आज पढ़ें "स्मरण दीक्षा मंत्र‘ के बारे में | Kabir Sagar | Spiritual Leader Saint Rampal Ji
सत्य सुकृत की रहनी रहै, अजर अमर गहै सत्य नाम।कह कबीर मूल दीक्षा, सत्य शब्द (सार शब्द) परवान।।
इस वाणी में कबीर जी ने बताया है कि जो पाताल यानि नीचे के चक्रों के तथा परमेश्वर के कुल 7 नाम हैं। सिंधु का अर्थ सागर जैसे गहरे गूढ़ मंत्र हैं जो आदिनाम (सार शब्द) है, वह अजर है, अमर है, अमृत जैसा लाभदायक है जो आकाश यानि ऊपर को सत्यलोक की ओर चलने का निज नाम है। पांजी (पाँच नाम की दीक्षा वाले शिष्य) मूल यानि सार शब्द की ओर बढ़ता है।
उसको अध्यात्मिक लाभ मिलता है। इसीलिए परमेश्वर ने उस समय केवल पाँच नाम प्रारम्भ किए थे। सात नाम तो वर्तमान में कलयुग के पाँच हजार पाँच सौ पाँच वर्ष पूरे करने के समय देने थे। उस समय बताना अनिवार्य था, नहीं तो आज प्रमाण न मिलने से भ्रम रह जाता। पाँच नाम लेने वाला ही तो सत्यलोक जाने का अधिकारी होगा। फिर स्मरण का विशेष मंत्र जो पाँच (5) और सात (7) से अन्य मंत्र का है।
स्मरण दीक्षा
भावार्थ है कि नेक नीति से रहो। अजर-अमर जो सार शब्द है, वह तथा दो अक्षर वाला सत्यनाम प्राप्त करो। यह मूल दीक्षा है। केवल पाँच तथा सात नाम से मोक्ष नहीं है।
टकसारी पंथ वाले ने इसी चूड़ामणि वाले पंथ से दीक्षा लेकर यानि नाद वाला बनकर मूर्ख बनाया था कि कबीर साहब ने कहा है कि तेरे बिन्द वाले मेरे नाद वाले से दीक्षा लेकर ही पार होंगे। इससे भ्रमित होकर धर्मदास के छठी पीढ़ी वाले ने वास्तविक पाँच मंत्र (कमलों को खोलने वाले) छोड़कर नकली नाम जो सुमिरन बोध के पृष्ठ 22 पर लिखे हैं, प्रारम्भ कर दिए जो वर्तमान में दामाखेड़ा गद्दी वाले महंत जी दीक्षा में देते हैं। वह गलत हैं। उसने टकसारी पंथ बनाया तथा उसने चुड़ामणि वाले पंथ से भिन्न होकर अपनी चतुराई से अन्य साधना प्रारम्भ की थी जो ऊपर बताई है। उसने मूल गद्दी वाले धर्मदास की छठी पीढ़ी वाले को भ्रमित किया कि हमने तो एक सत्यपुरूष की भक्ति करनी है।
ये मूल कमल से लेकर कण्ठ कमल तक वाले देवी-देवताओं के नाम जाप नहीं करने, नहीं तो काल के जाल में ही रह जाएंगे। फिर कबीर सागर से उपरोक्त पूरे शब्द (कविता) को दीक्षा मंत्र बनाकर देने लगा। मनमानी आरती चौंका बना लिया। इस तर्क से प्रभावित होकर धर्मदास जी की छठी गद्दी वाले महंत जी ने टकसारी वाली दीक्षा स्वयं भी ले ली और शिष्यों को भी देने लगा जो वर्तमान में दामाखेड़ा गद्दी से प्रदान की जा रही है जो व्यर्थ है।
‘‘अनुराग सागर‘‘ अध्याय के पृष्ठ 140 की वाणियों का भावार्थ चल रहा है
हे धर्मदास! तेरी छठी पीढ़ी वाला टकसारी पंथ वाली दीक्षा तथा आरती चौंका नकली स्वयं भी लेगा और आगे वही चलेगा। इस प्रकार तेरा बिन्द (वंश पुत्र प्रणाली) अज्ञानी हो जाएगा। हमारी सर्व साधना झाड़ै यानि छोड़ देगा। अपने आपको अधिक महान मानेगा, अहंकारी होगा जो मेरा नाद (शिष्य परंपरा में तेरहवां अंश आएगा, उस) के साथ झगड़ा करेगा। तेरा पूरा वंश वाले दुर्मति को प्राप्त होकर वे बटपार (ठग=धोखेबाज) मेरे तेरहवें वचन वंश (नाद शिष्य) वाले मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे।
अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 140 से वाणी सँख्या 16 :-
धर्मदास तुम चेतहु भाई। बचन वंश कहं देहु बुझाई।।1
कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तुम कुछ सावधानी बरतो। अपने वंश के व्यक्तियों को समझा दो कि सतर्क रहें।
हे धर्मदास! जब काल ऐसा झपटा यानि झटका मारेगा तो मैं (कबीर जी) सहायता करूँगा।
अन्य विधि से अपना सत्य कबीर भक्ति विधि प्रारम्भ करूँगा।
नाद हंस (शिष्य परंपरा का आत्मा) तबहि प्रकटावैं। भ्रमत जग भक्ति दृढ़ावैं।।2
नाद पुत्र सो अंश हमारा। तिनतै होय पंथ उजियारा।।3
बचन वंश नाद संग चेतै। मेटैं काल घात सब जेते।।4
{बचन वंश का अर्थ धर्मदास जी के वंशजों से है क्योंकि श्री चूड़ामणि जी को कबीर परमेश्वर जी ने दीक्षा दी थी। इसलिए बचन वंश कहे गए हैं। बाद में अपनी संतान को उत्तराधिकार बनाने लगे। वे बिन्द के कहे गए हैं। नाद से स्पष्ट है कि शिष्य परंपरा वाले।}
अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 141 से :-
शब्द की चास नाद कहँ होई। बिन्द तुम्हारा जाय बिगोई।।5
बिन्द से होय न नाम उजागर। परिख देख धर्मनि नागर।।6
चारहूँ युग देख हूँ समवादा। पंथ उजागर कीन्हो नादा।।7
धर्मनि नाद पुत्र तुम मोरा। ततें दीन्हा मुक्ति का डोरा।।8
भावार्थ :- वाणी नं. 8 में परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट भी कर दिया है कि नाद किसे कहा है? हे धर्मनि! तुम मेरे नाद पुत्र अर्थात् शिष्य हो और जो आपके शरीर से उत्पन्न हो, वे आपके बिन्द परंपरा है।
वाणी नं. 2 :- जब-जब काल मेरे सत्यभक्ति मार्ग को भ्रष्ट करेगा। तब मैं अपना नाद अंश् यानि शिष्य रूपी पुत्र प्रकट करूँगा जो यथार्थ भक्ति विधि तथा यथार्थ अध्यात्मिक ज्ञान से भ्रमित समाज को सत्य भक्ति समझाएगा, सत्य मार्ग को दृढ़ करेगा। जो मेरा नाद (वचन वाला शिष्य) अंश आएगा, उससे मेरा यथार्थ कबीर पंथ प्रसिद्ध होगा, (उजागर यानि प्रकाश में आवैगा।) बिन्द वंश (जो धर्मदास तेरे वंशज) हैं, उनका कल्याण भी नाद (मेरे शिष्य परंपरा वाले) से होगा।
वाणी नं. 5 :- शब्द यानि सत्य मंत्र नाम की चास यानि शक्ति नाद (शिष्य परंपरा वाले) के पास होगी। यदि मेरे नाद वाले से दीक्षा नहीं लेंगे तो तुम्हारा बिन्द यानि वंश परंपरा महंत गद्दी वाला बर्बाद हो जाएंगे।
वाणी नं. 6 :- बिन्द से कभी भी नाद यानि शिष्य प्रसिद्ध नहीं हुआ।
भावार्थ है कि महंत गद्दी वाले तो अपनी गद्दी की सुरक्षा में ही उलझे रहते हैं। अपने स्वार्थवश मनमुखी मर्यादा बनाकर बाँधे रखते हैं।
वाणी नं. 7 :- चारों युगों का इतिहास उठाकर देख ले। संवाद यानि चर्चा करके विचार कर।
कौन से मन्त्र हैं जिनसे मोक्ष सम्भव है?
प्रश्न :- कौन से मन्त्र हैं जिनसे मोक्ष सम्भव है?
उत्तर :- जैसे रोग से छुटकारा पाने के लिए औषधि विशेष होती है। टी.बी. (क्षयरोग) की एक ही दवाई है। उसका विधिवत् सेवन करने से रोग समाप्त हो जाता है। मनुष्य स्वस्थ हो जाता है।
यदि टी.बी. के रोगी को अन्य औषधि सेवन कराई जाऐं तो रोगी स्वस्थ नहीं हो सकता। टी.बी. के रोगी को वही औषधि सेवन करानी पड़ेगी जो उसके लिए वैज्ञानिकों ने बनाई है। कबीर परमेश्वर जी ने हम प्राणियों को बताया है कि आप सबको जन्म-मरण का दीर्घ रोग लगा है। उसकी औषधि बताने तथा इस रोग की जानकारी देने मैं (कबीर परमेश्वर) अपने निज स्थान सत्यलोक से चलकर आया हूँ।
शब्द
जग सारा रोगिया रे जिन सतगुरू भेद ना जान्या जग सारा रोगियारे।।टेक।।
जन्म मरण का रोग लगा है, तृष्णा बढ़ रही खाँसी।
आवा गमन की डोर गले में, पड़ी काल की फांसी।।1
देखा देखी गुरू शिष्य बन गए, किया ना तत्त्व विचारा।
गुरू शिष्य दोनों के सिर पर, काल ठोकै पंजारा।।2
साच्चा सतगुरू कोए ना पूजै, झूठै जग पतियासी।
अन्धे की बांह गही अन्धे ने, मार्ग कौन बतासी।।3
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर रोगी, आवा गवन न जावै।
ज्योति स्वरूपी मरे निरंजन, बिन सतगुरू कौन बचावै।।4
सार शब्द सरजीवन बूटी, घिस-घिस अंग लाए।
कह कबीर तुम सतकर मानौं, जन्म-मरण मिट जाए।।5
- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9, गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने बताया है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था। कहा कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। तू और मैं पहले भी जन्में थे, आगे भी जन्मते रहेंगे। मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न देवता जानते हैं क्योंकि ये सब मेरे से उत्पन्न हुए हैं। यह तो पवित्र ग्रन्थ गीता ने स्पष्ट कर दिया कि ज्योति निरंजन काल (क्षर पुरूष) नाशवान है, जन्म-मरण का रोगी है।
- श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी के भी जन्म-मृत्यु होते हैं :-
प्रमाण :- श्री देवी पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्रा मोटा टाईप केवल हिन्दी) के तीसरे स्कन्द में पृष्ठ 123 पर लिखा है :- श्री विष्णु जी ने अपनी माता दुर्गा जी से कहा कि ’’मैं, ब्रह्मा तथा शंकर तो नाशवान हैं, हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तीरोभाव (मृत्यु) होता है।
- स्पष्ट हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर भी जन्म-मरण के रोगी हैं। आवा (जन्म) गवन (संसार से जाना यानि मृत्यु) समाप्त नहीं है। ज्योति स्वरूप निरंजन यानि काल ब्रह्म गीता ज्ञान दाता भी मरेगा, बिन सतगुरू कौन बचावै अर्थात् पूर्ण गुरू ही जन्म-मरण के रोग से छुटकारा दिला सकता है। जिसके पास जन्म-मरण रोग को समाप्त करने की संजीवनी औषधि सार शब्द है। उसका जाप करने से मोक्ष प्राप्त होता है। वह औषधि यानि साधना कौन-सी है जिससे जन्म-मृत्यु का रोग समाप्त होता है, यह जाँच करनी है।
- औषधि की पहचान दो प्रकार से होती है।
डाक्टर स्वयं बताए कि औषधि का यह नाम है, उस में ये-ये औषधि गुण यानि (साल्ट) हैं। दूसरा वह रोगी बताए जिसका टी.बी. का रोग किस औषधि से ठीक हुआ था।
प्रथम प्रकार की जाँच :- परमेश्वर कबीर जी का विधान है कि वे स्वयं सतगुरू रूप में प्रकट होकर यथार्थ भक्ति साधना के नाम मन्त्र स्वयं बताते और वही मन्त्र आदरणीय धर्मदास जी, आदरणीय संत गरीबदास जी (छुड़ानी वाले) आदरणीय संत नानक देव जी, आदरणीय संत घीसा दास साहेब जी को दिए। उन्होंने अपनी अमृत वाणी में लिखा है कि इन-इन मन्त्रों से मोक्ष हुआ।
1 संत धर्मदास जी को नाम दीक्षा में जो नाम दीक्षा मन्त्र दिए थे। वे कबीर सागर के ’’ज्ञान प्रकाश बोध’’ पृष्ठ 62 पर लिखे हैं :-
सत्यनाम सतगुरू तत् भाखा, सार शब्द ग्रंथ कथि गुप्त ही राखा।।
सत्य शब्द गुरू गम पहिचाना। विन जिभ्या करू अमृत पाना।।
ओहं (ऊँ)-सोहं जानों बीरू। धर्मदास से कहो कबीरू।।
धरीहों गोय कहियो जिन काही। नाद सुशील लखैहो ताही।।
सुमिरण दया सेवा चित धरई। सत्यनाम गहि हंसा तीरही।।
पृष्ठ 62 = सत्यनाम सुमिरण करै सतगुरू पद निज ध्यान।
परमात्म पूजा जीव दया लहै सो मुक्ति धाम।।
2 संत गरीबदास जी (गाँव=छुड़ानी वाले) को भी यही सत्यनाम दिया था। (सतनाम=सत्यनाम तो गोली यानि कैप्सूल का नाम है, उसमें सॉल्ट (ओम-सोहं है।)
संत गरीबदास जी को भी सतगुरू कबीर परमेश्वर जी मिले थे। अपनी वाणी में लिखा है :-
गरीब, अलल पंख अनुराग है, सुन मण्डल रह थीर। दास गरीब उधारिया, सतगुरू मिले कबीर।।
जो नाम मन्त्र की साधना (औषधि) संत गरीबदास को मिली। वह अपनी अमृतवाणी में लिखी है :-
’’राम नाम जप कर थिर (स्थिर) होई, ओम्-सोहं मन्त्र दोई।
3 संत नानक जी को भी परमेश्वर कबीर जी सतगुरू रूप में मिले थे। उनको भी जो नाम मन्त्र की साधना (औषधि-उपचार) बताई। वह अपनी अमृत वाणी में लिखी है तथा पवित्र पुस्तक ’’भाई बाले वाली जन्म-साखी गुरू नानक देव की‘‘ में अध्याय ‘‘समन्दर की साखी‘‘ में मन्त्रों के प्रत्यक्ष नाम लिए हैं जो सतनाम में दो अक्षर हैं। संत नानक देव जी ने अपनी अमृत वाणी में कहा है कि :-
जे तूँ पढि़या पंडित बिन दोय अखर बिन दोय नावाँ। पर्णवत् नानक एक लंघाए जेकर सच्च समावाँ।।
भाई बाले वाली जन्म साखी में ’’समन्दर की साखी’’ अध्याय में प्रकरण इस प्रकार है :-
एक समय भाई बाला तथा मर्दाना को साथ लेकर संत नानक देव जी श्रीलंका के लिए चले तो समन्दर के किनारे प्रकट हो गए। बाला तथा मर्दाना से कहा कि तुम दोनों ’’वाहे गुरू-वाहे गुरू’’ नाम जाप करते हुए मेरे पीछे-पीछे आओ। समन्दर के जल के ऊपर पृथ्वी की तरह आगे-आगे श्री नानक देव जी ओम्-सोहं का दो अक्षर के सतनाम का जाप करते हुए चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे वाहे गुरू-वाहे गुरू मन्त्र का जाप करते हुए दोनों शिष्य समुद्र के जल पर ऐसे चल रहे थे जैसे पृथ्वी के ऊपर चलते हैं। कुछ दूर जाने के पश्चात् मर्दाना जी के मन में आया कि गुरू जी तो ओम्-सोहं का मन्त्र जाप कर रहें हैं, मैं भी यही जाप करता हूँ। मर्दाना भी ओम्-सोहं का जाप करने लगा जिस कारण से वह समुद्र में गोते खाने लगा। संत नानक जी ने कहा मर्दाना तू वही जाप कर जो तेरे को कहा। गुरू की करनी की ओर नहीं देखना चाहिए, गुरू जी की आज्ञा का पालन करना चाहिए। मर्दाना फिर वाहे गुरू-वाहे गुरू का जाप करने लगा तो उसी प्रकार फिर जल के ऊपर थल की तरह चलने लगा।
शंका समाधान :- परमेश्वर कबीर जी ने उन सर्व महापुरूषों को जिन-जिनको शिष्य बनाया था, मना किया था कि सत्यनाम तथा सारशब्द का जाप आप स्वयं कर सकते हो, अन्य किसी को नहीं बताना। इसको तब तक छुपाना जब तक कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष न बीत जाए। इसलिए किसी भी सिक्ख को यह दो अक्षर का मन्त्र सतनाम नहीं दिया। वर्तमान में (सन् 1997 से) यह मन्त्र देने का परमेश्वर कबीर जी का पुनः आदेश मुझ दास (रामपाल दास) को 1997 में दिया है।
0 Comments