अमर सिंह बोध’’ का सारांश (Amar Singh Bodh ka Saransh) | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

अमर सिंह बोध’’ का सारांश (Amar Singh Bodh ka Saransh) | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji


 अध्याय ‘‘अमर सिंह बोध’’ का सारांश (सातवां अध्याय)

कबीर सागर में सातवां अध्याय ‘‘अमर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 69(493) पर:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि एक अमर सिंह नाम का सिंगलदीप का राजा था। अमरपुरी नाम की नगरी उसकी राजधानी थी।

Amar Singh Bodh ka Saransh



हे धर्मदास! मैं सत्यपुरूष की आज्ञा के अनुसार मृत्युलोक (काल लोक) में आया। (धर्मदास जी मन-मन में कह रहे थे कि आप स्वयं सब लीला कर रहे हो। मैं तो आपको दोनों रूपों में देख चुका हूँ।) परमात्मा ने कहा कि एक अमर सिंह नामक राजा अमरपुरी राजधानी में रहता है। वह पुण्यात्मा है, परंतु भगवान भूल गया है। आप जाओ, उसका कल्याण करो। कोई बालक भी नाम ले, उसे भी दीक्षा देना। स्त्राी नाम ले, उसे भी नाम देना।
हे धर्मदास! मैं अमरपुरी नगरी में गया। राजा ने अपनी कचहरी (ब्वनतज) लगा रखी थी। मैं राजा के महल के मध्य में बनी ड्योडी में पहुँच गया। उस समय मैंने अपने शरीर का सोलह सूर्यों जितना प्रकाश बनाया। राजा के महल में अनोखा प्रकाश हुआ। राजा को पता चला तो उठकर महल में आया। मेरे चरण पकड़कर पूछा कि क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, शिव में से एक हो या परब्रह्म हो? मैंने कहा कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म से भी ऊपर के स्थान सतलोक से आया हूँ। राजा को विश्वास नहीं हुआ तथा मजाक जाना। मैं अंतध्र्यान हो गया। राजा रो-रोकर कहने लगा कि किस कारण आप आए थे? क्यों अब छुप गए? दशों दिशाओं को खोज रहा हूँ। पाँच दिन तक राजा विलाप करता रहा।

पाँचवें दिन मैंने स्वयं आकर पानी से उसका मुख धोया। मैं फिर उसी प्रकाशमय शरीर में प्रकट हुआ था। राजा ने चरण लिए तथा कहा कि यदि अबकी बार हे परमात्मा! आप चले गए तो मुझे जीवित नहीं पाओगे। मैंने राजा को बताया कि आप पूर्व जन्म के पुण्यवान हैं। परंतु वर्तमान में कोरे पाप कर रहे हो। यह राज्य तथा जीवन और जवानी सदा नहीं रहेगी। पुनः पशु-पक्षी का जन्म प्राप्त करोगे। इसलिए भक्ति करो। राजा ने कहा कि मैं भगवान विष्णु जी की भक्ति करता हूँ। मैंने 101 (एक सौ एक) विष्णु जी के मंदिर अपने राज्य में बनवा रखे हैं। प्रत्येक में पुजारी छोड़ रखे हैं। उनका सब खर्च देता हूँ। पुराणों के आधार से गाय के सींगों पर सोना चढ़ाकर पिताम्बर ओढ़ाकर दूध वाली गाय ब्राह्मणों को देता हूँ। मैंने कहा कि यह मोक्ष मार्ग नहीं है। इस साधना से कर्म का भोग मिलेगा। पाप भी भोगोगे, पुण्य भी मिलेंगे।

विष्णु तेरे पाप क्षमा नहीं कर सकता। मैं एक नाम दूँगा जिसके जाप से सर्व पाप नाश हो जाऐंगे। स्वर्ग से असंख्य गुणा सुखमय लोक प्राप्त होगा। राजा को विश्वास नहीं हो रहा था, परंतु मृत्यु का डर तथा पशु-पक्षी के जीवन से डरकर दीक्षा लेने की ठानी और मेरे शरीर का तेज देखकर प्रभावित होकर रानी को बुलाने गया जो सातवीं मंजिल पर महल में थी। पहले तो रानी ने कहा कि जो आप बता रहे हो कि विष्णु जी से ऊपर पूर्ण परमात्मा है। अधिक सुखदायी लोक है, यह झूठ हो और लोग हँसाई होवे। राजा ने कहा कि ऐसा संत नहीं देखा। आप स्वयं चलकर देखो। रानी मान गई।
उसकी पत्नी का नाम स्वरकला था। वह इतनी रूपवान (सुंदर) थी कि जिस समय मेरे चरण छूने के लिए राजा के साथ मैदान में आई। रानी के साथ सात (7) सहेलियाँ भी आई। वहाँ चारों ओर राजा के योद्धा, मंत्राी-महामंत्राी, राज दरबारी खड़े हुए और आश्चर्य किया कि रानी कभी नीचे नहीं आई थी, क्या कारण है? आज आई है। जब रानी ने अपने मुख से आधा पर्दा हटाया तो चेहरे की शोभा ऐसी थी जैसे दूसरा सूर्य पृथ्वी पर उतर आया हो। रानी का पहली बार मुख देखकर राजा के नौकरों ने कहा कि रानी नहीं देवी है। पाठकों से निवेदन है कि राजा की पदवी, संुदर रूप, स्वस्थ शरीर, धन-धान्य से परिपूर्णता, अच्छे नौकर, मंत्राी आदि जीव को सौभाग्य से मिलते हैं। सौभाग्य कैसे बना? दुर्भाग्य कैसे बना? कब बना? ये प्रश्न अध्यात्म ज्ञान से हल होते हैं।
जन्म-जन्मान्तर में किए पुण्यों का अधिक संग्रह हो जाता है। तब उपरोक्त वस्तु तथा मानव तन प्राप्त होते हैं। वे पूर्व जन्म के परमात्मा के भक्त होते हैं। सत्संग के अभाव से वर्तमान में भक्ति न करके केवल पूर्व जन्म के शुभ कर्मों को ही खर्च-खा रहे होते हैं। ऐसे पुण्यात्माओं को परमेश्वर पुनः मार्गदर्शन करने के लिए भक्तिभाव जगाने के लिए कोई युक्ति बनाते हैं। ऐसी पुण्यात्माओं में एक विशेषता होती है कि वे भले ही उच्च अधिकारी या राजा हों, परंतु परमात्मा की चर्चा उन्हें विशेष अच्छी लगती है। परमेश्वर कबीर जी ने राजा अमर सिंह को उसी प्रकार शरण में लिया जैसे धर्मदास को शरण में लेने की लीला की थी। राजा-रानी ने दीक्षा ली। मुझे सिहांसन पर बैठाया और मेरे चरण धोकर चरणामृत बनाया।

राजा ने पानी की झारी (मटका) लिया। राजा ने मेरे चरणों पर पानी डाला। रानी ने चरण धोए। फिर रानी ने अंगोछे से चरण पौंछे। ऐसी भाव भक्ति उन्होंने की। फिर खाना तैयार करके मुझे तथा राजा को एक साथ दो थालियों में भोजन परोसा। मैं तथा राजा अपनी-अपनी थाली से खाना खाने लगे। रानी स्वयं भोजन परोस रही थी। मेरी थाली पृथ्वी से कुछ ऊपर उठी जिससे मुझे खाने में सुविधा रहे। रानी ने यह देखा तो राजा को बताया। फिर तो सर्व सेवक आ गए। सर्व को विश्वास हुआ कि यह कोई सिद्ध महात्मा है, सामान्य व्यक्ति नहीं है। सब उपस्थित नर-नारियों ने प्रसाद माँगा। मैंने उपस्थित सर्व जनों को प्रसाद दिया जिससे सबके मन में भक्ति भावना तीव्र हो गई। राजा-रानी तथा अन्य ने दीक्षा ली।

अध्याय ’’अमर सिंह बोध से कुछ अमृतवाणियाँ‘‘

‘‘राजा बचन‘‘
रानी मानो कहा हमारो। साहेब चरन बेगि चितधारो।।
धन जौबन तनरंग पतंगा। छिन में छार होत है अंगा।।
तुरत मान जो रानी लीना। संत दरश कामिनि जो कीना।।
हाथ नारियल आरति लीना। सात खंड से उतर पग दीना।।
सात सहेली संग लगी जबहीं। स्वरकला पुनि उतरी तबहीं।।
सब उमराव बैठे दरबारा। रानी आइ बाहिर पग धारा।।
तब उमराव उठे भहराई। स्वरकला कस अचरज आई।।
रानी कबहु न देखी भाई। सो रानी कस बाहेर आई।।
गजमोतिन से पूरे मांगा। लाल हिरा पुनि दमके आंगा।।
आधा मस्तक कीन्ह उघारा। मानिक दमके झलाहलपारा।।
तब रानी सतगुरू पहँ आई। नारियल भेंट जो आन चढ़ाई।।
रानी थाल हाथ में लियऊ। करत निछावर आरति कियऊ।।
साखी-रानी ठाड़ि मैदान में, सुनो संत धर्मदास।
सुरज किरन अरू रानिको, एकही भयो प्रकाश।।




चैपाई

लगि चकाचैंधि अधिक पुनिज बहीं। देखि न जाय रानी तन तबहीं।।
राजा रानी दंडवत कीन्हा। ऐसी भक्ति हृदय में चीन्हा।।
दोउ कर जारि राय भयो ठाढा। उपज्यो प्रेम हृदय अति गाढा।।
साहेब हम पर दया जो कीजै। भुवन हमारे पांव जो दीजै।।
तबहीं हम मंदिर महँ आये। पलंग बिछाय तहां बैठाये।।
झारी भर तब राजा लीना। चरनामृत की युक्ति कीना।।
राजा ऊपरते डारत पानी। चरन पखारे स्वरकला रानी।।
चरण पखारि अँगोछा लीना। एैसी भाव भक्ति उन कीना।।
चरणामृत तब शीश चढ़ावा। ले चरणामृत बहु विनती लावा।।
जैसी भक्ति राव जो पावा। धरमदास तोहि बरन सुनावा।।
धर्मदास वचन
और कहो राजा की करनी। सो साहेब तुम भाखो वरनी।।
सतगुरू वचन
तुरतहि तब सब साज बनावा। हमको सो अस्नान करावा।।
हम अरू राय बैठे जेंवनारा। आनेउ सार धरे दोउ थारा।।
अधर थार भूमिते रहई। रानी तबहीं चितवन करई।।
रानी कहे रायसों तबहीं। लीला निरखो गुरू की अबहीं।।
अधर अग्र जिनका पनवारा। महा प्रसादते आइ अपारा।।
नर नारी तब ठाढे भय आई। महा प्रसाद अब देहु गुसाई।।
तब हम दीनेउ तहां प्रसादा। पाय प्रसाद भई तब यादा।।
पुरूष लोक की भई सुधि तबहीं। ज्ञानी आय चेताये भलहीं।।
हम भूले तुम लीन चेताई। फिरि न विगोवे आइ यमराई।।
या यम देश कठिन है फांसी। काम क्रोध मद लोभ विनाशी।।

साखी-काम क्रोध अरू लोभ यह, त्रिगुन बसे मन माहि। सत्य नाम पाये विना, जमते छुटन को नाहिं।।
इस प्रकार राजा अमर सिंह तथा रानी स्वरकला को दीक्षा दी और शरण में लिया। राजा अमर सिंह के जीव को ऊपर के लोकों में लेकर गए। उनको चित्रा तथा गुप्त के पास लेकर गए तो चित्र तथा गुप्त ने परमेश्वर कबीर जी का खड़े होकर सत्कार किया। उन्होंने कहा कि हे परमेश्वर! इस पापी आत्मा को बैकुण्ठ (स्वर्ग) में क्यों ले आये? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि इसने सत्यनाम ले लिया है। चित्र तो प्राणी के वह कर्म लिखता है जो प्रत्यक्ष करता है और गुप्त वह कर्म लिखता है जो जीव अप्रत्यक्ष यानि छुपकर करता है। चित्रा-गुप्त को शंका हुई कि हमारे यहाँ तो सर्व कर्मों का भोग मिलता है। सत्यनाम लेने से क्या कर्म समाप्त हो जाते हैं? तब परमेश्वर कबीर जी ने एक पारस पत्थर के टुकड़े को लोहे से छू दिया। उसी समय लोहा सोना (स्वर्ण) बन गया। तब परमेश्वर कबीर जी ने चित्र-गुप्त से कहा कि हमारा नाम पारस के समान है, जो जीव प्राप्त करता है, उसके गुण-धर्म बदल जाते हैं। वह शुद्ध आत्मा (हंस) बन जाता है। चित्र-गुप्त को आश्चर्य हुआ और परमेश्वर कबीर जी को प्रणाम किया। यह सब लीला यमराज भी देख रहा था। मैंने यमराज से कहा कि राजा को यमपुरी (यम की नगरी) दिखाकर लाओ। तब यमराज ने दो दूतों को राजा के साथ भेजा।
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