खबरों की खबर कार्यक्रम में आप का एक बार फिर से स्वागत है| आज की इस वीडियो में हम बात करेंगे द्वापरयुग में पांच पाण्डवो की पत्नी के नाम से जाने वाली द्रौपदी जी के बारे में ।शुरू करते हैं आज की विशेष पड़ताल और जानते हैं कि द्रोपदी कौन थी? द्रोपदी के चीर हरण के समय किसने द्रोपदी की रक्षा करी थी? क्या था इसके पीछे का रहस्य? और पांडवों के धर्मयज्ञ को संपूर्ण कराने में द्रोपदी का क्या योगदान था?
द्रौपदी महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रोपद की पुत्री है जो बाद में पांचों पाण्डवों की पत्नी बनी। द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। ये कृष्णा, यज्ञसेनी, महाभारती, सैरंध्री आदि अन्य नामो से भी विख्यात है।
द्रोपदी श्रापवश दुर्गा की अवतार थी जो अपना कर्म भोगने यहाँ आई थी
द्रोपदी पूर्व जन्म में परमात्मा की भक्ति करती थी। परमात्मा अनेकों वेश बनाकर भक्तों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। कबीर परमात्मा गुरू-ऋषि रूप में नगरी के पास आश्रम बनाकर रहते थे। कंवारी द्रोपदी को भी अन्य सहेलियों के साथ कबीर परमात्मा ने प्रथम मंत्र (पाँच नाम वाला) दिया था।
जब द्रोपदी अपने पिता के घर पर कंवारी थी। प्रतिदिन की तरह द्रोपदी घाट पर स्नान करने गयी हुई थी। और उसी दौरान एक अंधा साधु भी उस नदी में स्नान के लिये आया हुआ था। लेकिन साधु की कोपीन नदी में बह गई थी। जब द्रोपदी को यह पता लगा कि साधु अंधा है और उसकी कोपीन नदी में बह गई तो साधु की ईज्जत की रक्षा के लिये अपनी साड़ी का चीर फाड़ कर दिया।
महात्मा ने कोपीन बाँधी तथा भरे कण्ठ से भावुक होकर बोला कि बेटी! महा उपकार मेरे ऊपर किया है। आज आपने मेरी इज्जत रखी है। मैं नंगा बाहर जाता, शर्म लगती या दरिया में ही मर जाता। हे देवी! परमात्मा तेरी इज्जत रखे। तेरे को अनंत गुना चीर परमात्मा देवे।
द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव भाईयों से हुआ था। विवाह के पश्चात् पाण्डवों के साथ श्री कृष्ण जी को गुरू धारण कर लिया था। द्रोपदी के विवाह के पश्चात युधिष्ठिर ने एक शीशमहल बनवाया था। दुर्योधन धृतराष्ट्र का पुत्र था। धृतराष्ट्र अंधा था। जिस वजह से उन्हें राज नहीं मिला था। और इसी कारण दुर्योधन युधिष्ठिर से ईर्ष्या रखता था कि यह राज हमें क्यों नहीं मिला।
एक बार दुर्योधन उस शीशमहल को देखने के लिए चला गया और द्रौपदी वहीं पर थी। महल कांच के होने के कारण पारदर्शी था आगे रास्ता पता नहीं चला और दुर्योधन कांच से टकरा गया और गिरते गिरते बचा। तब द्रोपदी ने दुर्योधन की यह दशा देखकर मजाक में बोला कि अंधे की संतान अंधी ही होती है।
द्रोपदी ने यह बात मजाक में बोली थी लेकिन दुर्योधन के यह बात अंदर तक घर कर गई और उसने इसका प्रतिशोध लेने की सोची। और एक बार दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला और युधिष्ठिर को हराकर सारा राज भी ले लिया। युधिष्ठिर ने द्रोपदी को भी दांव पर लगा दिया। दुर्योधन ने द्रोपदी को भी जीत लिया। और दुर्योधन ने कहा कि द्रोपदी को लेकर आओ और यहां पर नंगा करके मेरे जांघ पर बिठाओ।
यह बात सुनकर एक नौकरानी भागकर द्रोपदी के पास गई और सब कुछ बताया।
दुर्योधन ने कहा कि उसने मुझे अंधे की संतान कहा था और हम अंधे की संतान है हमें कुछ दिखाई नहीं देता उसको क्या शर्म आएगी। उसको नग्न करो मेरे सामने। फिर कुछ देर बाद द्रोपदी को वहां भरी सभा में लाया गया और मलीन विचारों से युक्त दुर्योधन ने कहा कि इसका चीर उतार दो।
भरी सभा में पांचो पांडव भी उपस्थित थे और भीष्म, गुरू द्रोणाचार्यऔर कर्ण ये तीनों एक नंबर के योद्धा थे लेकिन जब द्रोपदी का चीर उतारा जा रहा था तब इन तीनों में से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि उसको रोक सके। द्रोपदी ने अपनी रक्षा के लिए सभी से पुकार की लेकिन किसी ने नहीं सुनी।
जिन लोगों को आज तक हम बड़े बहादुर और नेक व्यक्ति मानते रहे वह ऐसे मलीन विचारों वाले थे कि भरी सभा के अंदर द्रोपदी की रक्षा के लिए आवाज तक नहीं उठाई और उनके नग्न होने का इंतजार करते रहे।
विदुर जी नेक व्यक्ति थे और भक्ति बीज युक्त थे।वह भरी सभा मे खड़े हुए और दुशासन से कहा कि अरे दुशासन! अरे दुर्योधन तुम किसकी बेज्जती कर रहे हो अपने ही परिवार की? पांडवो और कौरवों की बहू में क्या अंतर है? दुनिया क्या कहेगी?
लेकिन उसकी एक नही सुनी और विदुर वहाँ से चला गया। तब द्रौपदी ने सोचा कि आज तो इज्जत नहीं बचेगी और उसी समय आत्मा से परमात्मा को पुकारा क्योंकि आत्मा ही परमात्मा का सच्चा साथी है।
परमात्मा देखता है कि इसके कौन-से धर्म-कर्म या भक्ति के कारण साधक का संकट निवारण किया जा सकता है? उस आत्मा (द्रोपदी) के खाते में अंधे महात्मा को दिए लीर (छोटा-सा
कपड़े का टुकड़ा) के प्रतिफल में सहायता करनी बनती है। उसी समय कबीर परमेश्वर जी सूक्ष्म रूप में द्रोपदी के सिर पर कमल के फूल पर विराजमान हो गए। और द्रोपदी का चीर बड़ा दिया जिससे उसकी ईज्जत की रक्षा हुई। लेकिन निमित श्री कृष्ण जी को बनाया ताकि परमात्मा में आस्था मानव की बनी रहे। काल चाहता है कि मानव गलत साधना करे। उससे उसको कोई लाभ न हो। नास्तिक हो जाए। अंधा बाबा की भूमिका भी स्वयं परमात्मा कबीर जी ने की थी। जिस कारण से उस साड़ी के कपड़े के टुकड़े का इतना अधिक फल मिला। यदि कबीर परमात्मा द्रोपदी की सहायता न करते तो द्रोपदी नंगी हो जाती। परमात्मा कबीर जी ने परमात्मा में आस्था बनाए रखने के लिए यह अनहोनी करनी थी। द्रोपदी के चीर को बढ़ाकर विश्व विख्यात चमत्कार कर दिया जिससे आज तक परमात्मा का गुणगान हो रहा है।
गरीब, पीतांबर कूं पारि करि, द्रौपदी दिन्ही लीर।
अंधेकू कोपीन कसि, धनी कबीर बधाये चीर।।
द्रोपदी ने अपनी साड़ी के कपड़े में से कपड़े का टुकड़ा (लीर) अंधे महात्मा
को दान किया था। सबके मालिक धनी कबीर जी ने द्रोपदी का चीर बढ़ाया।
फिर पांडवों ने द्रौपदी के चीर हरण का प्रतिशोध लिया जिसका परिणाम महाभारत के रूप में सबने देखा
महाभारत के युद्ध में किये पाप के कारण युधिष्ठिर को भयानक स्वपन आने शुरू हो गए। जैसे बहुत सी औरतें रोती-बिलखती हुई अपनी चूडियाँ तोड़ रहीं हैं तथा उनके मासूम बच्चे अपनी माँ के पास खड़े कुछ बैठे पिता-पिता कह कर रो रहे हैं। कई बार बिना शीश के धड़ दिखाई देते है।
जिस कारण युधिष्ठर को रात्रि में नींद नही आती थी।
जब द्रौपदी ने कई रात्रियों में युधिष्ठिर की यह दुर्दशा देखी तो एक दिन चारों
(अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव) को बताया कि आपका बड़ा भाई बहुत परेशान है। कारण पूछो।
तब चारों भाईयों ने बड़े भईया से परेशानी का कारण पूछा। फिर युधिष्ठिर ने अपनी सर्व कहानी सुनाई। पाँचों भाई इस परेशानी का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्णजी के पास गए तथा बताया कि बड़े युधिष्ठिर जी को भयानक स्वपन आ रहे हैं। जिनके कारण उनकी रात्रि की नींद व दिन का चैन व भूख समाप्त हो गई।
कृपया कारण व समाधान बताएँ। सारी बात सुनकर श्री कृष्ण जी बोले युद्ध में किए हुए पाप परेशान कर रहे हैं। इन पापों का निवारण यज्ञ से होता है। श्री कृष्ण जी ने कहा कि जितने अधिक व्यक्ति भोजन पाएंगें उतना ही अधिक पुण्य होगा। परंतु संतों व भक्तों से विशेष लाभ होता है उनमें भी कोई परम शक्ति युक्त संत होगा वह पूर्ण लाभ दे सकता है तथा यज्ञ पूर्ण होने का साक्षीएक पांच मुख वाला (पंचजन्य) शंख एक सुसज्जित ऊँचे आसन पर रख दिया जाएगा तथा जब
इस यज्ञ में कोई परम शक्ति युक्त संत भोजन खाएगा तो यह शंख स्वयं आवाज करेगा। इतनी गूँज होगी की पूरी पृथ्वी पर तथा स्वर्ग लोक तक आवाज सुनाई देगी।
यज्ञ शुरू हुआ और सभी साधु-संतों ने भोजन किया लेकिन शंख नहीं बजा। श्री कृष्ण जी ने कहा कि इनमें कोई पूर्ण सन्त (सतनाम व सारनाम उपासक) नहीं है। तब युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने महा मण्डलेश्वर जिसमें वशिष्ठ मुनि, मार्कण्डेय, लोमष ऋषि, नौ नाथ (गोरखनाथ जैसे), चौरासी सिद्ध आदि-2 व स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी ने भी भोजन खा लिया। परंतु शंख नहीं बजा। इस पर कृष्ण जी ने कहा ये सर्व मान बड़ाई के भूखे हैं। परमात्मा चाहने वाला कोई नहीं तथा अपनी मनमुखी साधना करके सिद्धि दिखा कर दुनियाँ को आकर्षित करते हैं।
तब परमात्मा कबीर जी सुपच सुदर्शन के रूप में आये।
फिर द्रोपदी से कहा कि हे बहन! सुदर्शन महात्मा जी आए हैं, भोजन तैयार करो। बहुत पहुँचे हुए संत हैं। द्रोपदी देख रही है कि संत लक्षण तो एक भी नहीं दिखाई देते हैं। यह तो एक दरिद्र गृहस्थी व्यक्ति है।
श्री कृष्ण जी कहते ही द्रोपदी ने स्वादिष्ट भोजन की थाली लेकर आई।
सुदर्शन जी ने नाना प्रकार के भोजन को थाली में इक्ट्ठा किया तथा खिचड़ी सी बनाई
उस समय द्रौपदी ने देखा कि इसने तो सारा भोजन (खीर, खांड, हलुवा, सब्जी, दही, दही-बड़े आदि) घोल कर एक कर लिया। तब मन में दुर्भावना पूर्वक विचार किया कि इस मूर्ख ने तो खाना खाने का भी ज्ञान नहीं। यह काहे का संत? कैसा शंख बजेगा।
द्रोपदी के मन मे आये इस दोष की वजह से शंख कुछ देर बज कर बंद हो गया। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि इन महात्मा सुदर्शन के भोजन खा लेने से भी शंख अखण्ड क्यों नहीं बजा? फिर अपनी दिव्य दृष्टि से देखा ? तो पाया कि द्रोपदी के मन में दोष है।
उसी समय द्रौपदी ने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए संत से क्षमा याचना की और सुपच सुदर्शन के चरण अपने हाथों धो कर चरणामृत बनाया। उसी समय वही पंचायन शंख इतने जोरदार आवाज से बजा कि स्वर्ग तक ध्वनि हुई। तब पाण्डवों की वह यज्ञ सफल हुई।
कबीर परमात्मा हर युग में अपनी पुण्यात्माओं की रक्षा के लिए अलग अलग रूप धारण करके आते है। परमेश्वर कबीर जी ही सबके असली रक्षक है। वर्तमान में संत रामपाल जी महाराज ही एकमात्र सच्चे संत है जिनकी शरण में आने से आपकी रक्षा होगी तो जितना जल्दी हो सके संत रामपाल जी महाराज से नाम दीक्षा लेकर अपना मनुष्य जन्म सफल बनायें।
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