कबीर बड़ा या कृष्ण | Sant Rampal JI Maharaj


भूमिका


’’कबीर बड़ा या कृष्ण‘‘ नामक पुस्तक में अध्यात्म ज्ञान का विशेष विश्लेषण है जो आप जी ने कभी सुना तक नहीं होगा, न किसी पुस्तक में पढ़ा होगा। प्रमाण पर प्रमाण देकर सत्य को स्पष्ट किया है। अपने ग्रन्थों के गूढ़ रहस्यों को सरल किया है जो आज तक किसी धर्मगुरू,‌ ऋषि, महर्षि तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा शिव जी को ज्ञान नहीं है। यह कथन एकदम सत्य है, परंतु पूर्ण असत्य लगता है। जब आप जी इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो दाँतों तले ऊंगली दबाओगे। सत्य को प्रमाण सहित देखकर भी स्वीकार नहीं करना चाहोगे क्योंकि आप असत्य ज्ञान जन्म से ही सत्य मानकर सुनते आए हैं। हिन्दू समाज निःसंदेह ग्रन्थों को सत्य मानता है।




जैसे गीता, चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद), श्रीमद्भागवत (सुधासागर), महाभारत ग्रन्थ तथा अठारह पुराण आदि हिन्दू धर्म के प्रमाणित पवित्र ग्रन्थ माने गए हैं। जो प्रकरण इन पवित्रा शास्त्रों में लिखा है, उसे स्वीकार करने में हिन्दू धर्म के व्यक्ति को देर नहीं लगती।

कबीर बड़ा यानि समर्थ है या कृष्ण, इसका आप जी को इस पुस्तक में नपे-तुले शब्दों में शास्त्रों के प्रमाणों समेत पढ़ने को मिलेगा। यदि कोई अपने ग्रन्थों को नहीं मानता तो वह भक्त नहीं है। आँखों देखकर भी सत्य को स्वीकार न करके मनमाना आचरण करता है तो वह पाप आत्मा है जिसे आत्म कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है। उसके विषय में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, जान बूझ साची तजै, करै झूठ से नेह।

ताकि संगत हे प्रभु! स्वपन में भी ना देह।।

शब्दार्थ:- जो आँखों देखकर भी सत्य को स्वीकार नहीं करता, वह शुभकर्म हीन प्राणी है।
ऐसे व्यक्ति से मिलना भी उचित नहीं है। जाग्रत की तो बात छोड़ो, ऐसे कर्महीन व्यक्ति (स्त्री-पुरूष) से तो स्वपन में भी सामना ना हो।

फिर कबीर जी ने कहा है कि:-

ऐसा पापी प्रभात ना भैंटो, मुख देखें पाप लगै जाका।
नौ-दश मास गर्भ त्रास दई, धिक्कार जन्म तिस की माँ का।।

शब्दार्थ:- ऐसा निर्भाग व्यक्ति सुबह-सुबह ना मिले। ऐसे का मुख देखने से भी पाप लगता है। उसने तो अपनी माता जी को भी व्यर्थ में नौ-दस महीने गर्भ का कष्ट दिया। उसने अपनी माता का जन्म भी व्यर्थ कर दिया। कबीर जी ने फिर कहा है कि:-

कबीर, या तो माता भक्त जनै, या दाता या शूर।
या फिर रहै बांझड़ी, क्यों व्यर्थ गंवावै नूर।।

शब्दार्थ:- कबीर जी ने कहा है कि या तो जननी भक्त को जन्म दे जो शास्त्र में प्रमाण देखकर सत्य को स्वीकार करके असत्य साधना त्यागकर अपना जीवन धन्य करे। या किसी दानवीर पुत्र को जन्म दे जो दान-धर्म करके अपने शुभ कर्म बनाए। या फिर शूरवीर बालक को जन्म दे जो परमार्थ के लिए कुर्बान होने से कभी न डरता हो। सत्य का साथ देता है, असत्य तथा अत्याचार का डटकर विरोध करता है। उसके चलते या तो स्वयं मर जाता है या अत्याचारी की सेना को मार डालता है। अपने उद्देश्य से डगमग नहीं होता। यदि ऐसी अच्छी संतान उत्पन्न न हो तो निःसंतान रहना ही माता के लिए शुभ है। पशुओं जैसी संतान को गर्भ में पालकर अपनी जवानी को क्यों नष्ट करे यानि निकम्मी संतान गलती करके माता-पिता पर 304.ठ का मुकदमा बनवाकर जेल में डलवा देती है। इससे तो बांझ रहना ही उत्तम है।

सर्व मानव समाज से करबद्ध नम्र निवेदन है कि आप सब शास्त्रों के विरूद्ध साधना कर रहे हो। इस पवित्र पुस्तक को पढ़कर सत्य से परिचित होकर असत्य को त्यागकर सत्य साधना जो शास्त्र प्रमाणित है, करके अपना अनमोल मानव (स्त्राी-पुरूष का) जीवन धन्य बनाओ। अपना कल्याण करवाओ। सब संतों व धर्म प्रचारकों तथा गुरूजनों को दास ने (रामपाल दास) बहुत बार प्रार्थना की है कि आप मेरे से मिलो या मुझे बुलाओ ताकि मिलकर निर्णय करें कि यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान कौन-सा है? शास्त्रों में वर्णित भक्ति कौन-सी है? भक्त समाज इधर-उधर भटक रहा है। इनको शास्त्रविधि अनुसार भक्ति का मार्ग बताया जाए जिससे इनका आत्म कल्याण हो सके। सन् 2012 में टी.वी. चैनलों पर एड चलवाकर भी सबसे आग्रह किया था। टी.वी. चैनल भी बुक करवाया था कि भक्त समाज के सामने डिबेट हो ताकि समाज को पता चले कि सत्य क्या है? असत्य क्या है? परंतु कोई संत या गुरू नहीं आया। या तो उनको पता है कि हम शास्त्रविरूद्ध ज्ञान व साधना बता रहे हैं। हमारी पोल खुल जाएगी। या इनका अहंकार आड़े अड़ा है जो पतन का कारण है। इस पुस्तक में सत्य तथा निर्णायक ज्ञान बताया है। आशा करता हूँ शिक्षित मानव समझकर अपना जीवन सत्य साधना करके धन्य बनाएगा।

संत तथा भक्त समाज से लेखक का करबद्ध निवेदन है कि कृपया आप शास्त्राविहीत साधना करो यानि जो वेदों व श्रीमद्भगवत गीता में साधना करने को कहा है, वही करें। जो मना किया है, वह न करो। वेद पाँच हैं:- 1सूक्ष्मवेद 2ऋग्वेद 3यजुर्वेद 4सामवेद 5अथर्ववेद। श्रीमद्भगवत गीता, यह सर्व वेदों का सार है। इसमें कुछ वर्णन संजय का व धृतराष्ट्र का है, कुछ काल ब्रह्म‌ का है। शेष वेदों वाला ज्ञान है।
‘‘शास्त्रों की स्थिति’’
पाँचों वेदों का ज्ञान उस परमेश्वर जी ने दिया है जिसको श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 8 श्लोक 3 में ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ कहा है तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में कहा है कि ‘‘अविनाशी तो उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में जिस के विषय में कहा है कि ’’जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है तथा जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने‌ स्वाभाविक कर्म करते-करते भक्ति करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।‘‘
जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में यह कहा है कि:-
’’उत्तमः पुरूषः तु अन्यः, परमात्मा इति उदाहृतः।
यः लोकत्रायम् आविश्य बिभर्ति, अव्ययः ईश्वरः।।‘‘
अर्थात् इस श्लोक में कहा है कि जो इसी अध्याय 15 के श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष कहे हैं जो नाशवान हैं, उत्तम पुरूष यानि पुरूषोत्तम (श्रेष्ठ प्रभु) तो उपरोक्त श्लोक 16 में कहे क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य ही है। वही परमात्मा कहा गया है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह ही अविनाशी परमेश्वर है।(गीता अध्याय 15 श्लोक 17) जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 61ए 62 तथा 66 में इस प्रकार कहा है:-
गीता अध्याय 18 श्लोक 61:- हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्रा में आरूढ़ हुए सब प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया (शक्ति) से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करवाता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- हे भारत! तू सर्वभाव से उस (उपरोक्त) परमेश्वर की शरण‌ में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। उपरोक्त प्रकरण में स्पष्ट है कि सर्व सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, सबका धारण-पोषणकर्ता परमात्मा‌ कहा जाने वाला वास्तव में अविनाशी व पुरूषोत्तम तो गीता ज्ञान देने वाले से अन्य है।
गीता अध्याय 18 श्लोक 66:- इस श्लोक में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर‌ की शरण में जाने को कहा है कि मेरे स्तर की सब धार्मिक कर्मों की कमाई (भक्ति धन) मुझमें छोड़कर उस उपरोक्त एक सर्व समर्थ परमेश्वर की शरण में जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।
पाठकजन इसी पुस्तक ’कबीर बड़ा या कृष्ण‘ में अध्याय नं. 3 सृष्टि रचना में पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता गीता ज्ञान देने वाले से अन्य है। उस परम अक्षर ब्रह्म (सतपुरूष)
ने पाँचों वेदों वाला ज्ञान (जो एक ही ज्ञान था।) गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म की आत्मा में डाला था। कुछ समय पश्चात् वह सम्पूर्ण वेद ज्ञान काल ब्रह्म के श्वांसों के साथ बाहर निकला।
काल ब्रह्म ने पढ़ा तो इसको भय हो गया कि यदि मेरे इक्कीस ब्रह्मंडों में रहने वाले मानव को यह‌ पता लग गया कि मैं काल हूँ तथा मेरे से अन्य परमेश्वर है। वह जहाँ रहता है, वहाँ कोई कष्ट किसी प्रकार का किसी को नहीं है, तो सब प्राणी मेरे लोक से चले जाएँगे। इसलिए इसने उस वेद से यथार्थ भक्ति मंत्र छोड़ दिए। कुछ ज्ञान भी छोड़ दिया। शेष अधूरा ज्ञान अपने पुत्रा रजगुण ब्रह्मा‌ को दे दिया। ब्रह्मा जी ने उसी अधूरे वेद ज्ञान को अपनी संतान ऋषियों को दिया। ऋषि कृष्ण द्वैपायन जी ने उस वेद ज्ञान को चार भागों में बाँटा जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद कहे गए। वेदों को चार भागों में बाँटने के कारण वह ऋषि वेद व्यास कहलाए। इन्हीं चारों वेदों के ज्ञान से संक्षिप्त में श्रीमद्भगवत गीता में बताया है।
सूक्ष्मवेद:- यह सम्पूर्ण अध्यात्म वेद यानि सम्पूर्ण ज्ञान है। प्राणियों को यथार्थ ज्ञान स्वयं परम अक्षर ब्रह्म पृथ्वी पर प्रकट होकर बताता है। भक्ति के यथार्थ नामों का आविष्कार करता है। अपने मुख से वाणी बोलता है जो सूक्ष्मवेद कहा जाता है। सूक्ष्मवेद के आधार से भक्ति करके साधक परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त हो सकता है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान किसी भी धर्मगुरू को, ऋषियों-महर्षियों को, संतों को नहीं है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान नहीं मिला तो उनका किसी का भी कल्याण नहीं हुआ। यह स्वसिद्ध है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान मेरे को (लेखक को) है। वर्तमान में भी मेरे अतिरिक्त विश्व में किसी के पास नहीं है। इसलिए मेरे से यह ज्ञान प्राप्त करके भक्ति नहीं करोगे तो जरा, जन्म-मरण से छुटकारा नहीं हो सकता।
अब पुराणों की जानकारी देता हूँ:- सब पुराण व उपनिषद उन ऋषियों द्वारा रचित हैं जिनको सूक्ष्मवेद का ज्ञान नहीं था। इसी कारण से पुराणों व उपनिषदों का ज्ञान वेद के तुल्य नहीं है।
प्रमाण:- पुराणों में प्रमाण है कि सब देवता व ऋषि घोर तप किया करते थे। ऋषिजन श्री विष्णु (सतगुण) तथा शिव जी (तमगुण) तथा श्री ब्रह्मा (रजगुण) व देवी की पूजा किया करते। वे मृत्युभोज, श्राद्ध किया करते जो भूत पूजा, पित्तर पूजा है। मंदिरों की स्थापना करवाया करते थे तथा मूर्ति, पत्थर या पीतल की बनवाकर उसकी पूजा किया करते, जिन क्रियाओं व तप को करने से गीता में मना किया है। (विस्तारपूर्वक जानकारी इसी पुस्तक में लिखी है।) वेद व गीता का ज्ञान परमेश्वर जी का बताया हुआ है तथा पुराणों व उपनिषदों का ज्ञान ऋषियों तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का बताया ज्ञान है। जो ज्ञान वेदों व गीता से मेल नहीं करता, वह साधना त्याग देनी चाहिए।
भक्ति केवल वेदों तथा गीता में बताए अनुसार करनी होगी। तब मानव जीवन सफल होगा। वह मोक्ष मिलेगा जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि ‘‘सूक्ष्म वेद का ज्ञान होने के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आता।‘‘ गीता ज्ञान देने वाले ने यह भी कहा है कि उसकी भक्ति करो, जिससे गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में बताई परमशांति प्राप्त होगी यानि जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाएगा तथा सनातन परम धाम (सतलोक) प्राप्त होगा। यह शास्त्रों की स्थिति बताई है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 23,24 में कहा है कि:-
गीता अध्याय 16 श्लोक 23:- जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है तो उसको न सिद्धि प्राप्त होती है यानि उसका कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, न सुख प्राप्त होता है तथा न गति (मोक्ष) प्राप्त होती है अर्थात् सब व्यर्थ साधना है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 24:- इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य यानि कौन-से भक्ति कर्म करने चाहिएँ तथा अकर्तव्य यानि कौन-से भक्ति कर्म नहीं करने चाहिएँ, के लिए शास्त्रा ही प्रमाण है। तू शास्त्रों में वर्णित साधना करने योग्य है यानि शास्त्र विहित साधना कर।
ऋषिजन चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) वाले अधूरे ज्ञान को यथार्थ सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान मानकर भक्ति करने लगे थे। ओम् नाम का जाप करते थे जो काल ब्रह्म का जाप है जिसने गीता व चारों वेदों का ज्ञान दिया है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में इस काल ब्रह्म ने अपनी पूजा का एक अक्षर ‘‘ओं’’ (ओम्-) बताया है।
इसी काल ब्रह्म ने गीता अध्याय 7 श्लोक 24,25 में बताया है कि मेरा अविनाशी अटल विद्यान है कि मैं अपने वास्तविक रूप में किसी के समक्ष प्रकट नहीं होता। अपनी योग माया (भक्ति की सिद्धि-शक्ति) से छुपा रहता हूँ। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में स्पष्ट किया है कि मेरी प्राप्ति वेदों में वर्णित साधना से यानि (ओम्) नाम के जाप से, यज्ञों से, किसी जप से तथा किसी प्रकार के तप से संभव नहीं है। मेरे इस विराट रूप के दर्शन भी तेरे को मैंने अनुग्रह करके कराए हैं। इससे सिद्ध हुआ कि वेदों में वर्णित विधि से साधना करने से उपाश्य ईष्ट देव की प्राप्ति नहीं है। अन्य लाभ है। ओम् के जाप से ब्रह्मलोक प्राप्ति है। यह काल ब्रह्म का जाप मंत्र है। यज्ञों से स्वर्ग प्राप्ति है तथा तप से राज्य प्राप्ति होती है। परमात्मा प्राप्ति नहीं है। यह ज्योति निरंजन यानि वेदों और गीता के ज्ञान दाता काल ब्रह्म का अटल विद्यान है। इसने यह प्रतिज्ञा क्यों कर रखी है? इसे विस्तारपूर्वक इसी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘‘सृष्टि रचना’’ में पढ़ें।
ऋषियो ने ओं नाम का जाप किया, साथ में हठ योग किया, हजारों वर्ष साधनारत रहे, परंतु परमात्मा नहीं मिला। कुछ प्रकाश देखा जिससे परमात्मा निराकार मान लिया। काल ब्रह्म ने किसी ऋषि को समाधि काल में अपने पुत्र ब्रह्मा के रूप में दर्शन दिए। उस ऋषि ने सबको बताया कि यह ब्रह्मा जी ही परमात्मा है। मेरे को समाधि दशा में दर्शन हुए हैं। ये अपने को छुपाए हुए है।
इस प्रकार कई ऋषियों को श्री ब्रह्मा (रजगुण) रूप में काल ब्रह्म ने दर्शन दिए तो सब ऋषियों ने एक स्वर में ब्रह्मा जी (रजगुण) के पास जाकर कहा कि आप अपने को छुपाए हुए हैं। आप ही विश्व के उत्पत्ति व पालनकर्ता हैं। जिस कारण से ब्रह्मा जी (रजगुण) को भ्रम हो गया कि जब इतने सारे ऋषि साधक कह रहे हैं तो फिर मैं ही पूर्ण परमात्मा जगत का कर्ता हूँ। कुछ ऋषियों को साधना काल में समाधि दशा में अपने दूसरे पुत्र श्री विष्णु जी (सतगुण) के रूप में काल ब्रह्म ने दर्शन दिए। जिस कारण से श्री विष्णु जी (सतगुण) को भ्रम हो गया कि फिर तो मैं ही जगत का उत्पत्तिकर्ता परमेश्वर हूँ। ब्रह्मा भी मेरे नाभि कमल से उत्पन्न हुआ है।
इसी भ्रम के कारण अहंकारवश एक दिन श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी के पास गए। विष्णु जी अपने पारखदों के साथ शेष शय्या पर लेटे थे। ब्रह्मा जी के आने पर उनका आव-भगत नहीं किया। जिस कारण से ब्रह्मा जी को क्रोध आया और विष्णु जी से बोला कि मैं सबका उत्पत्तिकर्ता हूँ। यह विष्णु अहंकारवश मेरा सम्मान नहीं कर रहा। इसे सबक सिखाना चाहिए। यह विचार करके ब्रह्मा जी ने कहा कि हे पुत्र विष्णु! देख तेरा बाप आया है। तू अहंकार में है। अपने पिता का आदर नहीं कर रहा है। मैं सर्व सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता हूँ। तू मेरे द्वारा उत्पन्न है। तेरा अहंकार ठीक करना पड़ेगा। ब्रह्मा जी के वचन सुनकर श्री विष्णु जी ने क्रोध को प्रकट न करके कहा कि आ पुत्र ब्रह्मा! तू मेरी नाभि से उत्पन्न हुआ है। इसलिए मेरा पुत्र हुआ। मैं सारी सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता व पालनकर्ता परमेश्वर हूँ। तूने अभिमानवश मुझे अपना पुत्र कहा है, यह बहुत ही गलत है, मैं तेरा पिता हूँ। अब तेरे अभिमान को तोड़ना पड़ेगा। दोनों ने युद्ध करना प्रारंभ कर दिया। उसी समय काल ब्रह्म ने उन दोनों (ब्रह्मा व विष्णु) के मध्य में तेजोमय स्तंभ खड़ा कर दिया। उन्होंने युद्ध बंद कर दिया। फिर काल ब्रह्म अपने तीसरे पुत्रा शिव (तमगुण) के रूप में प्रकट हुआ। अपने साथ अपनी पत्नी अष्टांगी देवी (दुर्गा देवी) को पार्वती रूप में लाया। तब उनसे कहा कि पुत्रो! तुमने अपने को जगत कर्ता माना, यह बहुत ही अद्भुत हुआ। तुम ईश नहीं हो, तुम दोनों को तथा शिव को मैंने तुम्हारे तप के प्रतिफल में एक-एक कृत दिया है।
विचार करें:- ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ईश यानि परमात्मा नहीं हैं। इनका पिता काल ब्रह्म है। माता देवी दुर्गा है। सबको धोखे में रखे हुए हैं। काल ब्रह्म इस प्रकार सबको भ्रमित करके रखता है। अपने जाल में फँसाए हुए है। यह प्रकरण श्री शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता में लिखा है। आज तक श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव को भी नहीं पता कि हमारा पिता कौन है? माता का पता है। देवी दुर्गा जी हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु को युद्ध में मिला, उस समय शिव-पार्वती के रूप में मिला। जिस कारण से उन दोनों ने समझा कि शिव (तमगुण) हैं। इसने हमारा युद्ध समाप्त करवाने के लिए लीला की है। वास्तव में वह काल ब्रह्म था।
(पाठकजन विस्तृत वर्णन इसी पुस्तक में पढ़ेंगे।)
जैसा कि पूर्व में बताया है कि ऋषिजन (ओं) नाम का जाप करते थे तथा समाधि लगाते थे। जैसे कुछेक ऋषियोें को ब्रह्मा जी (रजगुण) के रूप में दर्शन दिए, कुछेक को विष्णु जी (सतगुण) के रूप में दर्शन दिए। इसी प्रकार कुछ साधक ऋषियों को शिव जी (तमगुण) के रूप में दर्शन दिए। उन्होंने शिव जी से कहा कि आप सृष्टि के कर्ता हो। आप सबके मालिक हो। आप अपने को छुपाए हुए हो। इस प्रकार ये तीनों भी ऋषियों से अपने को कर्ता हो सुनकर मान बैठे कि हम तीनों ही कर्ता हैं। ऋषि क्या झूठ बोलते हैं।
ऋषियों को वेदों में वर्णित साधना से, यज्ञों से, जप तथा तप करने से परमेश्वर प्राप्ति नहीं हुई। तप करने से, जप करने से सिद्धियाँ मिल गई। उन सिद्धियों के बल से प्रसिद्धि प्राप्त करते रहे। जीवन नष्ट कर गए।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
।। सत साहेब।।
सर्व का शुभचिंतक
लेखक
दासन दास रामपाल दास
पुत्रा/शिष्य स्वामी रामदेवानंद जी
सतलोक आश्रम बरवाला
जिला-हिसार, हरियाणा (भारत)
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