अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का सारांश: Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

 अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का सारांश Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

कबीर सागर में अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 97(521) पर है। यह 8वां अध्याय है। परमेश्वर कबीर जी से धर्मदास जी ने जानना चाहा कि हे परमात्मा! आपने बताया कि काशी नगरी का नरेश बीर सिंह बघेल भी आपकी शरण में है। वह तो बहुत अभिमानी राजा था। वह कैसे आपकी शरण में आया? कृपा करके मुझ दास को बताऐं।

‘‘परमेश्वर कबीर बचन‘‘

परमात्मा की प्यारी आत्माओं से निवेदन है कि कबीर जी के ग्रन्थ की दुर्दशा कर रखी है। इस ग्रन्थ के अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ के प्रारम्भ में जितने संतों का वर्णन किया है कि वे सब इकट्ठे होकर राजा बीर सिंह के महल के पास कीर्तन कर रहे थे। वे समकालीन नहीं थे। नामदेव जी का जन्म सन् 1270 (विक्रमी संवत् 1327) में महाराष्ट्र में हुआ। परमेश्वर कबीर जी सन् 1398 (विक्रमी संवत् 1455) में काशी नगरी में लहर तारा नामक सरोवर में कमल के फूल पर जल के ऊपर शिशु रूप में प्रकट हुए थे। परमेश्वर कबीर जी राजा बीर सिंह बघेल के समकालीन थे। ग्रन्थ का नाश करने वाले ने इन-इन संतों को मिलकर कीर्तन करते लिखा है। श्री नामदेव, भक्त धन्ना जाट, रंका-बंका (ये दोनों पति-पत्नी थे। रंका पुरूष था, बंका स्त्राी थी। ये संत नामदेव के समकालीन थे। उस समय परमात्मा अन्य भेष में इनको मिले थे।) फिर लिखा है, सदन कसाई, पद्मावती आदि-आदि भी उसी कीर्तन में थे। अब सत्य कथा इस प्रकार है:-

अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का सारांश Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji


राजा बीर सिंह को शरण में लेना

काशी नगरी का राजा बीर सिंह बघेल था। राजा में अभिमान होना स्वाभाविक है। ऐश्वर्य के साधन जुटाना स्वाभाविक है। राजा का महल सुंदर बाग में बना था। राजा ने अपने गुरू ब्राह्मण की आज्ञा से कीर्तन का आयोजन करा रखा था। राजा स्वयं अपने महल में था। कीर्तन कुछ दूरी पर मंदिर के पास बाग में ही हो रहा था। बहुत सारे संत, ब्राह्मण वक्ता तथा श्रोता आए थे। अपने-अपने इष्ट की महिमा-स्तुति कर रहे थे। राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा देवी, गणेश आदि प्रभुओं को परम मोक्षदायक संकट मोचक, भवसागर से पार करने वाले परम प्रभु बता रहे थे। अविनाशी अजन्मा कहकर श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी के गुणगान कर रहे थे। परमेश्वर कबीर जी भी उस सत्संग में पहुँचे। कुछ दूरी पर आसन लगाकर बैठ गए। प्रवक्ता प्रवचन कर रहे थे, श्रोता झूम रहे थे।

कुछ समय के पश्चात् राजा के गुरू ब्राह्मण ने कहा कि हे भक्त! लगता है कि आप भी सत्संग करते हो। आओ! आप भी कुछ ज्ञान का प्रसाद श्रोताओं को दो। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे संत-महात्माओ! आपने तो सब-कुछ सुना दिया है। अब आपके ज्ञान के सामने तो सूरज को दीपक दिखाना है। मैं और क्या ज्ञान सुनाऊँ? ब्राह्मण ने तथा अन्य उपस्थित भक्तों-संतों ने मिलकर अनुरोध किया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मेरा ज्ञान आप सुन नहीं सकोगे। आपके कान फट जाएंगे। दिमाग की स्नायु सिकुड़ जाएगी। मस्तिष्क पर त्योड़ी पड़ जाएंगी। बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। आप मेरे से झगड़ा करोगे। सर्व उपस्थित संतों-भक्तों ने कहा कि भक्त जी! हम साधु-संत, भक्त हैं, हम कभी झगड़ा नहीं करते। हमें कोई गाली भी देता है तो भी हम मुस्कराकर चुप रहकर चले जाते हैं। आप तो भक्त हैं, आप तो परमेश्वर की चर्चा ही तो करोगे। हम वादा करते हैं कि आपसे कोई झगड़ा-विरोध नहीं करेंगे।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-

परमेश्वर कबीर वचन

हरि ब्रह्मा शिव शक्ति उपायी। इनकी उत्पन्न कहहुँ बुझायी।।
बिना भेद सब फूले ज्ञानी। ताते काल बांधि जिव तानी।।
अजर अमर है देश सुहेला। सो वे कहहिं पंथ दुहेला।।
ताका मरम भक्त नहीं जाना। किरत्रम कर्ता से मन माना।।
हम तो अगम देश से आये। सत्यनाम सौदा हम लाये।।
साखी-किरत्राम रस रंग भेदिया, वह तो पुरूष न्यार।
तीन लोक के बाहिरे, पुरूष सो रहत निनार।।
प्रथम अर्जुन को बल दीन्हा। पीछे सब बल हर लीना।।
कृष्ण ने जब त्यागी देही। भील बालिया बदला लेही।।
अर्जुन जब गोपियों लीवाऐ। आगे खड़े भील बहु पाए।।
भीलों घेरा अर्जुन का दीन्हा। मारा पीटा गोपीयन लीन्हा।।
गांडिव लिए अर्जुन रोवै। चला नहीं धनुष कारण टोहै।।
कृष्ण कूं अर्जुन कोसै। कृष्ण छलिये के मरे भरोसै।।
महाभारत में जब नाश करवाया। गांडिव धनुष से सब मार गिराया।।
आज वह गांडिव हाथ न उठ्या। भीलों ने जब जी भरकर कूट्या।।
रामचन्द्र ने बाली मारा। वृक्ष ओट ले कहैं करतारा।।
सब भूले हो बिना विवेका। हम राम-कृष्ण मरते देखा।।
मरें ब्रह्मा-विष्णु-महेशा। साथै नारद शारद शेषा।।
मरें ज्योति निरंजन अभिमानी। साथ मरै तुम्हरी आदि भवानी।।
पढ़क देखो बेद पुराना। आदि पुरूष का भेद बखाना।।
पुरान कहें तीनों मरहीं। बार-बार जन्में गर्भ में परहीं।।
तुम यह ज्ञान कहाँ से लाए। ब्रह्मा विष्णु अमर बताए।।
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
त्रिदेवा (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) साखा भये, पात रूप संसार।।
रजगुण ब्रह्मा सतगुण विष्णु तमगुण शंकर कहलावै रै।
चैथे पद का भेद नियारा, कोई बिरला साधु पावै रै।।
तीन देव को सब कोई ध्यावै, चैथे पद का मर्म ना पावै।
चैथा छोड़ पंचम ध्यावै, कह कबीर वह हम पर आवै।।
तीन गुणों की भक्ति में, भूल पर्यो संसार।
कहें कबीर निज नाम बिना, कैसे उतरो पार।।
तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कबहु ना होवै मुक्ति।।
कबीर, औंकार नाम है काल (ब्रह्म) का, याकूं कर्ता मत जान।
साच्चा शब्द कबीर का, पर्दे मांही पहचान।।
तीन लोक सब राम जपत है, जान मुक्ति को धाम।
रामचन्द्र वशिष्ठ गुरू कियो, तिनको सुनायो ओम् नाम।।
राम कृष्ण अवतार हैं, इनका नहीं संसार।
जिन साहब संसार रचा, सो कीन्ह न जायो नार।।
चार भुजा के भजन में, भूल परे सब संत।
कबीर सुमिरे तास कूं, जाकी भुजा अनंत।।
वशिष्ठ मुनि से त्रिकाली योगी, शोध कै लग्न धरै।
सीता हरण मरण दशरथ का, बन-बन राम फिरै।।
समंदर पांटि लंका गया, सीता का भरतार।
ताहि अगस्त ऋषि पी गयो, इनमें कौन करतार।।
गोवर्धन श्री कृष्ण धार्यो, द्रोणागिरी हनुमंत।
शेषनाग सृष्टि उठायो, इनमें कौन भगवंत।।
काटे बन्धन विपत में, कठिन कियो संग्राम।
चिन्हो रे नर प्राणियो, गरूड़ बड़ो के राम।।
कह कबीर चित चेतहु, शब्द करो निरूवार।
श्री रामचन्द्र कूं कर्ता कहं, भूलि पर्यो संसार।।
जिन राम कृष्ण निरंजन किया, सो तो कर्ता न्यार।
अँधा ज्ञान न बूझही, कहै कबीर विचार।।
मुझ दास (रामपाल दास) पर परमेश्वर कबीर जी की कृपा हुई। इसी संदर्भ में कुछ वाणी रची हैं जो निम्न हैं, प्रकरण यही चल रहा है। इसलिए ये वाणी लिख रहा हूँ। यही ज्ञान परमेश्वर कबीर जी ने उपस्थित व्यक्तियों को सुनाया था।

युद्ध जीत कर पांडव, खुशी हुए अपार। इन्द्रप्रस्थ की गद्दी पर, युधिष्ठिर की सरकार।।
एक दिन अर्जुन पूछता, सुन कृष्ण भगवान। एक बार फिर सुना दियो, वो निर्मल गीता ज्ञान।।
घमाशान युद्ध के कारण, भूल पड़ी है मोहें। ज्यों का त्यों कहना भगवन्, तनिक न अन्तर होए।।
ऋषि मुनि और देवता, सबको रहे तुम खाय। इनको भी नहीं छोड़ा आपने, रहे तुम्हारा ही गुण गाय।।
कृष्ण बोले अर्जुन से, यह गलती क्यों किन्ह। ऐसे निर्मल ज्ञान को भूल गया बुद्धिहीन।।
अब मुझे भी कुछ याद नहीं, भूल पड़ी नीदान। ज्यों का त्यों उस गीता का मैं, नहीं कर सकता गुणगान।।
स्वयं श्री कृष्ण को याद नहीं और अर्जुन को धमकावे। बुद्धि काल के हाथ है, चाहे त्रिलोकी नाथ कहलावे।।
ज्ञान हीन प्रचारका, ज्ञान कथें दिन रात। जो सर्व को खाने वाला, कहें उसी की बात।।
सब कहें भगवान कृपालु है, कृपा करें दयाल। जिसकी सब पूजा करें, वह स्वयं कहै मैं काल।।
मारै खावै सब को, वह कैसा कृपाल। कुत्ते गधे सुअर बनावै है, फिर भी दीन दयाल।।
बाईबल वेद कुरान है, जैसे चांद प्रकास। सूरज ज्ञान कबीर का, करै तिमर का नाश।।
रामपाल साची कहै, करो विवेक विचार। सतनाम व सारनाम, यही मन्त्रा है सार।।
कबीर हमारा राम है, वो है दीन दयाल। संकट मोचन कष्ट हरण, गुण गावै रामपाल।।
ब्रह्मा विष्णु शिव, हैं तीन लोक प्रधान। अष्टंगी इनकी माता है, और पिता काल भगवान।।
एक लाख को काल, नित खावै सीना ताण। ब्रह्मा बनावै विष्णु पालै, शिव कर दे कल्याण।।
अर्जुन डर के पूछता है, यह कौन रूप भगवान। कहै निरंजन मैं काल हूँ, सबको आया खान।।
ब्रह्म नाम इसी का है, वेद करें गुणगान। जन्म मरण चैरासी, यह इसका संविधान।।
चार राम की भक्ति में, लग रहा संसार। पाँचवें राम का ज्ञान नहीं, जो पार उतारनहार।।
ब्रह्मा-विष्णु-शिव तीनों गुण हैं, दूसरा प्रकृति का जाल। लाख जीव नित भक्षण करें, राम तीसरा काल।।
अक्षर पुरूष है राम चैथा, जैसे चन्द्रमा जान। पाँचवा राम कबीर है, जैसे उदय हुआ भान।।
रामदेवानन्द गुरु जी, कर गए नजर निहाल। सतनाम का दिया खजाना, बरतै रामपाल।।

 

परमेश्वर कबीर जी के उपरोक्त सत्यज्ञान को सुनकर सर्व श्रोता आश्चर्यचकित रह गए। जो वक्ता थे, वे जल-भुन गए। एक जो राजा का ब्राह्मण गुरू था, वह राजा के पास गया और राजा से कहा कि हे राजन! हम जिन ब्रह्मा, विष्णु, शिव (ब्रह्मा, हरि, हर) को परमात्मा अविनाशी मानते हैं। कबीर जुलाहा कह रहा है कि ये नाशवान हैं। इनकी भक्ति करने से मुक्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मा, विष्णु, शिव का पिता काल है जिसने श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके गीता का ज्ञान दिया है। इनकी माता दुर्गा है। इन सबसे शक्तिमान अन्य परमेश्वर है जो कभी जन्मता-मरता नहीं। जो आप पत्थर की मूर्ति को प्रभु मानकर पूजते हो, यह एक कारीगर द्वारा निर्मित है। बनाते समय कारीगर ने इसकी छाती पर पैर रखकर छैनी और हथौड़े मारकर आकार दिया है। इसका रचनहार निर्माता कारीगर है। यह कृत्रिम देव किसी काम का नहीं। क्या कभी इस मूर्ति भगवान ने आपसे बातें की हैं? क्या किसी कष्ट का समाधान बताया है?

अध्याय राजा बीर देव सिंह बोध का सारांश

मूर्ति कूटि पत्थर की बनाई। कारीगर छाति दे पाँही।।
भक्ति ज्ञान योग का भेवा। तीर्थ बरत जप तप सब सेवा।।
सबको काल जाल बतावै। जो कोई करै नरक में जावै।।
राजा ने एक छड़ीदार (सिपाही) को कबीर जी को बुलाने के लिए भेजा। सिपाही ने कहा कि हे संत जी! आपको राजा ने बुलाया है।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा:-
‘‘परमेश्वर कबीर बचन‘‘
कहै कबीर बचन अरथाई। केहि कारण मोहि राय बुलाई।।
ना हम पण्डित ना परधाना। ना ठाकुर चाकर तेहि जाना।।
ना हम बिराना देश बसावें। ना हम नाटक चेटक लावें।।
पैसा दमरी नाहिं हमारे। केहि कारणै मोंहि राय हंकारे।।
गरज होय तो यहाँ चलि आवै। हम तो बैठे भजन करावै।।
साखी-छड़ीदार तुम जायकै, कहो राय के पास।
महा प्रचण्ड बघेल है, हम नहिं मानत त्रास।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मेरे को राजा से कोई काम नहीं है। यदि राजा को गरज (आवश्यकता) है तो यहाँ आ जाएगा। न तो मैं पंडित हूँ, न राजा का नौकर, न ठाकुर, न मैं कोई भिन्न देश बना रहा हूँ यानि देशद्रोही नहीं हूँ, न मैं कोई जादू-जंत्र, चेटक, टूणे-टोटके करने वाला, मुझे किस कारण से राजा ने बुलाया है, हम नहीं जाते।
सिपाही ने जाकर नमक-मिर्च लगाकर राजा को बताया। राजा बुद्धिमान भी होते हैं। राजा बीर सिंह बघेल ने विचार किया कि लालची संत होता तो दौड़ा आता। राजा के बुलाने पर भी नहीं आया तो देव स्वरूप है, व्यक्ति नहीं।

‘राजा बीर सिंह का कबीर जी के पास जाना‘‘


कीन्ह विवेक राय दिल माहीं। नहिं आये कबीर हम जाहीं।।
वह तो सत्य भक्ति चित दीन्हा। कारण कौन त्रास मम कीन्हा।।
यहि विधि कीन विवेक विचारा। तबहीं राजा आप सिधारा।।
हुकम पाय आय असवारा। गज औ तुरंग सु साज सँवारा।।
आवत देखा जब हम भाई। तब हम लीला एक बनाई।।
आसन अधर कीन तेहि वारा। सवा हाथ धरती से न्यारा।।
माला तिलक और टोप विराजै। हाथ स्वेत कुवरी सो छाजै।।
नृपति देखि अचरज मन कीन्ही। यह तो पुरूष न देखे कबही।।
धन्य धन्य अस्तुति सब गावैं। धन्य कबीर चरण सब ध्यावैं।।
राजा चरण दोऊं पकड़ि भाई। धन्य धन्य नृप करई बड़ाई।।
कहे राय धन भाग हमारा। दर्शन दीन्ह आय करतारा।।
राजा बीर सिंह वचन
छन्द- अस्तुति करत नृपति भाषेउ। तुम ब्रह्म निर्गुण आप हौ।।
अनाथ नाथ सुनाथ करि दिये। माथ हाथ अनाथ हो।।
अपनो दास करि जानि साहब। दरश दीनेउ आयकै।।
कीजै कृपा यहि दासपै। चलि भवन दरस दिखायकै।।
सोरठा-कृपा कीन जस मोहिं, तस मन्दिर पग दीजिये।।
विनय करौं प्रभु तोहिं, वेगि विलम्ब न कीजिये।।
कबीर वचन-चैपाई
कहैं कबीर तहाँ नहिं काजा। तुम परचण्ड बघेला राजा।।
काम क्रोध मद लोभ बड़ाई। रोम रोम अभिमान समाई।।
तुरी सवा लाख सँग तोरे। लाख सवा दो प्यादा दौरे।।
हस्ती चलत सहस तव संगा। निशिदिन भूले कामिनि रंगा।।
कंचन कलसा महल अटारी। कैसे शब्द गहै नर नारी।।
हम भिक्षुक जानै संसारा। कौन काज है तहाँ हमारा।।
राजा बीर सिंह वचन
तुम सतगुरू हौ दीन दयाला। कर्म वश हम अहैं विहाला।।
माया तिमिर नैन पट लागी। दर्शन पाय भये अनुरागी।।
भावार्थ:- जिस समय राजा सत्संग स्थल के निकट आया तो देखा कि कबीर जी पृथ्वी से सवा हाथ ऊपर बैठे दिखाई दिए। यह लीला देखकर राजा समझ गया कि परमात्मा आए हैं। चरणों में शीश रखा। घर चलने की विनती की। पहले तो मना किया, परंतु राजा के विशेष आग्रह करने पर कबीर परमेश्वर सहर्ष राजा के साथ चल दिए। राजा ने सम्मान के साथ सुंदर आसन पर बैठाए। राजा ने अपने गुरू ब्राह्मण को भी आदर के साथ कबीर जी के समान आसन दिया। ब्राह्मण से कहा कि आपका कबीर जी से किन बातों पर मतभेद है? वह प्रश्न अब करो। मैं दोनों का ज्ञान सुनकर निर्णय लूँगा। ब्राह्मण ने कहा कि कबीर जी तो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी को नाशवान कहते हैं, यह बिल्कुल गलत है।

किसी शास्त्रा में प्रमाण नहीं है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आपकी देवी पुराण में तीसरे स्कंद में पढ़ें ऋषि जी! उस समय ब्राह्मण ने देवी पुराण निकाली, तीसरा स्कंद निकाला और पढ़ने लगा। परमात्मा की लीला वही जानता है। ब्राह्मण के सामने वही प्रकरण आया जिसमें लिखा था (श्री देवी पुराण सचित्रा मोटा टाईप केवल हिन्दी, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पृष्ठ 123 पर लिखा है) भगवान विष्णु ने अपनी माता देवी (दुर्गा) जी से कहा कि हे माता! तुम शुद्ध स्वरूपा हो। यह सारा संसार तुम से ही उद्भाषित है। मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शिव तो नाशवान हैं। हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु होती है। भगवान शिव बोले, हे माता! यदि ब्रह्मा तथा विष्णु का जन्म आपसे हुआ है तो मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या तुम्हारी संतान नहीं हुआ? अर्थात् मेरे को जन्म देने वाली तुम ही हो।(लेख समाप्त) श्री देवी पुराण में यह प्रकरण देखकर ब्राह्मण के चेहरे का रंग उतर गया, परंतु मन में सोचा कि मना कर देता हूँ कि ऐसा कहीं नहीं लिखा। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि ब्राह्मण जी! आप राजा की कचहरी (न्यायालय) में बैठे हो।

आज यह निर्णय होकर रहेगा। किसी अन्य पंडित को बुलाकर यह स्पष्ट किया जाएगा। राजा बीर सिंह ने कहा कि ब्राह्मण! अब सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुनूंगा। यदि झूठ बोला तो अंजाम अच्छा नहीं होगा। ब्राह्मण ने कहा, राजन! यही लिखा है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी नाशवान हैं। इनके माता-पिता हैं। यह चर्चा रानी मानकदेई भी सुन रही थी। राजा-रानी ने परमेश्वर कबीर जी से उपदेश लिया। ब्राह्मण ने भी परमात्मा से दीक्षा ली। सब कर्म-काण्ड त्याग दिया। परमात्मा ने राजा-रानी तथा पुरोहित को प्रथम मंत्रा दिया।
पाठकों से निवेदन है कि कबीर सागर ग्रन्थ में ऊवाबाई भर रखी है। यह दशा कबीर पंथी ज्ञानहीनों ने की है जिन्होंने ब्राह्मण के स्थान पर नामदेव जी से वार्ता लिखी है। प्रत्यक्ष प्रमाण आप बीर सिंह बोध के पृष्ठ 105 पर वाणी में देखें। राजा शिकार करने चला तो सवा लाख पैदल सेना चली, हाथी-घोड़े बहुत बाहर निकाले। भाठ लोग गीत गाते चले, बैंड-बाजे बजाते चले। विचार करें शिकार करने राजा के साथ 200 या 300 सैनिक जाते थे।

राजा तथा रानी को प्रथम नाम सात मंत्र का दिया


प्रमाण:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ के पृष्ठ 113 परः-
‘‘कबीर वचन‘‘
करि चैका तब नरियर मोरा। करि आरती भयो पुनि भोरा।।
तिनका तोरि पान लिखि दयऊ। रानी राय अपन करि लयऊ।।
बहुतक जीव पान मम पाये। ताघट पुरूष नाम सात आये।।
जो कोइ हमारा बीरा पावै। बहुरि न योनी संकट आवै।।
बीरा पावे भवते छूटे। बिनु बीरा यम धरि-धरि लूटे।।
सत्य कहूँ सुनु धर्मदासा। विनु बीरा पावै यम फांसा।।
बीरा पाय राय भये सुभागा। सत्य ज्ञान हृदय में जागा।।
काल जाल तब सबै पराना। जब राजा पायो परवाना।।
गदगद कंठ हरष मन बाढा। विनती करै राजा होय ठाढा।।
प्रेमाश्रु दोइ नयन ढरावै। प्रेम अधिकता वचन न आवै।।



 

राजा बीर सिंह का स्तुति करना

करूणारमन सद्गुरू अभय मुक्तिधामी नाम हो।।
पुलकित सादर प्रेम वश होय सुधरे सो जीवन काम हो।।
भवसिन्धु अति विकराल दारूण तासु तत्त्व बुझायऊ।।
अजर बीरा नाम दै मोहि। पुरूष दरश करायऊ।।
सोरठा-राय चरण गहे धाय, चलिये वहि लोक को।।
जहवाँ हंस रहाय, जरा मरण जेहि घर नहीं।।
कबीर वचन
आदि अंत जब नहीं निवासा। तब नहिं दूसर हते अवासा।।
तौन नाम राजा कहँ दीना। सकल जीव आपन करि लीना।।
राय श्रवण जब नाम सुनायी। तब प्रतीति राया जिव आयी।।
सत्यपुरूष सत्य है फूला। सत्य शब्द है जीवको मूला।।
सत्य द्वीप सत्य है लोका। नहीं शोक जहँ सदा अशोका।।
सत्यनाम जीव जो पावै। सोई जीव तेहि लोक समावै।।
ऐसो नाम सुहेला भाई। सुनतहिं काल जाल नशि जाई।।
सोई नाम राजा जो पाये। सत्य पुरूष दरशन चित लाये।।
साखी-ऐसो नाम है खसमका, राय सुरति करि लीन।
हर्षित पहुँचे पुरूष घर, यमहिं चुनौती दीन।।
उपरोक्त वाणी से स्पष्ट हुआ कि परमेश्वर कबीर ने राजा-रानी को दो चरणों में दीक्षा दी। फिर ज्ञान समझाया कि सार शब्द के बिना सत्यलोक प्राप्ति नहीं होगी। ये प्रेरणा पाकर राजा को सारनाम प्राप्ति की लगन लगी। सारनाम प्राप्ति के लिए प्रथम तथा द्वितीय मंत्रा की सच्ची लगन से भक्ति की। एक दिन परमेश्वर कबीर जी राजा बीर सिंह बघेल के घर पर आए। आदरमान किया तथा आसन पर बैठाकर राजा-रानी ने परमेश्वर स्वरूप गुरू जी के चरण धोकर चरणामृत लिया तथा सारशब्द देने के लिए प्रार्थना की।
‘‘राजा बीर सिंह वचन‘‘
साहब शब्द सार मोहि दीजे। आपन करि प्रभु निजकै लीजे।।
औघट घाट बाट कहि दीन्हा। पाँजी भेद सकल हम चीन्हा।।
दयावंत विनती सुनु मोरी। हम पुरूषा परे नरक अघोरी।।
महा कुटिल बड़ कामी रहिया। ताते नरक अघोर बड़ परिया।।
ते जिव तारो अरज गुसाईं। विन्ती करों रंककी नाई।।
भरमें जीवनको मुकताऊ। सो भाषों प्रभु शब्द प्रभाऊ।।
कबीर वचन
अजर नाम चैका विस्तारो। जेहिते पुरूषा तरै तुम्हारो।।
गाँव तुम्हारे ब्राह्मणि जाती। धोती कीन्ही बहुतै भांती।।
बारी माहिं कपास लगायी। बहुत नेम से काति बनायी।।
सो धोती तुम राजा लाऊ। पाछे चैका जुगुति बनाऊ।।
राजा बीर सिंह वचन
तब राजा अस विन्ती कीन्हा। कैसे जान्यो को कहि दीन्हा।।
ब्राह्मणि मंदिर नगर रहायी। ताकी सुधि हमहूँ नहिं पायी।।
कबीर वचन
तब राजा आपै चलि गयऊ। साथ एक नेगीको लयऊ।।
पूछत ब्राह्मणि राजा गयऊ। वही पुरी में जाइ ठाढ रहेऊ।।
राजा आवन सुनी जब सोई। आदर देन चली तब ओई।।
माई पुत्राी आगे चलि आई। दधि अछत औ लुटिया लाई।।
ब्राह्मणी वचन
ब्राह्मणि कहै दोई कर जोरी। राजा सुनिये विन्ती मोरी।।
भाग मोर हम दर्शन पावा। मैं बलिहारी यहाँ सिधावा।।
राजा बीर सिंह वचन
राजा कह ब्राह्मणी से बाता। तुव घर धोती एक रहाता।।
सो धोती हमको देहू। गाँव ठौर तुम हमसे लेहू।।
एतो वचन जो राखु हमारा। धोती देइ करू काज निबारा।।
ब्राह्मणी वचन
ब्राह्मणी कहे सुनो हो राऊ। धोती सुधि तुहि कौन बताऊ।।
राजा बीर सिंह वचन
हम घर सतगुरू कहि समझायी। धोती सुधि हम गुरूपै पायी।।
कबीर वचन धर्मदास प्रति
वचन सुनत तेहि सुधि सो भूली। मन पछताय विनय मुख खोली।।
ब्राह्मणी वचन
छन्द-माइ पुत्राी करह विन्ती धोती नाथ अनाथ की।।
गाव मुल्क नहिं चाहीं मोहि धोती है जगन्नाथकी।।
हम दीन हैं आधीन भिक्षुक शीश बरू मम लीजिये।।
करि जोड़ि विन्ती मैं करूं जस चाहिए अब कीजिये।।
कबीर वचन
सोरठा-राजा घरहिं सिधाइ, टेके चरण तहँ खसम कर।।
कहे उत्तर समुझाय, धोती मांगे न दीनेऊ।।
राजा बीर सिंह वचन-चैपाई
साहिब ब्राह्मणी लग हम गयऊ। धोती माँगत हम नहिं पयऊ।।
कहे धोती मोहि देइ न जायी। जगन्नाथ हेतु धोती बनायी।।
कहे बरू शीस लेहु तुम राजा। धोती देत होय व्रत अकाजा।।
कबीर वचन
एती सुनतै हम विहँसाये। राजा कहँ एक वचन सुनाये।।
छड़ीदार दोउ देउ पठायी। ब्राह्मणी संग क्षेत्राहीं जायी।।
यहि प्रतीति लेहु तुम जाका। हम विन धोती लेइ को ताका।।
राजा छड़ीदार पठवाये। ब्राह्मणी संग क्षेत्रा चलि जाये।।
नरियर लेइ ब्राह्मणी हाथा। करि अस्नान परसि जगन्नाथा।।
लै धोती जब परस्यो जायी। तब धोती बाहर परि आयी।।
ब्राह्मणी वचन
अब यह धोती काम न आयो। धोती फेरि कहो कस लायो।।
जगन्नाथ वचन
जाके व्रत तुम काति बनायी। सो घर बैठे माँगि पठायी।।
अब तुम अपने घर लै जाहू। लै धोती दै डालो काहू।।
ब्राह्मणी वचन
तबै ब्राह्मणी कहै कर जोरी। ठाकुर सुनियो विन्ती मोरी।।
राय बीरसिंह मो घर आये। धोती माँगि कबीर पठाये।।
उनके मांगे मैं नहिं दीना। हम कहि जगन्नाथ व्रत कीना।।
तब राजा अपने घर गयऊ। हम लै धोती इहां सिधयऊ।।

जगन्नाथ वचन
जगन्नाथ तब कहि समझायो। तुम अपनी भल भक्ति नशायो।।
उनके मांगे धोती देती। आपन जनम सुफल कर लेती।।
जगन्नाथ काशी मांही निवाजा। वाके चरणें धर सब साजा।।
कबीर वचन
जगन्नाथ जस कहि समझायी। छड़ीदार तब लिये अर्थायी।।
छड़ीदार अरू ब्राह्मणी आये। जहाँ राय अरू हम बैठाये।।
ब्राह्मणी ले धोती धर दीनी। दोय कर जोरि सो बिन्ती कीनी।।
ब्राह्मणी वचन
हम अजान कछु जान न जायी। धोती नहिं दीनी मम पायी।।
तुम हो खुद समर्थ भगवाना। मैं मूर्ख ना तोकूँ पहचाना।।
अपराध छमा करो गुरू राया। अब हम कूँ तुम परिचय पाया।।
छड़ीदार वचन
छड़ीदार तब शीस नवाये। राजा से उठि विन्ती लाये।।
जगन्नाथ धोती नहिं लीना। मंडप बाहर धोती कीना।।
जगन्नाथ अस वचन सुनावा। यह धोती हम काम न आवा।।
जब राजा से मांग पठई। कस ना धोती दीनेउ माई।।
जब हम मांगा तब ना दियऊ। अब कस देन यहाँ चलि अयऊ।।
कबीर वचन
छड़ीदार उत्तर जब कहेऊ। तब मम चरण राय शिर लयऊ।।
राजा बीर सिंह वचन
सांचे सतगुरू हैं तुव बचना। सत्य लोककी सत्य है रचना।।
अब मोहि सिखापन दीजै। हम पुरूषा आपन करि लीजै।।
जाते अजर अमर पद पाई। सोई विधि तुम करो गुसांई।।
उपरोक्त वाणियों का भावार्थ:- एक दिन परमेश्वर कबीर जी अपने शिष्य बीर देव सिंह बघेल के महल में गए। राजा ने परमेश्वर कबीर जी का अत्यधिक आदर किया। सारशब्द देने की प्रार्थना की। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आपके काशी शहर में आपकी गुरू बहन ब्राह्मणी (चंद्रप्रभा नाम की) रहती है। उसने अपने घर के आँगन में कपास बीजी, उसको गंगा जल से सींचा। पकने के पश्चात् कपास निकालकर काता। फिर अपने हाथों से एक धोती बुनी है। उस धोती को राजा आप किसी कीमत पर लाओ, तब आपको सार शब्द मिलेगा। राजा को सार शब्द बिना जीवन अधूरा लग रहा था। इसलिए धोती लेने चल पड़ा। नौकर पहले ही विधवा ब्राह्मणी के घर पहुँच गए और राजा के आने की सूचना दी। चन्द्रप्रभा तथा उसकी एक बेटी थी। दोनों डर गई कि हमसे क्या गलती हो गई? राजा पहुँचा तो फूलों की माला से स्वागत किया। राजा ने धोती देने के लिए कहा तो बहन चन्द्रप्रभा ने कहा, हे राजन! यह धोती मैंने जगन्नाथ के लिए श्रद्धा से तैयार की है। मैं उनकी अमानत उनके चरणों में अर्पित करूँगी। राजा ने कहा कि बहन! मेरा जीवन सारशब्द के बिना अधूरा रह जाएगा। इस धोती (साड़ी) के बिना मुझे गुरू जी सार शब्द नहीं देंगे।




हे चन्द्रप्रभा! मैं आपको पाँच-सात गाँव दे दूँगा। आप धोती दे दो। ब्राह्मणी ने कहा कि आप राजा हैं, हम माँ-बेटी की गर्दन काट लो, परंतु धोती के लिए क्षमा करो, नहीं देंगे। राजा ने कहा ठीक है बहन, तेरी इच्छा। राजा उदास मन से लौटा तो परमेश्वर कबीर जी ने पूछा कि धोती ले आए। राजा ने सर्व वार्ता बताई तो कबीर जी ने कहा कि आप चन्द्रप्रभा के साथ दो सिपाही भेज दो। वह बहन सकुशल धोती चढ़ाकर लौटेगी तो मैं आपको बिना धोती के ही सार शब्द दे दूँगा। राजा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। जिस दिन ब्राह्मणी ने जगन्नाथ जी के लिए प्रस्थान किया तो दो सिपाही सुरक्षा गार्ड के रूप में राजा ने भेजे। जगन्नाथ मंदिर में सुबह स्नान करके ब्राह्मणी ने वह धोती मंदिर में अर्पित कर दी तथा कहा, हे जगन्नाथ! आपकी दासी की तुच्छ भेंट स्वीकार करें। उस समय वे सिपाही (छड़ीदार=डण्डे वाले व्यक्ति) भी मंदिर में उपस्थित थे। वह धोती वहाँ से उड़कर मंदिर के आँगन में गिरी और आकाशवाणी हुई कि हे मूर्ख! यह धोती मैंने राजा बीर सिंह द्वारा काशी में मँगाई थी। वहाँ तो धोती भेंट नहीं की, यहाँ किसलिए लाई है? ले जा वहीं पर। परमात्मा काशी में बैठा है। यह आकाशवाणी तथा धोती आँगन में गिरती दोनों सिपाहियों ने भी देखी तथा सुनी। उस धोती को उठाकर ब्राह्मणी बहन रोती हुई तथा अपनी अज्ञानता को कोसती हुई काशी में आ गई।

पहले परमेश्वर कबीर जी की झोंपड़ी में गई। पता चला कि परमेश्वर कबीर जी राजा बीर सिंह के राज दरबार में गए। फिर सब राजा के महल में गए। बहन चन्द्रप्रभा ने अपनी गलती की क्षमा याचना की तथा कहा कि परमेश्वर! ज्ञान नहीं था। आप स्वयं जगन्नाथ काशी में लीला करने आए हो। परमेश्वर कबीर जी ने पूछा कि धोती साथ किसलिए लाई है? तब जो घटना जगन्नाथ के मंदिर में घटी थी, सब विस्तार से बताई। राजा ने सिपाहियों से इस बात का साक्ष्य माँगा तो दोनों ने बताया कि जो बहन बता रही है, यह सत्य है। हमने अपनी आँखों देखा, कानों सुना। तब राजा भी परमेश्वर के चरणों में गिर गया तथा कहा, हे प्रभु! आप तो स्वयं परमेश्वर हो। मैं तो आपको केवल एक सिद्ध पुरूष गुरू मानता था। आज विश्वास हुआ है। अब तक मैं सार शब्द प्राप्ति के योग्य नहीं था। यही बात बहन चन्द्रप्रभा तथा उसकी बेटी ने कही। पहले उनका नाम शुद्ध किया, फिर कुछ समय उपरांत सार शब्द दिया, कल्याण किया।
सारांश:- इस प्रसंग से सिद्ध हुआ कि परमेश्वर कबीर जी दीक्षा क्रम तीन चरणों में पूरा करते थे। एक बात यह भी सिद्ध हुई कि जब तक हम गुरू जी को परमात्मा नहीं मानेंगे तो मोक्ष के अधिकारी नहीं बन सकते। यह बीर सिंह बघेल काशी नरेश की यथार्थ कथा है। इसी प्रकार बीर सिंह बोध में बिजली खाँ पठान की कथा भी लिखी है। वह पूर्ण रूप से गलत है।

राजा बीर सिंह की एक छोटी रानी सुंदरदेई थी। उसने भी परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले रखी थी। उसने सत्संग बहुत सुने थे। विश्वास कम था, नाम की कमाई यानि साधना नहीं करती थी। जब रानी का अंतिम समय आया तो यम के दूत राजभवन में प्रवेश कर गए। फिर यमदूत रानी के शरीर में प्रवेश कर गए और अंतिम श्वांस का इंतजार करने लगे। उस समय रानी सुंदरदेई के शरीर में बेचैनी हो गई। यमदूत दिखाई देने लगे। राजा ने रानी से पूछा कि क्या बात है? रानी ने कहा कि मुझे राजपाट, महल, आभूषण, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। रानी ने कहा कि साधु-भक्तों को बुलाकर परमात्मा की चर्चा कराओ। साधु तथा भक्त आकर परमात्मा की चर्चा तथा भक्ति करने लगे। उससे कोई लाभ नहीं हुआ। रानी के शरीर में कष्ट और बढ़ गया। अर्ध-अर्ध यानि आधा श्वांस चलने लगा। श्वांस खींच-खींचकर आने-जाने लगा। हृदय कमल को त्यागकर जीव भयभीत होकर त्रिकुटी की ओर भागा। यम दूतों ने चारों ओर से घेर लिया। चारों यमदूतों ने जीव को घेरकर कहा कि आप चलो! हरि (प्रभु) ने तुम्हें बुलाया है। तब रानी के जीव को सत्संग वचन याद आए। उसने यमदूतों से कहा कि हे बटपार! हे जालिमों! तुम यहाँ कैसे आ गए? हमारा सतगुरू हमारा मालिक है। आप हमें नहीं ले जा सकते। मेरे सतगुरू धनी (मालिक) ने मुझे नाम दिया है। मेरे गुरूजी आएंगे तो मैं जाऊँगी। यह बात सुनकर यम के दूत बोले कि यदि आपका कोई खसम (धनी) है तो उसको बुलाओ, नहीं तो हमारे साथ परमात्मा के दरबार में चलो।

जीव ने कहा कि :-

धरनी (पृथ्वी) आकाश से नगर नियारा। तहाँ निवाजै धनी हमारा।।
अगम शब्द जब भाखै नाऊं। तब यम जीव के निकट नहीं आऊं।।

भावार्थ :- पहले तो रानी को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो सतगुरू जी सत्संग में ज्ञान सुना रहे हैं, वह सत्य है। वह सोचती थी कि यह केवल कहानी है क्योंकि सब नौकर-नौकरानी आज्ञा मिलते ही दौड़े आते थे। मनमर्जी का खाना खाती थी, सुंदर वस्त्र, आभूषण पहनती थी।

उसने सोचा था कि ऐसे ही आनन्द बना रहेगा। यह तो पूर्व जन्म की बैटरी चार्ज थी। वर्तमान में चार्जर मिला (नाम मिला) तो चालू नहीं किया यानि साधना नहीं की। जब बैटरी की चार्जिंग समाप्त हो जाती है, बैटरी डाउन हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं बंद हो जाती हैं। फिर न पंखा चलता है, न बल्ब जगता है। बटन दबाते रहो, कोई क्रिया नहीं होती। इसी प्रकार जीव का पूर्व जन्म की भक्ति का धन यानि चार्जिंग समाप्त हो जाती है तो सर्व सुविधाऐं छीन ली जाती हैं। जीव को नरक में डाल दिया जाता है, तब उसको अक्ल आती है। उस समय वक्त हाथ से निकल चुका होता है। केवल पश्चाताप और रोना शेष रह जाता है। रानी सुंदरदेई ने सत्संग सुन रखा था। पूर्ण सतगुरू से दीक्षा ले रखी थी। नाम की कमाई नहीं की थी।




वह गुरूद्रोही नहीं हुई थी। गुरू निंदा नहीं करती थी। रानी ने सतगुरू को याद किया कि हे सतगुरू! हे मेरे धनी! मेरे को यमदूतों ने घेर रखा है। मुझ दासी को छुड़ावो। मैंने आपकी दीक्षा ले रखी है। आज मुझे पता चला कि ऐसी आपत्ति में न पति, न पत्नी, ने बेटा-बेटी, भाई-बहन, राजा-प्रजा कोई सहायक नहीं होता। रानी के जीव ने हृदय से सतगुरू को पुकारा। तुरंत सतगुरू कबीर जी वहाँ उपस्थित हुए। रानी ने दौड़कर सतगुरू देव जी के चरण लिए। उसी समय यमदूत भागकर हरि यानि धर्मराज के पास गए और बताया कि उसका सतगुरू आया तो वहाँ पर प्रकाश हो गया। जीव ने सत सुकृत नाम जपा था। उसको इतना ही याद था। इस कारण से उसको यमदूतों से छुड़वाया तथा पुनः जीवन बढ़ाया। तब रानी ने दिल से भक्ति की। फिर सतगुरू कबीर जी ने पुनः सतनाम, सारनाम दिया, उसकी कमाई की। संसार असार दिखाई देने लगा। राज, धन, परिवार पराया दिखाई दे रहा था।

जाने का समय निकट लग रहा था। इस कारण से रानी ने तन-मन-धन सतगुरू चरणों में समर्पित करके भक्ति की तो सत्यलोक में गई। वहाँ परमेश्वर (सत्य पुरूष) ने रानी के जीव के सामने अपने ही दूसरे रूप सतगुरू से प्रश्न किया कि हे कडि़हार! (तारणहार) मेरे जीव को यमदूतों ने कैसे रोक लिया? सतगुरू रूप में कबीर जी ने कहा कि हे परमेश्वर! इसने दीक्षा लेकर भक्ति नहीं की। इस कारण से इसको यमदूतों ने घेर लिया था। मैंने छुड़वाया। परमेश्वर कबीर जी ने जीव से कहा कि आपने भक्ति क्यों नहीं की? सत्यलोक में कैसे आ गई?

सिर नीचा करके जीव ने कहा कि पहले मुझे विश्वास नहीं था। फिर यमदूतों की यातना देखकर मुझे आपकी याद आई। आपका ज्ञान सत्य लगा। आपको पुकारा। आपने मेरी रक्षा की।

फिर मेरे को वापिस जीवन दिया गया। तब मैंने दिलोजान से आपकी भक्ति की। पूर्ण दीक्षा प्राप्त करके आपकी ही कृपा से गुरू जी के सहयोग से मैं यहाँ आपके चरणों में पहुँच पाई हूँ। सत्यलोक में जाकर भक्त अन्य भक्तों के पास भेज दिया जाता है। सुंदर अमर शरीर मिलता है। बहुत बड़ा आवास महल मिलता है। विमान आँगन में खड़ा है। सिद्धियां आदेश का इंतजार करती हैं। तुरंत विद्युत की तरह सक्रिय होती हैं जैसे बिजली का बटन दबाते ही बिजली से चलने वाला यंत्र तुरंत कार्य करने लगता है। ऐसे वहाँ पर वचन का बटन हैं। जो वस्तु चाहिए बोलिये। वस्तु-पदार्थ आपके पास उपस्थित होगा। जैसे भोजन खाने की इच्छा होते ही आपके भोजनस्थल पर गतिविधि प्रारम्भ हो जाएंगी, थाली-गिलास रखे जाएंगे। कुछ देर में खाने की इच्छा बनी तो सिद्धि से उठकर रसोई में रखे जाएंगे।

मिनट पश्चात् इच्छा हुई तो भी उसी समय व्यवस्था हो जाएगी। घूमने की इच्छा हुई तो विमान में गतिविधि महसूस होगी। विमान के निकट जाते ही द्वार खुल जाएगा। विमान स्टार्ट हो जाएगा। जहाँ जिस द्वीप में जाने की इच्छा होगी, विचार करने पर विमान उसी ओर उड़ चलेगा। इच्छा करते ही ताजे-ताजे फल वृक्षों से तोड़कर लाकर आपके समक्ष रख दिए जाएंगे। सत्यलोक की नकल यह काल लोक है। इसी तरह स्त्री-पुरूष परिवार हैं।

सत्यलोक में दो तरह से संतानों की उत्पत्ति होती है। शब्द से तथा मैथुन से। वह हंस पर निर्भर करता है। वचन से संतानोपत्ति वाला क्षेत्र सतपुरूष के सिंहासन के चारों ओर है। नर-नारी से परिवार वाला क्षेत्र उसके बाद में है। वचन से संतान उत्पन्न करने वाले केवल नर ही उत्पन्न करते हैं। सत्यलोक में वृद्धावस्था नहीं है। नर-नारी वाले क्षेत्र में लड़के तथा लड़कियां दोनों उत्पन्न करते हैं। विवाह करते हैं केवल वचन से। जो बच्चे उत्पन्न होते हैं, वे काल लोक से मुक्त होकर गए जीव जन्म लेते हैं। फिर कभी नहीं मरते, न वृद्ध होते। जो सत्यलोक में मुक्त होकर जाते हैं, उनको सर्वप्रथम सत्यपुरूष जी के दर्शन कराए जाते हैं।

उस समय उसका वही स्वरूप रहता है जैसा पृथ्वी से आता है, परंतु वृद्ध नीचे से गया तो वहाँ सतपुरूष के सामने उसी अवस्था व स्वरूप में जाता है। उसका प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश जितना हो जाता है। उसके पश्चात् उसको उस स्थान पर भेजा जाता है जो सबसे भिन्न है। वहाँ जाते ही उसका स्वरूप तो वैसा ही रहता है, लेकिन उसके शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों जैसा हो जाता है, परंतु यदि वृद्ध नीचे से गया है तो युवा अवस्था हो जाती है। जवान है तो जवान ही रहता है, बालक है तो बालक ही रहता है। वहाँ पर कुछ को सत्य पुरूष के वचन से स्त्री-पुरूष का शरीर मिलता है। कुछ बीज रूप में सतपुरूष द्वारा बनाए जाते हैं जिनका फिर एक बार किसी के घर सत्यलोक में जन्म होगा, परिवार बनेगा।

उस स्थान पर वे हंस एक बार जन्म लेंगे जो काल लोक तथा अक्षर लोक से मुक्त होकर जाते हैं। एकान्त स्थान पर रखे जाते हैं। वे दोनों क्षेत्रों में जन्म लेते हैं। (वचन से उत्पन्न होने वाले तथा स्त्री-पुरूष से जन्म लेने वाले में) स्त्री-पुरूष से उत्पत्ति की औसत अधिक होती है। यह औसत 10-90 होती है। यह 10ः वचन से उत्पत्ति, 90ः विवाह रीति से उत्पत्ति होती है।

सत्यलोक में स्त्री तथा नर के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान होता है। मीनी सतलोक, मानसरोवर पहले हैं। वहाँ दोनों के शरीर का प्रकाश चार सूर्यों के समान होता है। फिर आगे जाते हैं। जब परब्रह्म के लोक में बने अष्ट कमल के पास पहुँचते हैं तो हंस तथा हंसनी यानि नर-नारी के शरीर का प्रकाश 12 सूर्यों के प्रकाश के समान हो जाता है। फिर सत्यलोक में बनी भंवर गुफा में प्रत्येक के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के समान हो जाता है।

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