अम्बुसागर का सारांश | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

अम्बुसागर’’ का सारांश | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji


अध्याय ‘‘अम्बुसागर’’ का सारांश प्रथम तरंग में अघासुर युग की कथा है।

अघासुर युग का ज्ञान (प्रथम तरंग)

कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! अब मैं तेरे को ऐसे लोक का वर्णन सुनाता हूँ जिसमें 13 युग हैं। वहाँ के प्राणियों को भी मैंने सत्यलोक की जानकारी दी। जिन प्राणियों ने मेरे ऊपर विश्वास किया, उनको भी नाम दीक्षा देकर पार किया। उनको दीक्षा देकर मोक्ष दिलाया। उनको सतलोक पहुँचाया। अघासुर युग में पाँचवें ब्रह्माण्ड में गया। अघासुर युग के प्राणी अच्छे स्वभाव के होते हैं। उन्होंने शीघ्र मेरा ज्ञान स्वीकार किया। एक करोड़ प्राणियों को पार किया।




दूसरा बलभद्र युग


बलभद्र युग में चौदह लाख जीव पार किये। पाठकों से निवेदन है कि अम्बुसागर पृष्ठ 4 पर दोहों के पश्चात् ‘‘हंस वचन-चौपाई‘‘ से लेकर अंतिम पंक्ति, पृष्ठ 5 पूरा तथा पृष्ठ 6 पर बलभद्र युग सम्बंधी प्रकरण बनावटी है।

तीसरा द्धन्दर युग का वर्णन


एक जलरंग नामक शुभकर्मी हंस अपने पूर्व जन्मों की भक्ति कमाई से अछप द्वीप में रहता था। वह स्वयंभू गुरू भी बना था। उसने बहुत से जीव दीक्षा देकर शिष्य बनाए थे जो उसकी सेवा करते थे। जलरंग अपने शिष्यों के सिर पर हाथ रखकर दीक्षा देता था। दो शिष्य सफेद रंग के चंवरों से सेवा कर रहे थे। जलरंग सो रहा था। करोड़ों शिष्य उसको माथा टेक रहे थे। उसको नमन कर रहे थे। नीचे के ब्रह्माण्ड वाले शंखों युग बीत गए सोए हुए। मैंने उस दौरान अपना ज्ञान सुनाकर दो हजार जीव पार कर दिए। जब जलरंग ऋषि जागा तो मेरे से विवाद करने लगा। कहा कि मैं जो दीक्षा देता हूँ, वह श्रेष्ठ मंत्र है। मेरी आज्ञा के बिना कबीर यहाँ कैसे आ गया? फिर वह काल ब्रह्म को आदि पुरूष बताने लगा। कहा कि उसका कोई स्वरूप नहीं है। वह मणिपुर लोक में रहता है और बहुत-सी मिथ्या पहचान बताई। मैं वहाँ से चला गया। इस जलरंग को ‘‘पुरवन युग‘‘ में समझाया। पढ़ें आगे पुरवन युग का वर्णन :-

चौथा पुरवन युग का प्रकरण



कबीर सागर में अम्बुसागर के पृष्ठ 9 पर पुरवन युग का प्रकरण है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मैं पुरवन युग में फिर उसी ब्रह्माण्ड में गया। जलरंग सोया था। उस दौरान मैंने 7 लाख हंसों को दीक्षा दी जिनमें से 25 ने नाम खण्ड कर दिया। वे तो काल के जाल में रह गये। शेष जीव (6 लाख 99 हजार 975) सत्यलोक चले गए। इसके पश्चात् मैं उसी द्वीप में गया जहाँ जलरंग रहता था। मुझे देखकर जलरंग ने कहा कि मैं तो निन्द्रा में आलसवश था, तुम पीछे से जीव ले गए। मेरे को सतपुरूष ने नाम दान करने का आदेश दे रखा है। तुम मेरे से आज्ञा लिए बिना जीवों को कैसे ले गया?

अघासुर युग की कथा है

  • ‘‘सतगुरू-उवाच‘‘
परमेश्वर जी ने कहा कि हे जलरंग! मैं तो युग-युग में आता हूँ। मैं अमर हूँ। आप तो नाशवान हैं। एक समय मेरे से एक कुष्टम पक्षी मिला था। वह भी इसी ब्रह्माण्ड में रहता है। वह कह रहा था कि मैं असंख्य युग से रह रहा हूँ। उसने बहुत पुरानी बातें बताई।




  • ‘‘जलरंग-उवाच‘‘

यह बात सुनकर जलरंग ने कहा कि जब महाप्रलय होती है, तब वह कुष्टम पक्षी कहाँ रहता है? वह भी नष्ट हो जाता होगा? उस पक्षी को मुझे दिखाओ।

  • ‘‘सतगुरू-वचन‘‘

कुष्टम पक्षी ने मुझे बताया कि मैंने 27 हजार महाप्रलय देखी हैं। कबीर परमेश्वर बता रहे हैं कि मेरे को कुष्टम पक्षी ने बताया कि हे जलरंग! तुम सत्य मानो।

जलरंग ने कहा कि मेरे को कुष्टम पक्षी के दर्शन कराओ। यह बात सुनकर विमान में बैठकर मैं तथा जलरंग कुष्टम पक्षी के लोक में गए। हमारे साथ करोड़ों जीव भी गए जो जलरंग के शिष्य बने थे। वहाँ के बुद्धिमान हंस हमसे मिले। कुष्टम पक्षी 50 युग से समाधि लगाए था। कुष्टम पक्षी के गणों (सेवादारों) ने कुष्टम पक्षी को हमारे आने की सूचना दी। कहा कि दो महापुरूष आए हैं।
उनके साथ करोड़ों जीव भी आए हैं। आपका दर्शन करना चाहते हैं।

कुष्टम पक्षी ने कहा कि तुम उन दोनों हंसों को बुला लाओ। शेष उनकी सेना को छोड़ो। हम दोनों कुष्टम पक्षी के पास गए तो कुष्टम पक्षी ने हमारा सत्कार किया। हमारे को उच्च आसन दिया। जलरंग ने अपनी शंका का समाधान चाहा तो कुष्टम पक्षी ने बताया कि मैं कबीर पुरूष का शिष्य हूँ। जिस समय महाप्रलय होती है, सब लोक जलमय हो जाते हैं। सब जगह जल ही जल होता है। तब मैं ऐसे रहता हूँ जैसे जल के ऊपर फोग (झाग) रहता है।

यह बात सुनकर जलरंग को आश्चर्य हुआ और शर्म के मारे सिर झुका लिया। उसका अभिमान टूट गया। तब कबीर पुरूष की जलरंग ने स्तुति की। मैं तो महाभूल में था, परमात्मा तो कबीर ही हैं।

  • ‘‘कुष्टम पक्षी-वचन चौपाई‘‘

अम्बुसागर पृष्ठ 14 :-

कुष्टम पक्षी ने कहा कि हे जलरंग! मैं कबीर परमेश्वर का शिष्य (भक्त) हूँ। मेरे को दस लाख युग हो गए हैं पक्षी का शरीर प्राप्त हुए। मुझे कबीर परमात्मा ने आज्ञा नहीं की कि तू सतलोक में चल। उनकी आज्ञा के बिना उस अमर लोक में कोई नहीं जा सकता। मेरे सामने 27 हजार महाप्रलय (महा विनाश) हो चुकी हैं। मैं शुन्य द्वीप में रहता हूँ। वहाँ से अब आया हूँ। मेरे को मेरे सेवकों ने आपके आने की सूचना दी तो मैं तुरंत इस स्थान पर आया हूँ। तब मैंने (कबीर जी ने) बताया कि मेरा ही नाम कबीर ज्ञानी और जोगजीत है। यह सब सुनकर जलरंग ऋषि मेरे (कबीर जी के) चरणों में गिर गया और कहा कि मेरे गर्व को समाप्त करने के लिए आपने पक्षी को माध्यम बनाया है। मुझे अपनी शरण में ले लो स्वामी! अन्य सर्व जीवों को भी विश्वास हुआ जो हमारे साथ गए थे तथा जो उस कुष्टम पक्षी के द्वीप के थे। वे सब यह वार्ता द्वार पर खड़े होकर सुन रहे थे। हमारी वार्ता की आवाज सबको सुनाई दे रही थी। जलरंगी तथा अन्य जीवों ने दीक्षा ली, अपना कल्याण करवाया। उनको सात नाम वाला प्रथम प्रवाना दिया।

‘‘पाँचवां अनुमान युग का प्रकरण‘‘

कबीर सागर के अध्याय अम्बुसागर के पृष्ठ 15 पर कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि हे धर्मदास! अनुमान युग में अद्या यानि दुर्गा देवी अपनी पुत्रियों के साथ गुप्त द्वीप में रहती थी। काल की कला और छल को तुझे बताता हूँ।
अपने पुत्र ब्रह्मा को चार वेद दिए। उनको पढ़कर ब्रह्मा ने अपने अनुभव से पुराण ज्ञान अपने वंशजों (ऋषियों) को सुनाया। उन्होंने (ऋषियों ने) एक पुराण ज्ञान के अठारह भाग बना दिए।

ब्रह्मा के ज्ञान में अपना-अपना अनुभव मिलाकर सबने ज्ञान का अज्ञान बनाकर जनता में फैला दिया। जिस कारण से जनता ने ऋषियों को देवता मानकर पूजना शुरू कर दिया। ब्रह्मा पहले स्वयं पृथ्वी पर ऋषि रूप में आया। अपना अनुभव कथा की ब्राह्मण पूजा प्रारम्भ करके चला गया।



क्रिया कर्म का जाल फैला गया। फिर विष्णु पृथ्वी पर आया। उसने तुलसी काष्ठ की माला, जती, सती, त्यागी सन्यासी पंथ चलाया, विष्णु का सुमरण करें, विष्णु को अनिवाशी बताया। फिर शिव जगत में आया। उन्होंने भिक्षुक पंथ चलाया। गिरी, पुरी, नाथ, नागा, चारों शंकराचार्य आदि-आदि शिव के पुजारी हैं।

सर्व संसार इनकी पूजा करने लगा। अद्या (दुर्गा-अष्टंगी) को कोई नहीं पूजता था। तब दुर्गा ने देखा कि इन तीनों पुत्रों ने मेरा नामो-निशान ही मिटा दिया। तब उसने तीन पुत्र जन्मी। उनका नाम रखा रम्भा, सुचि, रेणुका। इन्होंने 64 रागनी और राग गाए। सुरनर, मुनिजन मोहित किए। फिर 72 करोड़ उर्वशी उत्पन्न की। इनमें सर्व देवता तथा ऋषि फँसा रखे हैं। मैंने उस अनुमान युग में 7 हजार जीव पार किए। उस समय मेरे को देवी नहीं पहचान सकी।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! विश्व के प्राणियों को भूल लगी है। किसी के पास भी मूल नाम नहीं है। सब भक्ति कर रहे हैं। कहते हैं कि हम मोक्ष प्राप्त करेंगे। यदि मूलनाम यानि सारनाम प्राप्त होगा तो साधक का जन्म-मरण बचेगा अन्यथा करोड़ों नाम हैं, उनके जाप से मोक्ष नहीं है।

कबीर, देही नाम सब कोई जाना। नाम विदेह बिरले पहचाना।।
भावार्थ :- देहीनाम का अर्थ है शरीर धारी माता से गर्भ लेने वाले प्रभु ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश, गणेश आदि के नाम तो सब जाप करते हैं, परंतु विदेह (कबीर जी) जो माता-पिता के सम्पर्क से बने शरीर रहित (शुक्रम अकायम् अशनाविरम कविर्देव यजुर्वेद अध्याय 5 श्लोक 8 में बताया है।) के मंत्र नाम को किसी बिरले ने पहचाना है। उस विदेह शब्द यानि सार शब्द बिन मोक्ष नहीं। मैं घर-घर जाकर समझाता हूँ। मैं विदेह शरीर से प्रकट होकर परमात्मा की महिमा यानि अपनी महिमा बताता हूँ, परंतु कोई ध्यान नहीं देता।

अम्बुसागर पृष्ठ 22 पर कहा है कि :-

अपने सुख को गुरू कहावैं,

गुरू कह कह सब जीव भुलावैं। गुरू शिष्य दोनों डहकावैं, बिना सार शब्द जो गुरू कहावैं।।
अथवा पाँच नाम नहीं जाना। नारियर मोरहीं करें विज्ञाना।।
भावार्थ है कि स्वार्थवश गुरू कहलाते हैं। सर्व जीवों को भ्रमित करते हैं। इनके पास सारशब्द तो है नहीं, तो शिष्य और गुरू दोनों नरक में जाएंगे। सार शब्द तो दूर की बात है। इनको वास्तविक पाँच नामों का भी ज्ञान नहीं। ये नारियर मोर (नारियल फोड़कर) दीक्षा देते फिर रहे हैं और विज्ञान यानि तत्त्वज्ञान का दावा करते हैं, वे झूठे हैं।




हमने जीवों को समझाया है कि :-
कबीर लोकवेद की छोड़ो आशा। अगम ज्ञान का करो विश्वासा।।
सारनाम का मिले उपदेशा। सतगुरू काटै सकल कलेशा।।

आर्य पुरूष (उत्तम पुरूष) के दर्शन पावै। षोडश भानु रूप जहाँ आवै।।
भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि लोकवेद यानि दंत कथा अर्थात् शास्त्रविरूद्ध ज्ञान की आशा छोड़कर अगम यानि आगे का तत्त्वज्ञान ग्रहण करो। जब सारनाम सतगुरू से प्राप्त होगा, तब जन्म-मरण का सब कष्ट समाप्त हो जाएगा।


गीता अध्याय 15 श्लोक 17 :-

उत्तम पुरूषः तु अन्य परमात्मा इति उदाहृतः। यः लोकत्रायम् आविश्य विभर्ति अव्ययः ईश्वरः।।

भावार्थ :- उत्तम पुरूष यानि श्रेष्ठ प्रभु। आर्य का अर्थ श्रेष्ठ है। इसलिए कहा है कि जो आर्य पुरूष है। वह तो क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य है जो परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। यहाँ पर भी कहा है कि सारनाम प्राप्त साधक आर्यपुरूष (श्रेष्ठ परमात्मा) का दर्शन करेगा और 16 सूर्यों जितने प्रकाश वाला शरीर सतलोक में प्राप्त करेगा। हे धर्मदास! मेरे यथार्थ ज्ञान से प्रभावित होकर एक लाख जीव पार हुए। धीरमाल युग की इतनी कथा है।

सातवें तारण युग का वर्णन‘‘

अम्बुसागर 23 पृष्ठ पर :-

कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! आपको तारण युग की कथा सुनाता हूँ। एक उत्तम पंथ नाम का राजा था। धन-धान्य से परिपूर्ण था। हमारा पिछले जन्म में शिष्य था। किसी कारण से काल-जाल में रह गया था। काल हाथों चढ़ा व्यक्ति कोरे पाप करता है। उसको भक्तिहीन करने के लिए काल ब्रह्म उसके कर्म खराब करवाता है। जिसके पास आवश्यकता से अधिक माया होती है, वह परमात्मा को भूलकर अपना जन्म नष्ट करता है। राजा उत्तम पंथ बहुत अन्यायी हो गया था। ब्राह्मण, ऋषि, सन्यासियों को देखकर क्रोधित होता था। उनके वेद-शास्त्रा, जनेऊ तोड़कर अग्नि में डाल देता था। इतना अत्याचार कर रहा था। पशु-पक्षियों को शिकार कर-करके मारता था। प्रजा को अति कष्ट दे रहा था। मैं एक दिन उस राजा के महल (भ्वनेम) के सामने वट वृक्ष के नीचे संत वेष में बैठ गया। एक सगुनिया नाम की नौकरानी ने कहा कि राजा आपको मार देगा, आप यहाँ से चले जाओ। मैं उठकर दरिया के किनारे जा बैठा। राजा इक्कीस ड्योडी के अंदर अपनी पत्नी के साथ रहता था। जब उसको पता चला तो मुझे मारने के लिए आया। मैं नहीं मिला तो वापिस चला गया। राजा सुबह स्नान करता था। उसके लिए एक क्षितिया नाम की नौकरानी सरोवर का जल लाती थी। उससे राजा-रानी स्नान करते थे। अगले दिन क्षितिया नौकरानी घड़ा लेकर जल लेने गई। घड़ा जल में डालकर भरा, परंतु घड़ा बाहर नहीं निकला। बहुत प्रयत्न करने पर भी घड़ा नहीं निकला। राजा-प्रजा सब आए, परंतु घड़ा नहीं निकला। फिर मैंने एक सुंदर तोते का रूप बनाया। मुझे पकड़ने के लिए सभी कोशिशें की गई, परंतु व्यर्थ रहा। कारण था कि सर्वप्रथम एक शिकारी ने मुझे तीर मारा, तीर उलटा शिकारी को लगा, वह डर गया। अन्य ने गुलेल मारी, वह टूट गई। राजा तक सूचना गई कि एक अति सुंदर तोता है, पकड़ा नहीं जाता, उड़कर भी नहीं जाता। राजा के सामने भी जाल आदि से पकड़ने की कोशिश की गई। बात नहीं बनी। फिर मुझे (तोते को) उड़ाने की कोशिश की गई, ढ़ोल-नगाड़े बजाए गए, परंतु असफल रहे।
तोते को देखकर राजा-रानी बहुत प्रभावित हुए, परंतु हताश थे। अंत में मैं स्वयं राजा की बाजू पर जाकर बैठ गया। मुझे पकड़कर सोने (स्वर्ण) के पिंजरे में बंद कर दिया। राजा-रानी मुझे पढ़ाने लगे। राम-राम बोल। मैं कहने लगा कि एक दिन सबने एक-दूसरे से बिछुड़ना है, मोह तथा प्रीति छोड़ो। एक दिन मरना है, यह ध्यान करो। राजा-रानी कहने लगे कि यह तोता कुबोल बोलता है यानि अशुभ वाक्य कहता है कि मरोगे, यहाँ नहीं रह पाओगे।




राजा शिकार करने गया। महल में आग लग गई। सब कुछ जल गया। देखा तोते का पिंजरा और तोता सुरक्षित है। राजा-रानी को मेरे जीवित मिलने की खुशी हुई, महल जल गया, कोई बात नहीं। राजा तथा रानी के इस व्यवहार से मैं प्रसन्न हुआ और उनको बताया कि मैं वट वृक्ष के नीचे बैठा था, सगुनिया आपको बताने आई। मुझे आपका स्वभाव बताया कि राजा आपकी गर्दन काट देगा। फिर आपके स्नान के लिए घड़ा लेने क्षितिया नौकरानी गई। वह बाहर नहीं निकला।
आपने अपने योद्धा तथा हाथियों से भी कोशिश की थी। फिर मैंने तोते का वेश बनाया। यह बात सुनकर राजा ने कहा, आप तो परमेश्वर हैं। अपने वास्तविक रूप में आऐं, हमें कृतार्थ करें। तब मैं कबीर रूप में प्रकट हो गया। राजा तथा तेरह रानियों ने तथा बेटियों, पुत्रों व पुत्रवधुओं ने कुल 31 जीवों ने उपदेश लिया। कथा का सारांश है कि जिनको वर्तमान में लगता है कि मैं सुखी हूँ, सर्व सुख हैं, भक्ति नहीं करता। वह बाद में कष्ट उठाता है। नरक का भागी होता है। राजा को कितना सुख था, परंतु संत के ज्ञान से वह सुख दुश्मन लगा और अपने परिवार का कल्याण करवाया। यदि परमात्मा कृपा नहीं करते तो अनमोल जीवन नष्ट हो जाता। इसलिए संत की महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। क्या आकाश का फेर है, क्या धरती का तोल। क्या संत की महिमा कहूँ, क्या पारस का मोल।।

‘‘आठवें अखिल युग का वर्णन‘‘

अम्बुसागर पृष्ठ 36 पर :-
धर्मदास जी के प्रश्न का उत्तर परमेश्वर कबीर जी ने दिया कि हे धर्मदास! अखिल युग में उसी ब्रह्माण्ड में एक धनुषमुनि नाम का तपस्वी रहता था। वह त्रायोदश (तेरह) हजार युग से तपस्या कर रहा था। नीचे सिर (सिरासन) करके पाँच अग्नि (धूने) लगाकर तपस्या कर रहा था। अपने प्राण पुरूष यानि जीव को सिर के ऊपर के भाग में चढ़ाए हुए था। सिर के ऊपर के भाग को ब्रह्माण्ड कहते हैं। वाणी पृष्ठ 36 पर :-

‘‘अर्धमुखी पाँच अग्नि तपाये, प्राण पुरूष कूं ब्रह्माण्ड चढ़ाये।‘‘

आँखें तथा शरीर क्षीण (दुर्बल) हो चुका था। धनुषमुनि को समझाया कि तप से राजा बनता है। फिर नरक में गिरता है। अम्बुसागर के पृष्ठ 38, 39 तथा 40 पर ऊपर की सात पंक्तियों तथा पृष्ठ 38 पर एक पंक्ति तथा पृष्ठ 39 पर पूरा विवरण मिलाया गया है। इसका पूर्व प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें उन चार गुरूओं का वर्णन है जिनके नाम हैं :- धर्मदास जी, बंके जी, सहते जी, चतुर्भुज जी।



‘‘नौंवें विश्व युग का वर्णन‘‘


अम्बुसागर के पृष्ठ 40 पर :-

इसमें अद्या (दुर्गा देवी) से परमेश्वर कबीर जी की वार्ता है। परमेश्वर वेश बदलकर सतगुरू (सठहार=संदेशवाहक) के रूप में गए। देवी ने पूछा कि हे सठहार! आप कौन देश से आये हो? तुमको किसने भेजा है? परमेश्वर कबीर जी ने सठहार रूप में उत्तर दिया कि मैं सतलोक से आया हूँ। सतपुरूष ने भेजा हूँ। तुमने (निरंजन और देवी ने) परमेश्वर के अंश जीव को बहुत सताया है। उनको पाप करने के लिए बाध्य किया। उनमें अज्ञान फैलाया है। किसी देवी पर भैंसा कटाया जाता है। उसको धर्म-कर्म बताकर मूर्ख बनाया है। कहीं पर बकरा कटाया है। उसको धर्म बताकर पाप करवाया है। तुम परमेश्वर के चोर हो

देवी ने कहा कि तुम कैसे कुटिल वचन बोल रहे हो? मैं तुम्हारे परमात्मा से नहीं डरती। मेरी शक्ति तीनों लोकों में कार्य करती है। तीनों लोकों के प्राणी मेरे पाँव के नीचे हैं यानि मेरे आधीन हैं। अरे दुष्ट सठहार! तू कहाँ से चल आया? तेरे को परमेश्वर ने किसलिए भेजा है? मेरे वश ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित सर्व देवता, सनक, सनन्दन, संत कुमार, सनातन सब हैं। मेरी 64 लाख कामिनि (सुंदर युवती) हैं। 72 करोड़ उर्वशी (अप्सराऐं) हैं। सबको मोहित करके मैंने फँसाकर रखा है। मेरे ऊपर कोई स्वामी नहीं है। मैं स्वतंत्र कार्य करती हूँ। हमने तप करके यह स्थान (21 ब्रह्माण्ड) प्राप्त किया है। मेरे हाथ में खप्पर है। मेरी आठ भुजाऐं हैं। मुझे तुम्हारा कोई भय न है। परमेश्वर जी ने कहा कि मैं तो सतलोक से आया हूँ। तुम जो अपनी ताकत दिखा रही हो, यह मिथ्या है। तूने अपने बड़े भ्राता से अवैध रीति से विवाह कर लिया। अपनी गलती को याद नहीं कर रही हो। सर्वप्रथम तुमने यह बीज बोया था। अब उस जार यानि (परस्त्री गमन करने वाला) निरंजन के साथ मिलकर जुल्म पर जुल्म कर रही हो। अपने पिता को भूल गई। जब महाप्रलय हो जाएगी, तब हे दुर्गा! तुम तथा तुम्हारे सब लोक, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव और निरंजन तक विनाश को प्राप्त हो जाओगे। तब तू कहाँ रहेगी? अपने पिता के सर्व सुख को छोड़कर इस निरंजन की अर्धांगिनी (स्त्री) बनकर पाप इकट्ठे करने पर लगी हो। आप पिता को त्याग पति को अधिक महत्त्व दे रही हो। इस लोक (काल लोक) की सर्व स्त्रियों में भी यही प्रभाव है। पति के घर जाने के पश्चात् प्रत्येक लड़की का भाव रहता है कि अधिक समय पति के घर पर बिताए और पिता के घर से धन लाकर पति का घर बसाए।
परमेश्वर जी के यह सत्य वचन सुनकर देवी को लाज आई और मुझे (कबीर जी को) सिहांसन पर बैठाया और कहा कि आप अपना ज्ञान तथा नाम देकर जीव ले जा सकते हैं। जो आपका नाम लेगा, वह हमारे सिर पर पैर रखकर पार हो सकता है, हम उसको रोक नहीं सकते।

जो आपका सारनाम प्राप्त है और उसको हम रोक देंगे तो हम पुरूष द्रोही (परमात्मा के द्रोही) हो जाएंगे। ऐसी गलती करने से हमारा लोक नष्ट हो जाएगा। जो जीव सारनाम लेकर गुरूद्रोही हो जाएगा। उसको हम यहीं लपेट लेंगे। अन्य नकली गुरूओं के नकली नाम प्राप्त जीव भी हमारे जाल में ही रह जाएंगे। वे हमारा खप्पर भरेंगे यानि काल निरंजन का भोजन बनेंगे। परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! विश्व युग में मनुष्य की आयु एक हजार युग होती थी। युग 20 लाख वर्ष की अवधि का था। मनुष्यों की ऊँचाई 68 हाथ यानि सैंकड़ों फुट थी। जो व्यक्ति सात नाम का प्रथम मंत्र प्राप्त करता था तथा सत्यनाम तथा सारनाम में निश्चय रखता था। वही परमेश्वर के दर्शन करने का अधिकारी होता था।

‘दसवें अक्षय तरूण युग का वर्णन‘‘

अम्बुसागर पृष्ठ 44 पर :-
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! इस युग में उसी ब्रह्माण्ड में काल का कूर्म था। उसको समझाया, उसने दीक्षा ली। वहाँ पर एक नरक है। उसमें 84 कुण्ड बने हैं। प्रत्येक कुण्ड पर यम दूतों का पहरा है। उनके 14 यम मुखियाँ हैं। उनके नाम बताए हैं।
‘‘चौदह यमों के नाम‘‘
1 मृत्यु अंधा 2 क्रोधित अंधा 3 दुर्ग अभिमाना 4 मन करन्द 5 चित चंचल 6 अपर बल 7 अंध अचेत 8 कर्म रेख 9 अग्नि घंट 10 कालसेन 11 मनसा मूल 12 भयभीत 13 तालुका 14 सुर संहार।




परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मैंने सब यमदूतों को पकड़ लिया। फिर प्रत्येक कुण्ड में दूत जीवों को सता रहे थे। मैं वहाँ खड़ा हो गया। यमदूत उन नरक कुण्डों में पड़े प्राणियों को पकड़-पकड़कर पीट रहे थे। उनमें 28 लाख नकली गुरू भी नरक भोग रहे थे। मुझे देखकर नकली गुरूओं ने बचाने की पुकार की। मैंने कहा कि तुमने मेरे जीवों को भ्रमित करके काल के जाल में डाला है। मेरा मार्ग छुड़वाकर काल मार्ग बताया है। आप भी यहीं पर नरक में पड़े हो, सड़ो। उन सब यमों को तथा दूतों (नकली कडि़हारों यानि नकली दूतों) को चोटी पकड़-पकड़कर घसीटा-पीटा। फिर उन नकली गुरूओं ने क्षमा याचना की। कहा कि हे परमात्मा! हमसे भूल हुई है। हम काल के वश हैं। हमारे स्वामी ने जो आज्ञा दी, हमने पालन किया। हमारी गलती क्षमा करें।

यह सुनकर मैं हँसा और कहा कि दूतों (नकली गुरूओं) की बँध नहीं छुड़वाई जाएगी। उन कुण्डों में जो नकली गुरूओं के शिष्य थे, वे भी वहीं नरक भोग रहे थे। जब तक मैं वहाँ पर रहा, तब तक सब जीवों को नरक की पीड़ा नहीं हुई। मेरे जाने के पश्चात् फिर से वही यातनाऐं उनको प्रारम्भ हो गईं। अक्षयतरूण युग में 5 लाख जीवों को मोक्ष प्राप्त करवाया।

‘‘ग्यारहवें नंदी युग का वर्णन‘‘

अम्बुसागर पृष्ठ 49 तथा 50 पर :-
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! अब नंदी युग की कथा बताता हूँ। एक गुप्तमुनि था जो आँखें बंद किए ध्यान लगाए बैठा था। करोड़ वर्ष साधना करते बीत चुके थे। मैं उनके पास बैठ गया। जब ऋषि ने आँखें खोली तो उसने कहा कि आप कौन हैं? मैंने आज तक ऐसी शोभा वाला व्यक्ति नहीं देखा। शरीर का ऐसा रूप कभी नहीं देखा। कहा, आप कौन हो?

कहाँ से आए हो? मैंने उत्तर दिया कि मैं सतलोक से आया हूँ। सतलोक की व्यवस्था बताई तो गुप्तमुनि ने लोक देखने की प्रबल इच्छा व्यक्त की। मैंने गुप्तमुनि की कई बार परीक्षा ली तो वह प्रत्येक बार सही निकला। फिर उसको प्रथम चरण वाली मंत्र दीक्षा दी। जब उस मुनि की आधीनता देखी, मेरे चरण पकड़कर सत्यलोक दर्शन की प्रार्थना की तो उसको उसी जगह (सतलोक) ले गया। प्रथम उसको मानसरोवर दिखाया। वहाँ पर सुंदर स्त्रियां (कामिनि) थी जो एक समान सुंदर थी। उनके शरीर की शोभा ऐसी थी जैसे चार सूर्य शरीर के ऊपर लपेट रखे हों यानि उनके शरीर का प्रकाश चार सूर्यों के समान था। (मानसरोवर पर स्त्रा-पुरूष के शरीर का प्रकाश चार सूर्यों के प्रकाश के समान होता है। सत्यलोक में स्त्री-पुरूष के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यां के प्रकाश के समान हो जाता है।) वे वहाँ आनन्द से बातें कर रही थी। मानसरोवर के घाटों पर ऐसी सीढ़ी बनी थी जैसे उनके ऊपर चाँद और सूरज चिपका रखे हों। मानसरोवर के अमृत जल में ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थी जैसे सूर्य ही उस जल में मिल गया हो। ऐसा सुंदर रंग उस जल का है। वहाँ पर वे सर्व स्त्रियां उस समय स्नान कर रही थी। स्नान करते समय उनका रूप और भी चमक रहा था। स्थान-स्थान पर अन्य स्त्रियां गाने गा रही थी।




यह दृश्य देखकर गुप्तमुनि का मन ललायित हो उठा। ऋषि का मन उनकी शोभा तथा मान सरोवर का नजारा देखकर व्याकुल हो गया। मानसरोवर के चारों ओर भांति-भांति की फुलवाड़ी थी। उनको देखकर लगता था जैसे पौधों पर उड़गन (तारे) तथा रवि (सूर्य) लगा रखे हों। यह शोभा देखकर गुप्तमुनि मेरे चरणों से चिपट गया और कहा कि हे साहब! अब मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा। ऐसे स्थान पर आपकी कृपा बिना फिर नहीं आ पाऊँगा।

सतगुरू वचन चौपाई (पृष्ठ 51 तथा 52)

कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि हे धर्मदास! सतलोक देखकर जो स्थिति तुम्हारी हुई थी, वही स्थिति गुप्तमुनि की हो गई। मैंने उनसे कहा कि अभी तो आपको प्रथम नाम दीक्षा दी है।

जब तक सारनाम प्राप्त नहीं होगा और उसकी साधना पूरी नहीं करोगे, तब तक यहाँ स्थाई विश्राम नहीं मिल सकता। अब आप अपने स्थान पर जाओ। फिर हम दोनों गुप्तमुनि के स्थान पर आ गए। गुप्तमुनि ने मेरे से (कबीर परमात्मा से) कहा कि आपके उस स्थान को मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ। मुझे वह विधि बताने की कृपा करें। मैं उसकी प्राप्ति के लिए जो भी साधना तथा कुर्बानी करनी पड़ेगी, वही करूँगा। मैंने गुप्तमुनि को सत्यनाम की दीक्षा दी। अति आधीन देखकर उसको सारशब्द देकर सतलोक ले गया। वहाँ के हँसों (भक्तों) से मिलकर अति प्रसन्न हुआ। मेरा कोटि-कोटि धन्यवाद किया। कहा कि आपकी कृपा के बिना भगवन्! न तो सत्य ज्ञान मिल सकता है, न भगवान। आप ही करूणा के सागर हो। आप ही मोक्षदाता हो। आप ही वास्तव में पूर्ण ब्रह्म विधाता हो। सतलोक में आपके शरीर की शोभा देखकर दर्शन करके युगों की प्यास शांत हो गई है। इस युग में केवल एक हँस की मुक्ति कराई।

‘‘बारहवें हिंडोल युग का वर्णन‘‘

कबीर सागर के अध्याय ‘‘अम्बुसागर‘‘ के पृष्ठ 53 तथा 54 पर :-
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! अब मैं आप को हिंडोल युग (जो मध्य के ब्रह्माण्ड में चलता है) की कथा सुनाता हूँ। मैं सतलोक से चला। सतलोक में असँख्य द्वीप हैं।
द्वीप-द्वीप में हँस विलास करते हैं यानि मोक्ष प्राप्त प्राणी आनन्द से रहते हैं। मैं हिंडोल युग के मध्य में गया। मैं घर-घर में ज्ञान सुनाता हुआ विचरण करता था। कोई भी जीव मेरे से बातें नहीं करता था। मैं उनको अमृत ज्ञान सुनाता था। वे मेरे से झगड़ा करते थे। धीरे-धीरे उनको समझाया। लाभ-लोभ देकर शरण में लिया। सात लाख जीवों ने दीक्षा ली। उनको सत्यलोक भेजा।



‘‘तेरहवें कंकवत युग का वर्णन‘‘

कबीर सागर के अध्याय ‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 55 पर :-
परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! जब काल निरंजन को पता चला कि कोई सतलोक से कडि़हार (जीव मुक्त करने वाला सतपुरूष का भेजा अंश) आता है। उसने अनेकों जीवों को हमारे जाल से छुड़ा लिया है। कंकवत युग में काल ब्रह्म स्वयं एक गुप्त मुनि का रूप बनाकर बैठा तपस्या कर रहा था। करोड़ों जीवों को नाम देकर मूर्ख बनाए उनका गुरू बनकर बैठा था।

गुप्त मुनि ने मेरे को देखकर पूछा कि आप इस लोक के निवासी नहीं हो। कहाँ से आए हो, कृपा बताऐं। तब मैंने बताया कि आपका पाताल लोक देखने आया हूँ। सत्यलोक से आया हूँ। गुप्त मुनि मध्य वाले ब्रह्माण्ड के पाताल लोक में था। मैंने (परमेश्वर कबीर जी ने) उसको समझाया कि तुम काल हो। तूने परमेश्वर के जीवों को सता रखा है, पाप का भागी हो रहा है। मैं जीवों को मोक्ष मार्ग बताने आया हूँ। यह सुनकर गुप्त मुनि क्रोधित हुआ और बोला कि क्या मंत्र देते हो, मुझे क्या समझ रखा है? मैं साठ खरब वर्ष तक की जानकारी रखता हूँ। प्रलय समय कहाँ रहेगा जिस समय सुर मुनि अठासी हजार नहीं रहेंगे, तब तुम कहाँ रहोगे कबीर जी? जिस समय उत्पत्ति (काल की प्रलय के पश्चात्) नहीं हुई थी, तब तुम कहाँ थे? कहाँ आपका शरीर था?

‘‘कबीर परमेश्वर (ज्ञानी) बचन‘‘

कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे गुप्त मुनि! जब कुछ भी उत्पत्ति नहीं हुई थी। उस समय मैं एक कमल के ऊपर विराजमान था। मैंने ही सर्व रचना की है। मैंने ही सतलोक की रचना की है जो मन को आकर्षित करता है। मैंने ही षोडश (सोलह) अंश उत्पन्न किए थे। (अण्डे से तेरी उत्पत्ति भी मैंने की थी।) तूने तो मुझे पहचाना नहीं। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे अहंकारी! अब बोल। यह बात सुनकर काल मेरे साथ युद्ध करने लगा। उसको मैंने शब्द शक्ति से घायल किया। वह उठकर भागा और अपने इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में जाकर छिप गया। उसके पश्चात् उस मध्य के ब्रह्माण्ड में बने तीन लोकों में प्रलय हो गई। इस कंकवत युग की अवधि पैंतीस लाख वर्ष होती है। मनुष्य की आयु एक लाख वर्ष होती है। मनुष्य के शरीर की ऊँचाई 80 हाथ यानि सैंकड़ों फुट होती है।

‘‘चौदहवें तरंग में चारों युगों का वर्णन‘‘

अध्याय ‘‘जम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 58 पर :-
‘‘धर्मदास वचन‘‘

धर्मदास जी ने कहा कि हे परमेश्वर! मुझे चारों युगों की कथा सुनाने की कृपा करें।
‘‘सतगुरू वचन‘‘

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! इस ब्रह्माण्ड में जिसमें आप रह रहे हो, कुल चार युग हैं।
1 सत्ययुग 2 त्रोतायुग 3 द्वापर युग 4 कलयुग।
1 सत्ययुग का वर्णन :- सत्ययुग की अवधि 17 लाख 28 हजार वर्ष है। मनुष्य की आयु प्रारम्भ में दस लाख वर्ष होती है। अन्त में एक लाख वर्ष होती है। मनुष्य की ऊँचाई 21 हाथ यानि लगभग 100 से 150 फुट होती है। {उस समय मनुष्य के हाथ (कोहनी से बड़ी ऊंगली के अंत तक) की लंबाई लगभग 5 फुट होती है।} मेरा नाम सत सुकृत होता है।
{वर्तमान में कलयुग में मनुष्य के एक हाथ की लंबाई लगभग डेढ़ (1)) फुट है। पहले के युगों में लंबे व्यक्ति होते थे। उनके हाथ की लंबाई भी अधिक होती थी।}
2 त्रोतायुग का वर्णन :- त्रोतायुग की अवधि 12 लाख 96 हजार वर्ष होती है। मनुष्य की आयु प्रारम्भ में एक लाख वर्ष होती है, अंत में दस हजार वर्ष होती है। मनुष्य की ऊँचाई 14 हाथ यानि लगभग 70 से 90 फुट होती है। मेरा नाम मुनिन्द्र रहता है।
3 द्वापरयुग का वर्णन :- द्वापरयुग की अवधि 8 लाख 64 हजार वर्ष होती है। मनुष्य की आयु दस हजार प्रारम्भ में होती है। अंत में एक हजार रह जाती है। मनुष्य की ऊँचाई 7 हाथ यानि 40,50 फुट होती है। द्वापर युग में मेरा नाम करूणामय होता है।




4 कलयुग का वर्णन :- कलयुग की अवधि 4 लाख 32 हजार वर्ष होती है। मनुष्य की आयु एक हजार वर्ष से प्रारम्भ होती है, अंत में 20 वर्ष रह जाती है तथा ऊँचाई साढ़े तीन हाथ यानि 10 फुट होती है। अंत में 3 फुट रह जाती है। कलयुग में मेरा नाम कबीर रहता है।
नोट :- जो व्यक्ति सौ फुट लम्बा होगा। उसका हाथ (कोहनी से हाथ के पंजे की बड़ी ऊँगली तक) भी लंबा होगा यानि 5 फुट का हाथ होता था। ऊपर लिखी आयु युग के अंत की होती है।
जैसे सत्ययुग के प्रारम्भ में 10 लाख वर्ष से प्रारम्भ होती है। अंत में एक लाख वर्ष रह जाती है।
त्रोतायुग में एक लाख से प्रारम्भ होती है, अंत में 10 हजार रह जाती है। द्वापर युग में 10 हजार से प्रारम्भ होती है, अंत में एक हजार वर्ष रह जाती है। कलयुग में एक हजार वर्ष से प्रारम्भ होती है, अंत में 20 वर्ष रह जाती है। अधिक समय तक 120 वर्ष की रहती है। प्रदूषण की अधिकता कलयुग में सर्वाधिक होती है। इसलिए आयु भी उतनी शीघ्रता से कम होती है जो ऊपर के युगों की भांति सहज नहीं रहती। प्राकृतिक विधि से कम नहीं होती अन्यथा कलयुग में अंत में 100 वर्ष होनी चाहिए।

कलयुग में मानव का व्यवहार

परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि हे धर्मदास! कलयुग में कोई बिरला ही भक्ति करेगा अन्यथा पाखण्ड तथा विकार करेंगे। आत्मा भक्ति बिना नहीं रह सकती, परंतु कलयुग में मन (काल का दूत है मन) आत्मा को अधिक आधीन करके अपनी चाल अधिक चलता है। कलयुग में मनुष्य ऐसी भक्ति करेगा। गुरू के सम्मुख तो श्रद्धा का पूर्ण दिखावा करेगा, पीछे से गुरू में दोष निकालेगा, निंदा करेगा। जिस कारण से भक्त का स्वाँग करके भी जीवन-जन्म नष्ट करके जाएगा। कलयुग में संतों में अभिमान होगा। सब संतों में अहंकार समाया रहेगा। अहंकार काल का दूसरा रूप है। मन अहंकार का बर्तन है। कोई बिरला साधु होगा जो अहंकार से बचेगा। अधिकतर साधु दूसरे साधु को देखकर ईष्र्या करेंगे। इसलिए चैरासी लाख प्राणियों के जन्मों में भटकेंगे। घर-घर में गुरू बनकर जाएंगे। अपनी महिमा बनाएंगे। सतगुरू यानि तत्त्वदर्शी संत को देखकर जल मरेंगे। चैंका बैठ (पाठ करने के आसन पर बैठकर) कर बहुत फूलेंगे। स्त्राी देखकर तो कुर्बान हो जाएंगे। जब भी किसी घर में जाएंगे तो सुंदर स्त्राी को देखकर अभद्र संकेत आँखों से करेंगे। फिर बनावटी उपदेश करेंगे। प्रसाद वितरित करते समय भी भेदभाव करेंगे।



धर्मदास सुन बचन हमारा। कलयुग में साधुन के व्यवहारा।।
चैंका बैठ करैं बहु शोभा। नारी देख बहु मन लोभा।।
देख नारी सुंदर नैना। ताको दूर से मारें सैना।।
जिसको अपना जानै भाई। ताको दें प्रसाद अधिकाई।।
मुक्ति-मुक्ति सब संत पुकारें। सारनाम बिन जीवन हारें।।
निःअक्षर वाकि है बाटि। बिना मम अंश न पावै घाटि।।
दया धर्म औरां बतलावैं। आप दयाहीन करद चलावैं।।
कलयुगी साधु ऐसे बेशर्मा। करावैं पाप बतावैं धर्मा।।
और कहु भगतन की रीति। मम अंश से द्रोह काल दूत से प्रीति।।
जो कोई नाम कबीर का गहही। उनको देख मन में दहही।।(जलते हैं।)
लोभ देय निज सेव दृढ़ायी। चेला चेली बहुत बनाई।।
पुनि तिन संग कुकर्म करहीं। कर कुकर्म नरक में परहीं।।
जो कोई मम संत शब्द प्रकटाई। ताके संग सभी राड़ बढ़ाई।।
अस साधु महंतन करणी। धर्मदास मैं तोसे वर्णी।।
अम्बुसागर तुम सन भाषा। समझ बूझ तुम दिल में राखा।।
धर्मदास सुनाया ज्ञाना। कलयुग केरैं चरित्र बखाना।।
जब आवै ठीक हमारी। तब हम तारैं सकल संसारी।।
आवै मम अंश सत्य ज्ञान सुनावै। सार शब्द को भेद बतावै।।
सारनाम सतगुरू से पावै। बहुर नहीं भवजल आवै।।
नोट:- अम्बुसागर पृष्ठ 63 पर जो चार गुरूओं के प्रकट होने का प्रकरण है, यह गलत है। ठीक वर्णन अध्याय ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1863 पर तथा ‘‘ज्ञान बोध‘‘ पृष्ठ 35, ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105, 106 पर है। अम्बुसागर के पृष्ठ 54 से 67 तक सामान्य ज्ञान है जो पहले कई बार दोहराया गया है।

••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। सतलोक आश्रम YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।

Post a Comment

0 Comments