग्रेज को अंग्रेजी भाषा में पराजीत कर दिया। तब पुत्रा ने कहा पिता जी माई बैस्ट फ्रेंड (मेरा खास दोस्त नामक प्रस्त्ताव)भी याद है। वह सुना देता तो अंग्रेज कार छोड़ कर भाग जाता। इसी प्रकार कविर्देव जी पूछ कुछ रहें हैं और सर्वानन्द जी उत्तर कुछ दे रहे हैं। यह शास्त्रार्थ ने घर घाल रखे हैं।
परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा कि सर्वानन्द जी आप जीते मैं हारा। महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा लिख कर दे दो, मैं कच्चा कार्य नहीं करता। परमात्मा कबीर (कविर्देव)जी ने कहा कि यह कृपा भी आप कर दो। लिख लो जो लिखना है, मैं अंगूठा लगा दूंगा। महर्षि सर्वानन्द जी ने लिख लिया कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द विजयी हुआ तथा कबीर साहेब पराजीत हुआ तथा कबीर परमेश्वर से अंगूठा लगवा लिया। अपनी माता जी के पास जाकर सर्वानन्द जी ने कहा कि माता जी लो आपके गुरुदेव को पराजीत करने का प्रमाण। भक्तमति शारदा जी ने कहा पुत्र पढ़ कर सुनाओ। जब सर्वानन्द जी ने पढ़ा उसमें लिखा था कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द पराजीत हुआ तथा कबीर परमेश्वर (कविर्देव)विजयी हुआ। सर्वानन्द जी की माता जी ने कहा पुत्रा आप तो कह रहे थे कि मैं विजयी हुआ हूँ, तुम तो हार कर आये हो। महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा माता जी मैं कई दिनों से लगातार शास्त्रार्थ में व्यस्त था, इसलिए निंद्रा वश होकर मुझ से लिखने में गलती लगी है।
फिर जाता हूँ तथा सही लिख कर लाऊँगा। माता जी ने शर्त रखी थी कि विजयी होने का कोई लिखित प्रमाण देगा तो मैं मानुँगी, मौखिक नहीं। महर्षि सर्वानन्द जी दोबारा गए तथा कहा कि कबीर साहेब मेरे लिखने में कुछ त्राुटि रह गई है, दोबारा लिखना पड़ेगा। साहेब कबीर जी ने कहा कि फिर लिख लो। सर्वानन्द जी ने फिर लिख कर अंगूठा लगवा कर माता जी के पास आया तो फिर विपरीत ही पाया। कहा माता जी फिर जाता हूँ। तीसरी बार लिखकर लाया तथा मकान में प्रवेश करने से पहले पढ़ा ठीक लिखा था। सर्वानन्द जी ने उस लेख से दृष्टि नहीं हटाई तथा चलकर अपने मकान में प्रवेश करता हुआ कहने लगा कि माता जी सुनाऊँ, यह कह कर पढ़ने लगा तो उसकी आँखों के सामने अक्षर बदल गए। तीसरी बार फिर यही प्रमाण लिखा गया कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द पराजीत हुए तथा कबीर साहेब विजयी हुए। सर्वानन्द बोल नहीं पाया। तब माता जी ने कहा पुत्रा बोलता क्यों नहीं? पढ़कर सुना क्या लिखा है। माता जानती थी कि नादान पुत्रा पहाड़ से टकराने जा रहा है।
माता जी ने सर्वानन्द जी से कहा कि पुत्र परमेश्वर आए हैं, जाकर चरणों में गिर कर अपनी गलती की क्षमा याचना कर ले तथा उपदेश ले कर अपना जीवन सफल कर ले। सर्वानन्द जी अपनी माता जी के चरणों में गिर कर रोने लगा तथा कहा माता जी यह तो स्वयं प्रभु आए हैं। आप मेरे साथ चलो, मुझे शर्म लगती है। सर्वानन्द जी की माता अपने पुत्रा को साथ लेकर प्रभु कबीर के पास गई तथा सर्वानन्द जी को भी कबीर परमेश्वर से उपदेश दिलाया। तब उस महर्षि कहलाने वाले नादान प्राणी का पूर्ण परमात्मा के चरणों में आने से ही उद्धार हुआ। पूर्ण ब्रह्म कबीर परमेश्वर (कविर्देव)ने कहा सर्वानन्द आपने अक्षर ज्ञान के आधार पर भी शास्त्रों को नहीं समझा। क्योंकि मेरी शरण में आए बिना ब्रह्म (काल)किसी की बुद्धि को पूर्ण विकसित नहीं होने देता। अब फिर पढ़ो इन्हीं पवित्रा वेदों व पवित्रा गीता जी तथा पवित्रा पुराणों को। अब आप ब्राह्मण हो गए हो। ‘‘ब्राह्मण सोई ब्रह्म पहचाने‘‘ विद्वान वही है जो पूर्ण परमात्मा को पहचान ले। फिर अपना कल्याण करवाए।
विशेष:- आज से 550 वर्ष पूर्व यही पवित्रा वेदों, पवित्रा गीता जी व पवित्र पुराणों में लिखा ज्ञान कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी ने अपनी साधारण वाणी में भी दिया था। जो उस समय से तथा आज तक के महर्षियों ने व्याकरण त्राुटि युक्त भाषा कह कर पढ़ना भी आवश्यक नहीं समझा तथा कहा कि कबीर तो अज्ञानी है, इसे अक्षर ज्ञान तो है ही नहीं। यह क्या जाने संस्कृत भाषा में लिखे शास्त्रों में छूपे गूढ़ रहस्य को। हम विद्वान हैं जो हम कहते हैं वह सब शास्त्रों में लिखा है तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी के कोई माता-पिता नहीं हैं। ये तो अजन्मा-अजर-अमर-अविनाशी तथा सर्वेश्वर, महेश्वर, मृत्यु×जय हैं। सर्व स ृष्टी रचन हार हैं, तीनों गुण युक्त हैं।
आदि आदि व्याख्या ठोक कर अभी तक कहते रहे। आज वे ही पवित्रा शास्त्रा अपने पास हैं। जिनमें तीनों प्रभुओं (श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण, श्री शिव जी तमगुण) के माता-पिता का स्पष्ट विवरण है। उस समय अपने पूर्वज अशिक्षित थे तथा शिक्षित वर्ग को शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान नहीं था। फिर भी कबीर परमेश्वर (कविर्देव) के द्वारा बताए सत्यज्ञान को जान बूझ कर झुठला दिया कि कबीर झूठ कह रहा है किसी शास्त्रा में नहीं लिखा है कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी के कोई माता-पिता हैं। जब कि पवित्र पुराण साक्षी हैं कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी का जन्म-मृत्यु होता है। ये अविनाशी नहीं हैं तथा इन तीनों देवताओं की माता प्रकृति (दुर्गा) है तथा पिता ज्योति निरंजन काल रूपी ब्रह्म है।
आज सर्व मानव समाज बहन-भाई, बालक व जवान तथा बुजुर्ग, बेटे तथा बेटी शिक्षित हैं। आज कोई यह नहीं बहका सकता कि शास्त्रों में ऐसा नहीं लिखा जैसा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) साहेब जी की अमृत वाणी में लिखा है।
अमृतवाणी पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की:-
धर्मदास यह जग बौराना। कोइ न जाने पद निरवाना।।
अब मैं तुमसे कहों चिताई। त्रियदेवन की उत्पति भाई।।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई। मूर्ख सुने सो गम्य ना पाई।।
माँ अष्टंगी पिता निरंजन। वे जम दारुण वंशन अंजन।।
पहिले कीन्ह निरंजन राई। पीछेसे माया उपजाई।।
धर्मराय किन्हाँ भोग विलासा। मायाको रही तब आसा।।
तीन पुत्र अष्टंगी जाये। ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।।
तीन देव विस्त्तार चलाये। इनमें यह जग धोखा खाये।।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा। सुन्न निरंजन बासा लीन्हा।।
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना।।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा। तीन लोक जिव कीन्ह अहारा।।
ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये। सकल खाय पुन धूर उड़ाये।।
तिनके सुत हैं तीनों देवा। आंधर जीव करत हैं सेवा।।
तीनों देव और औतारा। ताको भजे सकल संसारा।।
तीनों गुणका यह विस्त्तारा। धर्मदास मैं कहों पुकारा।।
गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार।
कहै कबीर निज नाम बिन, कैसे उतरें पार।।
उपरोक्त अमृतवाणी में परमेश्वर कबीर साहेब जी अपने निजी सेवक श्री धर्मदास साहेब जी को कह रहे हैं कि धर्मदास यह सर्व संसार तत्वज्ञान के अभाव से विचलित है। किसी को पूर्ण मोक्ष मार्ग तथा पूर्ण सृष्टी रचना का ज्ञान नहीं है। इसलिए मैं आपको मेरे द्वारा रची सृष्टी की कथा सुनाता हूँ। बुद्धिमान व्यक्ति तो तुरंत समझ जायेंगे। परन्तु जो सर्व प्रमाणों को देखकर भी नहीं मानंेगे तो वे नादान प्राणी काल प्रभाव से प्रभावित हैं, वे भक्ति योग्य नहीं। अब मैं बताता हूँ तीनों भगवानों (ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी) की उत्पत्ति कैसे हुई? इनकी माता जी तो अष्टंगी (दुर्गा) है तथा पिता ज्योति निरंजन (ब्रह्म, काल)है। पहले ब्रह्म की उत्पत्ति अण्डे से हुई। फिर दुर्गा की उत्पत्ति हुई।
दुर्गा के रूप पर आसक्त होकर काल (ब्रह्म) ने गलती (छेड़-छाड़) की, तब दुर्गा (प्रकृति) ने इसके पेट में शरण ली। मैं वहाँ गया जहाँ ज्योति निरंजन काल था। तब भवानी को ब्रह्म के उदर से निकाल कर इक्कीस ब्रह्मण्ड समेत 16 संख कोस की दूरी पर भेज दिया। ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी (दुर्गा)के साथ भोग-विलास किया। इन दोनों के संयोग से तीनों गुणों (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) की उत्पत्ति हुई। इन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की ही साधना करके सर्व प्राणी काल जाल में फंसे हैं। जब तक वास्तविक मंत्र नहीं मिलेगा, पूर्ण मोक्ष कैसे होगा?
साहेब कबीर व गोरख नाथ की गोष्ठी
एक समय गोरख नाथ (सिद्ध महात्मा) काशी (बनारस) में स्वामी रामानन्द जी (जो साहेब कबीर के गुरु जी थे) से शास्त्रार्थ करने के लिए (ज्ञान गोष्टी के लिए) आए। जब ज्ञान गोष्टी के लिए एकत्रित हुए तब कबीर साहेब भी अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी रामानन्द जी के साथ पहुँचे थे। एक उच्च आसन पर रामानन्द जी बैठे उनके चरणों में बालक रूप में कबीर साहेब (पूर्ण परमात्मा) बैठे थे। गोरख नाथ जी भी एक उच्च आसन पर बैठे थे तथा अपना त्रिशूल अपने आसन के पास ही जमीन में गाड़ रखा था। गोरख नाथ जी ने कहा कि रामानन्द मेरे से चर्चा करो। उसी समय बालक रूप (पूर्ण ब्रह्म) कबीर जी ने कहा - नाथ जी पहले मेरे से चर्चा करें। पीछे मेरे गुरुदेव जी से बात करना।
योगी गोरखनाथ प्रतापी, तासो तेज पृथ्वी कांपी।
काशी नगर में सो पग परहीं, रामानन्द से चर्चा करहीं।
चर्चा में गोरख जय पावै, कंठी तोरै तिलक छुड़ावै।
सत्य कबीर शिष्य जो भयऊ, यह वृतांत सो सुनि लयऊ।
गोरखनाथ के डर के मारे, वैरागी नहीं भेष सवारे।
तब कबीर आज्ञा अनुसारा, वैष्णव सकल स्वरूप संवारा।
सो सुधि गोरखनाथ जो पायौ, काशी नगर शीघ्र चल आयौ।
रामानन्द को खबर पठाई, चर्चा करो मेरे संग आई।
रामानन्द की पहली पौरी, सत्य कबीर बैठे तीस ठौरी।
कह कबीर सुन गोरखनाथा, चर्चा करो हमारे साथा।
प्रथम चर्चा करो संग मेरे, पीछे मेरे गुरु को टेरे।
बालक रूप कबीर निहारी, तब गोरख ताहि वचन उचारी।
इस पर गोरख नाथ जी ने कहा तू बालक कबीर जी कब से योगी बन गया। कल जन्मा अर्थात् छोटी आयु का बच्चा और चर्चा मेरे (गोरख नाथ के) साथ। तेरी क्या आयु है? और कब वैरागी (संत) बन गए?
कबके भए वैरागी कबीर जी, कबसे भए वैरागी।
नाथ जी जब से भए वैरागी मेरी, आदि अंत सुधि लागी।।
धूंधूकार आदि को मेला, नहीं गुरु नहीं था चेला।
जब का तो हम योग उपासा, तब का फिरूं अकेला।।
धरती नहीं जद की टोपी दीना, ब्रह्मा नहीं जद का टीका।
शिव शंकर से योगी, न थे जदका झोली शिका।।
द्वापर को हम करी फावड़ी, त्रोता को हम दंडा।
सतयुग मेरी फिरी दुहाई, कलियुग फिरौ नो खण्डा।।
गुरु के वचन साधु की संगत, अजर अमर घर पाया।
कहैं कबीर सुनांे हो गोरख, मैं सब को तत्व लखाया।।
साहेब कबीर जी ने गोरख नाथ जी को बताया हैं कि मैं कब से वैरागी बना। साहेब कबीर ने उस समय वैष्णों संतों जैसा वेष बना रखा था। जैसा श्री रामानन्द जी ने बाणा (वेष) बना रखा था। मस्तिक में चन्दन का टीका, टोपी व झोली सिक्का एक फावड़ी (जो भजन करने के लिए लकड़ी की अंग्रेजी के अक्षर ‘‘T‘‘ के आकार की होती है) तथा एक डण्डा (लकड़ी का लट्ठा) साथ लिए हुए थे। ऊपर के शब्द में कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जब कोई सृष्टि (काल सृष्टि) नहीं थी तथा न सतलोक सृष्टि थी तब मैं (कबीर) अनामी लोक में था और कोई नहीं था। चूंकि साहेब कबीर ने ही सतलोक सृष्टि शब्द से रची तथा फिर काल (ज्योति निरंजन-ब्रह्म) की सृष्टि भी सतपुरुष ने रची। जब मैं अकेला रहता था जब धरती (पृथ्वी) भी नहीं थी तब से मेरी टोपी जानो। ब्रह्मा जो गोरखनाथ तथा उनके गुरु मच्छन्दर नाथ आदि सर्व प्राणियों के शरीर बनाने वाला पैदा भी नहीं हुआ था। तब से मैंने टीका लगा रखा है अर्थात् मैं (कबीर) तब से सतपुरुष आकार रूप मैं ही हूँ।
सतयुग-त्रोतायुग-द्वापर तथा कलियुग ये चार युग तो मेरे सामने असंख्यों जा लिए। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हमने सतगुरु वचन में रह कर अजर-अमर घर (सतलोक) पाया। इसलिए सर्व प्राणियों को तत्व (वास्तविक ज्ञान) बताया है कि पूर्ण गुरु से उपदेश ले कर आजीवन गुरु वचन में चलते हुए पूर्ण परमात्मा का ध्यान सुमरण करके उसी अजर-अमर सतलोक में जा कर जन्म-मरण रूपी अति दुःखमयी संकट से बच सकते हो।
इस बात को सुन कर गोरखनाथ जी ने पूछा हैं कि आपकी आयु तो बहुत छोटी है अर्थात् आप लगते तो हो बालक से।
जो बूझे सोई बावरा, क्या है उम्र हमारी।
असंख युग प्रलय गई, तब का ब्रह्मचारी।।टेक।।
कोटि निरंजन हो गए, परलोक सिधारी।
हम तो सदा महबूब हैं, स्वयं ब्रह्मचारी।।
अरबों तो ब्रह्मा गए, उनन्चास कोटि कन्हैया।
सात कोटि शम्भू गए, मोर एक नहीं पलैया।।
कोटिन नारद हो गए, मुहम्मद से चारी।
देवतन की गिनती नहीं है, क्या सृष्टि विचारी।।
नहीं बुढ़ा नहीं बालक, नाहीं कोई भाट भिखारी।
कहैं कबीर सुन हो गोरख, यह है उम्र हमारी।।
श्री गोरखनाथ सिद्ध को सतगुरु कबीर साहेब अपनी आयु का विवरण देते हैं। असंख युग प्रलय में गए। तब का मैं वर्तमान हूँ अर्थात् अमर हूँ। करोड़ों ब्रह्म (क्षर पुरूष अर्थात् काल) भगवान मृत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म प्राप्त कर चुके हैं।
एक ब्रह्मा की आयु 100 (सौ) वर्ष की है
ब्रह्मा का एक दिन = 1000 (एक हजार) चतुर्युग तथा इतनी ही रात्राी।
दिन-रात = 2000 (दो हजार) चतुर्युग।
{नोट - ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 इन्द्रों का शासन काल समाप्त हो जाता है। एक इन्द्र का शासन काल बहतर चतुर्युग का होता है। इसलिए वास्तव में ब्रह्मा जी का एक दिन (72 गुणा 14
1008 चतुर्युग का होता है तथा इतनी ही रात्राी, परन्तु इस को एक हजार चतुर्युग ही मान कर चलते हैं।}
महीना = 30 गुणा 2000 = 60000 (साठ हजार) चतुर्युग।
वर्ष = 12 गुणा 60000 = 720000 (सात लाख बीस हजार) चतुर्युग की।
720000 गुणा 100 = 72000000 (सात करोड़ बीस लाख) चतुर्युग की।
ब्रह्मा से सात गुणा विष्णु जी की आयु -
72000000 गुणा 7 = 504000000 (पचास करोड़ चालीस लाख) चतुर्युग की विष्णु की आयु
है।
विष्णु से सात गुणा शिव जी की आयु -
504000000 गुणा 7 = 3528000000 (तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख) चतुर्युग की शिव
की आयु हुई।
ऐसी आयु वाले सत्तर हजार शिव भी मर जाते हैं तब एक ज्योति निरंजन (ब्रह्म) मरता है। पूर्ण परमात्मा के द्वारा पूर्व निर्धारित किए समय पर एक ब्रह्मण्ड में महाप्रलय होती है। यह (सत्तर हजार शिव की मृत्यु अर्थात् एक सदाशिव/ज्योति निरंजन की मृत्यु होती है) एक युग होता है परब्रह्म का। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्राी होती है तीस दिन-रात का एक महिना तथा बारह महिनों का परब्रह्म का एक वर्ष हुआ तथा सौ वर्ष की परब्रह्म की आयु है। परब्रह्म की भी मृत्यु होती है। ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन की मृत्यु परब्रह्म के एक दिन के पश्चात् होती है परब्रह्म के सौ वर्ष पूरे होने के पश्चात् एक शंख बजता है सर्व ब्रह्मण्ड नष्ट हो जाते हैं।
केवल सतलोक व ऊपर तीनों लोक ही शेष रहते हैं। इस प्रकार कबीर परमात्मा ने कहा है कि करोड़ों ज्योति निरंजन मर लिए मेरी एक पल भी आयु कम नहीं हुई है अर्थात् मैं वास्तव में अमर पुरुष हूं। अन्य भगवान जिसका तुम आश्रय ले कर भक्ति कर रहे हो वे नाशवान हैं। फिर आप अमर कैसे हो सकते हो? अरबों तो ब्रह्मा गए, 49 कोटि कन्हैया। सात कोटि शंभु गए, मोर एक नहीं पलैया।
यहां देखें अमर पुरुष कौन है? 343 करोड़ त्रिलोकिय ब्रह्मा मर जाते हैं, 49 करोड़ त्रिलोकिय विष्णु तथा 7 करोड़ त्रिलोकिय शिव मर जाते हैं तब एक ज्योति निरंजन (काल-ब्रह्म) मरता है। जिसे गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16 में क्षर -पुरूष (नाशवान) भगवान कहा है इसे ब्रह्म भी कहते हैं तथा इसी श्लोक में जिसे अक्षर पुरूष (अविनाशी) कहा है वह परब्रह्म है जिसे अक्षर पुरुष भी कहते हैं। अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म भी नष्ट होता है। यह काल भी करोड़ों समाप्त हो जाएंगे। तब सर्व अण्डों अर्थात् ब्रह्मण्डों का नाश होगा। केवल सतलोक व उससे ऊपर के लोक शेष रहेगें। अचिंत, सत्यपुरूष के आदेश से सृष्टि रचेगा। यही क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष की सृष्टि पुनः प्रारम्भ होगी।
जो गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 17 में कहा है कि वह उत्तम पुरुष (पूर्ण परमात्मा) तो कोई और ही है जिसे अविनाशी परमात्मा नाम से जाना जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सतपुरुष स्वयं कबीर साहेब है। केवल सतपुरुष अजर-अमर परमात्मा है तथा उसी का सतलोक (सतधाम) अमर है जिसे अमर लोक भी कहते हैं। वहाँ की भक्ति करके भक्त आत्मा पूर्ण मुक्त होती है। जिसका कभी मरण नहीं होता।
कबीर साहेब ने कहा कि यह उपलब्धि सत्यनाम के जाप से प्राप्त होती है जो उसके मर्म भेदी गुरु से मिले तथा उसके बाद सारनाम मिले तथा साधक आजीवन मर्यादा में रहकर तीनों मन्त्रों (ओम् तथा तत् जो सांकेतिक है तथा सत् भी सांकेतिक है) का जाप करे तब सतलोक में वास तथा सतपुरुष प्राप्ति होती है। करोंड़ों नारद तथा मुहम्मद जैसी पाक (पवित्र) आत्मा भी आकर (जन्म कर) जा (मर) चुके हैं, देवताओं की तो गिनती नहीं। मानव शरीर धारी प्राणियों तथा जीवों का तो हिसाब क्या लगाया जा सकता है? मैं (कबीर साहेब) न बूढ़ा न बालक, मैं तो जवान रूप में रहता हूँ जो ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। यह तो मैं लीलामई शरीर में आपके समक्ष हूँ। कहै कबीर सुनों जी गोरख, मेरी आयु (उम्र) यह है जो आपको ऊपर बताई है।
यह सुन कर श्री गोरखनाथ जी जमीन में गड़े लगभग 7 फूट ऊँचें त्रिशूल के ऊपर के भाग पर अपनी सिद्धि शक्ति से उड़ कर बैठ गए और कहा कि यदि आप इतने महान् हो तो मेरे बराबर में (जमीन से लगभग सात फूट) ऊँचा उठ कर बातें करो। यह सुन कर कबीर साहेब बोले नाथ जी! ज्ञान गोष्टी के लिए आए हैं न कि नाटक बाजी करने के लिए। आप नीचे आएं तथा सर्व भक्त समाज के सामने यथार्थ भक्ति संदेश दें।
श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपके पास कोई शक्ति नहीं है। आप तथा आपके गुरुजी दुनियाँ को गुमराह कर रहे हो। आज तुम्हारी पोल खुलेगी। ऐसे हो तो आओ बराबर। तब कबीर साहेब के बार-2 प्रार्थना करने पर भी नाथ जी बाज नहीं आए तो साहेब कबीर ने अपनी पराशक्ति (पूर्ण सिद्धि) का प्रदर्शन किया। साहेब कबीर की जेब में एक कच्चे धागे की रील (कुकड़ी) थी जिसमें लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट लम्बा धागा लिप्टा (सिम्टा) हुआ था, को निकाला और धागे का एक सिरा (आखिरी छौर) पकड़ा और आकाश में फैंक दिया। वह सारा धागा उस बंडल (कुकड़ी) से उधड़ कर सीधा खड़ा हो गया। साहेब कबीर जमीन से आकाश में उड़े तथा लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट सीधे खड़े धागे के ऊपर वाले सिरे पर बैठ कर कहा कि आओ नाथ जी! बराबर में बैठकर चर्चा करें। गोरखनाथ जी ने ऊपर उड़ने की कोशिश की लेकिन उल्टा जमीन पर
टिक गए।
पूर्ण परमात्मा (पूर्णब्रह्म) के सामने सिद्धियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। जब गोरख नाथ जी की कोई कोशिश सफल नहीं हुई, तब जान गए कि यह कोई मामूली भक्त या संत नहीं है। जरूर कोई अवतार (ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से) है। तब साहेब कबीर से कहा कि हे परम पुरुष! कृप्या नीचे आएँ और अपने दास पर दया करके अपना परिचय दें। आप कौन शक्ति हो? किस लोक से आना हुआ है? तब कबीर साहेब नीचे आए और कहा कि -
(कबीर सागर - अगम निगम बोध - पृष्ठ 41)
अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा को सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी।।
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप (सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा।
ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।
साहेब कबीर ने कहा कि हे अवधूत गोरखनाथ जी मैं तो अविगत स्थान (जिसकी गति/भेद कोई नहीं जानता उस सतलोक) से आया हूँ। मैं तो स्वयं शक्ति से बालक रूप बना कर काशी (बनारस) मंे एक लहर तारा तालाब में कमल के फूल पर प्रकट हुआ हूँ। वहाँ पर नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पति को मिला जो मुझे अपने घर ले आया। मेरे कोई मात-पिता नहीं हैं। न ही कोई घर दासी (पत्नी) है और जो उस परमात्मा का वास्तविक नाम है, वही कबीर नाम मेरा है। आपका ज्योति स्वरूप जिसे आप अलख निरंजन (निराकार भगवान) कहते हो वह ब्रह्म भी मेरा ही जाप करता है। मैं सतनाम का जाप करने वाले साधक को प्राप्त होता हूँ अर्थात् वहीं मेरे विषय में सही जानता है।
हाड-चाम तथा लहु रक्त से बना मेरा शरीर नहीं है। कबीर साहेब सतनाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि मेरे मूल स्थान (सतलोक) में सतनाम के आधार से जाया जाता है। अन्य साधकों को संकेत करते हुए प्रभु कबीर (कविर्देव) जी कह रहे हैं कि मैं उसी का जाप करता रहता हूँ। इसी मन्त्रा (सतनाम) से सतलोक जाने योग्य होकर फिर सारनाम प्राप्ति करके जन्म-मरण से पूर्ण छुटकारा मिलता है। यह तारन तरन पद (पूजा विधि) मैंने (कबीर साहेब अविनाशी भगवान ने) आपको बताई है। इसे कोई नहीं जानता। गोरख नाथ जी को बताया कि हे पुण्य आत्मा! आप काल क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) के जाल में ही हो। न जाने कितनी बार आपके जन्म हो चुके हैं। कभी चैरासी लाख जूनियों में कष्ट पाया। आपकी चारांे युगों की भक्ति को काल अब (कलियुग में) नष्ट कर देता यदि आप मेरी शरण मंे नहीं आते।
यह काल इक्कीस ब्रह्मण्डों का मालिक है। इसको शाप लगा है कि एक लाख मानव शरीर धारी (देव व ऋषि भी) जीव प्रतिदिन खायेगा तथा सवा लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को नित्य उत्पन्न करेगा। इस प्रकार प्रतिदिन पच्चीस हजार बढ़ रहे हैं। उनको ठिकाने लगाए रखने के लिए तथा कर्म भुगताने के लिए अपना कानून बना कर चैरासी लाख योनियाँ बना रखी हैं। इन्हीं 25 हजार अधिक उत्पन्न जीवों के अन्य प्राणियों के शरीर में प्रवेश करता है। जैसे खून में जीवाणु, वायु में जीवाणु आदि-2। इसकी पत्नी आदि माया (प्रकृति देवी) है। इसी से काल (ब्रह्म/अलख निरंजन) ने (पत्नी-पति के संयोग से) तीन पुत्रा ब्रह्मा-विष्णु-शिव उत्पन्न किए। इन तीनों को अपने सहयोगी बना कर ब्रह्मा को शरीर बनाने का, विष्णु को पालन-पोषण का और शिव को संहार करने का कार्य दे रखा है।
इनसे प्रथम तप करवाता है फिर सिद्धियाँ भर देता है जिसके आधार पर इनसे अपना उल्लु सीधा करता है और अंत में इन्हें (जब ये शक्ति रहित हो जाते हैं) भी मार कर तप्त शिला पर भून कर खाता है तथा अन्य पुत्रा पूर्व ही उत्पन्न करके अचेत रखता है उनको सचेत करके अपना उत्पति, स्थिति तथा संहार का कार्य करता है। ऐसे अपने काल लोक को चला रहा है। इन सब से ऊपर पूर्ण परमात्मा है। उसका ही अवतार मुझ (कबीर परमेश्वर) को जान।
गोरख नाथ के मन में विश्वास हो गया कि कोई शक्ति है जो कुल का मालिक है। गोरख नाथ ने कहा कि मेरी एक शक्ति और देखो। यह कह कर गंगा की ओर चल पड़ा। सर्व दर्शकों की भीड़ भी साथ ही चली। लगभग 500 फुट पर गंगा नदी थी। उसमंे जा कर छलांग लगाते हुए कहा कि मुझे ढूंढ दो। फिर मैं (गोरखनाथ) आप का शिष्य बन जाऊँगा। गोरखनाथ मछली बन गए। साहेब कबीर ने उसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर सबके सामने गोरखनाथ बना दिया। तब गोरखनाथ जी ने परमेश्वर कबीर जी को पूर्ण परमात्मा स्वीकार किया और शिष्य बने। परमेश्वर कबीर जी से सतनाम ले कर भक्ति की तथा सिद्धियाँ प्राप्त करने वाली साधना त्याग दी।
गीता जी के अध्याय 14 के श्लोक 26,27 का भाव है कि साधक अव्याभिचारिणी भक्ति अर्थात् पूर्ण आश्रित मुझ (काल-ब्रह्म) पर हो कर (अन्य देवी-देवताओं तथा माता, रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव आदि की पूजा त्याग कर) केवल मेरी भक्ति करता है तथा एक मेरे मन्त्रा ऊँ का जाप करता है वह उपासक उस परमात्मा को पाने योग्य हो जाता है और आगे की साधना करके उस परमानन्द के परम सुख को भी मेरे माध्यम से प्राप्त करता है।
जैसे कोई विधार्थी मैट्रिक, बी.ए., एम.ए. करके किसी कोर्स में प्रवेश ले कर सर्विस प्राप्त करके रोजी प्राप्त करके सुखी होता है तो उसके लिए उसने मैट्रिक की शिक्षा प्राप्त की जिसके बाद कोर्स (ट्रेनिंग) में प्रवेश किया। उसको मैट्रिक की शिक्षा प्रतिष्ठा (अवस्था) अर्थात् सहयोगी हुआ।
सर्विस प्रदान कत्र्ता नहीं हुआ। ठीक इसी प्रकार काल भगवान (ब्रह्म) कह रहा है कि उस अविनाशी परमात्मा के अमरत्व का और नित्य रहने वाले स्वभाव का तथा धर्म का और अखण्ड स्थाई रहने के आनन्द का सहयोगी मैं (ब्रह्म) हूँ। इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय 18 के श्लोक 66 में कहा है कि सर्व मेरे सत्रा की साधनाओं (ओंम् एक अक्षर के जाप तथा पांचों यज्ञों की कमाई) को मुझमें त्याग कर एक (पूर्णब्रह्म) की शरण में जा तब तेरे सर्व पाप क्षमा करवा दूंगा। जिन भक्त आत्माओं ने काल (ब्रह्म) के ऊँ मन्त्रा का जाप अनन्य मन से किया। उनको कबीर भगवान ने आगे की उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति प्रदान करके काल लोक से पार किया। जैसे नामदेव नामक परम भक्त केवल एक नाम ऊँ का जाप करते थे। उससे उनको बहुत सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थी फिर भी मुक्ति नहीं थी। फिर कबीर साहेब श्री नामदेव जी को मिले तथा सतलोक व सतपुरुष का ज्ञान कराया। सोहं मन्त्र दिया जो परब्रह्म का जाप है। फिर सार शब्द दिया जो पूर्णब्रह्म का जाप है। जब नामदेव जी मुक्त हुए।
ऐसे ही गोरखनाथ जी ने भी एक मन्त्र अलख निरंजन का जाप तथा चांचरी मुद्रा की साधना की। तब साहेब कबीर ने उन्हें ऊँ तथा सोहं मन्त्र दिया तथा काल जाल से बाहर किया।
शेख फरीद (बाबा फरीद) की कथा
एक शेख फरीद नाम के मुसलमान संत थे, भक्त थे। वो बचपन में काफी शरारती था। और उसकी माता जी प्रतिदिन नमाज़ करने को कहती थी, वो नहीं करता था, मानता नहीं था। वो कहता था कि मुझे अल्लाह से क्या मिलेगा? मैं क्यों करूँ नमाज़? एक दिन माँ ने कहा कि अल्लाह तुझे खजूर देगा। अब शेख फरीद जी को खजूर बहुत प्रिय थे। वो उसका मनपसंद फल था। वह कहने लगा - सचमुच। माँ ने कहा - हाँ। शेख फरीद ने कहा कि देख लो, अगर अल्लाह ने खजूर नहीं दिए तो मैं कभी नमाज़ नहीं करूँगा। माता ने कहा -अवश्य देगा बेटा। वो यह चाहती थी कि ये किसी तरह शरारत से पीछा छोड़ दे, नमाज़ तो इसे क्या करनी आएगी। और मैं अपने काम कर लिया करुँगी। बहुत उलाहने आते हैं।
माता ने क्या किया कि एक चद्दर बिछाई, और कहा कि बेटा, जब तक मैं न कहूँ तब तक आँख नहीं खोलनी। और ऐसे विधि बता दी कि ऐसे लेट कर मत्था टेकना है। शेख फरीद ने कहा कि क्या कहूँ माँ ? माता ने कहा कि ये कहता रहियो कि - अल्लाह मुझे खजूर दे, अल्लाह मुझे खजूर दे। शेख फरीद यही करता रहा - अल्लाह मुझे खजूर दे। माँ अपने काम में लग गयी। उसकी माँ ने क्या किया कि थोड़े से खजूर ला कर, 4-5 खजूर एक पत्ते में लपेट कर जहाँ वो चद्दर बिछा राखी थी, उसके नीचे रख दिए।
जब माँ का काम हो लिया तो उसने कहा कि बेटा अब उठ ले। माँ ने सोचा की अब यह कोई शरारत करेगा तो मैं इसे पकड़ लाऊंगी, बिठा लुंगी। शेख फरीद उठा, उसने देखा कि कहीं खजूर तो है ही नहीं। तो वो चल पड़ा और कहने लगा कि माँ तू तो बहुत झूठी है। आप कह रहे थे कि अल्लाह तुझे खजूर देगा। पर अल्लाह ने तो खजूर नहीं दिए। अब आज के बाद मैं कभी नहीं करूँगा नमाज़। माँ बोली बेटा, अल्लाह ऐसे सबके समक्ष थोड़े ही न दिया करता है। वो तो गुप्त रूप से दिया करता है। जिस कपडे के नीचे तू नमाज़ कर रहा था, देख उसको उठा कर। उसने उठा कर देखा कि एक पत्ते के अंदर 4-5 खजूर थे। वो उन्हें खाए और कूदे। जब शेख फरीद ने खजूर खा लिए तो थोड़ी देर बाद बोला कि माँ अब बता नमाज़ कब करनी है।
नमाज़ पांच समय करनी होती है। तो माँ क्या करती थी कि जब वो व्यस्त हो जाता था आँखे बंद करके कहने में कि अल्लाह मुझे खजूर दे, तो माँ चुपके से वो खजूर रख आती थी। एक दिन वो काम में लग गयी और खजूर रखना भूल गयी। तो
शेख फरीद (Sheikh Farid) उठा, उसने चद्दर उठा कर देखी, वहां उसी प्रकार खजूर पड़े थे। वो खजूर खता हुआ आ रहा था। अब उसकी माँ को याद आया कि आज मैं खजूर रखना भूल गयी, और यह आ गया। और यह निकम्मा कभी नमाज़ नहीं करेगा। हे भगवान, यह आज क्या बनी, मैं कैसे भूल गयी। शेख फरीद खजूर खता हुआ आ रहा था। उसकी माँ ने कहा कि बेटा, यह खजूर कहाँ से लाया तू? शेख फरीद बोला - अरे माँ, अल्लाह रोज़ ही तो देता है! माँ ने सोचा यह निकम्मा आप लाया है कहीं से। उसने कहा कि सच बता तू कहाँ से लाया है? शेख फरीद ने कहा कि माँ देख यहीं तो पड़े थे, मैं कहीं बाहर तो गया ही नहीं। अब उसकी माँ के पसीने आ गए कि सचमुच ये तो परमात्मा ने बहुत ही सुन्दर और स्वादिष्ट खजूर भेज दिए। अब यह लक्षण हैं क्योंकि वो पिछले जन्म का संस्कारी हंस था। और ऐसे हंस के लिए पूर्ण ब्रह्म परमात्मा साथ-साथ फिरते हैं। कहते हैं :-जो जन हमरी शरण है, ताका हूँ मैं दास।
गेल-गेल लाग्या रहूँ, जब तक धरती आकाश।।
उसी बालक शेख फरीद ने बड़ा हो कर के घर त्याग दिया। क्योंकि जिनको भगवान की चाह है वो तड़फ जाते हैं जब तक उनको यथार्थ भक्ति मार्ग नहीं मिलता। तो उसने जा कर के एक सूफी संत यानी तपस्वी संत को गुरु बना लिया। अब उस तपस्वी को जैसा ज्ञान था उसने उसको कहा कि बेटा, तप से अल्लाह का दीदार होगा, परमात्मा के दर्शन होंगे। और जितना घोर तप आप कर सकते हो करो। उसने विधि बता दी। शेख फरीद वैसा करने लगा। आश्रम में जहाँ वो रहते थे, वहां पांच-सात और भी शिष्य थे उस गुरु के।
उन्होंने क्या कर रखा था कि प्रतिदिन एक शिष्य की सेवा बाँट रखी थी कि एक दिन एक ही व्यक्ति, एक ही सेवक खाना भी बनाएगा गुरु जी का, और वस्त्र भी धोएगा, और गुरु जी का हुक्का भी भरेगा। शेख फरीद का गुरु हुक्का पीया करता था। शेख फरीद के प्रति उस गुरुदेव का काफी रुझान था। वो शेख फरीद को अत्यधिक विश्वसनीय मानता था। और उसको सेवा में अधिक रखता था। तो अन्य शिष्य ईर्ष्या करने लग गए कि गुरु जी शेख फरीद से ज्यादा लगाव रखते हैं। और हमसे इतना प्रेम नहीं करते। ऐसा कोई तरीका ढूंढो कि ये गुरु जी की नज़रों में गिर जाय।
ये आग सब जगह लगी है। जहाँ परमात्मा का वास नहीं होता वहां यह बिमारी सब डेरों में घर कर जाती है। परन्तु जहाँ पूर्ण परमात्मा का वास होता है, पंजा होता है, वहां ऐसी घटनाएँ जल्दी से नहीं घटती। परमात्मा कोई न कोई कारण बनाकर उनको सीधा कर देता है। तो वहां क्या हुआ कि एक दिन शेख फरीद की सेवा का दिन आ गया। उसने शाम के समय खाना बनाया। और खाना बना कर जब खिलाने के लिए गया, उसके बाद हुक्का भरने के लिए अग्नि तैयार करनी होती है। वो तैयार करके गया। उन चेलों ने क्या सोचा कि यह जो हुक्का भरने के लिए अग्नि होती है, इस पर पानी डाल दो। ये बुझ जायेगी। और वो गुरु जी इतना क्रोधी था कि खाना खाते ही दस मिनट के अंदर उसको हुक्का चाहिए। अगर दस मिनट में हुक्का नहीं आता, तो डंडा उठा कर बिना गिनती के उस सेवक के मार दिया करता। इतना पीट देता था और उस सेवक को सेवा से वंचित कर देता था।
तो उन्होंने सही तरीका ढूँढा कि आज ये समय से हुक्का नहीं भर पायेगा और ये गुरु-चेले की यारी टूटेगी। अब शेख फरीद खाना खिलने गया। वो तो निश्चिन्त था की दो मिनट में हुक्का भर के दे दूंगा। अग्नि तैयार कर रखी है। उसने गुरु जी को खाना खिलाया और फिर बर्तन रख कर आया। तो धीरे-धीरे आ कर के ज्यों ही वो अग्नि के पास पहुंचा जहाँ चिलम रखी थी, तो उसने देखा कि आग तो बुझ गयी। उन दिनों वर्षा के दिन थे। उसने सोचा गीली लकड़ी थी बुझ गयी होगी। वहां से आधा किलोमीटर की दूरी पर गाँव था।
अब उसने आव देखा न ताव। हाथ में चिलम ले ली, तम्बाकू डाल लिया और दौड़ लिया। वहाँ देखा कि एक घर से धुँआ उठ रहा था। भाग कर उसमें घुस गया और बोला कि -माई, अग्नि दे दे। माई की बेटी, अग्नि दे दे। अब वो माई खुद दुखी हो रही थी। फूक मारे, आग बाले, आग बले नहीं, धुँआ उठे, आँखों में पानी आए। वो गुस्से में आकर बोली - क्यों सिर पर चढ़ता आवे है। आँख फूटे है आग में। तू आँख फुड़वा ले। तब आग मिलेगी। ऐसे थोड़े ही न मिलती है आग। शेख फरीद ने कहा कि माई, आँख फोड़ने से आग मिल जाएगी? माई ने कहा -हाँ, आँख फ़ुड़वा ले, तब मिलेगी आग। वो उसकी तरफ देख नहीं रही थी और फूँ-फूँ कर रही थी।
शेख फरीद ने क्या किया कि चिमटा दे कर आँख में और आँख निकाल दी। उसको ये था कि यदि आज गुरु जी रुष्ट हो गए, तो तेरी करी करायी कमाई जाएगी। उसने निकाल के आँख और कहा कि -ले माई, आँख ले ले, मुझे आग दे दे। अब माई ने देखा कि इसने तो सचमुच आँख निकाल दी। वो डर गयी कि सुना है जिसका ये शिष्य है वो साधू बहुत सिद्ध है और उसके वचन सिद्ध होते हैं। वो डर गई, और बोली - महाराज, ले लो आग।
अब शेख फरीद ने उस फूटी आँख के ऊपर कपड़ा बाँध लिया। और फटा-फट आग रख कर भाग लिया। अब गुरु जी ने पहली आवाज़ लगायी थी कि भाई शेख फरीद, हुक्का ला बेटा। वो भी उसने सुन ली दूर से। अगर दूसरे-तीसरे पर वो न पहुँचता तो, गुरु जी के हाथ में डंडा होता। वो भगा आ रहा था। आँख निकाल रखी थी। पीड़ा असहनीय हो रही थी। लेकिन वो भक्त चसक भी नहीं रहा था। और भाग लिया। जब दूसरी आवाज़ लगाई, तो भी दूर था। जब तीसरी आवाज़ लगाई के शेख फरीद कहाँ मर गया तू। तो शेख फरीद बोला -आ गया गुरु जी, आ गया गुरु जी, आ गया गुरु जी, आ गया। वो पहुँच गया।
गुरु जी बोले - क्या हो गया था बेटा? शेख फरीद बोला - गुरु जी वर्षा के दिन हैं, और आग बनी नहीं। यहाँ नगरी से जाकर लाया हूँ। गुरु जी बोले - अच्छा बेटा। तेरी आँख को क्या हो गया? शेख फरीद बोला - बस जी, आपकी दया है जी। कुछ नहीं हुआ जी। भागा जा रहा था और एक झाड़ी लग गयी और खरोंच सी आ गयी। इसलिए बाँध ली। गुरु जी बोले - अच्छा बेटा। कोई दवाई लगा ले। अब वो गुरु जी तो पी के हुक्का सो गया।
उस माई को नींद नहीं आई कि - हे भगवान, ये क्या हुआ। कैसा पाप हो गया मेरे से। उसने एक डब्बे में रख रखी थी वो आँख छुपा के। उसने सोचा कि अभी रात को तो जा नहीं सकती, सुबह जाऊंगी। सुबह वो उस आँख को ले कर गई और कहा कि महाराज जी, मुझे माफ़ कर दो, मेरे से गलती हो गयी। संत बोला - क्या हो गया बेटी? माई बोली - माफ़ कर दो महाराज, मेरे से बहुत बड़ी गलती हो गयी। ऐसे-ऐसे आपका भक्त अग्नि लेने गया था, और मैं धूंए में दुखी हो रही थी। मौसम गीला था। जिसकी वजह से लकड़ी भी ठीक से नहीं जल रही थी, और फूंक मार मारकर मेरी आँखें धुँयें से खराब हो रही थीं, और मैंने ऐसे-ऐसे कह दिया, और आपके शिष्य ने सच में आँख निकाल कर रख दी।
हे गुरु जी, मुझे माफ़ कर दो। मुझे पाप लग गया। मैंने तो वैसे ही कहा था। उस संत ने सोचा कि ये तो गजब हो गया। उसने बोला कि शेख फरीद कहाँ है? उसे बुलाओ। शेख फरीद आ गया। उसने देख लिया कि माई आ गयी, ये तो बात बिगाड़ दी। संत बोला - बेटा, क्या हो गया तेरी आँख को? शेख फरीद बोला - कुछ नहीं, गुरु जी। आप बैठे हो, दास को क्या हो सकता है। गुरु जी ने कहा - खोल इस कपड़े को। वो कपड़ा खोला तो आँख ज्यों की त्यों पाई। लेकिन थोड़ी छोटी हो गयी पहले वाली से। और वो माई अलग से एक आँख ले रही थी। तत्वज्ञान से ये बताना चाहते हैं की शेख फरीद के वो गुरुदेव इतने सिद्ध पुरुष थे कि उनकी शक्ति से वो आँख भी पूरी हो गयी फूटी हुई, पर मोक्ष फिर भी नहीं था।
कुछ दिनों के बाद उस संत का देहांत हो गया। शेख फरीद ने सोचा कि गुरु जी ने कहा है की तप करने से परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। अगर इस मानव जीवन से परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई, तो यह व्यर्थ है। ऐसा सोच कर जैसे उसके गुरुदेव ने बताया था वो वैसे साधना करता रहा। पहले बैठ कर किया, फिर खड़ा हो कर किया। उसने सोचा कि भाई ऐसे तो बात नहीं बनेगी। एक दिन उसने कुएँ में उल्टा लटक कर तप करने की सोची। वह एक वृक्ष की मोटी डार से अपने पैर बाँध कर कुँए के अंदर उल्टा लटक जाता और पानी के स्तर के ऊपर रह कर घंटों तप करता रहता। बीच बीच में थोड़ा सा अन्न खाता। बहुत कमज़ोर हो गया। कहते हैं कि 12 वर्ष में शेख फरीद ने सवा मण यानी 50 किलो अन्न खाया था। तो एक दिन में कितना खाया होगा, हिसाब लगा लो। उसके शरीर में केवल अस्थि पिंजर शेष था।
एक दिन वो कुँए से बाहर आकर लेटा हुआ था और बहुत घबराया हुआ था कि हे भगवान, यह शरीर भी जायेगा और दर्शन परमात्मा के हुए नहीं। वो ऐसे लेटा हुआ था और कौअे आ गए और उन्होंने सोचा कि ये आदमी मरा हुआ है। उसके शरीर पर और तो कहीं मांस था नहीं, क्योंकि वो बिलकुल सूख चूका था लकड़ी की तरह। कमज़ोर इतना हो गया था। कौओं ने सोचा कि इसकी आँख खा लो थोड़ी बहुत गीली होंगी। तो उसके माथे पर कौअे आ कर बैठ गए। जैसे ही कौअे आये तो शेख फरीद कहने लगा, भाई कौओं मेरी आँख न फोड़ो। मेरी आँख छोड़ दो। अगर मेरे शरीर पर कहीं माँस बचा हो तो उसको सारे को खा लो। मेरी आँख न खाओ।
हो सकता है मुझे अल्लाह के दर्शन हो जाएँ। जब वो इतना बोला तो कौअे उड़ गए कि ये आदमी तो जिन्दा है। अब उसने सोचा कि यहाँ तो ये कौअे तेरी आँख फोड़ेंगे और भगवान के दर्शन होंगे नहीं। ऐसा सोच कर वो वापिस कुएँ में लटक गया। ऐसे वो एक बार कुँए से बाहर आता था, थोड़ा सा भोजन करता था और फिर वापिस लटक जाता था। ऐसे वो एक दिन लटका हुआ था और फूट-फूट कर रोने लग गया कि हे परमात्मा, जीवन बर्बाद हो गया, आपके दर्शन हुए नहीं। अब यह पुण्य आत्मा पहले कभी परमेश्वर की शरण में रही थी। जब परमात्मा ने देखा कि यह हृदय से रो रहा है, फूट-फूट कर रो रहा है कि जीवन नाश हो गया। तो परमात्मा कबीर भगवान, अल्लाहु अकबर, सतलोक से आये और शेख फरीद को कुँए से बाहर निकल लिया। जब शेख फरीद बाहर आया तो बोला -भाई, क्यों मुझे परेशान कर रहे हो। मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। मैं अपना काम कर रहा हूँ, तुम अपना करो।
कबीर साहिब ने कहा कि तुम कुँए में क्या कर रहे हो। शेख फरीद ने कहा कि मैं अल्लाह के दीदार कर प्रयत्न कर रहा हूँ। कबीर साहिब बोले - मैं अल्लाह हूँ। यह सुनकर शेख फरीद बोला - क्यों मेरे से मज़ाक़ कर रहे हो। अल्लाह ऐसा थोड़े ही न होता है। कबीर साहिब ने कहा कि कैसा होता है अल्लाह। शेख फरीद ने कहा कि अल्लाह तो बेचून है, निराकार है। कबीर साहिब बोले - सोच तू क्या बोल रहा है, और क्या कर रहा है। एक तरफ तो तुम कह रहे हो कि अल्लाह बेचून है, निराकार है। और दूसरी तरफ अल्लाह के दीदार (दर्शन) के लिए तप कर रहे हो। अल्लाह से साक्षात्कार करने के लिए इतना कठिन परिश्रम कर रहे हो और दूसरी तरफ कह रहे हो की अल्लाह निराकार है। यह सुनते ही शेख फरीद जान गया कि यह पुण्य आत्मा अल्लाह का जानकार है।
शेख फरीद कबीर साहिब के चरणो में गिर गया और कहने लगा कि मुझे सत मार्ग बताईये, मैं बहुत दुखी हूँ। कबीर साहिब ने कहा कि तप से परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। तप करने से इंसान राजा बनता है और राज भोगने के बाद फिर नरक और चौरासी लाख योनियों में दुःख उठाता है। तुम्हारे गुरुदेव ने तुम्हे गलत मार्ग दर्शन किया। वे अज्ञानी थे और तुम्हारा जीवन बर्बाद कर दिया।
कबीर, ज्ञान हीन जो गुरु कहावे, आपन डूबे औरों डुबावे।
तब शेख फरीद ने साकार परमात्मा, कबीर साहिब जी, से नाम उपदेश लिया और सतनाम का जाप किया अर्थात असली मंत्र का जाप किया। उसके बाद सतगुरु कबीर साहिब ने उसे सारशब्द दिया। जिसको प्राप्त करके शेख फरीद ने अपना जीवन सफल किया, सतलोक चला गया और पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया।
परमेश्वर कबीर जी द्वारा काशी शहर में भोजन-भण्डारा यानि लंगर (धर्म यज्ञ) की व्यवस्था करना
शेखतकी सब मुसलमानों का मुखिया अर्थात् मुख्य पीर था जो पहले से ही परमेश्वर कबीर जी से खार खाए था अर्थात् पहले से ही ईष्र्या करता था। सर्व ब्राह्मणों तथा मुल्ला-काजियों व शेखतकी ने मजलिस (मीटिंग) करके षड़यंत्रा के तहत योजना बनाई कि कबीर निर्धन व्यक्ति है। इसके नाम से पत्रा भेज दो कि कबीर जी काशी में बहुत बड़े सेठ हैं। उनका पूरा पता है कबीर पुत्रा नूरअली अंसारी, जुलाहों वाली काॅलोनी, काशी शहर। कबीर जी तीन दिन का धर्म भोजन-भण्डारा करेंगे। सर्व साधु संत आमंत्रित हैं। प्रतिदिन प्रत्येक भोजन करने वाले को एक दोहर (जो उस समय का सबसे कीमती कम्बल के स्थान पर माना जाता था), एक मोहर (10 ग्राम स्वर्ण से बनी गोलाकार की मोहर) दक्षिणा देगें। प्रतिदिन जो जितनी बार भी भोजन करेगा, कबीर उसको उतनी बार ही दोहर तथा मोहर दान करेगा। भोजन में लड्डू, जलेबी, हलवा, खीर, दही बड़े, माल पूडे़, रसगुल्ले आदि-2 सब मिष्ठान खाने को मिलेंगे।
सुखा सीधा (आटा, चावल, दाल आदि सूखे जो बिना पकाए हुए, घी-बूरा) भी दिया जाएगा। एक पत्रा शेखतकी ने अपने नाम तथा दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोधी के नाम भी भिजवाया निश्चित दिन से पहले वाली रात्रि को ही साधु-संत भक्त एकत्रित होने लगे। अगले दिन भण्डारा होना था। परमेश्वर कबीर जी को संत रविदास दास जी ने बताया कि आपके नाम के पत्रा लेकर लगभग 18 लाख साधु-संत व भक्त काशी शहर में आए हैं। भण्डारा खाने के लिए आमंत्रित हैं। कबीर जी अब तो अपने को काशी त्यागकर कहीं और जाना पड़ेगा। कबीर जी तो जानीजान थे। फिर भी अभिनय कर रहे थे, बोले रविदास जी झोंपड़ी के अंदर बैठ जा, सांकल लगा ले। अपने आप झख मारकर चले जाएंगे। हम बाहर निकलेंगे ही नहीं। परमेश्वर कबीर जी अपनी राजधानी सत्यलोक में पहुँचे।
वहाँ से नौ लाख बैलों के ऊपर गधों जैसा बौरा (थैला) रखकर उनमें पका-पकाया सर्व सामान भरकर तथा सूखा सामान (चावल, आटा, खाण्ड, बूरा, दाल, घी आदि) भरकर पृथ्वी पर उतरे। सत्यलोक से ही सेवादार आए। परमेश्वर कबीर जी ने स्वयं बनजारे का रूप बनाया और अपना नाम केशव बताया। दिल्ली के सिकंदर बादशाह तथा उसका धार्मिक पीर शेखतकी भी आया। काशी में भोजन-भण्डारा चल रहा था। सबको प्रत्येक भोजन के पश्चात् एक दोहर तथा एक मोहर (10 ग्राम) सोना (ळवसक) दक्षिणा दी जा रही थी। कई बेईमान संत तो दिन में चार-चार बार भोजन करके चारों बार दोहर तथा मोहर ले रहे थे। कुछ सूखा सीधा (चावल, खाण्ड, घी, दाल, आटा) भी ले रहे थे।
यह सब देखकर शेखतकी ने तो रोने जैसी शक्ल बना ली। सिकंदर लोधी राजा के साथ उस टैंट में गया जिसमें केशव नाम से स्वयं कबीर जी वेश बदलकर बनजारे (उस समय के व्यापारियों को बनजारे कहते थे) के रूप में बैठे थे। सिकंदर लोधी राजा ने पूछा आप कौन हैं? क्या नाम है? आप जी का कबीर जी से क्या संबंध है? केशव रूप में बैठे परमात्मा जी ने कहा कि मेरा नाम केशव है, मैं बनजारा हूँ। कबीर जी मेरे पगड़ी बदल मित्रा हैं। मेरे पास उनका पत्रा गया था कि एक छोटा-सा भण्डारा (भोजन कराने का आयोजन) यानि लंगर का आयोजन करना है, कुछ सामान लेते आइएगा। उनके आदेश का पालन करते हुए सेवक हाजिर है। भण्डारा चल रहा है।
शेखतकी तो कलेजा पकड़कर जमीन पर बैठ गया जब यह सुना कि एक छोटा-सा भण्डारा करना है जहाँ पर 18 लाख व्यक्ति भोजन करने आए हैं। प्रत्येक को दोहर तथा मोहर और आटा, दाल, चावल, घी, खाण्ड भी सूखा सीधा रूप में दिए जा रहे हैं। इसको छोटा-सा भण्डारा कह रहे हैं। परंतु ईष्र्या की अग्नि में जलता हुआ विश्राम गृह में चला गया जहाँ पर राजा ठहरा हुआ था। सिकंदर लोधी ने केशव से पूछा कबीर जी क्यों नहीं आए? केशव ने उत्तर दिया कि उनका गुलाम जो बैठा है, उनको तकलीफ उठाने की क्या आवश्यकता? जब इच्छा होगी, आ जाएंगे। यह भण्डारा तो तीन दिन चलना है। सिकंदर लोधी हाथी पर बैठकर अंगरक्षकों के साथ कबीर जी की झोंपड़ी पर गए। हाथी से उतरकर राजा ने दरवाजे पर दस्तक दी। कहा, परवरदिगार! दरवाजा (ळंजम) खोलो। आपका बच्चा सिकंदर आया है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा, हे राजन! कुछ व्यक्ति मेरे पीछे पड़े हैं। प्रतिदिन कोई न कोई नया षड़यंत्रा रचकर परेशान करते हैं। आज झूठा पत्र डालकर लाखों व्यक्ति बुलाये हैं। मैं निर्धन जुलाहा कपड़े बुनकर परिवार पोषण कर रहा हूँ
मेरे पास भोजन-भण्डारा (लंगर) करवाने तथा दक्षिणा देने के लिए धन नहीं है। मैं रात्रि में परिवार सहित काशी नगर को त्यागकर कहीं दूर स्थान पर चला जाऊँगा। मैं दरवाजा नहीं खोलूँगा। सिकंदर सम्राट बोला, हे कादिर अल्लाह (समर्थ परमात्मा)! मैंने आपको पहचाना है। आप मुझे नहीं बहका सकते। आपने चैपड़ के खुले स्थान पर कैसे भण्डारा लगाया है। आपका मित्रा केशव आया है। अपार खाद्य सामग्री लाया है। लाखों लोग भोजन करके आपकी जय-जयकार कर रहे हैं। आपका दर्शन करना चाहते हैं। एक बार किवाड़ खोलकर अपने गुलाम सिकंदर को दर्शन तो दो। कबीर जी ने संत रविदास जी से कहा कि खोल दो किवाड़। दरवाजा खुलते ही सिकंदर राजा ने जूती उतारकर मुकुट सहित दण्डवत् प्रणाम किया। फिर काशी में चल रहे भोजन-भण्डारे में चलने की विनय की। जब कबीर परमात्मा झोंपड़ी से बाहर निकले तो आकाश से सुंदर मुकुट आया और परमात्मा कबीर जी के सिर पर सुशोभित हुआ तथा आसमान से सुगंधित फूल बरसने लगे। राजा ने कबीर परमेश्वर जी को हाथी पर चढ़ने की प्रार्थना की।
कबीर जी ने रविदास जी को साथ लिया। राजा, रविदास जी तथा परमात्मा कबीर जी तीनों हाथी पर चढ़कर भण्डारा स्थल पर आए। सबसे कबीर सेठ का परिचय कराया तथा केशव रूप में स्वयं डबल रोल करके उपस्थित संतों-भक्तों को प्रश्न-उत्तर करके सत्संग सुनाया जो 24 घण्टे तक चला। कई लाख सन्तों ने अपनी गलत भक्ति त्यागकर कबीर जी से दीक्षा ली, अपना कल्याण कराया।
भण्डारे के समापन के बाद जब बचा हुआ सब सामान तथा टैंट बैलों पर लादकर चलने लगे, उस समय सिकंदर लोधी राजा तथा शेखतकी, केशव तथा कबीर जी एक स्थान पर खड़े थे, सब बैल तथा साथ लाए सेवक जो बनजारों की वेशभूषा में थे, गंगा पार करके चले गए। कुछ ही देर के बाद सिकंदर लोधी राजा ने केशव से कहा आप जाइये आपके बैल तथा साथी जा रहे हैं। जिस ओर बैल तथा बनजारे गए थे, उधर राजा ने देखा तो कोई भी नहीं था। आश्चर्यचकित होकर राजा ने पूछा कबीर जी! वे बैल तथा बनजारे इतनी शीघ्र कहाँ चले गए? उसी समय देखते-देखते केशव भी परमेश्वर कबीर जी के शरीर में समा गए। अकेले कबीर जी खड़े थे। सब माजरा (रहस्य) समझकर सिकंदर लोधी राजा ने कहा कि कबीर जी! यह सब लीला आपकी ही थी। आप स्वयं परमात्मा हो। शेखतकी के तो तन-मन में ईष्र्या की आग लग गई, कहने लगा ऐसे-ऐसे भण्डारे हम सौ कर दें, यह क्या भण्डारा किया है? महौछा किया है।
महौछा उस अनुष्ठान को कहते हैं जो किसी गुरू द्वारा किसी वृद्ध की गति करने के लिए थोपा जाता है। उसके लिए सब घटिया सामान लगाया जाता है। जग जौनार करना उस अनुष्ठान को कहते हैं जो विशेष खुशी के अवसर पर किया जाता है, जिसमें अनुष्ठान करने वाला दिल खोलकर रूपये लगाता है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-
गरीब, कोई कह जग जौनार करी है, कोई कहे महौछा।
बड़े बड़ाई किया करें, गाली काढे़ औछा।।
सारांश:- कबीर जी ने भक्तों को उदाहरण दिया है कि यदि आप मेरी तरह सच्चे मन से भक्ति करोगे तथा ईमानदारी से निर्वाह करोगे तो परमात्मा आपकी ऐसे सहायता करता है।
भक्त ही वास्तव में सेठ अर्थात् धनवंता हैं। भक्त के पास दोनों धन हैं, संसार में जो चाहिए वह भी धन भक्त के पास होता है तथा सत्य साधना रूपी धन भी भक्त के पास होता है।
कबीर साहेब द्वारा मीरा बाई को शरण में लेना
जिस श्री कृष्ण जी के मंदिर में मीराबाई पूजा करने जाती थी, उसके मार्ग में एक छोटा बगीचा था। उसमें कुछ घनी छाया वाले वृक्ष भी थे। उस बगीचे में परमेश्वर कबीर जी तथा संत रविदास जी सत्संग कर रहे थे। सुबह के लगभग 10 बजे का समय था। मीरा जी ने देखा कि यहाँ परमात्मा की चर्चा या कथा चल रही है। कुछ देर सुनकर चलते हैं।
परमेश्वर कबीर जी ने सत्संग में संक्षिप्त सृष्टि रचना का ज्ञान सुनाया। कहा कि श्री कृष्ण जी यानि श्री विष्णु जी से ऊपर अन्य सर्वशक्तिमान परमात्मा है। जन्म-मरण समाप्त नहीं हुआ तो भक्ति करना न करना समान है। जन्म-मरण तो श्री कृष्ण जी (श्री विष्णु) का भी समाप्त नहीं है। उसके पुजारियों का कैसे होगा। जैसे हिन्दू संतजन कहते हैं कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी ने अर्जुन को बताया।
गीता ज्ञानदाता गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे स्वसिद्ध है कि श्री कृष्ण जी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं है। यह अविनाशी नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता बोलने वाले ने कहा है कि हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू सनातन परम धाम को तथा परम शांति को प्राप्त होगा।
परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से ये वचन सुनकर परमात्मा के लिए भटक रही आत्मा को नई रोशनी मिली। सत्संग के उपरांत मीराबाई जी ने प्रश्न किया कि हे महात्मा जी! आपकी आज्ञा हो तो शंका का समाधान करवाऊँ। कबीर जी ने कहा कि प्रश्न करो बहन जी!
प्रश्न:- हे महात्मा जी! आज तक मैनें किसी से नहीं सुना कि श्री कृष्ण जी से ऊपर भी कोई परमात्मा है। आज आपके मुख से सुनकर मैं दोराहे पर खड़ी हो गई हूँ। मैं मानती हूँ कि संत झूठ नहीं बोलते। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आपके धार्मिक अज्ञानी गुरूओं का दोष है जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि आपके सद्ग्रन्थ क्या ज्ञान बताते हैं? देवी पुराण के तीसरे स्कंद में श्री विष्णु जी स्वयं स्वीकारते हैं कि मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर नाशवान हैं। हमारा आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता रहता है। (लेख समाप्त)
मीराबाई बोली कि हे महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण मुझे साक्षात दर्शन देते हैं। मैं उनसे संवाद करती हूँ। कबीर जी ने कहा कि हे मीराबाई जी! आप एक काम करो। भगवान श्री कृष्ण जी से ही पूछ लेना कि आपसे ऊपर भी कोई मालिक है। वे देवता हैं, कभी झूठ नहीं बोलेंगे। मीराबाई को लगा कि वह पागल हो जाएगी यदि श्री कृष्ण जी से भी ऊपर कोई परमात्मा है तो। रात्रि में मीरा जी ने भगवान श्री कृष्ण जी का आह्वान किया। त्रिलोकी नाथ प्रकट हुए। मीरा ने अपनी शंका के समाधान के लिए निवेदन किया कि हे प्रभु! क्या आपसे ऊपर भी कोई परमात्मा है। एक संत ने सत्संग में बताया है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि मीरा! परमात्मा तो है, परंतु वह किसी को दर्शन नहीं देता।
हमने बहुत समाधि व साधना करके देख ली है। मीराबाई जी ने सत्संग में परमात्मा कबीर जी से यह भी सुना था कि उस पूर्ण परमात्मा को मैं प्रत्यक्ष दिखाऊँगा। सत्य साधना करके उसके पास सतलोक में भेज दूँगा।
मीराबाई ने श्री कृष्ण जी से फिर प्रश्न किया कि क्या आप जीव का जन्म-मरण समाप्त कर सकते हो? श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह संभव नहीं। कबीर जी ने कहा था कि मेरे पास ऐसा भक्ति मंत्रा है जिससे जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। वह परमधाम प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान तथा तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् परमात्मा के उस परमधाम की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। उसी एक परमात्मा की भक्ति करो। मीराबाई ने कहा कि हे भगवान श्री कृष्ण जी! संत जी कह रहे थे कि मैं जन्म-मरण समाप्त कर देता हूँ। अब मैं क्या करूं। मुझे तो पूर्ण मोक्ष की चाह है। श्री कृष्ण जी बोले कि मीरा! आप उस संत की शरण ग्रहण करो, अपना कल्याण कराओ। मुझे जितना ज्ञान था, वह बता दिया।
मीरा बाई अगले दिन मंदिर नहीं गई। सीधी संत जी के पास अपनी नौकरानियों के साथ गई तथा दीक्षा लेने की इच्छा व्यक्त की तथा श्री कृष्ण जी से हुई वार्ता भी संत कबीर जी से साझा की। उस समय छूआछात चरम पर थी। ठाकुर लोग अपने को सर्वोत्तम मानते थे। परमात्मा मान-बड़ाई वाले प्राणी को कभी नहीं मिलता। मीराबाई की परीक्षा के लिए कबीर जी ने संत रविदास जी से कहा कि आप मीरा राठौर को प्रथम मंत्रा दे दो। यह मेरा आपको आदेश है। संत रविदास जी ने आज्ञा का पालन किया। संत कबीर परमात्मा जी ने मीरा से कहा कि बहन जी! वो बैठे संत जी, उनके पास जाकर दीक्षा ले लें। बहन मीरा जी तुरंत रविदास जी के पास गई और बोली, संत जी! दीक्षा देकर कल्याण करो। संत रविदास जी ने बताया कि बहन जी! मैं चमार जाति से हूँ। आप ठाकुरों की बेटी हो। आपके समाज के लोग आपको बुरा-भला कहेंगे। जाति से बाहर कर देंगे। आप विचार कर लें। मीराबाई अधिकारी आत्मा थी। परमात्मा के लिए मर-मिटने के लिए सदा तत्पर रहती थी। बोली, संत जी! आप मेरे पिता, मैं आपकी बेटी। मुझे दीक्षा दो। भाड़ में पड़ो समाज। कल को कुतिया बनूंगी, तब यह ठाकुर समाज मेरा क्या बचाव करेगा? सत्संग में बड़े गुरू जी (कबीर जी) ने बताया है कि:-
कबीर, कुल करनी के कारणे, हंसा गया बिगोय।
तब कुल क्या कर लेगा, जब चार पाओं का होय।।
संत रविदास जी उठकर संत कबीर जी के पास गए और सब बात बताई। परमात्मा बोले कि देर ना कर, ले आत्मा को अपने पाले में। उसी समय संत रविदास जी ने बहन मीरा को प्रथम मंत्र केवल पाँच नाम दिए। मीराबाई को बताया कि यह इनकी पूजा नहीं है, इनकी साधना है। इनके लोक में रहने के लिए, खाने-पीने के लिए जो भक्ति धन चाहिए है, वह इन मंत्रों से ही मिलता है। यहाँ का ऋण उतर जाता है।
फिर मोक्ष के अधिकारी होते हैं। परमात्मा कबीर जी तथा संत रविदास जी वहाँ एक महीना रूके। मीराबाई पहले तो दिन में घर से बाहर जाती थी, फिर रात्रि में भी सत्संग में जाने लगी क्योंकि सत्संग दिन में कम तथा रात्रि में अधिक होता था। कोई दिन में समय निकाल लेता, कोई रात्रि में। मीरा के देवर राणा जी मीरा को रात्रि में घर से बाहर जाता देखकर जल-भुन गए, परंतु मीरा को रोकना तूफान को रोकने के समान था। इसलिए राणा जी ने अपनी मौसी जी यानि मीरा की माता जी को बुलाया और मीरा को समझाने के लिए कहा। कहा कि इसने हमारी इज्जत का नाश कर दिया। बेटी माता की बात मान लेती है। मीरा की माता ने मीरा को समझाया। मीरा ने उसका तुरंत उत्तर दिया:-
सतसंग में जाना ऐ मीरां छोड़ दे, आए म्हारी लोग करैं तकरार।
सतसंग में जाना मेरा ना छूटै री, चाहे जलकै मरो संसार।।टेक।।
थारे सतसंग के राहे मैं ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं काले नाग,
कोए-कोए नाग तनै डस लेवै। जब गुरु म्हारे मेहर करै री,
आरी वै तो सर्प गंडेवे बन जावैं।।1।।
थारे सतसंग के राहे में ऐ, आहे वहाँ पै रहते हैं बबरी शेर,
कोए-कोए शेर तनै खा लेवै। जब गुरुआं की मेहर फिरै री,
आरी व तो शेरां के गीदड़ बन जावैं।।2।।
थारे सतसंग के बीच में ऐ, आहे वहां पै रहते हैं साधु संत,
कोए-कोए संत तनै ले रमै ए। तेरे री मन मैं माता पाप है री,
संत मेरे मां बाप हैं री, आ री ये तो कर देगें बेड़ा पार।।3।।
वो तो जात चमार है ए, इसमैं म्हारी हार है ए।
तेरे री लेखै माता चमार है री, मेरा सिरजनहार है री।
आरी वै तो मीरां के गुरु रविदास।।4।।
यह कथा सुनकर रामप्यारी (रामों) की आँखें-सी खुल गई। अगले दिन कस्तूरी के साथ सत्संग में गई और एक सत्संग सुनते ही दीक्षा ले ली। फिर एक दिन के भोजन की सेवा माँगी। सब परिवारों ने कहा कि बहन! हम अपनी सेवा नहीं छोड़ सकते। गुरू जी अगली बार आऐंगे, तब तेरी बारी लगवा देंगे। भक्तमति रामों को तो पल की भी चैन नहीं थी। रोने जैसा चेहरा कर लिया। उसी समय कस्तूरी बोली कि बहन! आगे जब मेरी बारी आएगी तो सुबह का भोजन मैं करा दूँगी, रात्रि का आप करा देना। रामों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कहीं-कहीं पैर टिके। बारी आने पर रात्रि का भोजन तैयार किया। खीर-हलवा-सब्जी, मांडे (पतली रोटी-फुल्के) बनाए। परंतु लीला सतगुरू की, रामों को तेज बुखार हो गया। शरीर अंगार की तरह जलने लगा। एक कदम भी चलने की हिम्मत नहीं रही। उसी समय रामों का लड़का आ गया। बहन रामों ने कहा कि बेटा! आज मेरा एक काम कर दे, तेरा जिंदगी-भर एहसान नहीं भुलुँगी। बेटा मैंने गुरू बनाया है।
आज रात्रि का भण्डारा तेरी ताई भक्तमति कस्तूरी की बारी से माँगकर लिया है। बेटा देख मेरे को तेज बुखार हो गया है। बदन आग की तरह जल रहा है। चलने की हिम्मत नहीं है। लड़का बोला कि मुझे समय नहीं है। मैं ना देकर आऊँ भोजन आश्रम में। माता जी आप उस आश्रम में ना जाया करो। मुझे आपके बारे में बहुत कुछ सुनना पड़ता है। यह सुनकर भक्तमति रामों फूट-फूटकर रोने लगी। लड़के को दया आई। परंतु झुंझलाकर बोला, कहाँ है भोजन, दे आता हूँ। रामों बहन तुरंत उठी और सब भोजन दे दिया। लड़का उस भोजन को एक तसले में रखकर आश्रम में ले गया। रामों गुरू जी से बार-बार निवेदन करती थी कि गुरू जी लड़का नशा करता है। घर की ठौर बिटौड़ा कर रखा है। बात नहीं मानता। उसको भी शरण में ले लो महाराज! अगले दिन लड़के को आश्रम में देखकर अन्य भक्त तथा भक्तमति कहने लगे कि गुरू जी ने सुन ली रामों दुःखिया की। बेटा स्वयं भोजन लेकर आ गया। गुरू जी को पता चला तो हर्ष हुआ कि बेटी रामों बसगी। सुन ली भगवान ने। लड़का बोला, महाराज जी! मेरी माता जी को ज्वर हो गया है, मैं भेजा हँू। भोजन करो। संत जी भोजन के लिए बैठ गए और सोचा लड़का पहली बार आया है, कुछ ज्ञान सुना दूँ। संत जी ने कहना शुरू किया कि बेटा! माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। मोक्ष के लिए गुरू बनाकर सत्य भक्ति करनी चाहिए। नशे ने तो बड़े-बड़े घर उजाड़ दिये। लड़का तो जला-भुना बैठा था।
उसे तो पल-पल की देरी महसूस हो रही थी क्योंकि उस रात्रि में उसने अपने साथी चोरों के साथ राजा के घर में चोरी करने जाना था। रात्रि के बारह बजे नगर से बाहर मंदिर में इकट्ठा होकर चोरी करने जाना था। उनकी कल्पना थी कि रानियों के मँहगे-मँहगे हार होते हैं। वे चुराकर लाऐंगे, मालामाल हो जाएंगे। इसलिए लड़का संत जी से बोला कि बाबा जी! जल्दी भोजन खा ले, मुझे शिक्षा की आवश्यकता नहीं है। संत जी को अच्छा-सा नहीं लगा। मन में विचार किया कि रामों वास्तव में दुःखी है इस शैतान से। खाना खाते ही बिना बर्तन धोए बर्तन उठाकर चल पड़ा नगर की ओर। आधे रास्ते से अधिक तय करने के पश्चात् उसके पैर में मोटी शूल (कीकर का काँटा) लग गई। पैर में बहुत पीड़ा हुई। चलने में भी कठिनाई हुई। जैसे-तैसे घर आया। आँगन में बर्तन पटककर लगा अपनी माता को उलहाने देने। आज ही तेरे गुरू जी के दर्शन किए। आज ही मेरे भाग फूट गए। मेरे पैर में काँटा लग गया। मैं चलने लायक भी नहीं रहा। आज के पश्चात् आश्रम की ओर मुख करके भी ना सोऊँ। रामों का बुखार हल्का हो चुका था। शीघ्र उठी और काँटा लगे पैर को धोया। उसके ऊपर तेल की गाध (तेल के नीचे जमा मैल) को कपड़े से बाँध दिया और सुबह काँटा निकलवाने की योजना बनाई। लड़का अपनी माता से बहुत लड़ा, ओच्छी-मंदी बातें भी कही क्योंकि लड़के कर्मपाल को तो चोरी में शामिल न होने के कारण बहुत बड़ी हानि हुई लग रही थी। जैसे-तैसे सुबह हुई। लड़के का काँटा निकलवा दिया।
माता (रामों) घर के कार्य में लग गई। कुछ देर में एक बैंड-बाजा बजता हुआ आया। नगर निवासियों को पता होता था कि इस प्रकार का साज उस समय शहर में बजाया जाता है जब किसी को मौत की सजा दी जाती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने घरों के बाहर खड़े हो जाते थे और जाना करते थे कि किसको किस कारण सूली तोड़ा जा रहा है। राजा के सिपाही उन चारों व्यक्तियों से कहलवा रहे थे कि अपना दोष बताओ। वे कह रहे थे कि हम राजा के घर चोरी करने गए थे। हमने घोर अपराध किया है। आज शाम को हमें सूली पर चढ़ाया जाएगा। कोई सुनता हो तो कभी ऐसी गलती ना करना। कर्मपाल को अपने साथी चोरों को पहचानते देर नहीं लगी और माजरा भी समझ गया। रामों बोली कि ठीक हुआ और करना चोरी, तुम्हें यही सजा चाहिए थी, करके खाया नहीं जाता। रामों अपने घर में चली गई। कर्मपाल द्वार पर भयभीत स्थिति में डरा-डरा-सा खड़ा रहा। फिर घर में जाकर जोर-जोर-से रोने लगा।
रामों ने देखा कि कर्मपाल क्यों रो रहा है? पूछा कि बेटा क्या हो गया? काँटा भी निकल गया। अब क्या दर्द हो रहा है? कर्मपाल उठा और अपनी माता के सीने से लिपट गया। बोला, माँ! भला हो आपके गुरू जी का जिसने तेरे बेटे की सूली की सजा काँटे में टाल दी। माँ! आज तेरा बेटा सूली चढ़ना था। माँ आप कैसे जीवित रहती? रामों बोली कि मेरा बेटा क्या चोर है? क्यों टूटता सूली? चोरों को सजा मिलती है। कर्मपाल बोला, हाँ माँ! तेरा बेटा चोर था। आज के बाद कसम है माँ तेरी, कभी नशा नहीं करूंगा। आपके साथ सत्संग में चला करूंगा। आपके साथ घर के काम में हाथ बटाऊंगा। मैं अपनी जिंदगी में अपनी माँ को कभी दुःखी नहीं करूंगा। रामों बोली कि रे निकम्मे! चोरी भी करने लग गया था। लड़का बोला कि हाँ माँ! पक्का चोर हो गया था। धन्य हैं आपके सतगुरू, धन्य है मेरी माँ जिसे ऐसे महापुरूष की शरण मिली है। माँ आज ही चल, मुझे दीक्षा दिलाकर ला। रामों तुरंत लड़के को भक्तमति कस्तूरी के पास लेकर गई। सब वृत्तान्त बताया। कस्तूरी भी सब कार्य छोड़कर उनके साथ आश्रम में गई और गुरू जी का धन्यवाद किया। सब घटना को बताया, लड़के को नाम दिलाया। एक अन्य गाँव के सत्संगी परिवार की लड़की से कर्मपाल का विवाह हो गया। पूरा परिवार सत्संग में आने लगा तथा सेवा करके सुखी जीवन जीने लगा।
रामों तो सत्संग के रंग में ऐसी रंगी, जब-जब सतगुरू जी मंडली समेत आकर आश्रम में रूकते, वह तो सुबह चली जाती, देर शाम को आती और सेवा करती, बर्तन साफ करती, गुरू जी के वस्त्रा धोती। सत्संग का तो एक शब्द भी नहीं छोड़ती थी। एक समय सर्दी का मौसम था। सुबह 10 बजे सत्संग शुरू हुआ। गुरू जी ने रामों से बोला कि बेटी! वस्त्रा धो ला नदी पर। धूप थोड़ी देर रहती है, सत्संग के बाद जाएगी तो वस्त्रा सूख नहीं पाऐंगे। रामों बहन वस्त्रा बाल्टी में डालकर चल पड़ी। नदी थोड़ी दूरी पर थी। कपड़े पानी में बाल्टी में भिगोकर सोडा डाल दिया। सोचा कि जितनी देर वस्त्रा सोडा में भीगेंगे, तब तक सत्संग सुन आती हूँ। आश्रम के बाहर दीवार के साथ कान लगाकर सत्संग वचन सुनने लगी। सत्संग समापन पर ‘‘सत साहेब’’ की ध्वनि सुनी तो रामों को कपड़े याद आए। दौड़ी-दौड़ी नदी की ओर चली और डरी हुई थी कि आज तो गलती हो गई। गुरू जी के वचन की अवहेलना हो गई।
मेरे ऊपर डाँट पड़ेगी। गुरू जी नाराज हो गए तो मेरी तो सेवा पर पानी फिर जाएगा। हे भगवान! यह कौन बनी? इन्हीं विचारों में नदी पर पहुँची तो देखा कि बाल्टी खाली थी और वस्त्रा धोकर झाड़ियों पर सुखा रखे थे जो सूख चुके थे। रामों उन बहनों से बोली जो पहले से नदी पर अपने वस्त्रा धो रही थी कि हे बहनों! ये वस्त्रा आपने धोकर सुखाए हैं क्या? सब अन्य महिलाऐं रामों की ओर देखने लगी। एक बोली कि बहन! तेरा दिमाग चल गया है क्या या मजाक कर रही है? आप स्वयं तो कपड़े धो रही थी बेसब्री होकर। हमारे भी छींटे लग रहे थे। तेरे को टोका भी था कि धीरे-धीरे कपड़े धो। तू खुद झाड़ियों पर सुखाकर गई थी। अब क्या भाँग का नशा कर आई है? रामों रोने लगी और सब कपड़े उठाकर बाल्टी में डालकर आश्रम की ओर चली।
आश्रम में किसी सेवादार ने रामों को आश्रम के बाहर बैठे सत्संग सुनते देर तक देखा था। उसने गुरू जी को बताया कि आज आपके कपड़े गीले ही रहेंगें क्योंकि रामों तो सत्संग समापन तक बाहर दीवार के कान लगाकर सत्संग सुन रही थी। अभी गई है कपड़े धोने। इतने में रामों ने आश्रम में प्रवेश किया और कपड़े गुरू जी के पास रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। संत जी ने कपड़े छूए तो पूर्ण रूप से सूखे थे। रामों से रोने का कारण पूछा तो बताया कि गुरू जी! आपने दुःखी होकर स्वयं कपड़े धोए हैं। मेरे से गलती हो गई। मैंने ऐसे-ऐसे सोचा था कि कुछ देर सत्संग सुनकर कपड़े धोऊँगी। परंतु ध्यान नहीं रहा। गुरू जी बोले कि बेटी! परमात्मा कबीर जी रामों बनकर कपड़े धो गए हैं।
ज्यों बच्छा गऊ की नजर में, यूं सांई कूं संत।
भक्तों के पीछे फिरे, भक्त वच्छल भगवन्त।।
परमात्मा ने अब्राहिम सुल्तान अधम को नरक से निकालने के लिए बांदी रूप स्त्राी बनकर शरीर पर कोरड़े खाए थे। बेटी दुःखी ना हो, तेरा उद्देश्य गलत नहीं था। परमात्मा तो सच्ची लगन व भाव के भूखे हैं। रामों शांत हुई। सत्संग से रामों बस गई। मोक्ष भी मिला।
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