कबीर साहेब जी ने कबीर सागर के अनुराग सागर अध्याय में विस्तार से बताया है कि एक भक्त का स्वभाव कैसा हो? | Spiritual Leader Saint Rampal Ji
धर्मदास वचन
मृतक भाव प्रभु कहो बुझाई। जाते मनकी तपनि नसाई।।केहि विधि मरत कहो यह जीवन। कहो विलोय नाथ अमृतधन।।
कबीर वचन-मृतक के दृष्टांत (उदाहरण)
धर्मदास यह कठिन कहानी। गुरूगम ते कोई विरले जानी।।
भृंगी का दृष्टांत (उदाहरण)
मृतक होय के खोजहिं संता। शब्द विचारि गहैं मगु अन्ता।।जैसे भृंग कीट के पासा। कीट गहो भृंग शब्द की आशा।।शब्द घातकर महितिहि डारे। भृंगी शब्द कीट जो धारे।।तब लैगौ भृंगी निज गेहा। स्वाती देह कीन्हो समदेहा।।भृंगी शब्द कीट जो माना। वरण फेर आपन करजाना।।बिरला कीट जो होय सुखदाई। प्रथम अवाज गहे चितलाई।।कोइ दूजे कोइ तीजे मानै। तन मन रहित शब्द हित जानै।।भृंगी शब्द कीट ना गहई। तौ पुनि कीट आसरे रहई।।एक दिन कीट गहेसी भृंग भाषा। वरण बदलै पूरवै आशा।।
भृंगी का दृष्टांत
संत-साधकजन जीवित मृतक होकर परमात्मा को खोजते हैं। शब्द विचार यानि यथार्थ नाम मंत्रों को समझ विचार करके उस मार्ग के अंत यानि अंतिम छोर तक पहुँचते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।
जैसे एक भृंग (पंखों वाला नीले रंग का कीड़ा) होता है जिसे भंभीरी कहते हैं जिसको इन्जनहारी आदि-आदि नामों से जाना जाता है जो भीं-भीं की आवाज करती रहती है। वह अपना परिवार नर-मादा के मिलन वाली विधि से उत्पन्न नहीं करती। वह एक कीट (कीड़े) विशेष के पास जाती है। उसके पास अपनी भीं-भीं की आवाज करती है। जो कीड़ा उसकी आवाज से प्रभावित हो जाता है। उसको उठाकर पहले से तैयार किया मिट्टी के घर में ले जाती है। वह गोल आकार का दो इंच परिधि का एक-दो मुख वाला गारा का बना होता है। फिर दूसरा-तीसरा ले जाती है।
फिर उनके ऊपर अपनी भीं-भीं की आवाज करती रहती है। फिर औस के जल को अपने मुख से लाकर उन कीटों के मुख में डालती है। उस भंभीरी यानि भृंग की बार-बार आवाज को सुनकर वह कीट उसी रंग का हो जाता है तथा उसी तरह पंख निकल आते हैं। वह आवाज भी उसी की तरह भीं-भीं करने लगता है। भंभीरी ही बन जाती है। इसी प्रकार पूर्ण संत अपने ज्ञान को भंभीरी की तरह बार-बार बोलकर सामान्य व्यक्ति को भी भक्त बना लेता है। फिर वह भक्त भी सतगुरू से सुने ज्ञान को अन्य व्यक्तियों को सुनाने लगता है। संसार की रीति-रिवाजों को त्याग देने से अन्य व्यक्ति कहते हैं कि इसका रंग-ढ़ंग बदल गया है। यह तो भक्त बन गया है। जैसे भृंग (भंभीरी) कीटों को अपनी आवाज सुनाती है तो कोई शीघ्र सक्रिय हो जाता है, कोई दूसरी, कोई तीसरी बार कोशिश करने से मानता है। इसी प्रकार जब सतगुरू कुछ व्यक्तियों को अपना सत्संग रह-रहकर सुनाते हैं तो कोई अच्छे संस्कार वाला तो शीघ्र मान जाता है, कोई एक-दो बार फिर सत्संग सुनकर मार्ग ग्रहण कर लेता है, दीक्षा ले लेता है।
कुछ कीट ऐसे होते हैं, कई दिनों के पश्चात् अपना स्वभाव बदलते हैं। यदि वह कीट भृंगी नहीं बना है और उस भृंग कीट की शरण में रह रहा है तो अवश्य एक दिन परिवर्तन होगा। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यदि शिष्य इसी प्रकार गुरू जी के विचारों को सुनता रहेगा तो उस भृंग कीट की तरह प्रभावित होकर संसारिक भाव बदलकर भक्त बनकर हंस दशा को प्राप्त होगा।
पृष्ठ 7 से पंक्ति 7 से 20 तक का भावार्थ :-
कबीर जी ने कहा कि हे संतो! सुनो यह मृतक का स्वभाव। इस प्रकार कोई बिरला जीव ही अनुसरण करता है। वह पीव यानि परमात्मा को प्राप्त करने का मग यानि मार्ग प्राप्त करता है। उपरोक्त यानि भृंग वाले उदाहरण के अतिरिक्त और सुनो मृतक का भाव जिससे मृतक यानि जीवित मृतक होकर सतगुरू के पद यानि पद्यति के अनुसार साधना करता है।
मृतक के और दृष्टांत
(अनुराग सागर के पृष्ठ 7 से वाणी नं. 7 से 20)
सुनहु संत यह मृतक सुभाऊ। बिरला जीव पीव मग धाऊ।।औरै सुनहु मृतक का भेवा। मृतक होय सतगुरू पद सेवा।।मृतक छोह तजै शब्द उरधारे। छोह तजै तो जीव उबारे।।
‘‘परमेश्वर कबीर वचन = मृतक के दृष्टान्त‘‘
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यह जो प्रश्न आपने किया है, यह जटिल कथा प्रसंग है। सतगुरू शरण में ज्ञान का इच्छुक ही इसको समझकर खरा उतरता है।
पृथ्वी का दृष्टांत
जस पृथ्वी के गंजन होई। चित अनुमान गहे गुण सोई।।
कोई चन्दन कोई विष्टा डारे। कोई कोई कृषि अनुसारे।।
गुण औगुण तिन समकर जाना। तज विरोध अधिक सुखमाना।।
पृथ्वी का उदाहरण
जैसे पृथ्वी में सहनशीलता होती है। इसी प्रकार पृथ्वी वाले गुण को जो ग्रहण करेगा, वह जीवित मृतक है और वही सफल होता है। पृथ्वी के ऊपर कोई बिष्टा (टट्टी करता है। डालता है, कोई खेती करता है तो चीरफाड़ करता है। कोई-कोई धरती पूजन करता है। पृथ्वी गुण-अवगुण नहीं देखती। जिसकी जैसी भावना है, वह वैसा ही करता है। यह विचार करके धरती विरोध न करके सुखी रहती है।
भावार्थ है कि जैसे जमीन सहनशील है, वैसे ही भक्त-संत का स्वभाव होना चाहिए। चाहे कोई गलत कहे कि यह क्या कर रहे हो यानि अपमान करे, चाहे कोई सम्मान करे, अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहकर भक्त सफलता प्राप्त करता है।
ऊख का दृष्टांत
औरो मृतक भाव सुनि लेहू। निरखि परखि गुरू मगु पगु देहू।।जैसे ईख किसान उगावै। रती रती कर देह कटावे।।कोल्हू महँ पुनि ताही पिरावै। पुनि कड़ाह में खूब उँटावे।।निज तनु दाहे गुड़ तब होई। बहुरि ताव दे खांड विलोई।।ताहू मांहि ताव पुनि दीन्हा। चीनी तबै कहावन लीन्हा।।चीनी होय बहुरित तन जारा। ताते मिसरी ह्नै अनुसारा।।मिसरीते जब कंद कहावा। कहे कबीर सबके मन भावा।।यही विधिते जो शिष करही। गुरू कृपा सहजे भव तरई।।
उख (ईख यानि गन्ने) का दृष्टांत
जैसे किसान ईख बीजता है। उस समय गन्ने के एक-एक फुट के टुकड़े करके धरती में दबा देता है। ईख गन्ना बनने के पश्चात् कोल्हु में पीड़ा जाता है। फिर रस को कड़ाहे में अग्नि की आँच में उबाला जाता है। तब गुड़ बनता है। यदि अधिक ताव गन्ने के रस को दिया जाता है तो वह खांड बन जाता है जो गुड़ से भी स्वादिष्ट होती है। और अधिक ताव देने से चीनी बन जाती है। और भी अधिक गर्म किया जाता है तो मिश्री बन जाता है। फिर मिसरी से कंद बन जाता है।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! इस प्रकार यदि शिष्य भक्ति मार्ग में कठिनाईयां सहन करता है तो उतना ही परमात्मा का प्रिय बहुमुल्य होता चला जाता है।
भावार्थ :- अनुराग सागर पृष्ठ 6 पर लिखी पंक्ति नं. 7 से 17 तक का भावार्थ है कि धनी धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनयपूर्वक प्रश्न किया कि हे प्रभु! मुझे मृतक का स्वभाव समझाओ कैसा होता है? किस प्रकार जीवित मरना होता है। हे अमर परमात्मा! हे स्वामी! कृप्या बिलोय अर्थात् निष्कर्ष निकालकर वह अमृत धन अर्थात् अमर होने का मार्ग बताऐं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 8 तथा 9 का सारांश है कि साधक वही है जो अपनी सर्व इन्द्रियों को संयम में रखता है। जैसा मिल जाए, उसी में संतोष करे। रूप को देखकर उस पर आकर्षित नहीं होवे। कुरूप को देखकर घृणा न करे। दोनों को दिव्य ज्ञान की नजरों से देखे कि ऊपर का चाम गोरा-काला है, शरीर में हाड-माँस सब एक जैसा है तथा जरा-सा रोग होने पर गल जाता है, सडांद (बदबू) मारने लगती है। इस प्रकार विवेक से भक्ति करे। यदि कोई सम्मान करता है, प्यार से बोलता है तो खुशी महसूस न करें। यदि कोई कुबोल (कुवचन) कहता है तो दुःख न मानें।
उनकी बुद्धि के स्तर को जानकर शांत रहें। यदि कोई अच्छा भोजन खीर-खाण्ड, हलवा-पूरी खिलाता है तो उसी कारण उससे प्रभावित न हों। उसको उसका कर्म का फल मिलेगा। यदि कोई लुखा-सूखा भोजन खिलाए तो उसको अधिक भाव से प्रेम से खाना चाहिए। काम वासना को महत्व न दें, वही भक्त वास्तव में परमेश्वर प्राप्ति कर सकता है। यदि काम वासना परेशान करे तो उसको भक्ति नाम स्मरण में लगाकर आनंद प्राप्त करें। उसी समय काम वासना मुरझा जाती है। काम वासना का नाश करने का तरीका :-
कबीर, परनारी को देखिये, बहन बेटी का भाव। कह कबीर काम नाश का, यही सहज उपाय।।
मोक्ष प्राप्ति का अन्य भाव ‘‘अनल (अलल) पक्षी जैसा भाव‘‘
जैसे एक अनल पक्षी (अलल पंख) आकाश में रहता है। यह पक्षी अब लुप्त हो चुका है। इसके चार पैर होते थे। आगे वाले छोटे और पीछे वाले बड़े। इसका आकार बहुत बड़ा होता था।
लम्बे-लम्बे पंख होते थे। पूरा पक्षी यानि युवा पक्षी चार हाथियों को एक साथ उठाकर आकाश में अपने परिवार के पास ले जाता था।
अनल पक्षी (अलल पक्षी) ऊपर वायु में रहता था। वहीं से मादा अनल अण्डे उत्पन्न कर देती थी। वह अण्डे उस स्थान पर छोड़ती थी जहाँ केले का वन होता था। केले एक-दूसरे में फँसकर गहरा वन बना लेते थे। हाथियों का झुण्ड (समूह) यानि सैंकड़ों हाथी भी केले के वन में रहते थे क्योंकि हाथी केले के पेड़ खा जाता है तथा केले के पेड़ों पर ही लेट जाता है। मस्ती करता रहता है। अलल पक्षी का अण्डा वायुमंडल से गुजरकर नीचे पृथ्वी तक आने में हवा के घर्षण से पककर बच्चा तैयार हो जाता था। वह अण्डा केले के पेड़ों के ऊपर गिरता था। केले के पेड़ों की सघनता के कारण वह अण्डा क्षतिग्रस्त नहीं होता था।
केवल इतनी गति से केले के पेड़ों को तोड़कर पृथ्वी पर गिरता था कि अण्डा फूट जाए। अण्डे का आकार बहुत बड़ा होता था। उसका कवर भी सख्त मजबूत होता था। बच्चे के बचाव के लिए अण्डे के कवर तथा बच्चे के बीच में गद्देदार पदार्थ होता था जो पृथ्वी के ऊपर गिरते समय बच्चे को चोट लगने से बचाता था। अनल पक्षी का बच्चा पृथ्वी पर अन्य पक्षियों के बच्चों के साथ रहता था। उनसे मिलकर उड़ता था, परंतु उसकी अंतरआत्मा यह मानती थी कि यह मेरा घर-परिवार नहीं है, मेरा परिवार तो ऊपर है। मैंने ऊपर अपने परिवार में जाना है। यह मेरा संसार नहीं है। वह जब युवा हो जाता है तो हाथियों के झुण्ड पर झपट्टा मारता था। चार हाथियों को चारों पंजों से उठाता था तथा एक हाथी को चौंच से पकड़कर उड़ जाता था। अपने परिवार के पास चला जाता था। साथ में उनके लिए आहार भी ले जाता था।
कबीर परमेश्वर जी ने सटीक उदाहरण बताकर भक्त को मार्गदर्शन किया है कि आप इस संसार के स्थाई वासी नहीं हैं। आपको यह छोड़कर जाना है। आपका परिवार ऊपर सत्यलोक में है। आप इस पृथ्वी के ऊपर गिरे हो। तत्त्वज्ञान प्राप्त भक्त के मन की दशा उस अनल (अलल) पक्षी के बच्चे जैसी होनी चाहिए। जब तक सतलोक जाने का समय नहीं आता तो सांसारिक व्यक्तियों के साथ मिलकर शिष्टाचार से रहो। चलते समय इनमें कोई लगाव नहीं रहना चाहिए। अपनी नाम-स्मरण की कमाई तथा पुण्य धर्म की कमाई साथ लेकर उड़ जाना है। अपने परिवार के पास अपने निज घर सतलोक में जाना है।
अनुराग सागर पृष्ठ 10 तथा 11 का सारांश :-
(अनुराग सागर के पृष्ठ 10 से वाणी नं. 11 से 20 शुद्ध करके लिखी हैं।)
‘‘नाम महात्मय‘‘
जबलग ध्यान विदेह न आवे। तब लग जिव भव भटका खावे।।ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोइ लख पावे मिटे संदेहा।।छन इक ध्यान विदेह समाई। ताकी महिमा वरणि न जाई।।काया नाम सबै गोहरावे। नाम विदेह विरले कोई पावै।।जो युग चार रहे कोई कासी। सार शब्द बिन यमपुर वासी।।नीमषार बद्री परधामा। गया द्वारिका का प्राग अस्नाना।।अड़सठ तीरथ भूपरिकरमा। सार शब्द बिन मिटै न भरमा।।कहँ लग कहों नाम पर भाऊ। जा सुमिरे जमत्रस नसाऊ।।
नाम पाने वाले को क्या मिलता है?
सार नाम सतगुरू सो पावे। नाम डोर गहि लोक सिधावे।।धर्मराय ताको सिर नावे। जो हंसा निःतत्त्व समावे।।
सार शब्द क्या है?
(अनुराग सागर के पृष्ठ 11 से वाणी)
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।कहन सुनन को शब्द चौधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
धर्मदास का आनन्दोद्गार
हे प्रभु तब चरण बलिहारी। किये सुखी सब कष्ट निवारी।।
चक्षुहीन जिमि पावे नैना। तिमि मोही हरष सुनत तव नैना।।
अनुराग सागर पृष्ठ 10,11 का भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने नाम की महिमा बताई है।
कहा है कि हे धर्मदास! जब तक विदेह का ध्यान साधक को नहीं आता, तब तक जीव संसार में जन्म-मरण चक्र में भटकता रहता है। यहाँ पर विदेह का अर्थ है परमेश्वर। जैसे धर्मदास जी से परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मेरे शरीर को परखकर ध्यान से देख, मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व का नहीं है। धर्मदास जी ने हाथ-पैर पकड़कर दबाए तो रबड़ की तरह नरम थे। परमेश्वर ने कहा था कि मैं विदेही हूँ। (राजा जनक को भी विदेही कहा गया है।) विदेह का अर्थ सामान्य व्यक्ति के शरीर से भिन्न है। वह विदेह है। भावार्थ है कि जब तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब उस विदेह परमेश्वर में ध्यान लगता है। उसको प्राप्त करने का नाम जाप मंत्र भी विदेह है यानि विलक्षण है।
विदेह नाम को सारनाम, सार शब्द, अमर नाम भी कहते हैं। विदेह परमेश्वर में लगन लगे और नाम भी विदेह हो यानि उसी का सारनाम हो। जब इन दोनों को लख लेगा यानि जान लेगा, सत्य रूप में देख लेगा, तब शंका समाप्त होगी। उस विदेह परमेश्वर (सत्य पुरूष) का ध्यान एक क्षण भी हो जाए, उसकी इतनी कीमत है कि कही नहीं जा सकती। काया के नाम यानि देह धारी (माता के गर्भ से उत्पन्न) राम, कृष्ण, विष्णु, शिव आदि के नाम तो सब जाप करते हैं, परंतु विदेह परमात्मा का सारनाम कोई बिरला ही प्राप्त करता है।
जैसे कि किंवदन्ती (दंत कथा) है कि जो काशी नगर में मरता है, वह स्वर्ग जाता है।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि चारों युग तक काशी में निवास करे, परंतु सार शब्द बिना काल के मुख में जाएगा। यदि कोई श्रद्धालु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि धामों पर जाता है, गया जी, द्वारिका, प्रयाग आदि तीर्थों में स्नान करता है, यदि कोई अड़सठ तीर्थों का भ्रमण करता है, यदि कोई (भू) भूमि की परिक्रमा कर लेता है। (गोवर्धन पर्वत की तो बहुत छोटी परिक्रमा है) यानि यदि कोई पृथ्वी की परिक्रमा भी क्यों न कर आए, वह भी व्यर्थ है क्योंकि सार शब्द के बिना जीव का भ्रम समाप्त नहीं होता अर्थात् सार शब्द से जीव का मोक्ष हो सकता है। अन्य उपरोक्त साधना शास्त्र विरूद्ध होने के कारण मोक्षदायक नहीं हैं।
‘‘सारशब्द (सार नाम) से लाभ‘‘
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।कहन सुनन को शब्द चौधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
सारनाम पूर्ण सतगुरू से प्राप्त होता है। नाम प्राप्त करने से सतलोक की प्राप्ति होती है। धर्मराय (ज्योति स्वरूपी निरंजन अर्थात् काल ब्रह्म) भी सार शब्द प्राप्त भक्त के सामने नतमस्तक हो जाता है। सार शब्द की शक्ति के सामने काल ब्रह्म टिक नहीं पाता क्योंकि सार शब्द विदेह परमेश्वर कबीर जी का है। इसलिए सार शब्द ही निःअक्षर का स्वरूप है। यह सार नाम (विदेह नाम) अनूप यानि अद्भुत है। सार शब्द तो विदेह है क्योंकि यह विदेह परमेश्वर का जाप मंत्र है।
कबीर परमेश्वर विदेह हैं। विदेह-विदेह में भी अंतर होता है। जैसे राजा जनक को भी विदेह कहा जाता है और कबीर परमेश्वर जी भी विदेही हैं। जैसे एक सोने का आभूषण दो कैरेट स्वर्ण से बना है। वह भी स्वर्ण आभूषण कहा जाता है। दूसरा 24 कैरेट स्वर्ण से बना है तो दोनों ही स्वर्ण आभूषण कहलाते हैं, परंतु मूल्य में अंतर बहुत होता है। इसलिए कहा है कि जो अन्य प्रभु हैं (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शिव जी तथा राम-कृष्ण) वे सब पाँच तत्त्व के शरीर में हैं और परमेश्वर कबीर जी यानि सत्य पुरूष का शरीर निःतत्त्व यानि पाँच तत्त्व से रहित है। इसलिए विदेह परमात्मा का सार शब्द जाप मंत्र है। कहने को तो शब्द बहुत प्रकार के हैं, परंतु सार शब्द से जीव का उद्धार होता है। सतपुरूष का प्रवाना यानि दीक्षा मंत्र सार नाम है और उसका सुमरण भी सार यानि खास विधि से होता है।
सार शब्द का जाप बिन जीभ के यानि सुरति-निरति से श्वांस द्वारा स्मरण होता है। यह भक्ति का सहज व यथार्थ मार्ग है और इस साधना को कोई शूरवीर ही करता है। इस साधना से काल मुरझा जाता है यानि काल ब्रह्म कमजोर (बलहीन) हो जाता है। हे धर्मदास! तेरे को सार शब्द की पहचान करा दी है और तेरे को हंस की पदवी प्राप्त करा दी है। सतलोक में जाने के पश्चात् कोई सुमरण जाप नहीं रहता, न वहाँ काल का जाल देखने को मिलता है। वहाँ पर पूर्ण वस्तु है अर्थात् सर्व वस्तुओं का भण्डार है, किसी चीज का अभाव नहीं है। सत्यलोक में एक अनन्त पंखुडि़यों वाला कमल है जो परमेश्वर का आसन है। उस अमर स्थान तथा अमर पुरूष को प्राप्त करने के लिए अजपा जाप की डोर तान दे अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त करने के लिए श्वांस का बिना जीभ के मानसिक जाप किया जाता है, उसको निरंतर कर। जैसे बाण चलाने वाला निशाना लगाते समय तीर को तानकर (कसकर) छोड़ता है।
ऐसे नाम के जाप को तान दे। जब अगम अगोचर अर्थात् सबसे ऊपर वाला सर्व श्रेष्ठ सत्य मार्ग परसे यानि प्राप्त हो जाए तो तब वह सूक्ष्म द्वार यानि भंवर गुफा का द्वार दिखाई देता है। अंतरिक्ष में सुन्न स्थान यानि एकांत लोक में प्रकाश दिखाई देता है। वहाँ पर परम पुरूष का निवास है। उस सार शब्द में सुरति (ध्यान) लगाकर वहाँ जाया जाता है। सारशब्द को पहचानकर उसमें सुरति लगाकर भक्त वहाँ जाता है।
आदि सुरति अर्थात् सनातन शब्द का ध्यान सत्य पुरूष का है। उसके लिए हे जीव! सोहं शब्द का स्मरण करना, उसी को सोहं जाप कहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सज्जन संत हो, उस सार शब्द को परखो (जाँचो) जो निर्वाण यानि मोक्ष देने वाला है।
सार शब्द जपने की विधि
सार शब्द (नाम) जपने की विधि
गुरूगमभेद छन्द
अजपा जाप हो सहज धुना, परखि गुरूगम डारिये।।मन पवन थिरकर शब्द निरखि, कर्म ममन मथ मारिये।।होत धुनि रसना बिना, कर माल विन निर वारिये।।शब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिये।।सोरठा - शोभा अगम अपार, कोटि भानु शशि रोम इक।।षोडश रवि छिटकार, एक हंस उजियार तनु।।
सारनाम का स्मरण बिना रसना (जीभ) के मन तथा पवन यानि श्वांस के द्वारा किया जाता है। यह अजपा (बिना जीभ से) जाप होता है। इस शब्द को निरखे अर्थात् शब्द की जाँच करे। फिर मन को सत्य ज्ञान का मंथन करके मारो यानि विषय विकारों को हटाओ। सार शब्द की साधना बिना जीभ के बिना आवाज किए की जाती है। इस जाप स्मरण के लिए कर यानि हाथ में माल उठाने की आवश्यकता नहीं यानि माला की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् सार शब्द बिना हाथ में माला लिए निर वारिये यानि बिना माला के निर्वाह कीजिए। निर्वाह का यहाँ अर्थ है प्रयत्न।
ऐसे सार शब्द और उसके स्मरण की विधि निरखकर यानि पहचान (जान) कर सत्यलोक जाईये। सत्यलोक में सत्यपुरूष जी के शरीर के एक रोम (बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों के समान है। जो साधक मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में चले गए या जो वहाँ के आदि वासी हैं, उनके शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों के प्रकाश के समान है। सत्यलोक में परमेश्वर के शरीर की शोभा अपार है।
धर्मदास का आनन्दोद्गार
हे प्रभु तब चरण बलिहारी। किये सुखी सब कष्ट निवारी।।चक्षुहीन जिमि पावे नैना। तिमि मोही हरष सुनत तव नैना।।
‘‘धर्मदास का आनंदोद्गार‘‘
धर्मदास जी ने परमेश्वर जी का धन्यवाद किया कि आप जी ने वास्तविक ज्ञान तथा जाप मंत्र देकर मेरा कष्ट समाप्त कर दिया। मैं आपकी बलिहारी जाऊँ। जैसे चक्षुहीन (अंधे) को आँखें मिल जाएं। उसी प्रकार आपके अमृत वचन सुनकर मुझे हर्ष हो रहा है। आपने मुझ पर अपार कृपा की है।
‘कबीर परमेश्वर जी के वचन‘‘
धर्मदास तुम अंस अंकुरी। मोहि मिलेउ कीन्हे दुख दूरी।।जस तुम कीन्हे मोसंग नेहा। तजि धन धामरू सुत पितु गेहा।।आगे शिष्य जो अस विधि करि हैं। गुरू चरण मन निश्चल धरि हैं।।गुरू के चरण प्रीत चित धारै। तन मन धन सतगुरू पर वारै।।सो जिव मोही अधिक प्रिय होई। ताकहँ रोकि सकै नहिं कोई।।शिष्य होय सरबस नहीं वारे। हृदय कपट मुख प्रीति उचारे।।सो जिव कैसे लोग सिधाई। बिन गुरू मिलै मोहि नहिं पाई।।
पृष्ठ 12 का भावार्थ :- इन चौपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा कि हे धर्मदास! आप हमारे अंकुरी हंस हो। {अंकुरी का अर्थ है जो पूर्व जन्म का उपदेशी होता है और वह किन्हीं कारणों से मुक्त नहीं हो पाता है। उसको अंकुरी हंस कहते हैं। जैसे चनों को पानी में भिगो दिया जाता है तो सुबह तक या एक-दो दिन में उनमें अंकुर निकल आते हैं। कुछ किसान चनों को बीजने से एक दिन पहले पानी छिड़क देते हैं। फिर वह अंकुरित चना शीघ्र उग जाता है। इसी प्रकार पूर्व का उपदेशी प्राणी (स्त्री-पुरूष) शीघ्र ज्ञान ग्रहण करके भक्ति पर लग जाता है। इसलिए परमेश्वर ने धर्मदास जी को अंकुरी हंस कहा है।} आप मेरे को मिले तो तेरा दुःख दूर कर दिया है। जैसे आपने मेरे साथ प्रेम भाव किया है। आपने अपने परिवार तथा धन को त्यागकर मेरे अंदर पूर्ण आस्था और सच्चा प्रेम किया है। भविष्य में यदि कोई भक्त मेरे भेजे अंश से जो सतगुरू होगा, उससे ऐसे ही भाव करेगा। मन को निश्चल करके गुरू के चरणों में धरेगा।
जो सतगुरू के ऊपर तन-मन-धन न्यौछावर करेगा, वह जीव मेरे को अधिक प्रिय होगा। उसको सत्यलोक जाने से कोई नहीं रोक सकता। यदि शिष्य होकर समर्पित नहीं होता और हृदय में छल रखता है, ऊपर से दिखावा प्रेम करता है। वह प्राणी सत्यलोक कैसे जा सकेगा क्योंकि गुरू के मिले बिना यानि गुरू के साथ परमात्मा जैसा लगाव किए बिना मुझे (कबीर परमेश्वर जी) को नहीं प्राप्त कर सकता।
उदाहरण :- जैसे गणित के अंदर एक ऋण का प्रश्न आता है, उसमें मूलधन ज्ञात करना होता है। उसमें मानना होता है कि मान लो मूलधन सौ रूपये। वास्तविक मूलधन करोड़ों रूपये की राशि होती है। परंतु पहले सौ रूपये मूलधन माने बिना वह वास्तविक मूलधन नहीं मिल सकता। इसी प्रकार इस अंतिम वाणी का भावार्थ है।
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