Mukti Bodh-मुक्ति बोध: हरहट रुपी कुए की जानकारी | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

आज हम Mukti Bodh-मुक्ति बोध में हरहट रुपी कुए की जानकारी के बारे में पढेंगे | संत रामपाल जी महाराज


जानिए हरहट रुपी कुए की जानकारी


गरीब, यह हरहट का कुंआ लोई। यो गल बंध्या है सब कोई।।
कीड़ी-कुंजर (चींटी-हाथी) और अवतारा। हरहट डोर बंधे कई बारा।।


भावार्थ:- पुराने समय में सिंचाई के लिए एक कुंआ खोदा जाता था। उससे पानी निकालने के लिए एक पहिये जैसा बड़ा चक्र लोहे का बनाया जाता था जो लकड़ी के सहारे कुऐं के ऊपर मध्य में रखा जाता था। उसके ऊपर लंबी चैन की तरह बाल्टियाँ लगाई जाती थी। कुंए से कुछ दूरी पर कोल्हू जैसा यंत्र लगाकर बैलों के द्वारा चलाया जाता था।


Mukti Bodh-मुक्ति बोध हरहट रुपी कुए की जानकारी
Mukti Bodh-मुक्ति बोध हरहट रुपी कुए की जानकारी



बाल्टियाँ जो चैन (पटे) पर लगी होती थी, वे बैल द्वारा घुमाने से खाली नीचे कुंए में चली जाती थी, पानी से भरकर ऊपर आती थी। ऊपर एक नाले में खाली होकर फिर नीचे कुंए में भरने के लिए जाती थी। यह क्रम सारा दिन और महीनों चलता रहता था। इसका उदाहरण देकर संत गरीबदास जी ने समझाया है कि जब तक तत्वदर्शी संत (सतगुरू=सच्चा गुरू) नहीं मिलता, तब तक जीव स्वर्ग-नरक, पृथ्वी पर ऐसे चक्र काटता रहता है जैसे रहट की बाल्टियाँ नीचे कुंए से जल भरकर लाती हैं। ऊपर नाले में खाली होकर पुनः कुंए में चली जाती हैं।


उसी प्रकार जीव पृथ्वी पर पाप-पुण्य से भरकर ऊपर स्वर्ग-नरक में अपने कर्म सुख-दुःख भोगकर खाली होकर पृथ्वी पर जन्मता-मरता रहता है। इस जन्म-मरण के हरहट (रहट) वाले चक्र में चींटी (कीड़ी), कुंजर (हाथी) और अवतारगण यानि श्री राम, श्री कृष्ण, श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा तथा श्री शिव जी आदि-आदि भी चक्कर काट रहे हैं। इसी के गल बंधे हैं यानि कर्मों के रस्से से बँधकर इस चक्र में गिरे हैं। जो सिद्ध करना था वह यह है कि :-

पाली (चरवाहा) तो मनुष्य था। उसको परमात्मा मिलना और सुख देना पूर्व जन्म के संस्कार से ही था तथा सच्ची लगन का परिणाम भी, परंतु मोक्ष नहीं। इस गज-ग्राह की कथा में दोनों ही पशु थे। फिर भी भगवान ने अनहोनी कर दी। परंतु पूर्व जन्म का संस्कार ही प्राप्त हुआ। संत गरीबदास जी ने समझाना चाहा है कि जो गुरू बनकर जनता को भ्रमित करते हैं, वे पूर्व जन्म के पुण्यकर्मी प्राणी हैं और वर्तमान में जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। उनसे तो सामान्य व्यक्ति जो पूर्व जन्म का पुण्यकर्मी है और वर्तमान में विशेष पाप नहीं कर रहा है तो यदि उस पर कोई आपत्ति आती है तो परमात्मा उसके बचे हुए पुण्यों के आधार से चमत्कार कर देता है, परंतु नकली गुरू पद पर विराजमान व्यक्ति अपने पुण्यों तथा भक्ति शक्ति को दुआ (आशीर्वाद) तथा बद्दुआ (शॉप) देकर नष्ट कर देता है। इस कारण से :-

पंडित गए नरक में, भक्ति से खाली हाथ। भाग्य से मिले जीव को परम संत का साथ।
बिन सतगुरू पावै नहीं खालक खोज विचार। चौरासी जग जात है, चिन्हत नाहीं सार।।


भावार्थ :- नकली गुरू (ब्राह्मण) नरक में जाते हैं। भक्ति कर्म शास्त्र के विरूद्ध होने से भक्ति की शक्ति प्राप्त न करके खाली हाथ चले गए। पूर्व जन्म में शुभ कर्मों के संयोग बिना परम संत यानि तत्वदर्शी संत नहीं मिलता और सतगुरू के बिना खालिक (परमात्मा) का विचार यानि यथार्थ ज्ञान नहीं मिलता। जिस कारण से संसार के व्यक्ति चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों को प्राप्त करते हैं क्योंकि वे सार नाम, मूल ज्ञान (तत्वज्ञान) को नहीं पहचानते। वाणी नं. 26 का भावार्थ है कि परमात्मा में पूर्ण विश्वास करके क्रिया करने से लाभ होता है, औपचारिक्ता से नहीं।

■ इसी प्रकार द्रोपदी पूर्व जन्म में परमात्मा की परम भक्त थी। फिर वर्तमान जन्म में एक अंधे साधु को साड़ी फाड़कर लंगोट (कोपीन) के लिए कपड़ा दिया था। (अंधे साधु के वेश में स्वयं कबीर परमेश्वर ही लीला कर रहे थे।) जिस कारण से जिस समय दुःशासन ने द्रोपदी को सभा में नंगा करने की कोशिश की तो द्रोपदी ने देखा कि न तो मेरे पाँचों पति (पाँचों पाण्डव) जो भीम जैसे महाबली थे, सहायता कर रहे हैं। न भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा दानी कर्ण ही सहायता कर रहे हैं। सब के सब किसी न किसी बँधन के कारण विवश हैं। तब निर्बन्ध परमात्मा को अपनी रक्षार्थ हृदय से हाथी की तरह तड़फकर पुकार की। उसी समय परमेश्वर जी ने द्रोपदी का चीर अनन्त कर दिया। दुःशासन जैसे योद्धा जिसमें दस हजार हाथियों की शक्ति थी, थककर चूर हो गया। चीर का ढ़ेर लग गया, परंतु द्रोपदी निःवस्त्र नहीं हुई। परमात्मा ने द्रोपदी की लाज रखी।


पाण्डवों के गुरू श्री कृष्ण जी थे। जिस कारण से उनका नाम चीर बढ़ाने की लीला में जुड़ा है। इसलिए वाणी में कहा है कि निज नाम की महिमा सुनो जो किसी जन्म में प्राप्त हुआ था, जब परमेश्वर सतगुरू रूप में उस द्रोपदी वाली आत्मा को मिले थे। उनको वास्तविक मंत्र जाप करने को दिया था। उसकी भक्ति की शक्ति शेष थी। उस कारण द्रोपदी की इज्जत रही थी।

कबीर कमाई आपनी, कबहु ना निष्फल जाय। सात समुद्र आडे पड़ो, मिले अगाऊ आय।।

भावार्थ :- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि अपनी भक्ति की मजदूरी (कमाई) कभी व्यर्थ नहीं जाती, चाहे कितनी बाधाऐं आ जायें। वह अवश्य मिलती है। इसी के आधार से द्रोपदी का चीर बढ़ा, महिमा हुई। इसलिए कहा है कि निज नाम (यथार्थ भक्ति मंत्र) की महिमा सुन और उस पर अमल करो।

एक वैश्या (गणिका) थी। उसको जीवन में पहली बार सत्संग सुनने का अवसर मिला। उस दिन अपने कर्म से ग्लानि हो गई और सतगुरू से दीक्षा लेकर सच्ची लगन से भक्ति करके विमान में बैठकर स्वर्ग लोक में गई। सच्चा नाम जिस भी देव का है, वह खेवट (मलहा) का कार्य करता है। जैसे नौका चलाने वाला मलहा व्यक्तियों को दरिया से पार कर देता है। ऐसे वास्तविक नाम भवसागर से भक्तों को पार कर देता है।(28,29)


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