काल का जीव सतगुरू ज्ञान नहीं मानता | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji
अनुराग सागर पृष्ठ 160 का सारांश
इस पृष्ठ पर कुछ गुरू महिमा है तथा कोयल की चाणक्य नीति का ज्ञान है “कोयल-काग“ का उदाहरण :- कोयल पक्षी कभी अपना भिन्न घौंसला बना कर अण्डे-बच्चे पैदा नहीं करती। कारण यह कि कोयल के अण्डों को कौवा खा जाता है। इसलिए कोयल को ऐसी नीति याद आई कि जिससे उसके अण्डों को हानि न हो सके। कोयल जब अण्डे उत्पन्न करती है तो वह ध्यान रखती है कि कहाँ पर कौवी ने अपने घौंसले में अण्डे उत्पन्न कर रखे हैं। जिस समय कौवी पक्षी भोजन के लिए दूर चली जाती है तो पीछे से कोयल उस कौवी के घौंसले में अण्डे पैदा कर देती है और दूर वृक्ष पर बैठ जाती है या आस-पास रहेगी।
जिस समय कौवी घौंसले में आती है तो वह दो के स्थान पर चार अण्डे देखती है। वह नहीं पहचान पाती कि तेरे अण्डे कौन से हैं, अन्य के कौन-से हैं? इसलिए वह चारों अण्डों को पोषण करके बच्चे निकाल देती है। कोयल भी आसपास रहती है। अब कोयल भी अपने बच्चों को नहीं पहचानती है क्योंकि सब बच्चों का एक जैसा रंग (काला रंग) होता है। जिस समय बच्चे उड़ने लगते हैं, तब कोयल निकट के अन्य वृक्ष पर बैठकर कुहु-कुहु की आवाज लगाती है। कोयल की बोली कोयल के बच्चों को प्रभावित करती है, कौवे वाले मस्त रहते हैं। कोयल की आवाज सुनकर कोयल के बच्चे उड़कर कोयल की ओर चल पड़ते हैं। कोयल कुहु-कुहु करती हुई दूर निकल जाती है, साथ ही कोयल के बच्चे भी आवाज से प्रभावित हुए कोयल के पीछे-पीछे दूर चले जाते हैं। कौवी विचार करती है कि ये तो गए सो गए, जो घौंसले में हैं उनको संभालती हूँ कि कहीं कोई पक्षी हानि न कर दे।
यह विचार करके कौवी लौट आती है। इस प्रकार कोयल के बच्चे अपने कुल परिवार में मिल जाते हैं
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास को समझाया है कि हे धर्मदास! तेरा पुत्र नारायण दास काग यानि काल का बच्चा है। उसके ऊपर मेरे प्रवचनों का प्रभाव नहीं पड़ा। आप दयाल (करूणामय सतपुरूष) के अंश हो। आपके ऊपर मेरी प्रत्येक वाणी का प्रभाव हुआ और आप खींचे चले आए। काल के अंश नारायण दास पर कोई असर नहीं हुआ। यही कहानी प्रत्येक परिवार में घटित होती है। जो अंकुरी हंस यानि पूर्व जन्म के भक्ति संस्कारी जो किसी जन्म में सतगुरू कबीर जी के सत्य कबीर पंथ में दीक्षित हुए थे, परंतु मुक्त नहीं हो सके। वे किसी परिवार में जन्मे हैं, सतगुरू की कबीर जी की वाणी सुनते ही तड़फ जाते हैं। आकर्षित होकर दीक्षा प्राप्त करके शिष्य बनकर अपना कल्याण कराते हैं। उसी परिवार में कुछ ऐसे भी होते हैं जो बिल्कुल नहीं मानते। अन्य जो दीक्षित सदस्य हैं, उनका भी विरोध तथा मजाक करते हैं। वे काल के अंश हैं। वे भी नारायण दास की तरह काल के दूतों द्वारा प्रचलित साधना ही करते हैं।
पृष्ठ 161 अनुराग सागर का सारांश :-
कबीर परमात्मा ने कहा कि हे धर्मदास! जिस प्रकार शूरवीर तथा कोयल के सुत (बच्चे) चलने के पश्चात् पीछे नहीं मुड़ते। इस प्रकार यदि कोई मेरी शरण में इस प्रकार धाय (दौड़कर) सब बाधाओं को तोड़कर परिवार मोह छोड़कर मिलता है तो उसकी एक सौ एक पीढि़यों को पार कर दूँगा।
कबीर, भक्त बीज होय जो हंसा। तारूं तास के एकोतर बंशा।।कबीर, कोयल सुत जैसे शूरा होई। यही विधि धाय मिलै मोहे कोई।।निज घर की सुरति करै जो हंसा। तारों तास के एकोतर बंशा।।
‘‘हंस (भक्त) लक्षण‘‘
काग जैसी गंदी वृत्ति को त्याग देता है तो वह हंस यानि भक्त बनता है। काग (कौवा) निज स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरों का अहित करता है। किसी पशु के शरीर पर घाव हो जाता है तो कौवा उस घाव से नौंच-नौंचकर माँस खाता है, पशु की आँखों से आँसू ढ़लकते रहते हैं। कौए की बोली भी अप्रिय होती है। हसं को चाहिए कि अपनी कौए वाला स्वभाव त्यागे। निज स्वार्थवश किसी को कष्ट न देवे। कोयल की तरह मृदु भाषा बोले। ये लक्षण भक्त के होते हैं।
‘‘ज्ञानी यानि सत्संगी के लक्षण‘‘
सतगुरू का ज्ञान तथा दीक्षा प्राप्त करके यदि शिष्य जगत भाव में चलता है, वह मूर्ख है।
वह भक्ति लाभ से वंचित रह जाता है। वह भक्ति में आगे नहीं बढ़ पाते। वे सार शब्द प्राप्ति योग्य नहीं बन पाते। यदि अंधे व्यक्ति का पैर बिष्टे (टट्टी) या गोबर पर रखा जाता है तो उसका कोई मजाक नहीं करता। कोई उसकी हाँसी नहीं करता। यदि आँखों वाला कुठौर (गलत स्थान पर) जाता है (परनारी गमन, चोरी करना, मर्यादा तोड़ना, वर्जित वस्तु तथा साधना का प्रयोग करना कुठौर कहा है।) तो निंदा का पात्र होता है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 162 तथा 163 का सारांश :-
- भक्त परमार्थी होना चाहिए
जैसे गाय स्वयं तो जंगल में खेतों में घास खाकर आती है। स्वयं जल पीती है। मानव को अमृत दूध पिलाती है। उसके दूध से घी बनता है। गाय सुत यानि गाय का बच्छा हल में जोता जाता है। इंसान का पोषण करता है। गाय का गोबर भी मनुष्य के काम आता है। मृत्यु उपरांत गाय के शरीर के चमड़े से जूती बनती हैं जो मानव के पैरों को काँटों-कंकरों से रक्षा करती है।
मानव जन्म प्राप्त प्राणी परमार्थ न करके भक्ति से वंचित रहकर पाप करने में अनमोल जीवन नष्ट कर जाता है। माँसाहारी नर राक्षस की तरह गाय को मारकर उसके माँस को खा जाता है।
महापाप का भागी बनता है। इस सम्बन्ध की परमेश्वर कबीर जी की निम्न वाणी पढ़ें :-
‘परमार्थी गऊ का दृष्टांत
गऊको जानु परमार्थ खानी। गऊ चाल गुण परखहु ज्ञानी।।
आपन चरे तृण उद्याना। अँचवे जल दे क्षीर निदाना।।
तासु क्षीर घृत देव अघाहीं। गौ सुत नर के पोषक आहीं।।
विष्ठा तासु काज नर आवे। नर अघ कर्मी जन्म गमावे।।
टीका पुरे तब गौ तन नासा। नर राक्षस गोतन लेत ग्रासा।।
चाम तासु तन अति सुखदाई। एतिक गुण इक गोतन भाई।।
परमार्थी संत लक्षण
गौ सम संत गहै यह बानी। तो नहिं काल करै जिवहानी।।नरतन लहि अस बु़द्धी होई। सतगुरू मिले अमर ह्नै सोई।।सुनि धर्मनि परमारथ बानी। परमारथते होय न हानी।।पद परमारथ संत अधारा। गुरू सम लेई सो उतरे पारा।।सत्य शब्द को परिचय पावै। परमारथ पद लोक सिधावै।।सेवा करे विसारे आपा। आपा थाप अधिक संतापा।।यह नर अस चातुर बुद्धिमाना। गुन सुभ कर्म कहै हम ठाना।।ऊँचा कर्म अपने सिर लीन्हा। अवगुण कर्म पर सिर दीन्हा।।तात होय शुभ कर्म विनाशा। धर्मदास पद गहो विश्वासा।।आशा एक नामकी राखे। निज शुभकर्म प्रगट नहिं भाखे।।गुरूपद रहे सदा लौ लीना। जैसे जलहि न विसरत मीना।।गुरू के शब्द सदा लौ लावे। सत्यनाम निशदिन गुणगावे।।जैसे जलहि न विसरे मीना। ऐसे शब्द गहे परवीना।।पुरूष नामको अस परभाऊ। हंसा बहुरि न जगमहँ आऊ।।निश्चय जाय पुरूष के पासा। कूर्मकला परखहु धर्मदासा।।
भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी के माध्यम से मानव मात्र को संदेश व निर्देश दिया है। कहा है कि मानव को गाय की तरह परमार्थी होना चाहिए। जिनको सतगुरू मिल गया है, वे तो अमर हो जाएंगे। घोर अघों (पापों) से बच जाएंगे, सेवा करें तो अपनी महिमा की आशा न करें। यदि अपने आपको थाप (मान-बड़ाई के लिए अपने आपको महिमावान मान) लेगा तो उसको अधिक कष्ट होगा। शुभ कर्म नष्ट हो जाएंगे।
उपदेशी केवल एक नाम की आशा रखे। मान-बड़ाई की चाह हृदय से त्याग दे। अपने शुभ कर्म (दान या अन्य सेवा) किसी के सामने न बताए। गुरू जी के पद (चरण) यानि गुरू की शरण में ऐसे रहे जैसे जल में मीन रहती है। मछली एक पल भी पानी के बिना नहीं रह सकती। तुरंत मर जाती है। ऐसे गुरू की शरण को महत्त्व देवे। गुरू जी द्वारा दिए शब्द यानि जाप मंत्र (सतगुरू शब्द) जो सत्यनाम है यानि वास्तविक भक्ति मंत्र में सदा लीन रहे जो पुरूष (परमात्मा) का भक्ति मंत्र है, उसका ऐसा प्रभाव है, उसमें इतनी शक्ति है कि साधक पुनः संसार में जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता। वह वहाँ चला जाता है जो सनातन परम धाम, जहाँ परम शांति है। जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता।
यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा।(अध्याय 18 श्लोक 62)
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