गीता तेरा ज्ञान अमृत | Spiritual Book [Hindi] | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

गीता तेरा ज्ञान अमृत | Spiritual Book | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

भूमिका

‘‘गीता’’ एक पवित्र सत्य ग्रन्थ है जो अध्यात्म ज्ञान का कोष है। इसे वर्तमान में हिन्दुओं के ग्रन्थ के नाम से जाना जाता है। वास्तव में पवित्र गीता विश्व का ग्रन्थ है। इसकी उत्पत्ति आज सन् 2012 से लगभग 5550 (पाँच हजार पाँच सौ पचास) वर्ष पूर्व महाभारत के युद्ध के समय हुई थी। उस समय कोई धर्म नहीं था। एक सनातन पंथ था यानि मानव धर्म था। शब्द खण्ड नहीं होता। यह उन पुण्यात्माओं के मस्तिष्क रूपी वाॅट्सऐप (whatsapp) में पहुँच जाता है जिनका नेटवर्क सही होता है। यह महर्षि व्यास जी (श्री कृष्ण द्वैपायन) के मस्तिष्क रूपी whatsapp में लोड हो गया था। उसी से श्री वेद व्यास जी ने पवित्र ‘‘श्रीमद्भगवत गीता‘‘ को कागज पर लिखा या ताड़ वृक्ष के पत्तों पर खोदा जो आज अपने पास पवित्र गीता उपलब्ध है। गीता शास्त्र में कुल 18 (अठारह) अध्याय तथा 700 (सात सौ) श्लोक हैं। मैंने इस पवित्र पुस्तक से आवश्यकता अनुसार विवरण लेकर ग्रन्थ ‘‘गीता तेरा ज्ञान अमृत‘‘ की रचना की है। जैसे वन (थ्वतमेज) में जड़ी-बूटियाँ होती हैं। वैद्य उस वन से आवश्यक जड़ी निकाल लेता है। उससे जीवनदायनी औषधि तैयार कर लेता है। वन फिर भी विद्यमान रहता है।






इसी प्रकार पुस्तक ‘‘गीता तेरा ज्ञान अमृत‘‘ एक औषधि जानें और इसको पढ़कर ज्ञान की घूँट पीकर अपना जरा-मरण का रोग नाश करायें। अध्यात्म ज्ञान के बिना मनुष्य जीवन अधूरा है। यदि किसी के पास अरबों-खरबों की सम्पत्ति है, फिर भी वह अपने जीवन में कुछ कमी महसूस करता है। उसकी पूर्ति के लिये मनुष्य पर्यटक स्थलों पर जाता है। उस समय उसको कुछ अच्छा लगता है परन्तु उससे पूरा जीवन अच्छा नहीं हो सकता, न ही इससे आत्मकल्याण हो सकता। दो-तीन दिन के पश्चात् पुनः वही दिनचर्या प्रारम्भ हो जाती है। फिर भी कुछ अधूरा-सा लगता है। वह कमी परमात्मा की भक्ति की है। उसकी पूर्ति के लिए विश्व का धार्मिक मानव अपनी परंपरागत साधना करता है। यदि उस साधक की वह साधना शास्त्रों के अनुकूल है तो लाभ होगा। यदि शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण अर्थात् मनमानी साधना करते हैं तो वह गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार व्यर्थ है। न साधक को सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है, न परम गति प्राप्त होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है। कुछ श्रद्धालु किसी गुरू से दीक्षा लेकर भक्ति करते हैं। यदि गुरू पूर्ण है तो लाभ होगा नहीं तो वह साधना भी व्यर्थ है।

आप जी को इस पुस्तक ’’गीता तेरा ज्ञान अमृत’’ में जानने को मिलेगा कि प्रमाणित शास्त्र कौन से हैं जिनके अनुसार साधना करें? शास्त्रविधि अनुसार साधना कौन सी है? उस साधना को करने की विधि क्या है, किस महात्मा से प्राप्त होगी, पूर्ण गुरू की क्या पहचान है?, वह भी इसी पुस्तक में पढ़ेंगे। यह पुस्तक विश्व के मानव को एक करेगी जो धर्मों में बँटकर आपस में लड़-लड़कर मर रहा है। गीता शास्त्र किसी धर्म विशेष का नहीं है। यह तो मानव कल्याण के लिए उस समय प्रदान किया गया था जब कोई धर्म नहीं था, केवल ’’मानव’’ धर्म था। मेरा नारा है:-

जीव हमारी जाति है, मानव (mankind) धर्म हमारा।
हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।

जैसे बाबा नानक जी का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में श्री कालूराम मेहता के घर खत्री (अरोड़ा) कुल में हुआ था। श्री ब्रजलाल पांडे से श्री नानक देव जी ने गीता का ज्ञान समझा और उनके द्वारा बताई भक्ति कर रहे थे। श्री विष्णु तथा श्री शंकर जी की पूजा करते थे। अन्य सर्व देवों की भी भक्ति करते थे जो हिन्दू धर्म में वर्तमान में चल रही है। श्री नानक जी सुल्तानपुर शहर में वहाँ के नवाब के यहाँ मोदीखाने में नौकरी करते थे। शहर से लगभग आधा-एक कि.मी. दूर बेई नदी बहती थी। प्रतिदिन श्री नानक देव साहेब जी उस दरिया में स्नान करने जाते थे। परमात्मा अच्छी आत्माओं को जो दृढ़ भक्त होते हैं, उनको मिलता है। अधिक प्रमाण आप जी इसी पुस्तक में पढ़ेंगे। उसी विधान अनुसार परमात्मा श्री नानक देव साहेब जी को मिले। उनको तत्वज्ञान बताया। सत्य साधना जो शास्त्रानुकूल है, उसका ज्ञान कराया। श्री नानक देव जी की संतुष्टि के लिए उनको अपने साथ ऊपर अपने शाश्वत् स्थान अर्थात् सच्चखण्ड में लेकर गए। सर्व ब्रह्माण्डों का भ्रमण कराकर यथार्थ भक्तिविधि बताकर “सनातन भक्ति” को पुनः स्थापित करने का आदेश दिया। तीन दिन पश्चात् श्री नानक जी को वापिस जमीन पर छोड़ा। उसके पश्चात् श्री नानक जी ने हिन्दू धर्म में चल रहा मनमाना आचरण बंद करके गीता (सप्तश्लोकी गीता) शास्त्र अनुसार साधना का प्रचार करके यथार्थ भक्ति का प्रचार किया।

परमात्मा की सत्य साधना करने के लिए सर्वप्रथम ’’गुरू’’ का होना अति अनिवार्य है। इसी का पालन करते हुए श्री नानक जी ने ’’शिष्य’’ बनाने शुरू किए, स्वयं वे गुरू पद पर विराजमान थे। श्री नानक जी के शिष्यों को (पंजाबी भाषा में) सिक्ख कहते हैं। जिस कारण से उनकी अलग पहचान बन गई और वर्तमान में उन अनुयाईयों के समूह ने धर्म का रूप ले लिया। हिन्दू तथा सिक्ख आपस में धर्म के नाम पर लड़-मरते हैं, यह विवेक की कमी है।

विवेचन:- भक्ति कोई करो, उसको गुरू बनाना आवश्यक है। गुरू भी वक्त गुरू हो जो अपने मुख कमल से तत्वज्ञान तथा साधना विधि बताए। गुरू शरीर का ही नाम नहीं है। उस शरीर में जो आत्मा है, वह गुरू है। शरीर पाँच तत्व का हो या इलैक्ट्रोनिक (video) का हो, वह वक्त गुरू कहा जाता है। हिन्दुओं में अधिकतर बिना गुरू के ही अपनी परंपरागत साधना करते हैं। उसी बिगड़े रूप को श्री नानक जी ने परमात्मा से प्राप्त ज्ञान से ठीक किया था। वर्तमान में सिक्खों में भी वक्त गुरू का अभाव है। जैसे सूक्ष्म वेद में कहा है (सूक्ष्म वेद क्या है, यह आप इसी पुस्तक से जानें) कि:-

राम-कृष्ण से कौन बड़ा, उन्होंने ने भी गुरू कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरू आगे आधीन।।

भावार्थ:- जो हिन्दू श्रद्धालु बिना गुरू के मनमाना आचरण करते हैं, उनको कहा है कि आप जी श्री राम तथा श्री कृष्ण जी से बड़ा तो किसी को नहीं मानते हो। वे तीन लोक के धनी अर्थात् मालिक होते हुए भी गुरू धारण करके भक्ति किया करते थे तथा अपने-अपने गुरूदेव के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया करते थे। {श्री रामचन्द्र जी के गुरू जी ऋषि वशिष्ठ जी थे तथा श्री कृष्ण चन्द्र जी के गुरू जी ऋषि दुर्वासा जी थे। संदीपनी ऋषि तो अक्षर ज्ञान कराने वाले अध्यापक थे। ऋषि दुर्वासा जी आध्यात्मिक गुरू श्री कृष्ण जी के थे।} आप की क्या बुनियाद है, आप बिना गुरू के भक्ति करके कल्याण चाहते हैं। सूक्ष्मवेद में फिर कहा है:-

कबीर, गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, भावें पूछो वेद पुराण।।

इस पुस्तक में आप जी को और भी अनेक भक्ति के गुर मिलेंगे तथा यथार्थ अध्यात्म ज्ञान व साधना की भी जानकारी होगी। मैं आशा करता हूँ कि यह पुस्तक मानव कल्याण करेगी। मेरी परमेश्वर से विनय है कि हे परमात्मा! मुझ दास के इस प्रयत्न को सफल करना। सर्व प्राणी आप जी के बच्चे हैं, आप जी की आत्मा हैं। इनको यथार्थ भक्ति मार्ग समझ में आए और सर्व मानव अपना जीवन धन्य बनाऐं। विश्व में शान्ति हो।

दो शब्द


जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान जिस समय (सन् 2012 से लगभग 5550 वर्ष पूर्व) बोला गया, उस समय कोई धर्म नहीं था। हिन्दू धर्म यानि आदि शंकराचार्य द्वारा चलाई गई पाँच देव उपासना वाली परंपरा को अपनाने वाले हिन्दू कहे जाने लगे। (वास्तव में यह सनातन पंथ है जो लाखों वर्षों से चला आ रहा है।) उस (हिन्दू धर्म) की स्थापना आदि (प्रथम) शंकराचार्य जी ने सन् 2012 से 2500 वर्ष पूर्व की थी। आदि शंकराचार्य जी का जन्म ईसा मसीह से 508 वर्ष पूर्व हुआ था। आठ वर्ष की आयु में उन्हें उपनिषदों का ज्ञान हो गया। सोलह वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य जी ने एक विरक्त साधु से दीक्षा ली जो गुफा में रहता था। कई-कई दिन बाहर नहीं निकलता था। उस महात्मा ने आदि शंकराचार्य जी को बताया कि ‘‘जीव ही ब्रह्म है।‘‘ (अयम् आत्मा ब्रह्म) का पाठ पढ़ाया तथा चारों वेदों में यही प्रमाण बताया। लोगों ने आदि शंकराचार्य जी से पूछा कि यदि जीव ही ब्रह्म है तो पूजा की क्या आवश्यकता है? आप भी ब्रह्म, हम भी ब्रह्म (ब्रह्म का अर्थ परमात्मा) इस प्रश्न से आदि शंकराचार्य जी असमंजस में पड़ गए। आदि शंकराचार्य जी ने अपने विवेक से कहा कि श्री विष्णु, श्री शंकर की भक्ति करो।

फिर पाँच देवताओं की उपासना का विधान दृढ़ किया - 1) श्री ब्रह्मा जी 2) श्री विष्णु जी 3) श्री शिव जी 4) श्री देवी जी 5) श्री गणेश जी।
परंतु मूल रूप में इष्ट रूप में तमगुण शंकर जी को ही माना है। यह विधान आदि शंकराचार्य जी ने 20 वर्ष की आयु में बनाया अर्थात् 488 ईशा पूर्व हिन्दू धर्म की स्थापना की थी। उसके प्रचार के लिए भारत वर्ष में चारों दिशाओं में एक-एक शंकर मठ की स्थापना की। आदि शंकराचार्य जी ने गिरी साधु बनाए जो पर्वतों में रहने वाली जनता में अपने धर्म को दृढ़ करते थे।

पुरी साधु बनाए जो गाँव-2 में जाकर अपने धर्म को बताकर क्रिया कराते थे। सन्यासी साधु बनाए जो विरक्त रहकर जनता को प्रभावित करके अपने साथ लगाते थे। वानप्रस्थी साधु बनाए जो वन में रहने वाली जनता को अपना मत सुनाकर अपने साथ जोड़ते थे।

वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) तथा गीता व पुराणों, उपनिषदों को सत्यज्ञानयुक्त पुस्तक मानते थे जो आज तक हिन्दू धर्म के श्रद्धालु इन्हीं धार्मिक ग्रन्थों को सत्य मानते हैं। इस प्रकार हिन्दू धर्म की स्थापना ईसा से 488 वर्ष पूर्व (सन् 2012 से 2500 वर्ष पूर्व) हुई थी। आदि शंकराचार्य जी 30 वर्ष की आयु में असाध्य रोग के कारण शरीर त्यागकर भगवान शंकर के लोक में चले गए क्योंकि वे शंकर जी के उपासक थे, उन्हीं के लोक से इसी धर्म की स्थापना के लिए आए माने गए हैं। उस समय बौद्ध धर्म तेजी से फैल रहा था। उसको उन्हांेने भारत में फैलने से रोका था। यदि बौद्ध धर्म फैल जाता तो चीन देश की तरह भारतवासी भी नास्तिक हो जाते।

ईसाई धर्म की स्थापना:


श्री ईसा मसीह जी से ईसाई धर्म की स्थापना हुई। ईसा जी की जब 32 वर्ष की आयु थी, उनको क्रश पर कीलें गाढ़कर विरोधी धर्म गुरूओं ने गवर्नर पर दबाव बनाकर मरवा दिया था।

ईसा जी को उसी प्रभु ने ‘‘इंजिल‘‘ नामक ग्रन्थ देकर उतारा था जिसने गीता तथा वेदों का ज्ञान दिया था। ‘‘इंजिल‘‘ पुस्तक में भिन्न ज्ञान नहीं है क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान तो पहले गीता, वेदों में बताया जा चुका था। वह किसी धर्म विशेष के लिए नहीं है। वह गीता तथा वेदों वाला ज्ञान मानव मात्र के लिए है। ईसा जी के लगभग छः सौ वर्ष पश्चात् हजरत मुहम्मद जी ने इस्लाम धर्म की स्थापना की। मुहम्मद जी को पवित्र ‘‘र्कुआन् शरीफ‘‘ ग्रन्थ उसी ब्रह्म ने दिया था। इसमें भी भक्ति विधि सम्पूर्ण नहीं है, सांकेतिक है क्योंकि भक्ति का ज्ञान वेदों, गीता में बता दिया था। इसलिए र्कुआन् शरीफ ग्रन्थ में पुनः बताना अनिवार्य नहीं था। जैसे गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में, यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा जिसने सर्व सृष्टि की रचना की है, उसके विषय में किसी तत्वदर्शी सन्त से पूछो, वे ठीक-ठीक ज्ञान तथा भक्तिविधि बताऐंगे।

जो सन्त उस पूर्ण परमात्मा का ज्ञान जानता है तो वह सत्य साधना भी जानता है।
बाईबल ग्रन्थ का ज्ञान भी गीता ज्ञान दाता ने ही दिया है, (बाईबल ग्रन्थ तीन पुस्तकों का संग्रह है - 1. जबूर, 2. तौरत, 3. इंजिल) बाईबल ग्रन्थ के उत्पत्ति ग्रन्थ में प्रारम्भ में ही लिखा है कि परमेश्वर ने मनुष्यों को अपनी सूरत अर्थात् स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया है, नर-नारी करके उत्पत्ति की है। छः दिन में सृष्टि की रचना करके परमेश्वर ने 7वें दिन विश्राम किया।
र्कुआन् शरीफ:- पुस्तक र्कुआन् शरीफ में सूरति फूर्कानि नं. 25 आयत नं. 52 से 59 में कहा है कि अल्लाह कबीर ने छः दिन में सृष्टि रची, फिर ऊपर आकाश में तख्त (सिंहासन) पर जा विराजा। उस परमेश्वर की खबर किसी बाहखबर अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से पूछो। र्कुआन् के लेख से स्पष्ट है कि र्कुआन् शरीफ का ज्ञान दाता भी उस पूर्ण परमात्मा अर्थात् अल्लाहु अकबर (अल्लाह कबीर) के विषय में पूर्ण ज्ञान नहीं रखता।
र्कुआन् शरीफ की सूरति 42 की प्रथम आयत में उन्हीं तीन मन्त्रों का सांकेतिक ज्ञान है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में हैं। कहा है कि ब्रह्मणः अर्थात् सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति के ’’ऊँ-तत्-सत्’’ तीन नाम के स्मरण करो। र्कुआन् शरीफ में सूरति 42 की प्रथम आयत में इन्हीं को सांकेतिक इस प्रकार लिखा हैः- ’’अैन्-सीन्-काॅफ’’
’’अन्’’ हिन्दी का ‘‘अ‘‘ अक्षर है जिसका संकेत ओम् की ओर है। अैन् का भावार्थ ओम् से है, सीन् = स अर्थात् जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में दूसरा तत् मन्त्र है, उसका वास्तविक जो मन्त्रा है, उसका पहला अक्षर ’’स’’ है, यही ओम + सीन् या तत् मिलकर सतनाम दो मन्त्र का बनता है और र्कुआन् शरीफ में जो तीसरा मन्त्र ’’काफ’’ = ’’क’’ है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में लिखे तीन नामों में अन्तिम ’’सत्’’ मन्त्र है। (जैसे गुरू मुखी में क को कका, ख को खखा तथा ग को गगा, ऊ को ऊड़ा, ई को इड़ा कहते तथा लिखते हैं। इसी प्रकार कुरान में अ, स, क को लिखा है।)
‘‘सत्‘‘ मन्त्र सांकेतिक है परन्तु वास्तविक जो नाम है, उसका पहला अक्षर ’’क’’ है, (वह ‘‘करीम’’ मंत्र है) जिसे सारनाम भी कहते हैं। जिन भक्तों को मेरे (संत रामपाल दास) से तीनों मन्त्रों का उपदेश प्राप्त है, वे उन दोनों सांकेतिक मन्त्रों के वास्तविक नामों को जानते हैं।

सर्व ग्रन्थों में कुछ समानता‘‘

बाईबल ग्रन्थ में उत्पत्ति ग्रन्थ में यह भी कहा है कि ’’जब आदम जी तथा उनकी धर्मपत्नी ’हव्वा’ ने वाटिका के बीच वाले वृक्षों के फल खा लिए तो उनको भले-बुरे का ज्ञान हो गया। शाम के समय प्रभु वाटिका में सैर करने आए तो पता चला कि आदम तथा हव्वा ने भले-बुरे का ज्ञान कराने वाले वृक्ष के फल खा लिए तो उस प्रभु ने कहा कि ‘’भले-बुरे’’ का ज्ञान होने से आदम तथा उसकी पत्नी हममें से एक के समान हो गए हैं। कहीं ऐसा न हो जाए कि ये उन वृ़क्षों का फल खा लें जो अमर करते हैं और अमर हो जाऐं। इसलिए आदम जी तथा उनकी पत्नी को स्वर्ग की वाटिका से निकालकर पृथ्वी पर छोड़ दिया।‘‘ (लेख समाप्त)
विवेचन:- इससे सिद्ध हुआ कि ’’प्रभु एक से अधिक हैं’’ क्योंकि प्रभु ने ऊपर कहा कि ये भले-बुरे का ज्ञान होने से हम में से एक के समान हो गए हैं। फिर बाईबल ग्रन्थ में कहा है कि ’’अब्राहिम’’ मामरे के वृक्षों के नीचे बैठा था। उसको तीन प्रभु दिखाई दिए, उनको खाना खिलाया, दण्डवत् प्रणाम करके आशीर्वाद लिया। इससे सिद्ध हुआ कि बाईबल में तीन प्रभु माने हैं।
मुसलमान धर्म में ’’चार यारी’’ माने गए हैं जो बालक रूप में रहते हैं, सूक्ष्म वेद अर्थात् तत्वज्ञान में कहा है कि:-
वही सनक सनन्दना, वही चार यारी।
तत्वज्ञान जाने बिना, बिगड़ी बात सारी।।

भावार्थ:- हिन्दू धर्म में जो सनक, सनन्दन, सनातन तथा सन्तकुमार बालक रूप में रहते हैं, वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। मुसलमान धर्म में उन्हीं को ’’चार यारी’’ चार बालक मित्र कहते हैं।

फिर सूक्ष्म वेद में कहा है कि:-

वही मोहम्मद वही महादेव, वही आदम वही ब्रह्मा।
दास गरीब दूसरा कोई नहीं, देख आपने घरमा।।

भावार्थ:- मुसलमान धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद जी भगवान शिव के लोक से आए, पुण्यकर्मी आत्मा थे जो परंपरागत साधना ही एक गुफा में बैठकर किया करते थे। शिव जी का एक गण जो ग्यारह रूद्रों में से एक है, वह मुहम्मद जी से उस गुफा में मिले। उन्हीं की भाषा (अरबी भाषा) में काल प्रभु अर्थात् ब्रह्म का संदेश सुनाया। उसी रूद्र को मुसलमान जबरिल फरिस्ता कहते हैं जो नेक फरिस्ता माना जाता है।

भावार्थ है कि हजरत मुहम्मद भी शिव के बच्चे हैं जो मुसलमान धर्म का पवित्र तीर्थ स्थल ’’काबा’’ है, उसमें भगवान शंकर के लिंग के आकार का पत्थर लगा है, उसको मुसलमान श्रद्धालु सिजदा अर्थात् प्रणाम करते हंै।
2 आदम बाबा:- पुराणों में तथा जैन धर्म के ग्रन्थों में प्रसंग आता है जो इस प्रकार हैः- ऋषभदेव जी राजा नाभिराज के पुत्रा थे। नाभिराज जी अयोध्या के राजा थे। ऋषभदेव जी के सौ पुत्रा तथा एक पुत्राी थी। एक दिन परमेश्वर एक सन्त रूप में ऋषभ देव जी को मिले, उनको भक्ति करने की प्रेरणा की, ज्ञान सुनाया कि मानव जीवन में यदि शास्त्राविधि अनुसार साधना नहीं की तो मानव जीवन व्यर्थ जाता है। वर्तमान में जो कुछ भी जिस मानव को प्राप्त है, वह पूर्व जन्म-जन्मान्तरों मे किए पुण्यों तथा पापों का फल है। आप राजा बने हो, यह आप का पूर्व का शुभ कर्म फल है। यदि वर्तमान में भक्ति नहीं करोगे तो आप भक्ति शक्तिहीन तथा पुण्यहीन होकर नरक में गिरोगे तथा फिर अन्य प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाओगे। (जैसे वर्तमान में इन्वर्टर की बैटरी चार्ज कर रखी है और चार्जर निकाल रखा है। फिर भी वह बैटरी कार्य कर रही है, इन्वर्टर से पँखा भी चल रहा है, बल्ब-ट्यूब भी जग रहे हंै। यदि चार्जर को फिर से लगाकर चार्ज नहीं किया तो कुछ समय उपरान्त इन्वर्टर सर्व कार्य छोड़ देगा, न पँखा चलेगा, न बल्ब, न ट्यूब जगेंगीं। इसी प्रकार मानव शरीर एक इन्वर्टर है। शास्त्र अनुकूल भक्ति चार्जर है, परमात्मा की शक्ति से मानव फिर से चार्ज हो जाता है अर्थात् भक्ति की शक्ति का धनी तथा पुण्यवान हो जाता है।

यह ज्ञान उस ऋषि रूप में प्रकट परमात्मा के श्री मुख कमल से सुनकर ऋषभदेव जी ने भक्ति करने का पक्का मन बना लिया। ऋषभदेव जी ने ऋषि जी का नाम जानना चाहा तो ऋषि जी ने अपना नाम ’’कवि देव’’ अर्थात् कविर्देव बताया तथा यह भी कहा कि मैं स्वयं पूर्ण परमात्मा हूँ। मेरा नाम चारों वेदों में ’’कविर्देव’’ लिखा है, मैं ही परम अक्षर ब्रह्म हूँ।

सूक्ष्म वेद में लिखा है:-

ऋषभ देव के आइया, कबी नामे करतार।
नौ योगेश्वर को समझाइया, जनक विदेह उद्धार।।

भावार्थ:- ऋषभदेव जी को ’’कबी’’ नाम से परमात्मा मिले, उनको भक्ति की प्रेरणा की। उसी परमात्मा ने नौ योगेश्वरों तथा राजा जनक को समझाकर उनके उद्वार के लिए भक्ति करने की प्रेरणा की। ऋषभदेव जी को यह बात रास नहीं आई कि यह कविर्देव ऋषि ही प्रभु है परन्तु भक्ति का दृढ़ मन बना लिया।

एक तपस्वी ऋषि से दीक्षा लेकर ओम् (ऊँ) नाम का जाप तथा हठयोग किया।
ऋषभदेव जी का बड़ा पुत्र ’’भरत’’ था, भरत का पुत्र मारीचि था। ऋषभ देव जी ने पहले एक वर्ष तक निराहार रहकर तप किया। फिर एक हजार वर्ष तक घोर तप किया। तपस्या समाप्त करके अपने पौत्र अर्थात् भरत के पुत्र मारीचि को प्रथम धर्मदेशना (दीक्षा) दी। यह मारीचि वाली आत्मा 24वें तीर्थकर महाबीर जैन जी हुए थे। ऋषभदेव जी ने जैन धर्म नहीं चलाया, यह तो श्री महाबीर जैन जी से चला है। वैसे श्री महाबीर जी ने भी किसी धर्म की स्थापना नहीं की थी। केवल अपने अनुभव को अपने अनुयाईयों को बताया था। वह एक भक्ति करने वालों का भक्त समुदाय है। ऋषभदेव जी ‘‘ओम्‘‘ नाम का जाप ओंकार बोलकर करते थे।
उसी को वर्तमान में अपभ्रंस करके ’’णोंकार’’ मन्त्र जैनी कहते हैं, इसी का जाप करते हैं, इसको ओंकार तथा ऊँ भी कहते हैं।
हम अपने प्रसंग पर आते हंै। जैन धर्म ग्रन्थ में तथा जैन धर्म के अनुयाईयों द्वारा लिखित पुस्तक ’’आओ जैन धर्म को जानें’’ में लिखा है कि ऋषभदेव जी (जैनी उन्हीं को आदिनाथ कहते हैं) वाला जीव ही बाबा आदम रूप में जन्मा था।
अब उसी सूक्ष्म वेद की वाणी का सरलार्थ करता हूँ:-

वही मुहम्मद वही महादेव, वही आदम वही ब्रह्मा।
दास गरीब दूसरा कोई नहीं, देख आपने घरमा।।
बाबा आदम जी भगवान ब्रह्मा जी के लोक से आए थे क्योंकि मानव जन्म में की गई साधना के अनुसार प्राणी भक्ति अनुसार ऊपर तीनों देवताओं के लोक में बारी-बारी जाता है, अपने पुण्य क्षीण होने पर पुनः पृथ्वी पर संस्कारवश जन्म लेता है।
संत गरीब दास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर हरियाणा प्रांत वाले) को स्वयं ही वही परमात्मा मिले थे जो ऋषभदेव जी को मिले थे। संत गरीब दास जी ने परमेश्वर के साथ ऊपर जाकर अपनी आँखों से सर्व व्यवस्था को देखा था। फिर बताया है कि आदम जी ब्रह्मा जी के लोक से आए थे, ब्रह्मा के अवतार थे।
मुहम्मद जी तम्गुण शिव जी के अवतार थे। प्रिय पाठको! अवतार दो प्रकार के होते हैं, 1 स्वयं वह प्रभु अवतार लेता है जैसे श्री राम, श्री कृष्ण आदि के रूप में स्वयं श्री विष्णु जी अवतार धारकर आए थे। परन्तु कपिल ऋषि जी, परशुराम जी को भी विष्णु जी के अवतारों में गिना जाता है। ये स्वयं श्री विष्णु जी नहीं थे, विष्णु लोक से आए देवात्मा थे। उनके पास कुछ शक्ति विष्णु जी की थी क्योंकि वे उन्हीं के द्वारा भेजे गए थे। इसी प्रकार हजरत मुहम्मद जी श्री शिव जी के (लोक से आए देव आत्मा) अवतार थे तथा बाबा आदम जी श्री ब्रह्मा जी के (लोक से आए देव आत्मा) अवतार थे। इसी प्रकार ईसा मसीह जी श्री विष्णु जी के (लोक से आए देव आत्मा) अवतार थे। ईसाई श्रद्धालु भी ईसा जी को प्रभु का पुत्र मानते हैं, प्रभु नहीं।
संत गरीब दास जी ने कहा है कि यदि आप जी को मेरी बात पर विश्वास नहीं होता तो मेरे द्वारा बताई शास्त्रविधि अनुसार भक्ति-साधना करके अपने घर में अर्थात् अपने मानव शरीर में अपनी आँखों देख लो।
भावार्थ है :- शरीर की रचना सर्व धर्मों के मनुष्यों की एक जैसी है । तत्वज्ञान न होने के कारण हम धर्मों में बँट गए। संत गरीब दास जी ने बताया है कि मानव शरीर में परमेश्वर ने भिन्न-भिन्न अंग बनाए हैं. रीढ़ की हड्डी अर्थात् Back Bone (Spine) के अन्दर की ओर (कण्ठ तक) पाँच कमल चक्र बने हैं।
1. मूल चक्र :- यह चक्र रीढ़ की हड्डी के अन्त से एक इंच ऊपर गुदा के पास है। इसका देवता श्री गणेश है। इस कमल की 4 पंखुडियाँ है।
2. स्वाद चक्र : यह मूल कमल से दो इंच ऊपर रीढ की हड्डी के अन्दर की ओर चिपका है। इसके देवता श्री ब्रह्मा जी तथा उनकी धर्मपत्नी सावित्री जी हैं। इस कमल की छ: पंखुड़ियाँ है।
3. नाभि कमल चक्र :- यह नाभि के सामने उसी रीढ़ की हड्डी के साथ चिपका है। इसके देवता श्री विष्णु जी तथा उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मी जी हैं। इस कमल की 8 पंखुड़ियाँ हैं ।
4. हृदय कमल चक्र:- यह कमल सीने में बने दोनों स्तनों के मध्य में रीढ़ की हड्डी के साथ चिपका है। इसके देवता श्री शिव जी तथा उनकी धर्मपत्नी पार्वती जी हैं। इस कमल की 12 पंखुड़ियाँ हैं ।
5. कण्ठ कमल :- यह कमल छाती की हड्डियों के ऊपर जहाँ से गला शुरू होता है, उसके पीछे रीढ़ की हड्डी के साथ अंत में है। इसकी प्रधान श्री देवी अर्थात् दुर्गा जी हैं। इस कमल की 16 पंखुड़ियाँ हैं। शेष कमल चक्र ऊपर हैं।
6. संगम कमल या छठा कमल :- यह कमल सुष्मणा के ऊपर वाले द्वार पर है इसकी तीन पंखुड़ियाँ हैं इसमें सरस्वती रूप में देवी दुर्गा जी निवास करती हैं। एक पंखुड़ी में देवी दुर्गा सरस्वती रूप में रहती है। उसी के साथ में 72 करोड़ उर्वशी (सुंदर परियाँ) रहती हैं जो ऊपर जाने वाले भक्तों को अपने जाल में फँसाती हैं। दूसरी पंखुड़ी में सुंदर युवा नर रहते हैं जो भक्तमतियों को आकर्षित करके काल जाल में रखते हैं। काल भी अन्य रूप में इन युवाओं का संचालक मुखिया बनकर रहता है। तीसरी पंखुड़ी में स्वयं परमात्मा अन्य रूप में रहते हैं । अपने भक्तों को उनके जाल से मुक्त कराते हैं। ज्ञान सुनाकर सतर्क करते हैं।
7. त्रिकुटी कमल चक्र :- यह दोनों आँखों की भौंहों (सेलियों) के मध्यम में सिर के पिछले हिस्से में अन्य कमलों की ही पंक्ति में ऊपर है। इसका देवता सतगुरू रूप में परमेश्वर ही है इस कमल की दो पंखुड़ियाँ है एक सफेद (वर्ण) रंग की दूसरी काले (भंवर = भंवरे) के रंग की पंखुड़ियाँ हैं सफेद पंखुड़ी में सतगुरू रूप में सत्यपुरूष का निवास है। काली पंखुड़ी में नकली सतगुरू रूप में काल निरंजन का वास है।
8. सहंस कमल चक्र : यह कमल सिर के मध्य भाग से दो ऊंगल नीचे अन्य कमलों की ही पंक्ति में है हिन्दू धर्म के व्यक्ति सिर पर बालों की चोटी रखते थे, कुछ अब भी रखते हैं। इसके नीचे वह सहस्र कमल दल है। इसका देवता ब्रह्म है, इसे क्षर पुरूष भी कहते हैं जिसने गीता व वेदों का ज्ञान कहा है। इस कमल की एक हजार पंखुड़ियाँ हैं। इनको काल ब्रह्म ने प्रकाश से भर रखा है, स्वयं इसी कमल चक्र में दूर रहता है। वह स्वयं दिखाई नहीं देता, केवल पंखुड़ियाँ चमकती दिखाई देती है।
[ अष्ट कमल दल :- इस कमल का देवता अक्षर पुरूष है, इसे परब्रह्म भी कहते हैं, इसकी पंखुड़ियाँ भी है इसकी स्थिति नहीं बताऊँगा क्योंकि नकली गुरू भी इसको जानकर जनता को भ्रमित कर देंगे ।]
9. संख कमल दल :- इस कमल में पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म का निवास है। इसकी शंख पंखुड़ियाँ है इसकी स्थिति भी नहीं बताऊँगा, कारण ऊपर लिख दिया है।
[जो चित्र में दिखाए हैं। इनमें छठा कमल तथा नौंवा कमल नहीं दिखाया है। कारण यही है कि विद्यार्थियों की धीरे-धीरे ज्ञान वृद्धि की जाती है। कमलों का गहरा रहस्य है। यह कबीर सागर के सारांश में लिखा है। }
शरीर में ये कमल ऐसा कार्य करते हैं, जैसे टेलीविजन में चैनल लगे हैं। उन चैनलों में से जिस भी चैनल को चालू करोगे, उस पर कार्यक्रम दिखाई देगा। वह कार्यक्रम चल तो रहा है स्टूडियो में दिख रहा है टी.वी. में इसी प्रकार प्रत्येक कमल का फंक्शन (Function) है। इन कमलों को चालू करने के मन्त्र हैं जो यह दास (संत रामपाल दास) जाप करने को देता है। प्रथम बार दीक्षा इन्हीं चैनलों को खोलने की दी जाती है। मन्त्रों की शक्ति से सर्व कमल On (चालू) हो जाते हैं, फिर साधक अपने शरीर में लगे चैनल में उस देव के धाम को देख सकता है, वहाँ के सर्व दृश्य देख सकता है। इसलिए संत गरीब दास जी ने कहा है कि आप अपने शरीर के चैनल On (चालू) करके स्वयं देख लो कि आदम जी आप को ब्रह्मा के लोक से आए दिखाई देंगे क्योंकि वहाँ पर सर्व रिकॉर्ड उपलब्ध है। जैसे वर्तमान में You Tube है, इसी प्रकार प्रत्येक देव के लोक में आप जो पूर्व में हुई घटना देखना चाहें, आप देख सकते हैं।
इसी प्रकार हजरत मुहम्मद जी आपको शिव जी के लोक से आए दिखाई देंगे। इसी प्रकार ईसा जी भी श्री विष्णु जी के लोक से आए दिखाई देंगे।

मक्का महादेव का मंदिर है


भाई बाले वाली जन्म साखी में प्रमाण है:-
‘‘साखी मदीने की चली‘‘ हिन्दी वाली के पृष्ठ 262 पर श्री नानक जी ने चार इमामों के प्रश्न का जवाब देते हुए कहा है:-
Janam Sakhi page 245

आखे नानक शाह सच्च, सुण हो चार इमाम।
मक्का है महादेव का, ब्राह्मण सन सुलतान।।

अब आप जी को अपने उद्देश्य की ओर ले चलता हूँ। आप जी को स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जो यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान सूक्ष्म वेद, गीता तथा चारों वेदों में है, वह न तो पुराणों में है, न र्कुआन् शरीफ में, न बाईबल में, न छः शास्त्रों तथा न ग्यारह उपनिषदों में।
उदाहरण:- जैसे दसवीं कक्षा तक का पाठ्यक्रम गलत नहीं है, परंतु उसमें B.A. तथा M.A. वाला ज्ञान नहीं है। वह पाठ्यक्रम गलत नहीं है, परन्तु पर्याप्त नहीं है। समझने के लिए इतना ही पर्याप्त है।

अन्य उदाहरण:- गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन! बड़े जलाशय (झील) की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय (तालाब, जोहड़) में जितनी आस्था रह जाती है, उसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का सम्पूर्ण ज्ञान होने के पश्चात् अन्य ज्ञान तथा भगवानों में वैसी ही आस्था रह जाती है।
जिस समय गीता ज्ञान कहा गया था, उस समय सर्व मानव जलाशयों के आसपास बसते थे, वर्षा होती थी, तालाब भर जाते थे। पूरे वर्ष उसी जलाशय से मानव स्वयं पानी पीते थे, पशुओं को उसी से पिलाते थे। उसके दो भाग कर लिए जाते थे। यदि एक वर्ष वर्षा न होती तो छोटे जलाशयों पर आश्रित व्यक्तियों को संकट हो जाता था, त्राहि-त्राहि मच जाती थी।
झील बहुत बड़ा गहरा जलाशय होता है जिसका पानी 10 वर्ष वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं होता। यदि किसी व्यक्ति को झील वाला जलाशय मिल जाए तो वह तुरंत छोटे जलाशय को छोड़कर उस झील के किनारे बसेरा कर लेता था। इसी प्रकार आप जी को इस पवित्र पुस्तक ’’गीता तेरा ज्ञान अमृत’’ में वह झील वाला जलाशय प्राप्त है। अतिशीघ्र इसके किनारे आकर बसेरा करें और अपना मानव जीवन सुखी करें। कृपा पीऐं इस ज्ञान अमृत को और अमर हो जाऐं। हिन्दू कहते हैं कि मुसलमान सर्व विपरीत साधना करते हैं। हम उदय होते सूर्य को प्रणाम करते हैं, मुसलमान अस्त होते सूर्य को सलाम करते हैं।
विवेचन:- दोनों का आशय सही है, परन्तु विवेक की कमी है। हिन्दू उदय होते सूर्य को धन्यवाद करते हैं कि हे प्रकाश के देवता! आपका धन्यवाद करते हैं, आप ने काली रात के पश्चात् उजाला दिया जिससे हम अपना निर्वाह कार्य कर सकेंगे। आप ऐसे ही हम पर कृपा बनाए रखना।
मुसलमान जानते हैं कि सुबह तो सूर्यदेव का धन्यवाद हमारे बड़े भाईयों हिन्दुओं ने हम सबकी मंगल कामना करते हुए कर दिया। सूर्य अस्त होते समय हम सूर्य का धन्यवाद कर देते हैं कि हे प्रकाश करने वाले सूर्य! आपने हम सर्व जीवों को प्रकाश प्रदान करके हम पर बड़ा उपकार किया। हम आपका धन्यवाद करते हैं। आप कल फिर इसी प्रकार कृपा करना, आप भी अल्लाह अकबीर की रचना हो और हम भी उसी की सन्तान हैं।
वास्तव में न तो मुसलमान सूर्य की पूजा करते हैं, न हिन्दू। दोनों पक्ष पूर्व-पश्चिम की ओर मुख करके सुबह हिन्दू तथा शाम को मुसलमान परमात्मा की भी पूजा करते हैं।
पूजा केवल पूर्ण परमात्मा की करनी चाहिए। अन्य देवों, फरिश्तों का आदर करना चाहिए। अधिक ज्ञान के लिए आगे पढ़ें ’’गीता का सत्य सार’’ इसी पुस्तक में।
निवेदन:- इसी पुस्तक के अंत में पृष्ठ 204 पर गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित श्री जयदयाल गोयन्दका जी द्वारा अनुवादित गीता के संबंधित अध्यायों के श्लोकों की फोटोकाॅपी लगाई है ताकि आप जी सत्य को तुरंत जान सकें और आप जी को प्रमाण देखने के लिए अन्य गीता खरीदने की आवश्यकता न पड़े।

गीता का सत्य सार
गीता = श्रीमद्भगवत् गीता।
प्रश्न 1:- गीता का ज्ञान कब तथा किसने, किसको सुनाया, किसने लिखा? कृप्या विस्तार से बताऐं।
उत्तर:- श्री मद्भगवत् गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके काल भगवान ने (जिसे वेदों व गीता में “ब्रह्म” नाम से भी जाना जाता है) अर्जुन को सुनाया।
कुछ वर्षों के बाद वेदव्यास ऋषि ने इस अमृतज्ञान को संस्कृत भाषा में देवनागरी लिपि में लिखा। बाद में अनुवादकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस पवित्र ग्रन्थ का हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जो वर्तमान में गीता प्रैस गोरखपुर (UP) से प्रकाशित किया जा रहा है। उसकी फोटोकापियाँ इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 तक लगी हैं।
अर्जुन की ऐसी दशा देखकर श्री कृष्ण बोले:- देख ले सामने किस योद्धा से आपने लड़ना है। अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे कृष्ण! मैं किसी कीमत पर भी युद्ध नहीं करूँगा। अपने उद्देश्य तथा जो विचार मन में उठ रहे थे, उनसे भी अवगत कराया। उसी समय श्री कृष्ण जी में काल भगवान प्रवेश कर गया जैसे प्रेत किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके बोलता है। ऐसे काल ने श्री कृष्ण के शरीर में प्रवेश करके श्री मद्भगवत गीता का ज्ञान युद्ध करने की प्रेरणा करने के लिए तथा कलयुग में वेदों को जानने वाले व्यक्ति नहीं रहेंगे, इसलिए चारों वेदों का संक्षिप्त वर्णन व सारांश “गीता ज्ञान” रूप में 18 अध्यायों में 700 श्लोकों में सुनाया। श्री कृष्ण को तो पता नहीं था कि मैंने क्या बोला था गीता ज्ञान में? {ब्रह्माकुमारी पंथ वाले इसी काल ब्रह्म को निराकार शिव बाबा कहते हैं। उनका भी कहना है कि गीता का ज्ञान शिव बाबा ने किसी वृद्ध के शरीर में प्रवेश करके बोला था। यह शिव बाबा ब्रह्माकुमारी वालों का पूज्य प्रभु है।}
जिस समय कौरव तथा पाण्डव अपनी सम्पत्ति अर्थात् दिल्ली के राज्य पर अपने-अपने हक का दावा करके युद्ध करने के लिए तैयार हो गए थे, दोनों की सेनाऐं आमने-सामने कुरूक्षेत्र के मैदान में खड़ी थी। अर्जुन ने देखा कि सामने वाली सेना में भीष्म पितामह, गुरू द्रोणाचार्य, रिश्तेदार, कौरवों के बच्चे, दामाद, बहनोई, ससुर आदि-आदि लड़ने-मरने के लिए खड़े हैं। कौरव और पाण्डव आपस में चचेरे भाई थे। अर्जुन में साधु भाव जागृत हो गया तथा विचार किया कि जिस राज्य को प्राप्त करने के लिए हमें अपने चचेरे भाईयों, भतीजों, दामादों, बहनोइयों, भीष्म पितामह जी तथा गुरूजनों को मारेंगे। यह भी नहीं पता कि हम कितने दिन संसार में रहेंगे? इसलिए इस प्रकार से प्राप्त राज्य के सुख से अच्छा तो हम भिक्षा माँगकर अपना निर्वाह कर लेंगे, परन्तु युद्ध नहीं करेंगे। यह विचार करके अर्जुन ने धनुष-बाण हाथ से छोड़ दिया तथा रथ के पिछले भाग में बैठ गया। अर्जुन की ऐसी दशा देखकर श्री कृष्ण बोले:- देख ले सामने किस योद्धा से आपने लड़ना है। अर्जुन ने उत्तर दिया कि हे कृष्ण! मैं किसी कीमत पर भी युद्ध नहीं करूँगा। अपने उद्देश्य तथा जो विचार मन में उठ रहे थे, उनसे भी अवगत कराया। उसी समय श्री कृष्ण जी में काल भगवान प्रवेश कर गया जैसे प्रेत किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके बोलता है। ऐसे काल ने श्री कृष्ण के शरीर में प्रवेश करके श्री मद्भगवत गीता का ज्ञान युद्ध करने की प्रेरणा करने के लिए तथा कलयुग में वेदों को जानने वाले व्यक्ति नहीं रहेंगे, इसलिए चारों वेदों का संक्षिप्त वर्णन व सारांश “गीता ज्ञान” रूप में 18 अध्यायों में 700 श्लोकों में सुनाया। श्री कृष्ण को तो पता नहीं था कि मैंने क्या बोला था गीता ज्ञान में? {ब्रह्माकुमारी पंथ वाले इसी काल ब्रह्म को निराकार शिव बाबा कहते हैं। उनका भी कहना है कि गीता का ज्ञान शिव बाबा ने किसी वृद्ध के शरीर में प्रवेश करके बोला था। यह शिव बाबा ब्रह्माकुमारी वालों का पूज्य प्रभु है।}
कुछ वर्षों के बाद वेदव्यास ऋषि ने इस अमृतज्ञान को संस्कृत भाषा में देवनागरी लिपि में लिखा। बाद में अनुवादकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस पवित्र ग्रन्थ का हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जो वर्तमान में गीता प्रैस गोरखपुर (न्ण्च्) से प्रकाशित किया जा रहा है। उसकी फोटोकापियाँ इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 तक लगी हैं।
प्रमाण नं. 1:- गीता अध्याय 11 में जब गीता ज्ञान दाता ने अपना विराट रूप दिखा दिया तो उसको देखकर अर्जुन काँपने लगा, भयभीत हो गया। यहाँ पर यह बताना भी अनिवार्य है कि अर्जुन का साला श्री कृष्ण था क्योंकि श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था।
गीता ज्ञान दाता ने जिस समय अपना भयंकर विराट रूप दिखाया जो हजार भुजाओं वाला था। तब अर्जुन ने पूछा कि हे देव! आप कौन हैं? (गीता अध्याय 11 श्लोक 31)
सर्व प्रथम गीता से ही प्रमाणित करता हूँ।
प्रमाण नं. 1:- गीता अध्याय 10 में जब गीता ज्ञान दाता ने अपना विराट रूप दिखा दिया तो उसको देखकर अर्जुन काँपने लगा, भयभीत हो गया। यहाँ पर यह बताना भी अनिवार्य है कि अर्जुन का साला श्री कृष्ण था क्योंकि श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था।
गीता ज्ञान दाता ने जिस समय अपना भयंकर विराट रूप दिखाया जो हजार भुजाओं वाला था। तब अर्जुन ने पूछा कि हे देव! आप कौन हैं? (गीता अध्याय 11 श्लोक 31)
हे सहंस्राबाहु (हजार भुजा वाले) आप अपने चतुर्भुज रूप में दर्शन दीजिए (क्योंकि अर्जुन उन्हें विष्णु अवतार कृष्ण तो मानता ही था, परन्तु उस समय श्री कृष्ण के शरीर से बाहर निकलकर काल ने अपना अपार विराट रूप दिखाया था) मैं भयभीत हूँ, आपके इस रूप को सहन नहीं कर पा रहा हूँ। (गीता अध्याय 11 श्लोक 46)
विचारें पाठक जन: क्या हम अपने साले से पूछेंगे कि हे महानुभाव! बताईए आप कौन हैं? नहीं। एक समय एक व्यक्ति में प्रेत बोलने लगा। साथ बैठे व्यक्ति ने पूछा आप कौन बोल रहे हो? उत्तर मिला कि तेरा मामा बोल रहा हूँ। मैं दुर्घटना में मरा था। क्या हम अपने भाई को नहीं जानते? ठीक इसी प्रकार श्री कृष्ण में काल बोल रहा था।
प्रमाण नं. 2- गीता अध्याय 11 श्लोक 21 में अर्जुन ने कहा कि आप तो देवताओं के समूह के समूह को ग्रास (खा) रहे हैं जो आपकी स्तुति हाथ जोड़कर भयभीत होकर कर रहे हैं। महर्षियों तथा सिद्धों के समुदाय आप से अपने जीवन की रक्षार्थ मंगल कामना कर रहे हैं। गीता अध्याय 11 श्लोक 32 में गीता ज्ञान दाता ने बताया कि हे अर्जुन! मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब प्रवृत हुआ हूँ अर्थात् श्री कृष्ण के शरीर में अब प्रवेश हुआ हूँ। सर्व व्यक्तियों का नाश करूँगा। विपक्ष की सर्व सेना, तू युद्ध नहीं करेगा तो भी नष्ट हो जाएगी।
इससे सिद्ध हुआ कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रविष्ट होकर काल ने कहा है। श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी को देखकर कोई भयभीत नहीं होता था। गोप-गोपियाँ, ग्वाल-बाल, पशु-पक्षी सब दर्शन करके आनंदित होते थे। तो ‘‘क्या श्री कृष्ण जी काल थे?‘‘ नहीं।
इसलिए गीता ज्ञान दाता ‘‘काल‘‘ है जिसने श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके गीता शास्त्र का ज्ञान दिया।
प्रमाण नं. 3- गीता अध्याय 11 श्लोक 47 में गीता ज्ञानदाता ने कहा कि हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी शक्ति से तेरी दिव्य दृष्टि खोलकर यह विराट रूप दिखाया है। यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है।
विचारणीय विषय:- प्रिय पाठको! महाभारत ग्रन्थ में प्रकरण आता है कि जिस समय श्री कृष्ण जी कौरवों की सभा में उपस्थित थे और उनसे कह रहे थे कि आप दोनों (कौरव और पाण्डव) आपस में बातचीत करके अपनी सम्पत्ति (राज्य) का बटँवारा कर लो, युद्ध करना शोभा नहीं देता। पाण्डवों ने कहा कि हमें पाँच (5) गाँव दे दो, हम उन्हीं से निर्वाह कर लेंगे। दुर्योधन ने यह भी माँग नहीं मानी और कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक के समान भी राज्य नहीं है, युद्ध करके ले सकते हैं। इस बात से श्री कृष्ण भगवान बहुत नाराज हो गए तथा दुर्योधन से कहा कि तू पृथ्वी के नाश के लिए जन्मा है, कुलनाश करके टिकेगा। भले मानव! कहाँ आधा, राज्य कहाँ 5 गाँव। कुछ तो शर्म कर ले। इतनी बात श्री कृष्ण जी के मुख से सुनकर दुर्योधन राजा आग-बबूला हो गया और सभा में उपस्थित अपने भाईयों तथा मन्त्रिायों से बोला कि इस कृष्ण यादव को गिरफ्तार कर लो। उसी समय श्री कृष्ण जी ने विराट रूप दिखाया। सभा में उपस्थित सर्व सभासद उस विराट रूप को देखकर भयभीत होकर कुर्सियों के नीचे छिप गए, कुछ आँखों पर हाथ रखकर जमीन पर गिर गए। श्री कृष्ण जी सभा छोड़ कर चले गए तथा अपना विराट रूप समाप्त कर दिया।
अब उस बात पर विचार करते हैं जो गीता अध्याय 11 श्लोक 47 में गीता ज्ञान दाता ने कहा था कि यह मेरा विराट रूप तेरे अतिरिक्त अर्जुन! पहले किसी ने नहीं देखा था। यदि श्री कृष्ण गीता ज्ञान बोल रहे होते तो यह कभी नहीं कहते कि मेरा विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था क्योंकि श्री कृष्ण जी के विराट रूप को कौरव तथा अन्य सभासद पहले देख चुके थे।
इससे सिद्ध हुआ कि श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा, उनके शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके काल (क्षर पुरूष) ने कहा था। यह तीसरा प्रमाण हुआ।
प्रमाण नं. 4- श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के पृष्ठ 168 पर प्रमाण है कि एक समय देवताओं और राक्षसों का युद्ध हुआ। देवता पराजित होकर समुद्र के किनारे जाकर छिप गए। फिर भगवान की तपस्या स्तुति करने लगे। काल का विधान है अर्थात् काल ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अपने वास्तविक काल रूप में कभी किसी को दर्शन नहीं दूंगा। अपनी योग माया से छिपा रहूँगा। (प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में) इसलिए यह काल (क्षर पुरूष) किसी को विष्णु जी के रूप में दर्शन देता है, किसी को शंकर जी के रूप में, किसी को ब्रह्मा जी के रूप में दर्शन देता है।
देवताओं को श्री विष्णु जी के रूप में दर्शन देकर कहा कि मैंने जो आप की समस्या है, वह जान ली है। आप पुरंज्य राजा को युद्ध के लिए तैयार कर लो। मैं उस राजा श्रेष्ठ के शरीर में प्रविष्ट होकर राक्षसों का नाश कर दूंगा, ऐसा ही किया गया। (अधिक ज्ञान के लिए आप जी विष्णु पुराण पढ़ सकते हैं।
प्रमाण नं. 5- श्री विष्णु पुराण के पृष्ठ 173 पर प्रमाण है कि एक समय नागवंशियों तथा गंधर्वों का युद्ध हुआ। गंधर्वों ने नागों के सर्व बहुमूल्य हीरे, लाल व खजाने लूट लिए, उनके राज्य पर भी कब्जा कर लिया। नागाओं ने भगवान की स्तुति की, वही ‘‘काल‘‘ भगवान विष्णु रूप धारण करके प्रकट हुआ। कहा कि आप पुरूकुत्स राजा को गंधर्वों के साथ युद्ध के लिए तैयार कर लें। मैं राजा पुरूकुत्स के शरीर में प्रवेश करके दुष्ट गंधर्वों का नाश कर दूँगा, ऐसा ही हुआ।
उपरोक्त विष्णु पुराण की दोनों कथाओं से स्पष्ट हुआ (प्रमाणित हुआ) कि यह काल भगवान (क्षर पुरूष) इस प्रकार अव्यक्त (गुप्त) रहकर कार्य करता है। इसी प्रकार इसने श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके गीता का ज्ञान कहा है।
प्रमाण नं. 6- महाभारत ग्रन्थ में (गीता प्रैस गोरखपुर (UP) से प्रकाशित में) भाग-2 पृष्ठ 800-801 पर लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठर को राजगद्दी पर बैठाकर श्री कृष्ण जी ने द्वारिका जाने की तैयारी की। तब अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से कहा कि आप वह गीता वाला ज्ञान फिर से सुनाओ, मैं उस ज्ञान को भूल गया हूँ। श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन! आप बड़े बुद्धिहीन हो, बड़े श्रद्धाहीन हो। आपने उस अनमोल ज्ञान को क्यों भुला दिया, अब मैं उस ज्ञान को नहीं सुना सकता क्योंकि मैंने उस समय योगयुक्त होकर गीता का ज्ञान सुनाया था।
विचार करें:- युद्ध के समय योगयुक्त हुआ जा सकता है तो शान्त वातावरण में योगयुक्त होने में क्या समस्या हो सकती है? वास्तव में यह ज्ञान काल ने श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोला था।
श्री कृष्ण जी को स्वयं तो वह गीता ज्ञान याद नहीं, यदि वे वक्ता थे तो वक्ता को तो सर्व ज्ञान याद होना चाहिए। श्रोता को तो प्रथम बार में 40 प्रतिशत ज्ञान याद रहता है। इससे सिद्ध है कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी में प्रवेश होकर काल (क्षर पुरूष) ने बोला था। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि श्रीमद् भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं कहा। उनको तो पता ही नहीं कि क्या कहा था, श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने बोला था।
प्रश्न 2:- काल पुरूष कौन है?
उत्तर:- इसके लिए पढे़ं सृष्टि रचना जो पृष्ठ 120 पर लिखी है।
प्रश्न 3: काल भगवान अर्थात् ब्रह्म अविनाशी है या जन्मता-मरता है?
उत्तर:- जन्मता-मरता है।
प्रश्न 4:- कहाँ प्रमाण है?
उत्तर: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता स्वयं स्वीकार करता है कि मेरी भी जन्म व मृत्यु होती है, मैं अविनाशी नहीं हूँ। कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। तू, मैं और ये राजा लोग व सैनिक पहले भी थे, आगे भी होंगे, यह न जान कि हम केवल वर्तमान में ही हैं। मेरी उत्पत्ति को न तो देवता लोग जानते और न ही ऋषिजन क्योंकि यह सब मेरे से उत्पन्न हुए हैं।
इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता काल पुरूष अविनाशी नहीं है। इसलिए इसको क्षर पुरूष कहा जाता है।
प्रश्न 5: क्या ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव अविनाशी हैं?
उत्तर: नहीं। ये नाशवान हैं, इनकी भी जन्म-मृत्यु होती है, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी के माता-पिता भी हैं।
प्रश्न 6: कोई प्रमाण बताओ, माता-पिता का नाम भी बताओ।
उत्तर: श्री देवी महापुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कंद पृष्ठ 123 पर श्री विष्णु जी ने अपनी माता दुर्गा की स्तुति करते हुए कहा है कि हे मातः! आप शुद्ध स्वरूपा हो, सारा संसार आप से ही उद्भाषित हो रहा है, हम आपकी कृपा से विद्यमान है, मैं, ब्रह्मा और शंकर तो जन्मते-मरते हैं, हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है, हम अविनाशी नहीं हैं। तुम ही जगत जननी और सनातनी देवी हो और प्रकृति देवी हो। शंकर भगवान बोले, हे माता! विष्णु के बाद उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा जब आप का पुत्र है तो क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर तुम्हारी सन्तान नहीं हुआ अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम ही हो। इस देवी महापुराण के उल्लेख से सिद्ध हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी को जन्म देने वाली माता श्री दुर्गा देवी (अष्टंगी देवी) है और तीनों नाशवान हैं।
क्या गीता ज्ञान दाता ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव है?
उत्तर: नहीं।
प्रश्न 12: गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता। आप कैसे कहते हैं कि ब्रह्म भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं।
उत्तर: श्री देवी महापुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के सातवें स्कंध पृष्ठ 562-563 पर प्रमाण है कि श्री देवी जी ने राजा हिमालय को उपदेश देते हुए कहा है कि हे राजन! अन्य सब बातों को छोड़कर मेरी भक्ति भी छोड़कर केवल एक ऊँ नाम का जाप कर, “ब्रह्म” प्राप्ति का यही एक मंत्र है, इससे संसार के उस पार जो ब्रह्म है, उसको पा जाओगे, तुम्हारा कल्याण हो। वह ब्रह्मलोक रूपी दिव्य आकाश में रहता है। भावार्थ है कि ब्रह्म साधना का केवल एक ओम् (ऊँ) नाम का जाप है, इससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है और वह साधक ब्रह्म लोक में चला जाता है। इसी गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक सहित सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में तथा अन्य प्रकाशन की गीता में) गलत किया है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 16:-
आ ब्रह्म भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन। माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विधते।। (16)
इसका अनुवाद गलत किया है, जो इस प्रकार है:-
हे अर्जुन! ब्रह्म लोक पर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् जहाँ जाने के पश्चात् पुनः संसार में लौटकर आना पड़े। परन्तु मुझे प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं होता। (यह अनुवाद गलत है।) देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 पर अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद जो गीता प्रैस गोरखपुर वालों ने किया है, उसी की फोटोकापी लगाई है।
इसका वास्तविक अनुवाद इस प्रकार है:- ब्रह्म लोक तक सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में भी गए व्यक्तियों का पुनर्जन्म होता है जो यह नहीं जानते हैं। हे अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर भी उनका पुनर्जन्म है, इस श्लोक में “विद्यते” शब्द का अर्थ “जानना” बनता है। गीता अध्याय 6 श्लोक 23 में ‘‘विद्यात्‘‘ शब्द का अर्थ जानना किया है। यहाँ इस श्लोक में भी ‘‘विद्यते‘‘ का अर्थ ‘‘जानना‘‘ बनता है। देखें इसी पुस्तक में इसी श्लोक की फोटोकापी में। अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 15 पर्याप्त है।
मूल पाठ:-माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम् अशाश्वतम्।
न आप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धिम परमाम् गताः।। (8:15)
अनुवाद:- (माम) मुझे प्राप्त होकर (पुनर्जन्म) पुनर्जन्म होता है जो (अशाश्वतम्) नाशवान जीवन (दुःखालयम) दुखों का घर है। (परमाम्) परम (संसिद्धिम् गता) सिद्धि को प्राप्त (महात्मयः) महात्माजन (न आप्नुवन्ति) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।(गीता अध्याय 8 श्लोक 15)
भावार्थ:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर तो दुःखों का घर यह क्षणभंगुर जीवन जन्म-मरण होता है। जो महात्मा परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।
विचारें:- यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 तक का सारांश निकालें जो इस प्रकार है:- अर्जुन ने पूछा (गीता अध्याय 8 श्लोक 1) कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म” है।
फिर गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में “परम अक्षर ब्रह्म” की भक्ति करने को कहा है। अपनी भक्ति का मन्त्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में बताया है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) अक्षर है। उच्चारण करके स्मरण करता हुआ जो शरीर त्याग कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। पूर्व में श्री देवी पुराण से सिद्ध कर आए हैं कि ऊँ का जाप करके ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट है कि ब्रह्म लोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में ऊँ नाम के जाप से होने वाली परम गति का वर्णन है, परन्तु गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में जिस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम दिव्य पुरूष की भक्ति करने को कहा है, उसका मन्त्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में लिखा है।
ऊँ, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च विहिताः, पुरा।।
अनुवाद:- सचिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति का मन्त्र ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ है। “ऊँ‘‘ मन्त्र ब्रह्म यानि क्षर पुरूष का है। “तत्” यह सांकेतिक है जो अक्षर पुरूष का है। ‘‘सत्’’ मंत्र भी सांकेतिक मन्त्र है जो परम अक्षर ब्रह्म का है। इन तीनों मन्त्रों के जाप से वह परम गति प्राप्त होगी जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कही है कि जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का यह अर्थ सही मानें कि मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2, गलत सिद्ध हो जाते हैं जिनमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते, न महर्षिगण तथा न सिद्ध जानते। विचारणीय विषय यह है कि जब साध्य इष्ट का ही जन्म-मृत्यु होता है तो साधक को वह मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है जिससे पुनर्जन्म नहीं होता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद जो मैंने ऊपर किया है, वही सही है कि गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि ब्रह्म लोक तक सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए प्राणी भी लौटकर संसार में जन्म को प्राप्त होते हैं। जो यह नहीं जानते, वे मेरी भक्ति करके भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। इसीलिए तो गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्त करके उस तत्वज्ञान रुपी शस्त्र से अज्ञान को काटकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने संसार की रचना की है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि केवल उसी की भक्ति कर, सर्व का उसी से कल्याण सम्भव है।
प्रमाणित हुआ कि ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष सम्भव नहीं है। केवल पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है।
प्रश्न 13: ओम् (ऊँ) यह मन्त्र तो ब्रह्म का जाप हुआ, फिर यह क्यों कह रहे हो कि ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। आपने बताया कि गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ’’ऊँ तत् सत्’’ इस मन्त्र के जाप से पूर्ण मोक्ष होता है। इस मन्त्र में भी तो ओम् (ऊँ) मन्त्र है।
उत्तर: जैसे इन्जीनियर या डाॅक्टर बनने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है। पहले प्रथम कक्षा पढ़नी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे पाँचवीं-आठवीं, इस प्रकार दसवीं कक्षा पास करनी पड़ती है। उसके पश्चात् आगे पढ़ाई करनी होती है। फिर ट्रेनिंग करके इन्जीनियर या डाॅक्टर बना जाता है। ठीक इसी प्रकार श्री ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश तथा देवी की साधना करनी पड़ती है, मैं स्वयं करता हूँ तथा अपने अनुयाइयों से कराता हूँ। यह तो पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई अर्थात् साधना जानें, दूसरे शब्दों में पाँचों कमलों को खोलने की साधना है और ब्रह्म की साधना दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई जानें अर्थात् ब्रह्मलोक तक की साधना है जो ‘‘ऊँ‘‘ (ओम्) का जाप करना है और अक्षर पुरुष की साधना को 14वीं कक्षा की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘तत्’’ मन्त्र का जाप है। ‘‘तत्’’ मन्त्र तो सांकेतिक है, वास्तविक मन्त्र तो इससे भिन्न है जो उपदेशी को ही बताया जाता है। परम अक्षर पुरुष की साधना इन्जीनियर या डाॅक्टर की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘सत्’’ शब्द से करनी होती है। यह ‘‘सत्’’ मन्त्र भी सांकेतिक है। वास्तविक मन्त्र भिन्न है जो उपदेशी को बताया जाता है। इसको सारनाम भी कहते हैं।
इसलिए अकेले ‘‘ब्रह्म’’ के नाम ओम् (ऊँ) से पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ‘‘ऊँ‘‘ नाम का जाप ब्रह्म का है। इसकी साधना से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म है तो पूर्ण मोक्ष नहीं हुआ जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि परमात्मा के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर पुनर्जन्म में नहीं आता। वह पूर्ण मोक्ष पूर्ण गुरु से शास्त्रानुकूल भक्ति प्राप्त करके ही संभव है। विश्व में वर्तमान में मेरे (संत रामपाल दास) अतिरिक्त किसी के पास नहीं है।


परमात्मा एक है या अनेक हैं?
उत्तर:- कुल का मालिक एक है।
प्रश्न 15:- वह परमात्मा कौन है जो कुल का मालिक है, कहाँ प्रमाण है?
उत्तर:- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।
प्रमाण:- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।
विशेष:- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकाॅपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य अध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2ए सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा सर्व भवनों अर्थात् लोकों के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चैपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृप्या देखें उपरोक्त मन्त्रों की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 104-119 पर। परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बतायेः-
कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।
भावार्थ: वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार के मानो तीन शाखाऐं निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें), जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’ दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।
प्रश्न 16: क्या रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा (भक्ति) करनी चाहिए?
उत्तर: नहीं।
प्रश्न 17: कहाँ प्रमाण है कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए?
उत्तर: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24, गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में प्रमाण है कि जो व्यक्ति रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। (यह प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में यही कहा है और क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में जिनका वर्णन है), को छोड़कर श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी अन्य देवताओं में गिने जाते हैं। इन दोनों अध्यायों (गीता अध्याय 7 तथा अध्याय 9 में) में ऊपर लिखे श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जिस भी उद्देश्य को लेकर अन्य देवताओं को भजते हैं, वे भगवान समझकर भजते हैं। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति प्रदान कर रखी है। देवताओं के भजने वालों को मेरे द्वारा किए विधान से कुछ लाभ मिलता है। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं के लोक में जाते हैं। मेरे पुजारी मुझे प्राप्त होते हैं।
गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्राविधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जिन देवताओं पितरों, यक्षों, भैरों-भूतों की भक्ति करते हैं और मनकल्पित मन्त्रों का जाप करते हैं, उनको न तो कोई सुख होता है, न कोई सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (जो भक्ति करनी चाहिए) और अकत्र्तव्य (जो भक्ति न करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्रा ही प्रमाण हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन मान रहा था कि श्री कृष्ण ही ज्ञान सुना रहा है, परन्तु श्री कृष्ण के शरीर में प्रेत की तरह प्रवेश करके काल (ब्रह्म) ज्ञान बोल रहा था जो पहले प्रमाणित किया जा चुका है)। जो व्यक्ति शास्त्राविधि को त्यागकर अन्य देवताओं आदि की पूजा करते हैं, वे स्वभाव में कैसे होते हैं? गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि सात्विक व्यक्ति देवताओं का पूजन करते हैं। राजसी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा तथा तामसी व्यक्ति प्रेत आदि की पूजा करते हैं। ये सब शास्त्राविधि रहित कर्म हैं। फिर गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्राविधि से रहित केवल मनकल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भी (ढ़ोंगी) हैं और शरीर के कमलों में विराजमान शक्तियों को तथा मुझे भी क्रश करने वाले राक्षस स्वभाव के अज्ञानी जान।
सूक्ष्मवेद में भी परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
‘‘कबीर, माई मसानी सेढ़ शीतला भैरव भूत हनुमंत।
परमात्मा से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत।।
राम भजै तो राम मिलै, देव भजै सो देव।
भूत भजै सो भूत भवै, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘
स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सत्गुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए तथा इसके साथ-साथ भूतों, पितरों की पूजा, (श्राद्ध कर्म, तेरहवीं, पिण्डोदक क्रिया, सब प्रेत पूजा होती है) भैरव तथा हनुमान जी की पूजा भी नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 18: क्या क्षर पुरुष (ब्रह्म) की पूजा (भक्ति) करनी चाहिए या नही?
उत्तर: यदि पूर्ण मोक्ष चाहते हो जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में बताया है कि ‘‘तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेता।’’ तो क्षर पुरुष (ब्रह्म) ‘‘जो संसार रुपी वृक्ष की डार है’’ की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 19: पूर्व में जितने ऋषि-महर्षि हुए हैं, वे सब ब्रह्म की पूजा करते और कराते थे। ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) नाम को सबसे बड़ा तथा उत्तम मन्त्र जाप करने का बताते थे, क्या वे अज्ञानी थे? यदि ब्रह्म की भक्ति उत्तम नहीं है तो गीता में कोई प्रमाण बताऐं।
उत्तर: पूर्व में बताया गया है कि यथार्थ अध्यात्म ज्ञान स्वयं परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) धरती पर सशरीर प्रकट होकर ठीक-ठीक बताता है। देखें प्रमाण वेद मन्त्रों में इसी पुस्तक के पृष्ठ 104 पर। परमेश्वर द्वारा बताए ज्ञान को सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) कहा गया है। तत्वज्ञान में परमात्मा ने बताया है कि:-
गुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छड़े मूढ़ किसाना।
गुरु बिन बेद पढ़ै जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।
जिन ऋषियों व महर्षियों को सत्गुरु नहीं मिला। उनकी यह दशा थी कि वेद पढ़ते थे परन्तु वेदों का सार नहीं समझ सके। उदाहरण के लिये श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के पृष्ठ 414 पर (चैथे स्कन्द में) लिखा है कि सत्ययुग के ब्राह्मण (महर्षि) वेद के पूर्ण विद्वान होते थे और श्री देवी (दुर्गा) की पूजा करते थे।
विचार करें:- श्रीमद्भगवत गीता चारों वेदों का सारांश है। आप जी गीता जी को तो जानते ही हो, पढ़ते भी होंगे। क्या गीता में कहीं लिखा है कि ‘श्री देवी’ की पूजा करो? इसी प्रकार चारों वेदों में कहीं नहीं लिखा है कि दुर्गा (श्री देवी) की पूजा करो, तो क्या समझा वेदों को उन महर्षियों ने? क्या खाक विद्वान थे सत्ययुग के महर्षि? उन्हीं महर्षियों का मनमाना विधान है कि ऊँ (ओम्) नाम सबसे बड़ा अर्थात् उत्तम है जो कहते थे कि ब्रह्म पूजा (भक्ति) सर्वश्रेष्ठ है। प्रिय पाठको! जो ब्रह्म की पूजा इष्ट देव मानकर करते थे, वे ज्ञानी थे। उनकी ब्रह्म साधना अनुत्तम गति देने वाली है।
गीता में प्रमाण: श्रीमद्भगवत् अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तो बताया है कि जो तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर) की पूजा करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। यह गीता ज्ञान दाता ने कहा है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 16 से 18 तक में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि मेरी भक्ति चार प्रकार से करते हैं। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। फिर कहा कि ज्ञानी मुझे अच्छा लगता है, ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा हैं तो उदार (अच्छी) परन्तु ये सब मेरी अनुत्तम गति अर्थात् घटिया गति में आश्रित हैं। इस श्लोक (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मेरी भक्ति से होने वाली गति अनुत्तम (अश्रेष्ठ = घटिया) है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि:-
बहुनाम्, जन्मानाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते,
वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः।।
अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मेरी भक्ति बहुत-बहुत जन्मों के अन्त में कोई ज्ञानी आत्मा करता है अन्यथा अन्य देवी देवताओं व भूत, पितरों की भक्ति में जीवन नाश करते रहते हैं। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति से होने वाले लाभ अर्थात् गति को भी गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम (घटिया) बता दिया है। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कह रहा है कि:-
यह बताने वाला महात्मा मुश्किल से मिलता है कि ‘‘वासुदेव’’ ही सब कुछ है। यही सबका सृजनहार है। यही पापनाशक, पूर्ण मोक्षदायक, यही पूजा के योग्य है। यही (वासुदेव ही) कुल का मालिक परम अक्षर ब्रह्म है। केवल इसी की भक्ति करो, अन्य की नहीं।
गीता ज्ञान दाता ने भी स्वयं कहा है कि ‘‘हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।‘‘ (यह गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में प्रमाण है) फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ‘‘जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है। उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान को समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता, जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व की रचना की है, उसी की पूजा करो। इससे सिद्ध हुआ कि उन ऋषियों को वेद का गूढ़ रहस्य समझ नहीं आया। वे अज्ञानी रहे।
प्रश्न 20: गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को अनुत्तम क्यों कहा?
उत्तर: गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 2 श्लोक 12 गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को ऋषि-महर्षि तथा देवता नहीं जानते। तू और मैं तथा ये राजा व सैनिक बहुत बार पहले भी जन्मे हैं, आगे भी जन्मेंगे। पाठक जन विचार करें! जब ब्रह्म कह रहा है कि मेरा भी जन्म-मरण होता है तो ब्रह्म के पुजारी को गीता अध्याय 15 श्लोक 4 वाली गति (मोक्ष) प्राप्त नहीं हो सकती जिसमें जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। जब तक जन्म-मरण है, तब तक परमशान्ति नहीं हो सकती। उसके लिए गीता ज्ञानदाता ने असमर्थता व्यक्त की है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि परमशान्ति के लिए उस परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की शरण में जा, उसी की कृप्या से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो युद्ध भी करना पड़ेगा, जहाँ युद्ध है, वहाँ शान्ति नहीं होती, परम शान्ति का घर दूर है। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को (ऊँ नाम के जाप से होने वाला लाभ) अनुत्तम (घटिया) बताया है।

प्रश्न 22: जो साधना हम पहले कर रहे हैं, क्या वह त्यागनी पड़ेगी?
उत्तर: यदि शास्त्रविधि रहित है तो त्यागनी पड़ेगी। यदि अनाधिकारी से दीक्षा ले रखी है, उसका कोई लाभ नहीं होना। पूर्ण गुरु से साधना की दीक्षा लेनी पड़ेगी।
प्रश्न 23: गीता अध्याय 18 श्लोक 47 में तथा गीता अध्याय 3 श्लोक 35 में कहा है:-
श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः, भयावहः।। (गीता अध्याय 3 श्लोक 35)
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
उत्तर: यह अनुवाद गलत है। यदि यह बात सही है कि अपना धर्म चाहे गुणरहित हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए तो फिर श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान 18 अध्यायों के 700 श्लोकांे में लिखने की क्या आवश्यकता थी? एक यह श्लोक पर्याप्त था कि अपनी साधना जैसी भी हो उसे करते रहो, चाहे वह गुणरहित (लाभ रहित) भी क्यों न हो। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में यह क्यों कहा कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की पूजा राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख लोग मुझे नहीं भजते। गीता ज्ञान दाता ने उन साधकों से उनका धर्म अर्थात् धार्मिक साधना त्यागने को कहा है तथा गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 में कहा है कि जो मेरी पूजा न करके अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे अज्ञानी हैं। उनकी साधना से शीघ्र समाप्त होने वाला सुख (स्वर्ग समय) प्राप्त होता है। फिर अपनी धार्मिक पूजा अर्थात् धर्म भी त्यागने को कहा है। पूर्ण लाभ के लिए परम अक्षर ब्रह्म का धर्म अर्थात् धार्मिक साधना ग्रहण करने के लिए कहा है।
गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-
अनुवाद: (विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्) दूसरों के गुण रहित अर्थात् लाभ रहित अच्छी प्रकार चमक-धमक वाले धर्म अर्थात् धार्मिक कर्म से (स्वर्धमः) अपना शास्त्राविधि अनुसार धार्मिक कर्म (श्रेयान्) अति उत्तम है। (स्वधर्मे) अपने शास्त्राविधि अनुसार धर्म-कर्म के संघर्ष में (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है। (परधर्म) दूसरों का धार्मिक कर्म (भयावहः) भय को देने वाला है। भावार्थ है कि जैसे जागरण वगैरह होता है तो उसमें बड़ी सुरीली तान में सुरीले गीत गाए जाते हैं। तड़क-भड़क भी होती है। अपने शास्त्राविधि अनुसार धर्म-कर्म में केवल नाम-जाप या सामान्य तरीके से आरती की जाती है। किसी भी वेद या गीता में श्री देवी जी की पूजा तथा जागरण करने की आज्ञा नहीं है। जिस कारण शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण हुआ, इसलिए व्यर्थ है। दूसरों का शास्त्रविधि रहित धार्मिक कर्म देखने में अच्छा लगता है, उसमें लोग-दिखावा अधिक होता है तो सत्य साधना करने वाले को दूसरों के धार्मिक कर्म को देखकर डर बन जाता है कि कहीं हमारी भक्ति ठीक न हो। परन्तु तत्व ज्ञान को समझने के पश्चात् यह भय समाप्त हो जाता है। तत्व ज्ञान में बताया है कि:-
दुर्गा ध्यान पड़े जिस बगड़म, ता संगति डूबै सब नगरम्।
दम्भ करें डूंगर चढ़ै, अन्तर झीनी झूल।
जग जाने बन्दगी करें, बोवें सूल बबूल।।
इसलिए विगुण अर्थात् लाभरहित धार्मिक साधना को त्यागकर सत्य साधना शास्त्राविधि अनुसार करने से ही कल्याण होगा।
प्रश्न 24:- मैंने पारखी संत श्री अभिलाष दास के विचार सुने थे। वे कह रहे थे कि संसार का कोई रचने वाला भगवान वगैरह नहीं है। यह नर-मादा के संयोग से बनता है। फिर समाप्त हो जाता है। कोई भगवान नहीं है। जीव ही ब्रह्म है, जीव ही कर्ता है, अभिलाष दास के ये विचार उचित हैं या अनुचित?
उत्तर:- इसका उत्तर श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 6 से 10 में विस्तार से दिया गया है। कहा है कि जो आसुरी प्रकृति के लोग होते हैं, वे कहा करते हैं कि संसार बिना ईश्वर के है, स्त्राी-पुरुष से उत्पन्न है अर्थात् नर-मादा से उत्पन्न है। इसका कोई कर्ता नहीं है। ऐसे व्यक्ति संसार का नाश अर्थात् बुरा करने के लिए ही जन्म लेते हैं। वास्तविकता यह है कि परमात्मा सर्व संसार का सृजनहार है। जीव ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म का अर्थ प्रभु (स्वामी) होता है। जैसे (1) ब्रह्म (जिसको क्षर पुरुष भी कहा गया है) 21 ब्रह्माण्डों का स्वामी है। (2) अक्षर ब्रह्म (जिसको अक्षर पुरुष भी कहा गया है, गीता अध्याय 15 श्लोक 16) यह 7 शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है। (3) पूर्ण ब्रह्म (जिसको गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है) असंख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी है। यह कुल का मालिक है। यह कहना कि कोई भगवान नहीं है, संसार केवल स्त्राी-पुरुष या नर-मादा से उत्पन्न होता है, समाप्त हो जाता है। जीव ही कर्ता है अर्थात् जीव ही ब्रह्म है, यह पूर्णतया अनुचित है।
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