धनी धर्मदास का जन्म-मरण चक्र कैसे समाप्त हुआ? | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

पवित्र कबीर सागर का ज्ञान परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने अपनी प्रिय आत्मा धर्मदास जी सेठ को बताया जो बाद में धर्मदास जी ने लिखा। पवित्र कबीर सागर के ज्ञान का नाश नासमझ कबीर पंथी नकली आचार्यों ने कर रखा है जो आप जी ने इस ग्रन्थ के पूर्व में कबीर सागर के संशोधनकर्ता श्री युगलानंद (बिहारी) भारत पथिक कबीर पंथी द्वारा की गई अनुराग सागर की भूमिका में तथा ज्ञान प्रकाश के नीचे की गई टिप्पणी में पढ़ लिया है। इस ग्रन्थ ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ में यथार्थ तथा सरल ज्ञान पढ़ने को मिलेगा।

dahrm das in kabir sagar


वास्तव में पूरे कबीर सागर का सारांश है ‘‘धर्मदास बोध‘‘ यानि ‘‘ज्ञान प्रकाश’’। परमात्मा ने अपने प्रिय भक्त धर्मदास जी को सत्य आध्यात्मिक ज्ञान बताया। इसलिए कबीर सागर ‘‘धर्मदास बोध‘‘ है और जिसका विस्तृत वर्णन है ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ अध्याय में जो छठा अध्याय है। सर्वप्रथम ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ से कबीर सागर सार लेता हूँ।

अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ (छठा अध्याय) का सार परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी द्वारा सेठ धर्मदास जी (नगर=बाँधवगढ़, प्रदेश=मध्यप्रदेश, भारत देश) को शरण में लेने के लिए लीला का वर्णन है। इसमें पद्य भाग में दोहों तथा चौपाईयों के रूप में वर्णन है जो जन-साधारण की समझ से परे की बात है। इसलिए इसको गद्य भाग में सरल करके लिखना वर्तमान में अति आवश्यक है।

कृप्या पढ़ें आगे संक्षिप्त तथा यथार्थ प्रमाणित आत्मा तथा परमात्मा का संवाद :-

अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ का सारांश (छठा अध्याय)

जैसा कि इस ग्रन्थ (कबीर सागर का सरलार्थ) के प्रारम्भ में लिखा है कि कबीर सागर के यथार्थ अर्थ को न समझकर कबीर पंथियों ने इस ग्रन्थ में अपने विवेक अनुसार फेर-बदल किया है। कुछ अंश काटे हैं। कुछ आगे-पीछे किए हैं। कुछ बनावटी वाणी लिखकर कबीर सागर का नाश किया है। परंतु सागर तो सागर ही होता है। उसको खाली नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कबीर सागर में बहुत सा सत्य विवरण उनकी कुदृष्टि से बच गया है। शेष मिलावट को अब एक बहुत पुराने हस्तलिखित ‘‘कबीर सागर‘‘ से मेल करके तथा संत गरीबदास जी की अमृतवाणी के आधार से तथा परमेश्वर कबीर जी द्वारा मुझ दास (रामपाल दास) को दिया, दिव्य ज्ञान के आधार से सत्य ज्ञान लिखा गया है। एक प्रमाण बताता हूँ जो बुद्धिमान के लिए पर्याप्त है। ज्ञान प्रकाश में परमेश्वर कबीर जी द्वारा धनी धर्मदास जी को शरण में लेने का विवरण है।
आपसी संवाद है, परंतु धर्मदास जी का निवास स्थान भी गलत लिखा है। पृष्ठ 21 पर पूर्व गुरू रूपदास जी से शंका का निवारण करके अपने घर चले गए। धर्मदास जी का निवास स्थान ‘‘मथुरा नगर‘‘ लिखा है, वाणी इस प्रकार है :-

तुम हो गुरू वो सतगुरू मोरा। उन हमार यम फंदा तोरा (तोड़ा)।।
धर्मदास तब करी प्रणामा। मथुरा नगर पहुँचे निज धामा।।

जबकि धर्मदास जी का निज निवास स्थान ‘‘बांधवगढ़‘‘ कस्बा था जो मध्यप्रदेश में है। संत गरीबदास जी ने अपनी वाणी में सर्व सत्य विवरण लिखा है कि धर्मदास बांधवगढ़ के रहने वाले सेठ थे। वे तीर्थ यात्रा के लिए मथुरा गए थे। उसके पश्चात् अन्य तीर्थों पर जाना था। कुछ तीर्थों पर भ्रमण कर आए थे। फेर-बदल का अन्य प्रमाण इसी ज्ञान प्रकाश में धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है। बीच में सर्वानन्द ब्राह्मण की कथा लिखी है जो वहाँ पर नहीं होनी चाहिए। केवल धर्मदास की ही बात होनी चाहिए। पृष्ठ 37 से 50 तक सर्वानन्द की कथा है। इससे पहले पृष्ठ 34 पर धर्मदास जी को नाम दीक्षा देने, आरती-चांका करने का प्रकरण है। पृष्ठ 35 पर गुरू की महिमा की वाणी है जो पृष्ठ 36 तक है। फिर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई है जो मात्रा तीन वाणी हैं।

इसके बाद ‘‘सतगुरू वचन‘‘ वाला प्रकरण मेल नहीं करता। पृष्ठ 36 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई की तीन वाणी के पश्चात् पृष्ठ 50 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ से मेल (स्पदा) करता है जो सर्वानन्द के प्रकरण के पश्चात् ‘‘धर्मदास वचन‘‘ की वाणी है।
ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 36 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई

हो साहब तव पद सिर नाऊँ। तव पद परस परम पद पाऊँ।।
केहि विधि आपन भाग सराही । तव बरत गहैं भाव पुनः बनाई।।
कोधों मैं शुभ कर्म कमाया। जो सदगुरू पद दर्शन पाया।।

ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 50 ‘‘धर्मदास वचन‘‘

धन्य धन्य साहिब अविगत नाथा। प्रभु मोहे निशदिन राखो साथा।।
सुत परिजन मोहे कछु न सोहाही। धन दारा अरू लोक बड़ाई।।

इसके पश्चात् सही प्रकरण है। बीच में अन्य प्रकरण लिखा है, वह मिलावटी तथा गलत है। नाम दीक्षा देने के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को प्रसन्न करने के लिए कहा कि जब आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं जो ज्ञान तथा भक्ति मंत्र बता रहा हूँ, वे सत्य हैं। फिर तेरे को गुरू पद दूँगा। आप दीक्षा लेने वाले से सवा लाख द्रव्य (रूपये या सोना) लेकर दीक्षा देना। परमात्मा ने धर्मदास जी की परीक्षा ली थी कि वैश्य (बनिया) जाति से है यदि लालची होगा तो इस लालचवश मेरा ज्ञान सुनता रहेगा। ज्ञान के पश्चात् लालच रहेगा ही नहीं। परंतु धर्मदास जी पूर्ण अधिकारी हंस थे। सतलोक से विशेष आत्मा भेजे थे। फिर उन्होंने इस राशि को कम करवाया और निःशुल्क दीक्षा देने का वचन करवाया यानि माफ करवाया।

अब ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 9 से आवश्यक वाणी लेते हैं क्योंकि जो अमृतवाणी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से बोली गई है, उसके पढ़ने-सुनने से भी अनेकों पाप नाश होते हैं। ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 9 से वाणी :-

धर्मदास बोध = ज्ञान प्रकाश

निम्न वाणी पुराने कबीर ग्रन्थ के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ से हैं :-
बांधवगढ़ नगर कहाय। तामें धर्मदास साह रहाय।।
धन का नहीं वार रू पारा। हरि भक्ति में श्रद्धा अपारा।।
रूप दास गुरू वैष्णव बनाया। उन राम कृष्ण भगवान बताया।।
तीर्थ बरत मूर्ति पूजा। एकादशी और सालिग सूजा।।
ताके मते दृढ़ धर्मनि नागर। भूल रहा वह सुख का सागर।।
तीर्थ करन को मन चाहा। गुरू आज्ञा ले चला उमाहा।।
भटकत भ्रमत मथुरा आया। कृष्ण सरोवर में उठ नहाया।।
चौका लीपा पूजा कारण। फिर लगा गीता सलोक उचारण।।
ताही समय एक साधु आया। पाँच कदम पर आसन लाया।।
धर्मदास को कहा आदेशा। जिन्दा रूप साधु का भेषा।।
धर्मदास देखा नजर उठाई। पूजा में मगन कछु बोल्या नाहीं।।
जग्यासु वत देखै दाता। धर्मदास जाना सुनत है बाता।।
ऊँचे सुर से पाठ बुलाया। जिन्दा सुन-सुन शीश हिलाया।।
धर्मदास किया वैष्णव भेषा। कण्ठी माला तिलक प्रवेशा।।
पूजा पाठ कर किया विश्रामा। जिन्दा पुनः किया प्रणामा।।
जिन्दा कहै मैं सुना पाठ अनुपा। तुम हो सब संतन के भूपा।।
मोकैं ज्ञान सुनाओ गोसाँई। भक्ति सरस कहीं नहीं पाई।।
मुस्लिम हिन्दू गुरू बहु देखे। आत्म संतोष कहीं नहीं एके।।
धर्मदास मन उठी उमंगा। सुनी बड़ाई तो लागा चंगा।।
धर्मदास वचन
जो चाहो सो पूछो प्रसंगा। सर्व ज्ञान सम्पन्न हूँ भक्ति रंगा।।
पूछहूँ जिन्दा जो तुम चाहो। अपने मन का भ्रम मिटाओ।।
जिन्द वचन
तुम काको पाठ करत हो संता। निर्मल ज्ञान नहीं कोई अन्ता।।
मोकूं पुनि सुनाओ बाणी। जातें मिलै मोहे सारंग पाणी।।
तुम्हरे मुख से ज्ञान मोहे भावै। जैसे जिह्ना मधु टपकावै।।
धर्मदास सुनि जब कोमल बाता। पोथी निकाली मन हर्षाता।।

सन्त धर्मदास जी से प्रथम बार परमेश्वर कबीर जी का साक्षात्कार

श्री धर्मदास जी बनिया जाति से थे जो बाँधवगढ़ (मध्य प्रदेश) के रहने वाले बहुत धनी व्यक्ति थे। उनको भक्ति की प्रेरणा बचपन से ही थी। जिस कारण से एक रुपदास नाम के वैष्णव सन्त को गुरु धारण कर रखा था। हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण सन्त रुपदास जी श्री धर्मदास जी को राम कृष्ण, विष्णु तथा शंकर जी की भक्ति करने को कहते थे। एकादशी का व्रत, तीर्थों पर भ्रमण करना, श्राद्ध कर्म, पिण्डोदक क्रिया सब करने की राय दे रखी थी। गुरु रुपदास जी द्वारा बताई सर्व साधना श्री धर्मदास जी पूरी आस्था के साथ किया करते थे। गुरु रुपदास जी की आज्ञा लेकर धर्मदास जी मथुरा नगरी में तीर्थ-दर्शन तथा स्नान करने तथा गिरीराज (गोवर्धन) पर्वत की परिक्रमा करने के लिए गए थे। परम अक्षर ब्रह्म स्वयं मथुरा में प्रकट हुए। एक जिन्दा महात्मा की वेशभूषा में धर्मदास जी को मिले। श्री धर्मदास जी ने उस तीर्थ तालाब में स्नान किया जिसमें श्री कृष्ण जी बाल्यकाल में स्नान किया करते थे। फिर उसी जल से एक लोटा भरकर लाये।

भगवान श्री कृष्ण जी की पीतल की मूर्ति (सालिग्राम) के चरणों पर डालकर दूसरे बर्तन में डालकर चरणामृत बनाकर पीया। फिर सालिग्राम को स्नान करवाकर अपना कर्मकाण्ड पूरा किया। फिर एक स्थान को लीपकर अर्थात् गारा तथा गाय का गोबर मिलाकर कुछ भूमि पर पलस्तर करके उस पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ करने बैठे। यह सर्व क्रिया जब धर्मदास जी कर रहे थे। परमात्मा जिन्दा भेष में थोड़ी दूरी पर बैठे देख रहे थे। धर्मदास जी भी देख रहे थे कि एक मुसलमान सन्त मेरी भक्ति क्रियाओं को बहुत ध्यानपूर्वक देख रहा है, लगता है इसको हम हिन्दुओं की साधना मन भा गई है। इसलिए श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ कुछ ऊँचे स्वर में करने लगा तथा हिन्दी का अनुवाद भी पढ़ने लगा। परमेश्वर उठकर धर्मदास जी के निकट आकर बैठ गए।

धर्मदास जी को अपना अनुमान सत्य लगा कि वास्तव में इस जिन्दा वेशधारी बाबा को हमारे धर्म का भक्ति मार्ग अच्छा लग रहा है। इसलिए उस दिन गीता के कई अध्याय पढ़े तथा उनका अर्थ भी सुनाया। जब धर्मदास जी अपना दैनिक भक्ति कर्म कर चुका, तब परमात्मा ने कहा कि हे महात्मा जी! आपका शुभ नाम क्या है? कौन जाति से हैं। आप जी कहाँ के निवासी हैं? किस धर्म-पंथ से जुड़े हैं? कृपया बताने का कष्ट करें। मुझे आपका ज्ञान बहुत अच्छा लगा, मुझे भी कुछ भक्ति ज्ञान सुनाईए। आपकी अति कृपा होगी।

धर्मदास जी ने उत्तर दिया :- मेरा नाम धर्मदास है, मैं बांधवगढ़ गाँव का रहने वाला वैश्य कुल से हूँ। मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ, हिन्दू धर्म में जन्मा हूँ। मैंने पूरे निश्चय के साथ तथा अच्छी तरह ज्ञान समझकर वैष्णव पंथ से दीक्षा ली है। मेरे गुरुदेव श्री रुपदास जी हैं। अध्यात्म ज्ञान से मैं परिपूर्ण हूँ। अन्य किसी की बातों में आने वाला मैं नहीं हूँ। राम-कृष्ण जो श्री विष्णु जी के ही अवतार हुए हैं तथा भगवान शंकर की पूजा करता हूँ, एकादशी का व्रत रखता हूँ। तीर्थों में जाता हूँ, वहाँ दान करता हूँ। शालिग्राम की पूजा नित्य करता हूँ। यह पवित्र पुस्तक श्रीमद्भगवत् गीता है, इसका नित्य पाठ करता हूँ। मैं अपने पूर्वजों का श्राद्ध भी करता हूँ जो स्वर्गवासी हो चुके हैं।

पिण्डदान भी करता हूँ। मैं कोई जीव हिंसा नहीं करता, माँस, मदिरा, तम्बाकू सेवन नहीं करता।

  • प्रश्न :- परमेश्वर कबीर जी ने पूछा कि आप जिस पुस्तक को पढ़ रहे थे, इसका नाम क्या है?
  • उत्तर :- धर्मदास जी ने बताया कि यह श्रीमद्भगवत गीता है। हम शुद्र को निकट भी नहीं आने देते, शुद्ध रहते हैं।
  • प्रश्न :- (कबीर जी जिन्दा रुप में) आप क्या नाम-जाप करते हो?
  • उत्तर :- (धर्मदास जी का) हम हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम् नमः शिवाय, ओम् भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र का जाप 108 बार प्रतिदिन करता हूँ। विष्णु सहंस्रनाम का जाप भी करता हूँ।
  • प्रश्न :- (जिन्दा बाबा का) हे महात्मा धर्मदास! गीता का ज्ञान किसने दिया?
  • उत्तर : (धर्मदास का) भगवान श्री कृष्ण जी ने, यही श्री विष्णु जी हैं।
  • प्रश्न : (जिन्दा बाबा रुप में परमात्मा का) :- आप जी के पूज्य देव श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु हैं। उनका बताया भक्ति ज्ञान गीता शास्त्र है।

एक किसान को वृद्धावस्था में पुत्र प्राप्त हुआ। किसान ने विचार किया कि जब तक पुत्रा कृषि करने योग्य होगा, तब तक मेरी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए उसने कृषि करने का तरीका अपना अनुभव एक बही (रजिस्टर) में लिख दिया। अपने पुत्र से कहा कि बेटा जब आप युवा हो जाओ तो मेरे इस रजिस्टर में लिखे अनुभव को बार-2 पढ़ना। इसके अनुसार फसल बोना। कुछ दिन पश्चात् पिता की मृत्यु हो गई, पुत्र प्रतिदिन अपने पिता के अनुभव का पाठ करने लगा। परन्तु फसल का बीज व बिजाई, सिंचाई उस अनुभव के विपरीत करता था। तो क्या वह पुत्र अपने कृषि के कार्य में सफलता प्राप्त करेगा?
उत्तर : (धर्मदास का) : इस प्रकार तो पुत्र निर्धन हो जाएगा। उसको तो पिता के लिखे अनुभव के अनुसार प्रत्येक कार्य करना चाहिए। वह तो मूर्ख पुत्र है।

प्रश्न : (बाबा जिन्दा रुप में भगवान जी का) हे धर्मदास जी! गीता शास्त्र आप के परमपिता भगवान कृष्ण उर्फ विष्णु जी का अनुभव तथा आपको आदेश है कि इस गीता शास्त्रा में लिखे मेरे अनुभव को पढ़कर इसके अनुसार भक्ति क्रिया करोगे तो मोक्ष प्राप्त करोगे। क्या आप जी गीता में लिखे श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार भक्ति कर रहे हो? क्या गीता में वे मन्त्र जाप करने के लिए लिखा है जो आप जी के गुरुजी ने आप जी को जाप करने के लिए दिए हैं? (हरे राम-हरे राम, राम-राम हरे-हरे, हरे कृष्णा-हरे कृष्णा, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम नमः शिवाय, ओम भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र तथा विष्णु सहंस्रनाम) क्या गीता जी में एकादशी का व्रत करने तथा श्राद्ध कर्म करने, पिण्डोदक क्रिया करने का आदेश है?

उत्तर :- (धर्मदास जी का) नहीं है।

प्रश्न :- (परमेश्वर जी का) फिर आप जी तो उस किसान के पुत्रा वाला ही कार्य कर रहे हो जो पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मनमानी विधि से गलत बीज गलत समय पर फसल बीजकर मूर्खता का प्रमाण दे रहा है। जिसे आपने मूर्ख कहा है। क्या आप जी उस किसान के मूर्ख पुत्र से कम हैं? धर्मदास जी बोले : हे जिन्दा! आप मुसलमान फकीर हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म की भक्ति क्रिया व मन्त्रों में दोष निकाल रहे हो।

उत्तर : (कबीर जी का जिन्दा रुप में) हे स्वामी धर्मदास जी! मैं कुछ नहीं कह रहा, आपके धर्मग्रन्थ कह रहे हैं कि आपके धर्म के धर्मगुरु आप जी को शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करवा रहे हैं जो आपकी गीता के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी कहा है कि हे अर्जुन! जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है अर्थात् मनमाने मन्त्र जाप कर रहा है, मनमाने श्राद्ध कर्म व पिण्डोदक कर्म व व्रत आदि कर रहा है, उसको न तो कोई सिद्धि प्राप्त हो सकती, न सुख ही प्राप्त होगा और न गति अर्थात् मुक्ति मिलेगी, इसलिए व्यर्थ है। गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए कर्त्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिए तथा अकर्त्तव्य (जो भक्ति कर्म न करने चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। उन शास्त्रों में बताए भक्ति कर्म को करने से ही लाभ होगा।

धर्मदास जी : हे जिन्दा! तू अपनी जुबान बन्द करले, मुझसे और नहीं सुना जाता। जिन्दा रुप में प्रकट परमेश्वर ने कहा, हे वैष्णव महात्मा धर्मदास जी! सत्य इतनी कड़वी होती है जितना नीम, परन्तु रोगी को कड़वी औषधि न चाहते हुए भी सेवन करनी चाहिए। उसी में उसका हित है। यदि आप नाराज होते हो तो मैं चला। इतना कहकर परमात्मा (जिन्दा रुप धारी) अन्तर्ध्यान हो गए। धर्मदास को बहुत आश्चर्य हुआ तथा सोचने लगा कि यह कोई सामान्य सन्त नहीं था। यह पूर्ण विद्वान लगता है। मुसलमान होकर हिन्दू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है।

यह कोई देव हो सकता है। धर्मदास जी अन्दर से मान रहे थे कि मैं गीता शास्त्रा के विरुद्ध साधना कर रहा हूँ। परन्तु अभिमानवश स्वीकार नहीं कर रहे थे। जब परमात्मा अन्तर्ध्यान हो गए तो पूर्ण रुप से टूट गए कि मेरी भक्ति गीता के विरुद्ध है। मैं भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर रहा हूँ। मेरे गुरु श्री रुपदास जी को भी वास्तविक भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अब तो इस भक्ति को करना, न करना बराबर है, व्यर्थ है। बहुत दुखी मन से इधर-उधर देखने लगा तथा अन्दर से हृदय से पुकार करने लगा कि मैं कैसा नासमझ हूँ। सर्व सत्य देखकर भी एक परमात्मा तुल्य महात्मा को अपनी नासमझी तथा हठ के कारण खो दिया। हे परमात्मा! एक बार वही सन्त फिर से मिले तो मैं अपना हठ छोड़कर नम्र भाव से सर्वज्ञान समझूंगा। दिन में कई बार हृदय से पुकार करके रात्रि में सो गया।

सारी रात्रि करवट लेता रहा। सोचता रहा हे परमात्मा! यह क्या हुआ। सर्व साधना शास्त्रविरुद्ध कर रहा हूँ। मेरी आँखें खोल दी उस फरिस्ते ने। मेरी आयु 60 वर्ष हो चुकी है। अब पता नहीं वह देव (जिन्दा रुपी) पुनः मिलेगा कि नहीं।

‘‘जिन्दा बाबा का दूसरी बार अन्तर्ध्यान होना‘‘

(धर्मदास जी ने कहा) :- हे जिन्दा! आप यह क्या कह रहे हो कि श्री विष्णु जी तीनों लोको में केवल एक विभाग के मन्त्र हैं। आप गलत कह रहे हो। श्री विष्णुजी तो अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। ये ही श्री ब्रह्मा जी रुप में उत्पत्ति करते हैं। विष्णु रुप होकर संसार का पालन करते हैं तथा शिव रुप होकर संहार करते हैं। ये तो कुल के मालिक हैं, यदि फिर से आपने श्री

विष्णु जी को अपमानित किया तो ठीक बात नहीं रहेगी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा :- मूर्ख के समझावतें, ज्ञान गाँठि का जाय। कोयला होत न उजला, भावें सौ मन साबुन लाय।। इतना कहकर परमेश्वर जिन्दा रुपधारी अन्तर्ध्यान हो गए। दूसरी बार परमेश्वर को खोने के पश्चात् धर्मदास बहुत उदास हो गए। भगवान विष्णु में इतनी अटूट आस्था थी कि आँखों प्रमाण देखकर भी झूठ को त्यागने को तैयार नहीं थे।

कबीर, जान बूझ साची तजै, करे झूठ से नेह। ताकि संगति हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।

कुछ देर के पश्चात् धर्मदास की बुद्धि से काल का साया हटा और अपनी गलती पर विचार किया कि सब प्रमाण गीता से ही प्रत्यक्ष किए गए थे। जिन्दा बाबा ने अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहा। मैं कितना अभागा हूँ कि मैंने अपने हठी व्यवहार से देव स्वरुप तत्त्वदर्शी सन्त को खो दिया।

अब तो वे देव नहीं मिलेंगे। मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा। यह विचार करके धर्मदास सिहर उठा अर्थात् भय से काँपने लगा। खाना भी कम खाने लगा, उदास रहने लगा तथा मन-मन में अर्जी लगाने लगा हे देव! हे जिन्दा बाबा! एक बार दर्शन दे दो। भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा। मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ। मुझ मूर्ख की ओच्छी-मन्दी बातों पर ध्यान न दो। मुझे फिर मिलो गुसांई। आपका ज्ञान सत्य, आप सत्य, आप जी का एक-एक वचन अमृत है। कृपया दर्शन दो नहीं तो अधिक दिन मेरा जीवन नहीं रहेगा।

तीसरे दिन परमेश्वर कबीर जी एक दरिया के किनारे वृक्ष के नीचे बैठे थे। आसपास कुछ आवारा गायें भी उसी वृक्ष के नीचे बैठी जुगाली कर रही थीं। कुछ दरिया के किनारे घास चर रही थी। धर्मदास की दृष्टि दरिया के किनारे पिताम्बर पहने बैठे सन्त पर पड़ी, देखा आस-पास गायें चर रही है। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान कृष्ण अपने लोक से आकर बैठे हां। धर्मदास उत्सुकता से सन्त के पास गया तथा देखा यह तो कोई सामान्य सन्त है। फिर भी सोचा चरण स्पर्श करके फिर आगे बढूँगा। धर्मदास जी ने जब चरणों का स्पर्श किया, मस्तक चरणों पर रखा तो ऐसा लगा कि जैसे रुई को छुआ हो। फिर चरणों को हाथां से दबा-दबाकर देखा तो उनमें कहीं भी हड्डी नहीं थी। ऊपर चेहरे की ओर देखा तो वही बाबा जिन्दा उसी पहले वाली वेशभूषा में बैठा था।

धर्मदास जी ने चरणों को दृढ़ करके पकड़ लिया कि कहीं फिर से न चले जाऐं और अपनी गलती की क्षमा याचना की। कहा कि हे जिन्दा! आप तो तत्त्वदर्शी सन्त हो। मैं एक भ्रमित जिज्ञासु हूँ। जब तक मेरी शंकाओं का समाधान नहीं होगा, तब तक मेरा अज्ञान नाश कैसे होगा? आप तो महाकृपालु हैं। मुझ किंकर पर दया करो। मेरा अज्ञान हटाओ प्रभु।

प्रश्न (धर्मदास जी का) :- हे जिन्दा! यदि श्री विष्णु जी पूर्ण परमात्मा नहीं है तो कौन है पूर्ण परमात्मा, कृप्या गीता से प्रमाण देना?

उत्तर :- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।

प्रमाण :- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्त्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।

विशेष :- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकॉपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं।

जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य अध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्रा 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2ए सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा सर्व भवनों अर्थात् लोकां के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चौपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृप्या देखें उपरोक्त वेद मन्त्रों की फोटोकॉपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 483 पर।

परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्त्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्त्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्त्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग

इस प्रकार बतायेः-

कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।

भावार्थ : वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार से मानो तीन शाखाऐं निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें), जमीन के अन्दर हैं।
जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’ दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है।

upside down tree



गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है।
यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है।

इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।

प्रश्न :- धर्मदास जी ने पूछा कि क्या श्री विष्णु जी और शंकर जी की पूजा करनी चाहिए?
उत्तर :- (जिन्दा बाबा का) :- नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न (धर्मदास जी का) :- कृपया गीता से प्रमाणित कीजिए।

उत्तर :- श्री मद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24, गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6 में प्रमाण है कि जो व्यक्ति रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। (यह प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में यही कहा है और क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में जिनका वर्णन है), को छोड़कर श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी अन्य देवताओं में गिने जाते हैं। इन दोनों अध्यायों (गीता अध्याय 7 तथा अध्याय 9 में) में ऊपर लिखे श्लोकां में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जिस भी उद्देश्य को लेकर अन्य देवताओं को भजते हैं, वे भगवान समझकर भजते हैं। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति प्रदान कर रखी है। देवताओं के भजने वालों को मेरे द्वारा किए विधान से कुछ लाभ मिलता है। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं के लोक में जाते हैं। मेरे पुजारी मुझे प्राप्त होते हैं।




गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्रविधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जिन देवताओं पितरों, यक्षों, भैरों-भूतों की भक्ति करते हैं और मनकल्पित मन्त्रों का जाप करते हैं, उनको न तो कोई सुख होता है, न कोई सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (जो भक्ति करनी चाहिए) और अकर्त्तव्य (जो भक्ति न करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन मान रहा था कि श्री कृष्ण ही ज्ञान सुना रहा है, परन्तु श्री कृष्ण के शरीर में प्रेत की तरह प्रवेश करके काल (ब्रह्म) ज्ञान बोल रहा था जो पहले प्रमाणित किया जा चुका है)। जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अन्य देवताओं आदि की पूजा करते हैं, वे स्वभाव में कैसे होते हैं? गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि सात्विक व्यक्ति देवताओं का पूजन करते हैं। राजसी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा तथा तामसी व्यक्ति प्रेत आदि की पूजा करते हैं। ये सब शास्त्राविधि रहित कर्म हैं। फिर गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनकल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भी (अभिमानी) हैं और शरीर के कमलों में विराजमान शक्तियों को तथा मुझे भी क्रश करने वाले राक्षस स्वभाव के अज्ञानी जान।

सूक्ष्मवेद में भी परमेश्वर जी ने कहा है कि :-

‘‘कबीर, माई मसानी सेढ़ शीतला भैरव भूत हनुमंत। परमात्मा से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत।।
राम भजै तो राम मिलै, देव भजै सो देव। भूत भजै सो भूत भवै, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘

स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सत्गुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए तथा इसके साथ-साथ भूतों, पितरों की पूजा, (श्राद्ध कर्म, तेरहवीं, पिण्डोदक क्रिया, सब प्रेत पूजा होती है) भैरव तथा हनुमान जी की पूजा भी नहीं करनी चाहिए।

धर्मदास को प्रभु ने सुनाया, गीता शास्त्र से प्रत्यक्ष प्रमाण देखकर धर्मदास की आँखें खुली की खुली रह गई। जैसे किसी को सदमा लग गया हो। झूठ कह नहीं सकता, स्वीकार करने से लिए अभी वक्त लगेगा। जिन्दा रुपधारी परमेश्वर ने धर्मदास को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे वैष्णव महात्मा! कौन-सी दुनिया में चले गये, लौट आओ। मानो धर्मदास नींद से जागा हो। सावधान होकर कहा, कुछ नहीं-कुछ नहीं। कृप्या और ज्ञान सुनाओ ताकि मेरा भ्रम दूर हो सके। परमेश्वर कबीर जी ने सृष्टि की रचना धर्मदास जी को सुनाई, कृपया पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 पर।

सृष्टि रचना सुनकर धर्मदास जी को ऐसा लगा मानो पागल हो जाऊँगा क्योंकि जो ज्ञान आजतक हिन्दू धर्मगुरुओं, ऋषियों, महर्षियों-सन्तां से सुना था, वह निराधार तथा अप्रमाणित लग रहा था। जिन्दा बाबा हिन्दू सद्ग्रन्थों से ही प्रमाणित कर रहे थे। शंका का कोई स्थान नहीं था। मन-मन में सोच रहा था कि कहीं मैं पागल तो नहीं हो जाऊँगा?

प्रश्न :- (धर्मदास जी का) : हे जिन्दा! क्या हिन्दू धर्म के गुरुओं तथा ऋषियों को शास्त्रों का ज्ञान नहीं है?
उत्तर :- (जिन्दा महात्मा का) :- क्या यह बताने की भी आवश्यकता शेष है?

धर्मदास जी ने मन में विचार किया कि यह कैसे हो सकता है कि हिन्दू धर्म के किसी सन्त, गुरु, महर्षि को सत्य अध्यात्म ज्ञान नहीं? धर्मदास जी के मन में आया कि किसी महामण्डलेश्वर से ज्ञान पता करना चाहिए। एक रमते फकीर के पास क्या मिलेगा? यह बात मन में सोच ही रहा था कि परमेश्वर जिन्दा जी ने धर्मदास जी के मन का दोष जानकर कहा कि आप अपने महामण्डलेश्वरों से ज्ञान प्राप्त करलो। यह कहकर परमेश्वर तीसरी बार अन्तर्ध्यान हो गए। धर्मदास जी ठगे से रह गए और अपने मन के दोष को जिन्दा महात्मा के मुखकमल से सुनकर बहुत शर्मसार हुए। जब प्रभु अन्तर्ध्यान हो गए तो बहुत व्याकुल हो गया। परन्तु धर्मदास जी को आशा थी कि हमारे महामण्डलेश्वरों के पास तत्त्वज्ञान अवश्य मिलेगा। यदि जिन्दा बाबा (मुसलमान) के ज्ञान को तत्त्वज्ञान मानकर साधना स्वीकार करना तो ऐसा लग रहा है जैसे धर्म परिवर्तन करना हो। यह समाज में निन्दा का कारण बनेगा। इसलिए अपने हिन्दू महात्माओं से तत्त्वज्ञान जानकर श्रेष्ठ शास्त्रनुकूल भक्ति करनी ही उचित रहेगी।

इस बार धर्मदास जी को जिन्दा बाबा का अचानक चला जाना खटका नहीं क्योंकि उसकी गलतफहमी थी कि हिन्दू इतना बड़ा तथा पुरातन धर्म है, क्या कोई भी तत्त्वदर्शी सन्त नहीं मिलेगा? धर्मदास जी एक वैष्णव महामण्डलेश्वर श्री ज्ञानानंद जी वैष्णव के आश्रम में गया। उस समय श्री ज्ञानानन्द जी का बहुत बोलबाला था। वह स्वामी रामानन्द जी काशी वाले का शिष्य था। परन्तु उस समय स्वामी रामानन्द जी तो परमेश्वर कबीर जी का शिष्य/गुरु बन चुका था। वह अपने ज्ञान को अज्ञान मान चुका था। स्वामी रामानन्द जी ने अपने सर्वऋषि शिष्यों से बोल दिया था कि मेरे द्वारा बताया ज्ञान व्यर्थ है और यह साधना शास्त्रविरुद्ध है। आप सब परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले लें। परन्तु जाति का अभिमान, शिष्यों में प्रतिष्ठा, ज्ञान के स्थान पर अज्ञान का भण्डार जीव को सत्य स्वीकार करने नहीं देता।




कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह।।
धर्मदास जी ने श्री ज्ञानानंद जी से प्रश्न किया है कि स्वामी जी क्या भगवान विष्णु से भी ऊपर कोई प्रभु है। श्री ज्ञानानन्द जी ने उत्तर दिया कि श्री विष्णु स्वयं परम ब्रह्म परमात्मा है। इनसे ऊपर कौन हो सकता है? श्री कृष्ण जी भी श्री विष्णु जी स्वयं ही थे। उन्होंने ही श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान दिया। आपको किसने भ्रमित कर दिया? धर्मदास जी ने पूछा कि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में भगवान ने कहा है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। यह तो भगवान कृष्ण से अन्य प्रभु हुआ। ज्ञानानन्द स्वामी बोला, लगता है कि तेरे को उस काशी वाले जुलाहे का जादू चढ़ा हुआ है। चल-चल अपना काम कर। भगवान कृष्ण से अन्य कोई प्रभु नहीं है। धर्मदास जी को पता चल गया कि इसके पास वह ज्ञान नहीं है जो जिन्दा बाबा ने प्रमाणों सहित बताया है। धर्मदास निराश होकर वहाँ से चल दिया। धर्मदास जी को यह नहीं पता था कि काशी वाला जुलाहा वह बाबा जिन्दा ही है।

फिर धर्मदास को पता चला कि एक मोहनगिरी नाम के महामण्डलेश्वर हैं, उनके पास जाकर भगवान की चर्चा करनी शुरु की। पहले एक रुपया दक्षिणा चढ़ाई जिस कारण से मोहनगिरी ने उनको निकट बैठाया और बताया कि भगवान शिव सर्व सृष्टि के रचने वाले हैं। इनसे बढ़कर संसार में कोई प्रभु नहीं है। ‘‘ओम् नमः शिवाय’’ मन्त्र का जाप करो। धर्मदास जी प्रणाम करके चल पड़े। सोचा इनका कितना अच्छा नाम है, ज्ञान धेल्ले (एक पैसे) का नहीं। धर्मदास जी से किसी ने बताया कि एक बहुत बड़ा तपस्वी है। कई वर्षों से खड़ा तप कर रहा है। धर्मदास जी वहाँ गए, वह नाथ पंथ से जुड़ा था।
भगवान शिव को समर्थ परमात्मा बताता था। तप करके हठयोग से परमात्मा की प्राप्ति मान रहा था। धर्मदास जी ने विवेक किया कि यदि इतनी घोर कठिन तपस्या से परमात्मा मिलेगा तो हमारे वश से बाहर की बात है। वहाँ से भी आगे चला। पता चला कि एक बहुत बड़ा विद्वान महात्मा काशी विद्यापीठ से पढ़कर आया है। वेदों का पूर्ण विद्वान है।

धर्मदास जी ने उस महात्मा से पूछा परमात्मा कैसा है?


उत्तर मिला-निराकार है। उस निराकार परमात्मा का कोई नाम है? धर्मदास ने पूछा। उत्तर विद्वान का :- उसका नाम ब्रह्म है। क्या परमात्मा को देखा जा सकता है, धर्मदास जी ने प्रश्न किया? उत्तर मिला परमात्मा निराकार है, उसको कैसे देख सकते हैं। केवल परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है। प्रश्नः- क्या श्री कृष्ण या विष्णु परमात्मा हैं? उत्तर था कि ये तो सर्गुण देवता हैं, परमात्मा निर्गुण है।

गीता और वेद के ज्ञान में क्या अन्तर है? धर्मदास ने प्रश्न किया। ब्राह्मण का उत्तर था कि गीता चारों वेदों का सारांश है। धर्मदास जी ने पूछा कि भक्ति मन्त्र कौन सा है? उत्तर ब्राह्मण का था कि गायत्री मन्त्र का जाप करो = ओम् भूर्भवस्वः तत् सवितुः वरेणियम भृगोदेवस्य धीमहि, धीयो यो नः प्रचोदयात्’’

धर्मदास जी को जिन्दा बाबा ने बताया था कि इस मन्त्र से मोक्ष सम्भव नहीं। धर्मदास जी फिर आगे चला तो पता चला कि सन्त गुफा में रहता है। कई-कई दिन तक गुफा से नहीं निकलता है। उसके पास जाकर प्रश्न किया कि भगवान कैसे मिलता है? उत्तर मिला कि इन्द्रियों पर संयम रखो, इसी से परमात्मा मिल जाता है। नाम जाप से कुछ नहीं होता। खाण्ड (चीनी) कहने से मुँह मीठा नहीं होता। धर्मदास जी को सन्तोष नहीं हुआ।

सब सन्तों से ज्ञान चर्चा करके धर्मदास जी को बहुत पश्चाताप हुआ कि मेरे को उस जिन्दा बाबा पर विश्वास नहीं हुआ कि उसने कहा था किसी भी सन्त महामण्डलेश्वर के पास यथार्थ अध्यात्म ज्ञान नहीं है। किसी भी सन्त महात्मा का ज्ञान प्रमाणित नहीं है। कोई शास्त्र का आधार नहीं है, तब धर्मदास रोने लगा।




अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करने लगा कि मैं कैसा कलमुँहा हूँ अर्थात् बुरी किस्मत वाला हूँ।
मुझे उस परमात्मास्वरुप जिन्दा महात्मा पर विश्वास नहीं आया। अब वह अन्तर्यामी मुझे नहीं मिलेगा क्योंकि मैंने कई बार उनका अपमान कर दिया। अब क्या करुँ, न जीने को मन करता है, आत्महत्या पाप है। बुरी तरह रोने लगा। पछाड़ खाकर अचेत हो गया।

परमात्मा जिन्दा महात्मा के रुप में एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी सचेत हुआ और हृदय से पुकार की कि हे जिन्दा! एक बार दर्शन दे दो। मैं टूट चुका हूँ। किसी के पास ज्ञान नहीं है। आपकी सर्व बातें सत्य हैं। परमात्मा एक बार मुझ अज्ञानी महामूर्ख को क्षमा करो परमेश्वर।
आप जिन्दा नहीं परमात्मा हो। आप महाविद्वान हो। आपके ज्ञान का कोई सामना करने वाला नहीं है। मैं जिन्दगी में कभी आप पर अविश्वास नहीं करुँगा। ऐसे विचार कर आगे चला तो देखा एक वृक्ष के नीचे एक साधु बैठा है, कुछ व्यक्ति उसके पास बैठे हैं। धर्मदास जी ने सोचा कि मैं तो उन महामण्डलेश्वरों से मिलकर आया हूँ। जिनके पास कई सैंकड़ों भक्त दर्शनार्थ बैठे रहते हैं।

इस छोटे साधु से क्या मिलना? परन्तु अपने आप मन में आया कि कुछ देर विश्राम करना है, यहीं कर लेता हूँ। फिर सोचा कि प्रश्न करता हूँ। पूछाः- हे महात्मा! जी परमात्मा कैसा है? साधु ने उत्तर दिया कि मैं ही परमात्मा हूँ। धर्मदास जी चुप हो गए, सोचा यह तो मजाक कर रहा है। यह तो सन्त भी नहीं है। धीरे-धीरे सर्व व्यक्ति चले गए। जब धर्मदास जी चलने लगे परमात्मा बोले कि हे महात्मा! क्या आपके मण्डलेश्वरों ने नहीं बताया कि परमात्मा कैसा है? धर्मदास जी ने आश्चर्य से देखा कि इस साधु को कैसे पता कि मैं कहाँ-कहाँ भटका हूँ? उसी समय परमात्मा ने वही जिन्दा बाबा वाला रुप बना लिया। धर्मदास जी चरणों में गिरकर बिलख-बिलखकर रोने लगा तथा कहा कि हे भगवन! किसी के पास ज्ञान नहीं है। मुझ पापी अवगुण हारे को क्षमा करो महाराज! मैंने बड़ी भारी भूल की है। आपने सृष्टि रचना का ज्ञान जो बताया है, उसके सामने सर्व सन्त का ज्ञान ऐसा है जैसे सूरज के सामने दीपक, सब ऊवा-बाई बकते हैं।

परमेश्वर ने धर्मदास जी से कहा कि आपने जिन वेदों के पूर्ण विद्वान से प्रश्न किया था कि ‘‘परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला कि परमात्मा निराकार है। आपने प्रश्न किया था कि क्या परमात्मा देखा जा सकता है? उस अज्ञानी का उत्तर था कि ‘‘जब परमात्मा निराकार है तो उसे देखने का प्रश्न ही नहीं है। परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।‘‘
विचार करो धर्मदास! यह विचार तो ऐसे व्यक्ति के हैं जैसे किसी नेत्रहीन से कोई प्रश्न करे कि सूर्य कैसा है? उत्तर मिला कि सूर्य निराकार है। फिर प्रश्न किया कि क्या सूर्य को देखा जा सकता है? उत्तर मिले कि सूर्य को नहीं देखा जा सकता, सूर्य का प्रकाश देखा जाता है। उस नेत्रहीन से पूछें कि सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा जा सकता है? इसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान नेत्रहीन अर्थात् पूर्ण अज्ञानी सन्त ऐसी व्याख्या किया करते हैं कि परमात्मा तो निराकार है, उसका प्रकाश कैसे देखा जा सकता है? परमात्मा का ही तो प्रकाश होगा। धर्मदास जी ने कहा कि हे महात्मा जी! यह विचार तो मेरे दिमाग में भी नहीं आया। आप जी के दिव्य तर्क से मेरी आँखें खुल गई। जितने भी महामण्डलेश्वर मिले हैं, वे सर्व महाअज्ञानी मिले हैं। हे जिन्दा महात्मा जी! यदि मैं आपके ज्ञान को सुनने के पश्चात् यदि इन मूर्खों से नहीं मिलता तो मेरा भ्रम निवारण कभी नहीं होता, चाहे आप जी कितने ही प्रमाण दिखाते और बताते।

प्रश्न (धर्मदास जी का) :- क्या पूर्ण मोक्ष के लिए भगवान विष्णु जी तथा भगवान शंकर जी की पूजा को छोड़ना पड़ेगा?
उत्तर (जिन्दा बाबा जी का) :- इन प्रभुओं को नहीं छोड़ना, इनकी पूजा छोड़नी होगी।
प्रश्न (धर्मदास जी का) :- हे जिन्दा! मैं समझा नहीं। इन विष्णु और शंकर प्रभुओं को नहीं छोड़ना और पूजा छोड़नी पड़ेगी। मेरी संकीर्ण बुद्धि है। मैं महाअज्ञानी प्राणी हूँ। कृप्या विस्तार से बताने (समझाने) की कृपा करें।

उत्तर :- (जिन्दा महात्मा जी का) : हे धर्मदास जी! आप इनकी साधना शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहे हो। जिससे आपजी को लाभ नहीं मिल रहा। इन देवताओं से लाभ लेने के साधना के मन्त्र मेरे पास हैं। जैसे भैंसा है, उसको भैंसा-भैंसा करते रहो, वह आपकी ओर नहीं देखेगा। उसका एक विशेष मन्त्र हुर्र-हुर्र, उसको सुनते ही वह तुरंत प्रभावित होता है और आवाज लगाने वाले की ओर खींचा चला आता है। इसी प्रकार इन सर्व आदरणीय देवताओं के निज मन्त्र हैं। जिनसे वे पूर्ण लाभ तथा तुरंत लाभ देते हैं। प्रिय पाठको! वही मन्त्र मेरे पास (संत रामपाल दास के पास) हैं जो परमेश्वर जी ने गुरू जी के माध्यम से मुझे दिए हैं, आओ और प्राप्त करो।

जैसा कि आपको बताया था (प्रश्न नं. 36 के उत्तर में वर्णन किया था) कि यह संसार एक वृक्ष जानो। परम अक्षर पुरुष इसकी जड़े मानो, अक्षर पुरुष तना जानो, क्षर पुरुष मोटी डार तथा तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) इस संसार रुपी वृक्ष की शाखाऐं जानों और पात रुप संसार।

यदि आप कहीं से आम का पौधा लेकर आए हो तो गढ्ढ़ा खोदकर उसकी जड़ों को उस गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाओगे और जड़ों की सिंचाई करोगे। तब वह आम का पेड़ बनेगा और उस वृक्ष की शाखाओं को फल लगेंगे। इसलिए वृक्ष की शाखाओं को तोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु इनको जड़ के स्थान पर गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाकर इनकी सिंचाई नहीं की जाती। ठीक इसी प्रकार संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को ईष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने से शास्त्रानुकूल साधना होती है जो परम लाभ देने वाली होती है। इस प्रकार किए गए भक्ति कर्मों का फल यही तीनों देवता (संसार वृक्ष की शाखाऐं) ही कर्मानुसार प्रदान करते हैं। इसलिए इनकी पूजा छोड़नी होती है। लेकिन इनको छोड़ा (तोड़ा) नहीं जा सकता। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 3 श्लोक 8 से 15 तक में भी है। कहा है कि हे अर्जुन! तू शास्त्रविहित कर्म कर अर्थात् शास्त्रों में जैसे भक्ति करने को कहा है, वैसा भक्ति कार्य कर। यदि घर त्यागकर जंगलों में चला गया अर्थात् तू कर्म सन्यासी हो गया या एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक साधना करने लगेगा तो तेरा शरीर पोषण का निर्वाह भी नहीं होगा। इसलिए कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना श्रेष्ठ है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 8)

जो साधक शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् शास्त्रनुकूल भक्ति कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों के बन्धन में बंधकर जन्म-मरण के चक्र में सदा रहता है। इसलिए हे कुन्तीपुत्र अर्जुन,!शास्त्रविरुद्ध भक्ति कर्म जो कर रहा है, उससे आसक्ति रहित होकर शास्त्रनुकूल भक्ति कर्म कर। (गीता अध्याय 3 श्लोक 9)

संसार की रचना करके प्रजापति (कुल के मालिक) ने सर्व प्रथम मनुष्यों की रचना करके साथ-साथ यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी का ज्ञान देते हुए इनसे कहा था कि तुम लोग इस तरह बताए शास्त्रनुकूल कर्मों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। इस प्रकार शास्त्रनुकूल की गई भक्ति तुम लोगों को इच्छित भोग प्राप्त कराने वाली हो। (गीता अध्याय 3 श्लोक 10)

इस प्रकार शास्त्रनुकूल भक्ति द्वारा अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ों (मूल अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म) की सिंचाई अर्थात् पूजा करके देवताओं अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की तीनों गुण रुपी शाखाओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) को उन्नत करो। वे देवता (संसार वृक्ष की शाखा तीनों देवता) आपको कर्मानुसार फल देकर उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे से उन्नत करके परम कल्याण अर्थात् पूर्णमोक्ष को प्राप्त हो जाओगे (गीता अध्याय 3 श्लोक 11)

शास्त्रविधि अनुसार किए गए भक्ति कर्मों अर्थात् यज्ञों द्वारा बढ़ाए हुए देवता अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् मूल मालिक (परम अक्षर ब्रह्म) को ईष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके भक्ति कर्म से बढ़ी हुई शाखाएं (तीनों देवता) तुम लोगों को बिना माँगे ही कर्मानुसार इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। जैसे आम के पौधे की जड़ की सिंचाई करने से पेड़ बनकर शाखाएं उन्नत हो गई। फिर उन शाखाओं को अपने आप फल लगेंगे। झड़-झड़कर गिरेंगे, व्यक्ति को जो कर्मानुसार धन प्राप्त होता है, वह उपरोक्त विधि से होता है। यदि कोई व्यक्ति उन देवताओं (शाखाओं) द्वारा दिए धन में से पुनः दान-पुण्य नहीं करता अर्थात् जो पुनः शास्त्रनुकूल साधना नहीं करता, केवल अपना ही पेट भरता है, स्वयं ही भोगता रहता है। वह तो परमात्मा का चोर ही है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 12)

शास्त्रनुकूल भक्ति की विधि में सर्वप्रथम परमात्मा को भोग लगाया जाता है। भण्डारा करना होता है। पहले परम अक्षर ब्रह्म को ईष्ट रुप में पूजकर भोग लगाकर शेष भोजन को भक्तों में बाँटा जाता है। उस बचे हुए अन्न को सत्संग में उपस्थित अच्छी आत्माएं ही खाती हैं क्योंकि पुण्यात्माएं ही परमात्मा के लिए समय निकालकर धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होते हैं। इसलिए कहा है कि उस यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सन्तजन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। जो पापी लोग होते हैं, जो तत्त्वदर्शी सन्त के सत्संग में नहीं जाते, उनको ज्ञान नहीं होता। वे पापात्मा अपना शरीर पोषण करने के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं क्योंकि भोजन खाने से पहले हम भक्त-सन्त सब परम अक्षर ब्रह्म को भोग लगाते हैं। जिस से सारा भोजन पवित्र प्रसाद बन जाता है, जो ऐसा नहीं करते, वे परमात्मा के चोर हैं। भगवान को भोग न लगा हुआ भोजन पाप का भोजन होता है। इसलिए कहा है जो धर्म-कर्म शास्त्रानुकूल नहीं करते, वे पाप के भागी होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 13)

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ अर्थात् शास्त्रनुकूल धार्मिक अनुष्ठान से होती है। यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान शास्त्रानुकूल कर्मों से होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 14) कर्म तो ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष से उत्पन्न हुए हैं क्योंकि जहाँ सर्व प्राणी सनातन परम धाम में रहते थे। वहाँ पर बिना कर्म किए सर्व सुख व पदार्थ उपलब्ध थे। यहाँ के सर्व प्राणी अपनी गलती से क्षर पुरुष के साथ आ गए। अब सबको कर्म का फल ही प्राप्त होता है। कर्म करके ही निर्वाह होता है। इसलिए कहा है कि कर्म को ब्रह्म (क्षर पुरुष) से उत्पन्न जान और ब्रह्म को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न जान। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ नं. 603 पर।)

(नोट : इस श्लोक में ‘‘अक्षर’’ शब्द का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है। परन्तु जहाँ क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष का वर्णन है, वहाँ अक्षर पुरुष व क्षर पुरुष दोनों नाशवान कहे हैं। वहाँ पर अक्षर का अर्थ वही ठीक है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में वर्णन है, यहाँ ‘अक्षर’ का अर्थ अविनाशी परमात्मा है क्योंकि सृष्टि रचना से स्पष्ट होता है कि ब्रह्म की उत्पत्ति सत्यपुरुष (अविनाशी परमात्मा) ने की थी।) इससे सिद्ध हुआ कि (सर्वगतम् ब्रह्म) अर्थात् जिस परमात्मा की पहुँच सर्व ब्रह्माण्डों में है, जो सर्व का मालिक है, वह परमात्मा सदा ही यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतिष्ठित है। भावार्थ है कि परम अक्षर ब्रह्म को ईष्टदेव रुप में प्रतिष्ठित करके धार्मिक अनुष्ठान अर्थात् यज्ञ करने से शास्त्रविधि अनुसार कर्म करने से साधक को भक्ति लाभ मिलता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है।

पौधे की शाखाओं को गढ्ढे़ में जमीन में लगाकर दिखाया गया है कि जो तीनों देवों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) में से किसी की भी पूजा करता है, वह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में अनुचित तथा व्यर्थ बताया है। जिसने सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की पूजा नहीं की, उसको ईष्ट रुप में नहीं पूजा, जिस कारण से उस साधक की साधना व्यर्थ है। शाखाओं को सींचने से पौधा नष्ट हो जाता है। अन्य देवताओं की पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20-23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 20 से 23 में मना किया हुआ है।
इसलिए हे धर्मदास! श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिवजी को नहीं छोड़ना है। इनकी पूजा ईष्ट रुप में करते हो, वह छोड़नी है। तभी भक्त का पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

प्रश्न :- (धर्मदास जी का) हे जिन्दा! आप जी ने तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति करने वालों की दशा तो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा अध्याय 9 श्लोक 23 में प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की भक्ति करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) को भी नहीं भजते। अन्य देवताओं की भक्ति पूजा करने वालों का सुख समय (स्वर्ग समय) क्षणिक होता है। स्वर्ग की प्राप्ति करके शीघ्र ही पृथ्वी पर जन्म धारण करते हैं। हे महात्मा जी! कृपया कोई संसार में हुए बर्ताव से ऐसा प्रकरण सुनाइए जिससे आप जी की बताई बातों की सत्यता का प्रमाण मिले।



उत्तर :- (जिन्दा जगदीश का) :- रजगुण ब्रह्मा के उपासकों का चरित्र : एक हिरण्यकश्यप ब्राह्मण राजा था। किसी कारण उसको भगवान विष्णु (सतगुण) से ईर्ष्या हो गई। उस राजा ने रजगुण ब्रह्मा जी देवता को भक्ति करके प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने कहा कि पुजारी! माँगो क्या माँगना चाहते हो? हिरण्यकश्यप ने माँगा कि सुबह मरूँ न शाम मरुँ, बाहर मरूँ न भीतर मरूँ, दिन मरूँ न रात मरुँ, बारह मास में न मरुँ, न आकाश में मरुँ, न धरती पर मरुँ। ब्रह्माजी ने कहा तथास्तु। इसके पश्चात् हिरण्यकश्यप ने अपने आपको अमर मान लिया और अपना नाम जाप करने को कहने लगा। जो विष्णु का नाम जपता, उसको मार देता। उसका पुत्र प्रहलाद विष्णु जी की भक्ति करता था। उसको कितना सताया था। हे धर्मदास! कथा से तो आप परिचित हैं। भावार्थ है कि रजगुण ब्रह्मा का भक्त राक्षस कहलाया, कुत्ते वाली मौत मारा गया।
तमगुण शिवजी के उपासकों का चरित्र : लंका के राजा रावण ने तमगुण शिव की भक्ति की थी। उसने अपनी शक्ति से 33 करोड़ देवताओं को कैद कर रखा था। फिर देवी सीता का अपहरण कर लिया। इसका क्या हश्र हुआ, आप सब जानते हैं। तमगुण शिव का उपासक रावण राक्षस कहलाया, सर्वनाश हुआ। निंदा का पात्र बना।

अन्य उदाहरण :- आप जी को भस्मासुर की कथा का तो ज्ञान है ही। भगवान शिव (तमोगुण) की भक्ति भस्मागिरी करता था। वह बारह वर्षों तक शिव जी के द्वार के सामने ऊपर को पैर नीचे को सिर (शीर्षासन) करके भक्ति तपस्या करता रहा। एक दिन पार्वती जी ने कहा हे महादेव! आप तो समर्थ हैं। आपका भक्त क्या माँगता है? इसे प्रदान करो प्रभु। भगवान शिव ने भस्मागिरी से पूछा बोलो भक्त क्या माँगना चाहते हो। मैं तुझ पर अति प्रसन्न हूँ। भस्मागिरी ने कहा कि पहले वचनबद्ध हो जाओ, तब माँगूंगा। भगवान शिव वचनबद्ध हो गए। तब भस्मागिरी ने कहा कि आपके पास जो भस्मकण्डा(भस्मकड़ा) है, वह मुझे प्रदान करो। शिव प्रभु ने वह भस्मकण्डा भस्मागिरी को दे दिया। कड़ा हाथ में आते ही भस्मागिरी ने कहा कि होजा शिवजी होशियार! तेरे को भस्म करुँगा तथा पार्वती को पत्नी बनाउँगा। यह कहकर अभद्र ढ़ंग से हँसा तथा शिवजी को मारने के लिए उनकी ओर दौड़ा। भगवान शिव उस दुष्ट का उद्देश्य जानकर भाग निकले। पीछे-पीछे पुजारी आगे-आगे ईष्टदेव शिवजी (तमगुण) भागे जा रहे थे। विचार करें धर्मदास! यदि आपके देव शिव जी अविनाशी होते तो मृत्यु के भय से नहीं डरते।

आप इनको अविनाशी कहा करते थे। आप इन्हें अन्तर्यामी भी कहते थे। यदि भगवान शिव अन्तर्यामी होते तो पहले ही भस्मागिरी के मन के गन्दे विचार जान लेते। इससे सिद्ध हुआ कि ये तो अन्तर्यामी भी नहीं हैं। जिस समय भगवान शिव जी आगे-आगे और भस्मागिरी पीछे-पीछे भागे जा रहे थे, उस समय भगवान शिव ने अपनी रक्षा के लिए परमेश्वर को पुकारा। उसी समय ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ जी पार्वती का रुप बनाकर भस्मागिरी दुष्ट के सामने खड़े हो गए तथा कहा हे भस्मागिरी! आ मेरे पास बैठ। भस्मागिरी को पता था कि अब शिवजी निकट स्थान पर नहीं रुकेंगे। भस्मागिरी तो पार्वती के लिए ही तो सर्व उपद्रव कर रहा था। हे धर्मदास! आपको सर्व कथा का पता है। पार्वती रुप में परमात्मा ने भस्मागिरी को गण्डहथ नाच नचाकर भस्म किया। तमोगुण शिव का पुजारी भस्मागिरी अपने गन्दे कर्म से भस्मासुर अर्थात् भस्मा राक्षस कहलाया। इसलिए इन तीनों देवों के पुजारियों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख कहा है। अब सतगुण श्री विष्णु जी के पुजारियों की कथा सुनाता हूँ।

एक समय हरिद्वार में हर की पोडि़यों पर कुंभ का मेला लगा। उस अवसर पर तीनों गुणों के उपासक अपने-अपने समुदाय में एकत्रित हो जाते है। गिरी, पुरी, नागा-नाथ ये भगवान तमोगुण शिव के उपासक होते हैं तथा वैष्णव सतगुण भगवान विष्णु जी के उपासक होते हैं। हर की पोडि़यों पर प्रथम स्नान करने पर दो समुदायों ‘‘नागा तथा वैष्णवों‘‘ का झगड़ा हो गया। लगभग 25 हजार त्रिगुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) के पुजारी लड़कर मर गये, कत्लेआम कर दिया। तलवारों, छुरों, कटारी से एक-दूसरे की जान ले ली।

सूक्ष्मवेद में कहा है किः-

तीर तुपक तलवार कटारी, जमधड़ जोर बधावैं हैं। हर पैड़ी हर हेत नहीं जाना, वहाँ जा तेग चलावैं हैं।।
काटैं शीश नहीं दिल करुणा, जग में साध कहावैं हैं। जो जन इनके दर्शन कूं जावैं, उनको भी नरक पठावैं हैं।।
हे धर्मदास! उपरोक्त सत्य घटनाओं से सिद्ध हुआ कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी की पूजा करने वालों को गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख कहा है। परमेश्वर जिन्दा जी के मुख कमल से उपरोक्त कथा सुनकर धर्मदास जी का सिर फटने को हो गया। चक्कर आने लगे। हिम्मत करके धर्मदास बोला हे प्रभु! आपने तो मुझ ज्ञान के अँधे को आँखें दे दी दाता। उपरोक्त सर्व कथायें हम सुना तथा पढ़ा करते थे परन्तु कभी विचार नहीं आया कि हम गलत रास्ते पर चल रहे हैं। आपका सौ-सौ बार धन्यवाद। आप जी ने मुझ पापी को नरक से निकाल दिया प्रभु!

प्रश्न :- (धर्मदास जी का) : हे जिन्दा महात्मा! आपने बताया और गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में मैंने भी आँखों देखा जिसमें गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने अपनी साधना से होने वाली गति को अनुत्तम अर्थात् घटिया बताया है। उसको भी इसी तरह स्पष्ट करने की कृपया करें। कोई कथा प्रसंग सुनाएं।
उत्तर :- (जिन्दा बाबा वेशधारी परमेश्वर का)

गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूं। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्त्वदर्शी सन्त से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर फिर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व संसार की उत्पत्ति की है। उसी परमेश्वर की भक्ति कर। फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशांति तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। हे धर्मदास! जब तक जन्म-मरण रहेगा, तब तक परमशान्ति नहीं हो सकती और न ही सनातन परम धाम प्राप्त हो सकता। वास्तव में परमगति उसको कहते हैं जिसमें जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाए जो ब्रह्म साधना से कभी नहीं हो सकती। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि जो ज्ञानी आत्मा हैं, मेरे विचार में सब नेक हैं। परन्तु वे सब मेरी अनुत्तम (घटिया) गति में ही लीन हैं क्योंकि वे मेरी (ब्रह्म की) भक्ति कर रहे हैं।

ब्रह्म की साधना का ‘‘ऊँ‘‘ मन्त्र है। इससे ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट है कि ब्रह्मलोक में गए हुए साधक भी पुनः लौटकर संसार में आते हैं। इसलिए उनको परमशान्ति नहीं हो सकती, सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हो सकता। वेदों में वर्णित साधना से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जिनके द्वारा ऋषिजन चमत्कार करके किसी को हानि करके प्रसिद्ध हो जाते हैं। अंत में पाप के भागी होकर चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाते रहते हैं। इसलिए ब्रह्म साधना से होने वाली गति अर्थात् उपलब्धि अनुत्तम (घटिया) कही है।
कथा प्रसंग : गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में बताया है कि मेरी भक्ति चार प्रकार के भक्त करते हैं - 1. आर्त (संकट निवारण के लिए) 2. अर्थार्थी (धन लाभ के लिए), 3. जिज्ञासु (जो ज्ञान प्राप्त करके वक्ता बन जाते हैं) और 4. ज्ञानी (केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति करने वाले)। इनमें से तीन को छोड़कर चौथे ज्ञानी को अपना पक्का भक्त गीता ज्ञान दाता ने बताया है।

 ज्ञानी की विशेषता

ज्ञानी वह होता है जिसने जान लिया है कि मनुष्य जीवन केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही प्राप्त होता है। उसको यह भी ज्ञान होता है कि पूर्ण मोक्ष के लिए केवल एक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उन ज्ञानी आत्माओं को गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में वर्णित तत्त्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण उन्होंने वेदों से स्वयं निष्कर्ष निकाल लिया कि ‘‘ब्रह्म’’ समर्थ परमात्मा है, ओम् (ऊँ) इसकी भक्ति का मन्त्र है। इस साधना से ब्रह्मलोक प्राप्त हो जाता है। यही मोक्ष है।
ज्ञानी आत्माओं ने परमात्मा प्राप्ति के लिए हठयोग किया। एक स्थान पर बैठकर घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। जबकि वेदों व गीता में हठ करने, घोर तप करने वाले मूर्ख दम्भी तथा राक्षस बताए हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 9 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6)। इनको हठयोग करने की प्रेरणा कहाँ से हुई? श्री देवीपुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप) के तीसरे स्कंद में लिखा है कि ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद को बताया कि जिस समय मेरी उत्पत्ति हुई, मैं कमल के फूल पर बैठा था। आकाशवाणी हुई कि तप करो-तप करो। मैंने एक हजार वर्ष तक तप किया।




हे धर्मदास! ब्रह्माजी को वेद तो बाद में सागर मन्थन में मिले थे। उनको पढ़ा तो यजुर्वेद अध्याय 40 के मन्त्र 15 में ‘ओम्’’ नाम मिला। उसका जाप तथा आकाशवाणी से सुना हठयोग (घोर तप) दोनों मिलाकर ब्रह्मा जी स्वयं करने लगे तथा अपनी सन्तानों (ऋषियों) को बताया। वही साधना ज्ञानी आत्मा ऋषिजन करने लगे। उन ज्ञानी आत्माओं में से एक चुणक ऋषि का प्रसंग सुनाता हूँ जिससे आपके प्रश्न का सटीक उत्तर मिल जाएगाः- एक चुणक नाम का ऋषि था। उसने हजारों वर्षों तक घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। यह ब्रह्म की भक्ति है। ब्रह्म ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं किसी साधना यानि न जप से, न तप से, न वेदों में वर्णित यज्ञों से मेरे स्वरूप के दर्शन हो सकते अर्थात् किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि हे अर्जुन! तूने मेरे जिस रुप के दर्शन किए अर्थात् मेरा यह काल रुप देखा, यह मेरा स्वरुप है। इसको न तो वेदों में वर्णित विधि से देखा जा सकता, न किसी जप से, न तप से, न यज्ञ से तथा न किसी क्रिया से देखा जा सकता। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 24,25 में स्पष्ट किया है कि यह मेरा अविनाशी विधान है कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। ये मूर्ख लोग मुझे मनुष्य रूप अर्थात् कृष्ण रूप में मान रहे हैं। जो सामने सेना खड़ी थी, उसकी ओर संकेत करके गीता ज्ञान दाता कह रहा था। कहने का भाव था कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अब तेरे ऊपर अनुग्रह करके यह अपना रूप दिखाया है।

कथनी और करनी में अंतर

प्रश्न :- (जिन्दा बाबा परमेश्वर जी का) : आप जी ने कहा है कि हम शुद्र को निकट भी नहीं बैठने देते, शुद्ध रहते हैं। इससे भक्ति में क्या हानि होती है?
उत्तर :- (धर्मदास जी का) :- शुद्र के छू लेने से भक्त अपवित्र हो जाता है, परमात्मा रुष्ट हो जाता है, आत्मग्लानि हो जाती है। हम ऊँची जाति के वैश्य हैं।
प्रश्न तथा स्पष्टीकरण (बाबा जिन्दा ने किया) :- यह शिक्षा किसने दी? धर्मदास जी ने कहा हमारे धर्मगुरु बताते हैं, आचार्य, शंकराचार्य तथा ब्राह्मण बताते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास को बताया (उस समय तक धर्मदास जी को ज्ञान नहीं था कि आपसे वार्ता करने वाला ही कबीर जुलाहा है) कि कबीर जुलाहा एक बार स्वामी रामानन्द पंडित जी के साथ तोताद्रिक नामक स्थान पर सत्संग-भण्डारे में गया। वह स्वामी रामानन्द जी का शिष्य है। सत्संग में मुख्य पण्डित आचार्यों ने बताया कि भगवान राम ने शुद्र भिलनी के झूठे बेर खाए। भगवान तो समदर्शी थे। वे तो प्रेम से प्रसन्न होते हैं। भक्त को ऊँचे-नीचे का अन्तर नहीं देखना चाहिए, श्रद्धा देखी जाती है। लक्ष्मण ने सबरी को शुद्र जानकर ग्लानि करके बेर नहीं खाये, फैंक दिए, बाद में वे बेर संजीवन बूटी बने।




रावण के साथ युद्ध में लक्ष्मण मुर्छित हो गया। तब हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत को उठाकर लाए जिस पर संजीवन बूटी उन झूठे बेरों से उगी थी। उस बूटी को खाने से लक्ष्मण सचेत हुआ, जीवन रक्षा हुई। ऐसी श्रद्धा थी सबरी की भगवान के प्रति। किसी की श्रद्धा को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। सत्संग के तुरन्त बाद लंगर (भोजन-भण्डारा) शुरु हुआ। पण्डितों ने पहले ही योजना बना रखी थी कि स्वामी रामानन्द ब्राह्मण के साथ शुद्र जुलाहा कबीर आया है। वह स्वामी रामानन्द का शिष्य है। रामानन्द जी के साथ खाना खाएगा। हम ब्राह्मणों की बेईज्जती होगी। इसलिए दो स्थानों पर लंगर शुरु कर दिया। जो पण्डितों के लिए भण्डार था। उसमें खाना खाने के लिए एक शर्त रखी कि जो पण्डितां वाले भण्डारे में खाना खाएगा, उसको वेदों के चार मन्त्र सुनाने होंगे। जो मन्त्र नहीं सुना पाएगा, वह सामान्य भण्डारे में भोजन खाएगा। उनको पता था कि कबीर जुलाहा काशी वाला तो अशिक्षित है शुद्र है।

उसको वेद मन्त्र कहाँ से याद हो सकते हैं? सब पण्डित जी चार-चार वेद मन्त्र सुना-सुनाकर पण्डितों वाले भोजन-भण्डारे में प्रवेश कर रहे थे। पंक्ति लगी थी। उसी पंक्ति में कबीर जुलाहा (धाणक) भी खड़ा था। वेद मन्त्र सुनाने की कबीर जी की बारी आई। थोड़ी दूरी पर एक भैंसा (झोटा) घास चर रहा था। कबीर जी ने भैंसे को पुकारा। कहा कि हे भैंसा पंडित! कृपया यहाँ आइएगा। भैंसा दौड़ा-दौड़ा आया। कबीर जी के पास आकर खड़ा हो गया। कबीर जी ने भैंसे की कमर पर हाथ रखा और कहा कि हे विद्वान भैंसे! वेद के चार मन्त्र सुना। भैंसे ने (1) यजुर्वेद अध्याय 5 का मन्त्र 32 सुनाया जिसका भावार्थ भी बताया कि जो परम शान्तिदायक (उसिग असि), जो पाप नाश कर सकता है (अंघारि), जो बन्धनों का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ है = बम्भारी, वह ‘‘कविरसि’’ कबीर है। स्वर्ज्योति = स्वयं प्रकाशित अर्थात् तेजोमय शरीर वाला ‘‘ऋतधामा’’ = सत्यलोक वाला अर्थात् वह सत्यलोक में निवास करता है। ‘‘सम्राटसि’’ = सब भगवानों का भी भगवान अर्थात् सर्व शक्तिमान समा्रट यानि महाराजा है।

(2) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26 सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा ऊपर के लोक से गति (प्रस्थान) करके आता है, नेक आत्माओं को मिलता है। भक्ति करने वालों के संकट समाप्त करता है। वह कर्विदेव (कबीर परमेश्वर) है।
(3) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17 सुनाया जिसका भावार्थ है कि (‘‘कविः‘‘ = कविर) परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्त्वज्ञान प्रचार करता है। कविर्वाणी (कबीर वाणी) कहलाती है। सत्य आध्यात्मिक ज्ञान (तत्त्वज्ञान) को कबीर परमात्मा लोकोक्तियों, दोहों, शब्दों, चौपाइयों व कविताओं के रुप में पदों में बोलता है।

(4) ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1 भी सुनाया। जिसका भावार्थ है कि परमात्मा कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है। भैंसा फिर बोलता है कि भोले पंडितो जो मेरे पास इस पंक्ति में जो मेरे ऊपर हाथ रखे खड़ा है, यह वही परमात्मा कबीर है जिसे लोग ‘‘कवि’’ कहकर पुकारते हैं। इन्हीं की कृपा से मैं आज मनुष्यों की तरह वेद मन्त्र सुना रहा हूँ।

कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि भैंसा पंडित आप पंडितो वाले लंगर में प्रवेश करके भोजन ग्रहण करें। मैं तो शुद्र हूँ, अशिक्षित हूँ। इसलिए आम जनता के लिए लगे लंगर मैं भोजन करने जाता हूँ। उसी समय सर्व पंडित जो भैंसे को वेदमन्त्र बोलते देखकर एकत्रित हो गए थे। कबीर जी के चरणों में गिर गए तथा अपनी भूल की क्षमा याचना की। परमेश्वर कबीर जी ने कहा :-

करनी तज कथनी कथैं, अज्ञानी दिन रात । कुकर ज्यों भौंकत फिरें सुनी सुनाई बात ।। सत्संग में तो कह रहे थे कि भगवान रामचन्द्र जी ने शुद्र जाति की सबरी (भीलनी) के झूठे बेर रुचि-रुचि खाए, कोई छुआछूत नहीं की और स्वयं को तुम परमात्मा से भी उत्तम मानते हो। कहते हो, करते नहीं। एक-दूसरे से सुनी-सुनाई बात कुत्ते की तरह भौंकते रहते हो। सर्व उपस्थित पंडितों सहित हजारों की सँख्या में कबीर जुलाहे के शिष्य बने, दीक्षा ली। शास्त्रविरुद्ध भक्ति त्यागकर, शास्त्रविधि अनुसार भक्ति शुरु की, आत्म कल्याण करवाया।

चौथी बार धर्मदास जी को मिले कबीर साहेब

तीसरे दिन भी दो पहर तक में जिन्दा बाबा नहीं आए। धर्मदास जी ने दृढ़ निश्चय करके कहा कि यदि आज जिन्दा बाबा नहीं आए तो मैं आत्महत्या करुँगा, ऐसे जीवन से मरना भला। परमात्मा तो अन्तर्यामी हैं। जान गए कि आज भक्त पक्का मरेगा। उसी समय कुछ दूरी पर कदंब का पेड़ था। उसके नीचे उसी जिन्दा वाली वेशभूषा में बैठे धर्मदास को दिखाई दिए। धर्मदास दौड़कर गया, ध्यानपूर्वक देखा, जिन्दा महात्मा के गले से लग गया। अपनी गलती की क्षमा माँगी। कभी ऐसी गलती न करने का बार-बार वचन किया।

तब परमात्मा धर्मदास के घर में गए। आमिनी तथा धर्मदास दोनों ने बहुत सेवा की, दोनों ने दीक्षा ली। परमात्मा ने जिन्दा रुप में उनको प्रथम मन्त्र की दीक्षा दी। कुछ दिन परमेश्वर उनके बाग में रहे। फिर एक दिन धर्मदास ने ऐसी ही गलती कर दी, परमात्मा अचानक गायब हो गए।




धर्मदास जी ने अपनी गलती को घना (बहुत) महसूस किया। खाना-पीना त्याग दिया, प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक दर्शन नहीं दोगे, पीना-खाना बन्द। धर्मदास शरीर से बहुत दुर्बल हो गए। उठा-बैठा भी नहीं जाता था। छठे दिन परमात्मा आए। धर्मदास को अपने हाथों उठाकर गले से लगाया। अपने हाथों खाना खिलाया। धर्मदास ने पहले चरण धोकर चरणामृत लिया। फिर ज्ञान चर्चा शुरु हुई। धर्मदास जी ने पूछा कि आप जी को इतना ज्ञान कैसे हुआ?
परमेश्वर जी ने कहा कि मुझे सतगुरु मिले हैं। वे काशी शहर में रहते हैं। उनका नाम कबीर है। वे तो स्वयं परमेश्वर हैं। सतगुरु का रुप बनाकर लीला कर रहे हैं, जुलाहे का कार्य करते हैं।

उन्होंने मुझे सतलोक दिखाया, वह लोक सबसे न्यारा है। वहाँ जो सुख है, वह स्वर्ग में भी नहीं है। सदाबहार फलदार वृक्ष, सुन्दर बाग, दूधों की नदियाँ बहती हैं। सुन्दर नर-नारी रहते हैं। वे कभी वृद्ध नहीं होते। कभी मृत्यु नहीं होती। जो सतगुरु से तत्त्वज्ञान सुनकर सत्यनाम की प्राप्ति करके भक्ति करता है, वह उस परमधाम को प्राप्त करता है। इसी का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी है। धर्मदास जी ने हठ करके कहा कि हे महाराज! मुझे वह अमर लोक दिखाने की कृपा करें ताकि मेरा विश्वास दृढ़ हो। परमेश्वर जी ने कहा कि आप भक्ति करो। जब शरीर त्यागकर जाएगा तो उस लोक को प्राप्त करेगा। धर्मदास जी के अधिक आग्रह करने पर परमेश्वर जिन्दा ने कहा कि चलो आपको सत्यलोक ले चलता हूँ। धर्मदास की आत्मा को निकालकर ऊपर सत्यलोक में ले गए। परमेश्वर के दरबार के द्वार पर एक सन्तरी खड़ा था। जिन्दा बाबा के रुप में खड़े परमेश्वर ने द्वारपाल से कहा कि धर्मदास को परमेश्वर के दर्शन करा के लाओ।

द्वारपाल ने एक अन्य हंस (सतलोक में भक्त को हंस कहते हैं) से कहा कि धर्मदास को परमेश्वर के सिंहासन के पास ले जाओ, सत्यपुरुष के दर्शन करा के लाओ। वहाँ पर बहुत सारे हंस (भक्त) तथा हंसनी (नारी-भक्तमति) इकट्ठे होकर नाचते-गाते धर्मदास जी को सम्मान के साथ लेकर चले। सब हंसो तथा नारियों ने गले में सुन्दर मालाएं पहन रखी थी। उनके शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों के समान था। जब धर्मदास जी ने तख्त (सिंहासन) पर बैठे सत्य पुरुष जी को देखा तो वही स्वरुप था जो धरती पर जिन्दा बाबा के रुप में था। परन्तु यहाँं पर परमेश्वर के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चन्द्रमा के प्रकाश से भी कहीं अधिक था। जिन्दा रूप में नीचे से गए परमात्मा तख्त पर विराजमान अपने ही दूसरे स्वरूप पर चँवर करने लगा। धर्मदास ने सोचा कि जिन्दा तो इस परमेश्वर का सेवक होगा।

परन्तु सूरत मिलती-जुलती है। कुछ देर में तख्त पर बैठा परमात्मा खड़ा हुआ तथा जिन्दा सिंहासन पर बैठ गया। तेजोमय शरीर वाले प्रभु जिन्दा के शरीर में समा गया। धर्मदास शर्म के मारे पानी-पानी हो गया। अपने आपको कोसने लगा कि मैं कैसा दुष्ट हूँ। मैंने परमेश्वर को कितना दुःखी किया, कितना अपमानित किया। मुझे वहाँ विश्वास नहीं हुआ। जब दर्शन करवाकर सतलोक के भक्त वापिस लाए। तीन दिन तक परमात्मा के सत्यलोक में रहा। उधर से धर्मदास को तीन दिन से अचेत देखकर घर, गाँव तथा रिश्तेदार व मित्र बान्धवगढ़ में धर्मदास जी के घर पर इकट्ठे हो गए। कोई झाड़-फूँक करा रहा था। कोई वैध से उपचार करा रहा था, परन्तु सब उपाय व्यर्थ हो चुके थे। किसी को आशा नहीं रही थी कि धर्मदास जिन्दा हो जाएगा। तीसरे दिन परमात्मा ने उसकी आत्मा को शरीर में प्रवेश कर दिया।

धर्मदास जी को उस बाग से उठाकर घर ले गए थे। जहाँ से परमात्मा उसको सत्यलोक लेकर गए थे। धर्मदास सचेत हो गया था। धर्मदास जी सचेत होते ही उस बाग में उसी स्थान पर गए तो वही परमात्मा जिन्दा बाबा के रुप में बैठे थे।
धर्मदास जी चरणों में गिर गए और कहने लगे हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो प्रभु! :-

‘‘अवगुण मेरे बाप जी, बख्सो गरीब निवाज’’। जो मैं पूत कुपुत हूँ, बहुर पिता को लाज’’

मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि आप परमात्मा हैं, आप परम अक्षर ब्रह्म हैं। कभी-कभी आत्मा तो कहती थी कि पूर्ण ब्रह्म के बिना ऐसा ज्ञान पृथ्वी पर कौन सुना सकता है, परन्तु मन तुरन्त विपरीत विचार खड़े कर देता था। हे सत्य पुरुष! आपने अपने शरीर की वह शोभा जो सत्यलोक में है, यहाँ क्यों प्रकट नहीं कर रखी?

परमेश्वर जी ने कहा कि धर्मदास! यदि मैं उसी प्रकाशयुक्त शरीर से इस काल लोक में आ जाऊँ तो क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन भी इसी को कहते हैं) व्याकुल हो जाए। मैं अपना सर्व कार्य गुप्त करता हूँ। यह मुझे एक सिद्धी वाला सन्त मानता है। लेकिन इसको यह नहीं मालूम कि मैं कहाँ से आया हूँ? कौन हूँ? परमेश्वर ने धर्मदास से प्रश्न किया कि आपको कैसा लगा मेरा देश? धर्मदास बोले कि हे परमेश्वर इस संसार में अब मन नहीं लग रहा। उस पवित्रा स्थान के सामने तो यह काल का सम्पूर्ण लोक (21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र) नरक के समान लग रहा है। जन्म-मरण यहाँ का अटल विधान है। चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन भोगना भी अनिवार्य है। प्रत्येक प्राणी इसी आशा को लेकर जीवित हैं कि अभी नहीं मरुंगा परन्तु फिर भी कभी भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। प्रत्येक प्राणी एक-दूसरे से कपट से बातें करता है। लेकिन आपके सत्यलोक में सब व्यक्ति प्यार से बातें करते हैं। निष्कपट व्यवहार करते हैं। मैंने तीनों दिन यही जाँच की थी।
धर्मदास जी यदि घर उपस्थित स्वजनों को न देखते जो उसके अचेत होने के साक्षी थे तो समझते कि कोई स्वप्न देखा होगा। परन्तु अब दृढ़ निश्चय हो गया था।

क्या गुरू बदल सकते हैं?

प्रश्न (धर्मदास जी का) :- हे प्रभु क्या गुरु बदल सकते हैं? सुना है सन्तों से कि गुरु नहीं बदलना चाहिए। गुरु एक, ज्ञान अनेक।
उत्तर (सत्यपुरुष का) :- जब तक गुरु मिले नहीं साचा, तब तक गुरु करो दस पाँचा।

कबीर झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न लागै वार। द्वार न पावै मोक्ष का, रह वार का वार।।

भावार्थ : जब तक सच्चा गुरु (सतगुरु) न मिले, तब तक गुरु बदलते रहना चाहिए। चाहे कितने ही गुरु क्यों न बनाने पड़ें और बदलने पड़ें। झूठे गुरु को तुरन्त त्याग देना।

कबीर, डूबै थे पर उभरे, गुरु के ज्ञान चमक। बेड़ा देखा जरजरा, उतर चले फड़क।।

भावार्थ : जिस समय मुझे सत्य गुरु मिले, उनके ज्ञान के प्रकाश से पता चला कि हमारा ज्ञान और समाधान (साधना) गलत है तो ऐसे गुरु बदल दिया जैसे किसी डर से पशु फड़क कर बहुत तेज दौड़ता है और जैसे रात्रि में सफर कर रहे यात्रियों को सुबह प्रकाश में पता चले कि जिस नौका में हम सवार हैं, उसमें पानी प्रवेश कर रहा है और साथ में सुरक्षित और साबत नौका खड़ी है तो समझदार यात्रा जिसने कोई नशा न कर रखा हो, वह तुरंत फूटी नौका को त्यागकर साबत (सुरक्षित) नौका में बैठ जाता है। मैंने जब काशी में कबीर जी सच्चे गुरु का यह ज्ञान सुना जो आपको सुनाया है तो जाति, धर्म को नहीं देखा। उसी समय सत्यगुरु की शरण में चला गया और दीक्षा मन्त्र लेकर भक्ति कर रहा हूँ। सतगुरु ने मुझे दीक्षा देने का आदेश दे रखा है। हे धर्मदास! विचार कीजिए यदि एक वैध से रोगी स्वस्थ नहीं होता तो क्या अन्य डॉक्टर के पास नहीं जाता?

क्या गुरू बदल सकते हैं



धर्मदास ने कहा कि जाता है, जाना भी चाहिए, जीवन रक्षा करनी चाहिए। परमेश्वर ने कहा कि इसी प्रकार मनुष्य जन्म जीव कल्याण के लिए मिलता है। जीव को जन्म-मरण का दीर्घ रोग लगा है। यह सत्यनाम तथा सारनाम बिना समाप्त नहीं हो सकता। दोनों मंत्रा काशी में सतगुरु कबीर रहते हैं, उनसे मिलते हैं, पृथ्वी पर और किसी के पास नहीं हैं। आप काशी में जाकर दीक्षा लेना, आपका कल्याण हो जाएगा क्योंकि सत्यगुरु के बिना मेरा वह सत्यलोक प्राप्त नहीं हो सकता।
धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु! मैंने गुरु रुपदास जी से दीक्षा ले रखी है। मैं पहले उनसे गुरु बदलने की आज्ञा लूँगा, यदि वे कहेंगे तो मैं गुरु बदलूंगा परन्तु धर्मदास की मूर्खता की हद देखकर परमेश्वर सातवीं बार अन्तर्ध्यान हो गए। धर्मदास जी फिर व्याकुल हो गए। पहले रुपदास जी के पास गए जो श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु जी के पुजारी थे। जो वैष्णव पंथ से जुड़े थे।

धर्मदास जी ने सन्त रुपदास जी से सर्व घटना बताई तथा गुरु बदलने की आज्ञा चाही। सन्त रुपदास जी अच्छी आत्मा के इन्सान थे। उन्होंने कहा बेटा धर्मदास! जो ज्ञान आपने सुना है जिस जिन्दा बाबा से, यह ज्ञान भगवान ही बता सकता है। मेरी तो आयु अधिक हो गई है। मैं तो इस मार्ग को त्याग नहीं सकता। आपकी इच्छा है तो आप उस महात्मा से दीक्षा ले सकते हो।

तब धर्मदास जी काशी में गए, वहाँ पर कबीर जुलाहे की झोंपड़ी का पता किया। वहाँ कपड़ा बुनने का कार्य करते कबीर परमेश्वर को देखकर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। खुशी भी अपार हुई कि सतगुरु तथा परमेश्वर यही है। तब उनसे दीक्षा ली और अपना कल्याण करवाया। कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को फिर दो अक्षर (जिस में एक ओम् ऊँ मन्त्र है तथा दूसरा तत् जो सांकेतिक है) का सत्यनाम दिया। फिर सारनाम देकर सतलोक का वासी किया।

कुछ विशेष जानने योग्य

परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सर्व पुराणों, रामायण, गीता तथा सुधा सागर का ज्ञान इसलिए बताया कि धर्मदास यह न समझे कि यह कबीर अपने-अपने ज्ञान को बता रहा है जिसका कोई प्रमाण नहीं और कबीर जी को गीता, पुराण, रामायण, सुधासागर (जिसको भागवत कहते हैं) का ज्ञान नहीं है क्योंकि ये सब संस्कृत में लिखी हैं और कबीर जी अशिक्षित हैं। परमेश्वर कबीर जी के मुख से सत्यज्ञान सुनकर धर्मदास जी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल की ओर देखता ही रह गया। मन में यह निश्चय हो गया कि ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। पृष्ठ 2 से 56 तक के प्रकरण में एक प्रसंग आया है।

कृष्ण जती और दुर्वासा निराहारी थे

कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप जी को पता है कि श्री कृष्ण जी की 8 स्त्रियां तो वे थी जिनसे विवाह किया था, 16 हजार वे स्त्रियां थी जिनको एक राजा से युद्ध करके छीनकर लाए थे तथा अन्य जो मथुरा-वृंदावन की गोपियां थी, इन सबके साथ श्री कृष्ण जी भोग-विलास करते थे। एक दुर्वासा ऋषि थे, वे निराहार रहते थे। दिन में केवल एक तिनका दूब घास का खाते थे, दूब को दुर्वा भी कहते हैं। केवल दूब के घास मात्र तिनके पर आधारित रहने के कारण ऋषि का नाम ‘दुर्वासा‘ प्रसिद्ध हुआ। एक समय कुछ गोपियों को दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने की इच्छा हुई, परंतु दुर्वासा ऋषि का आश्रम यमुना (जमना) दरिया के उस पार था। गोपियों ने श्री कृष्ण जी से दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने तथा उनको भोजन करवाकर साधुभोज का पुण्य लेने की इच्छा व्यक्त की। श्री कृष्ण जी ने कहा कि बहुत अच्छा उद्देश्य है, जाओ। गोपियों ने समस्या बताई कि यमुना नदी में अथाह जल बह रहा है, कैसे पार करेंगी? श्री कृष्ण जी ने कहा कि तुम जमना नदी के किनारे खड़ी होकर ये शब्द कहना कि ‘‘हे जमना दरिया! यदि श्री कृष्ण जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है तो हमें रास्ता दे दो।




जब वापिस आओ तो जमना के किनारे कहना ‘‘हे यमुना दरिया! यदि दुर्वासा ऋषि पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ सैंकड़ों गोपियाँ भोजन के थाल लेकर चली। यमुना नदी के किनारे जब ये शब्द बोले कि ‘‘यदि कृष्ण गोपाल जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है (जती दो प्रकार के होते हैं, एक तो जिसने कभी स्त्री भोग नहीं किया हो, दूसरा जिसने अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री से कभी मिलन न किया हो। इसी प्रकार स्त्री भी दो प्रकार की सती होती है। स्त्रियों में तीसरे प्रकार की सती उसे कहा जाता है जो अपने पति की मृत्यु होने पर उसके साथ चिता में जिंदा जल जाती थी, मर जाती थी। जैसे सीता जी को सती कहते हैं, उसने रावण को नहीं स्वीकारा, केवल अपने पति श्री रामचन्द्र पर आश्रित रही। कहते हैं ‘‘जती-सती का जोड़ा, कभी नहीं दुख का फोड़ा) तो हमें रास्ता दे दो। उसी समय जमुना नदी का पानी घुटनों तक आए, इतना गहरा रह गया। सब गोपियाँ नदी पार कर गई, फिर से जमुना दरिया किनारों तक भरकर बहने लगी। यह देखकर सर्व गोपियों ने विचार किया कि श्री कृष्ण जी ने हमारे साथ अनेकों बार विलास किया है, यह कैसा अचरज है? सब गोपियाँ यह विचार करती हुई दुर्वासा ऋषि के आश्रम में पहुँची।

ऋषि दुर्वासा के सामने भोजन का थाल रखकर भोजन खाने की प्रार्थना की। ऋषि जी ने कहा, देवियो! मैं आहार नहीं करता, केवल वायु पर या एक तिनका दूब घास खा लेता हूँ। उपस्थित सर्व अनुयाईयों ने यही बताया। तब गोपियों ने कहा, ऋषि जी! हम बड़ी श्रद्धा के साथ भोजन बनाकर लाई हैं। आप भोग नहीं लगाओगे तो हमारा दिल टूट जाएगा। यह कहकर बार-बार विनय करने लगी। तब ऋषि दुर्वासा जी ने सबका भोजन सारा का सारा खा लिया। गोपियों को आश्चर्य भी हुआ और अपने भोजन को खाने से मिलने वाले पुण्य से खुशी भी हुई और अपने गाँव को चल पड़ी। यमुना दरिया पर आकर उनको याद आया कि क्या शब्द कहना है? उन्होंने कहा कि ‘‘हे जमुना दरिया! यदि दुर्वासा जी पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ उसी समय यमुना दरिया का पानी घुटनों तक रह गया। सर्व गोपियाँ दरिया पार कर गई। फिर से यमुना दरिया उसी तरह भरकर वेग से बहने लगी। श्री कृष्ण जी ने गोपियों से पूछा, कहो कैसा रहा सफर? सब गोपियाँ मुस्करवाकर अपने-अपने घर चली गई और बोली आपको सब पता है।

इस कथा का क्या सारांश है?


संत गरीबदास जी (गाँव=छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) को परमेश्वर कबीर जी ऐसे ही मिले थे जैसे सेठ धर्मदास जी को मिले थे। उनको भी सतलोक ले जाकर वापिस छोड़ा था। उनको भी तत्त्वज्ञान बताया था। उनका ज्ञान योग खोला था।

संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है :-

गरीब, कृष्ण गोपिका भोग कर, फेर जती कहाया। जाकि गति पाई नहीं, ऐसे त्रिभुवन राया।।

भावार्थ :- श्री कृष्ण जी की रूचि स्त्री भोग करने की नहीं थी। यह कोई पूर्व का संस्कार था। उसका निर्वाह किया था। कृष्ण जी विद्वान थे, जान-बूझकर विलास करना उनका उद्देश्य नहीं था।
ऋषि दुर्वासा तप करे, दुर्वा करे आहार। प्रेम भोज गोपियन का खाया, तनिक न लाई वार।।
दुर्वासा पवन आहारी थे, सब भोजन खाया। श्रद्धालु की श्रद्धा पूर्ण कीनी, ताते भोग लगाया।।

भावार्थ :- ऋषि दुर्वासा जी ने गोपियों की श्रद्धावश भोजन किया। उनकी रूचि खाने की नहीं थी। ऐसा करने से व्रत भंग नहीं हुआ।

श्रीमद्भगवत गीता में लिखा है कि योगी कर्म करता हुआ भी अकर्मी होता है। वास्तव में यह सब काल का जाल है। मन काल का सूक्ष्म रूप है। काल ने प्रत्येक प्राणी को धोखे में रखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सौ छल-कपट किए हैं। श्री कृष्ण में प्रवेश करके अनेकों रूप बनाकर काल ब्रह्म स्वयं भोग-विलास करता था। भार श्री कृष्ण जी के सिर पर रख देता था। महिमा श्री कृष्ण जी, श्री राम जी तथा अन्य अपने द्वारा भेजे अवतारों की बनाता है, कार्य स्वयं करता है।
सब प्राणी अवतारों को समर्थ मानकर उनके फैन (प्रशंसक) होकर उनकी पूजा करके काल जाल में रह जाते हैं।
ज्ञान सागर के पृष्ठ 56 पर यह भी स्पष्ट किया है कि जिस समय महाप्रलय काल निरंजन करेगा, उस समय ब्रह्मलोक को छोड़कर सब नष्ट हो जाऐंगे। फिर ब्रह्मलोक भी नष्ट होगा।(यहाँ पर अस्पष्ट वर्णन है। प्रलय का वास्तविक ज्ञान पढ़ें।)

धर्मदास जी की वंश परंपरा के बारे में -II

बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाण
कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी’’ में पृष्ठ 132 पर स्पष्ट किया है कि कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! तू हमारा अंश है। मैं तेरे को एक गुप्त वस्तु का भेद बताता हूँ जो मैंने गुप्त रखी है। सात सुरति तो उत्पत्ति करने वाली हैं। तुम आठवीं सुरति हो तथा नौतम (नौंवी) सुरति मैंने गुप्त छुपाई है। नौतम सुरति मेरा निज वचन है यानि उसको पूर्ण मोक्ष मंत्रा का अधिकार है जिससे दीक्षा लेने के पश्चात् काल चोर उस जीव को रोक नहीं सकता। धर्मदास जी ने प्रार्थना की कि हे परमात्मा! मुझे वह वचन बताओ जिससे जीव फिर से जन्म-मरण के चक्र में न आए।

परमात्मा कबीर जी ने कहा कि आठ बूँद यानि सतलोक में स्त्री-पुरूष से उत्पन्न हंसों से जीव मुक्त कराने की योजना बनाई थी। तुम आठवीं बूँद हो। परंतु सबको काल ने भ्रमित कर दिया। अब नौंवी बूँद यानि नौतम सुरति से तुम सहित आठों की मुक्ति कराई जाएगी। नौतम सुरति बूँद प्रकाशा यानि नौंवे हंस का जन्म संसार में बूँद यानि माता-पिता से होगा। उस एक बूँद से तेरे बीयालिस बूँद वाले हंस पार कर दिए यानि आशीर्वाद दे दिया है, ऐसा होगा। वाणी :- वंश बीयालिस बून्द तुम्हारा। सो मैं एक बून्द (वचन) से तारा।(कबीर बानी पृष्ठ 132.133 पर)
अनुराग सागर में पृष्ठ 142 पर :-

बिन्द तुम्हारा नाद संग जावै। देखत दूत मन ही पछतावै।।

भावार्थ :- हे धर्मदास! तेरा वंश नाद वाले के साथ जाएगा यानि नाद वाले से दीक्षा लेगा तो काल के दूत निकट नहीं आऐंगे। वे भाग जाऐंगे, बहुत पश्चाताप करेंगे कि यह तो पार होगा।

भावार्थ है कि परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि धर्मदास जी की छठी पीढ़ी के पश्चात् काल की साधना चलेगी। टकसारी पंथ (जो नकली बारह कबीर पंथों में से एक है) वाली भक्ति विधि आरती चौंका, उसी नाम वाला मंत्र (अजर नाम, अमर नाम, पाताले सप्त सिंधु नाम आदि-आदि) दीक्षा में दिया जाता है। जो दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) वाले महंत जी दीक्षा दे रहे हैं, वह टकसारी वाली साधना है जो व्यर्थ है।

कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर मूल‘‘ के पृष्ठ 242-243 पर दामाखेड़ा वालों ने मिलावट करके लिखी वाणी में कहा है कि सातवीं पीढ़ी वाला तो अभिमानवश विचलित हो जाएगा, परंतु आठवीं पीढ़ी से पंथ का प्रकाश हो जाएगा, परंतु परमात्मा ने
वाणीी में स्पष्ट किया है कि : जो तेरी वंश पीढ़ी वाले गुरू हैं, उनका नाम तो स्वर्ग तक है। आठवां भी काल अपना दूत भेजेगा। इस प्रकार काल बहुत छल करेगा। तुम्हारे वंश का यह लेखा बता दिया है कि बिना सारशब्द के मुक्ति नहीं हो सकती। सारशब्द केवल धर्मदास जी को दिया था और धर्मदास जी से प्रतिज्ञा करा ली कि यह सारशब्द किसी को नहीं देना। अपने वंश को भी नहीं बताना। हे धर्मदास! तेरे को लाख दुहाई, यह सारशब्द तेरे अतिरिक्त किसी के पास नहीं जाना चाहिए। यदि यह सार शब्द किसी के हाथ लग गया तो वह अन् अधिकारी व्यक्ति सबको भ्रमित कर देगा।

सारशब्द को उस समय तक छुपाना है, जब तक 12 पंथों को मिटा न दिया जाए। 12वां (बारहवां) पंथ संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) का है जिनका जन्म विक्रमी संवत् 1774 (सन् ई. 1717) में हुआ। उनको परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी की तरह मिले थे। उनको भी यही आदेश दिया था कि जब तक कलयुग 5505 वर्ष नहीं बीत जाता, तब तक मूल ज्ञान और मूल शब्द (मूल मंत्र) यानि सार शब्द छुपा कर रखना है। तो वह सार शब्द धर्मदास जी की वंश गद्दी वालों के पास कहाँ से आ गया? वह सार शब्द (मूल शब्द) तथा मूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) मेरे (रामपाल दास के) पास है। विश्व में अन्य किसी के पास नहीं है।

प्रमाण :- कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 136-137 तथा कबीर चरित्र बोध पृष्ठ 1835, 1870 पर तथा ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1937 पर है।

कलयुग सन् 1997 को 5505 वर्ष पूरा हो जाता है। सन् 1997 को मुझ दास को परमेश्वर कबीर के दर्शन दिन के 10 बजे हुए थे। सार शब्द (मूल शब्द) तथा मूल ज्ञान को सार्वजनिक करने का सही समय बताकर अन्तर्ध्यान हो गये थे। उसी समय से गुरू जी की आज्ञा से सार शब्द अनुयाईयों को प्रदान किया जा रहा है। सबका कल्याण होगा जो मेरे से नाम दीक्षा लेकर मन लगाकर मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा, उसका मोक्ष निश्चित है।

अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश :-

‘‘धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण‘‘

‘‘कबीर वचन‘‘
तब आयसु साहब अस भाखे। सुरति निरति करि आज्ञा राखे।।
पारस नाम धर्मनि लिखि देहू। जाते अंश जन्म सो लेहू।।
लखहु सैन मैं देऊँ लखाई। धर्मदास सुनियो चितलाई।।
लिखो पान पुरूष सहिदाना। आमिन देहु पान परवाना।।
भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अब आपका दृढ़ निश्चय हो गया है। तूने अपने पुत्र को भी त्याग दिया है। अब मैं तेरे को पारस पान (सारनाम की दीक्षा) देता हूँ। आमिनी देवी को भी सारनाम देता हूँ।

‘‘धर्मदास वचन‘‘

भावार्थ :- वाणियों को पढ़ने से ही पता चलता है कि इनमें कृत्रिम वाणी है, लिखा है कि :-
रति सुरति सो गरभ जो भयऊ। चूरामनी दास वास तहं लयऊ।।

धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण



इस वाणी से यह सिद्ध करना चाहा है कि सुरति से रति करने से चूड़ामणी का जन्म हुआ। इस प्रकार कबीर सागर में अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थ वर्णन कई स्थानों पर नष्ट कर रखा है। इसके लिए जो मैंने (रामपाल दास) ने लिखा है, वही यथार्थ जानें कि परमेश्वर की शक्ति से धर्मदास तथा आमिनी के संयोग से पुत्र चूड़ामणी का जन्म हुआ। कई कबीर पंथी जो दामाखेड़ा गद्दी वालों के मुरीद (शिष्य) हैं, वे कहते हैं कि चूड़ामणी के शरीर की छाया नहीं थी। जिस कारण से कहा जाता है कि उनका जन्म सुरति से हुआ है। यहाँ याद रखें कि श्री ब्रह्मा, महेश, विष्णु जी के शरीर की छाया नहीं होती। उनका जन्म भी दुर्गा देवी (अष्टांगी) तथा ज्योति निरंजन के भोग-विलास करने से हुआ। कबीर

सागर के अध्याय ज्ञान बोध के पृष्ठ 21-22 पर वाणी हैः-

धर्मराय कीन्हें भोग विलासा। माया को रही तब आश।।
तीन पुत्र अष्टांगी जाये। ब्रह्मा, विष्णु, शिव नाम धराये।।

इसलिए यह कहना कि चूड़ामणी जी के शरीर की छाया नहीं थी। इसलिए यह लिख दिया कि सुरति से रति किया गया था, अज्ञानता का प्रमाण है। कबीर सागर के अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश किया जा रहा है। स्पष्टीकरण दिया है कि वाणी में मिलावट करके भ्रम उत्पन्न किया है। मेरी (रामपाल दास) की सेवा इसलिए परमेश्वर जी ने लगाई है कि सब अज्ञान अंधकार समाप्त करूं। कबीर बानी अध्याय में कबीर सागर के पृष्ठ 134 पर भी परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि तेरहवें अंश मिटै सकल अंधियारा। अब आध्यात्मिक ज्ञान को पूर्ण रूप से स्पष्ट करके प्रमाणित करके आपके रूबरू कर रहा हूँ।
अनुराग सागर के पृष्ठ 127-128 का सारांश :-

इन दोनों पृष्ठों पर वृतान्त यह है कि परमेश्वर कबीर जी ने चूड़ामणी जी को दीक्षा दी तथा गुरू पद दिया। कहा कि हे धर्मदास! तेरे बयालीस वंश का आशीर्वाद दे दिया है और तेरे वंश मेरे वचन अंश चूड़ामणी को कडि़हार (तारणहार) का आशीर्वाद दे दिया है। तेरे वंश से दीक्षा लेकर जो मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा, उसका कल्याण हो जाएगा। परंतु सार शब्द इस दीक्षा से भिन्न है। मैंने 14 कोटि ज्ञान कह दिया है, परंतु सार शब्द इनसे भिन्न है। अन्य नाम तो तारे जानो। सार शब्द को सूर्य जानो।

‘‘धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला‘‘

अनुराग सागर पृष्ठ 138 से 142 तक का सारांश :-
अनुराग सागर के पृष्ठ 138 से 142 के सरलार्थ की विस्तृत जानकारी तथा ‘‘दीक्षा देने की विधि कबीर सागर के अनुसार‘‘ कृप्या पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ में ज्ञान सागर के सारांश में क्रमशः पृष्ठ 77 से 80 तक, पृष्ठ 92 से 108 तक।
संक्षिप्त वर्णन यहाँ करना भी अनिवार्य है जो इस प्रकार है :-




पृष्ठ 138 पर ‘‘भविष्य कथन अलग व्यौहार‘‘ :-

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! जो कुछ आगे तेरे वंश में होगा और कैसे तेरे बयालीस वंश तथा जगत के अन्य जीवों को पार करूँगा। जो कुछ आगे होय है भाई। सो चरित्र तोहि कहूं बुझाई।। जो आगे होगा, वह चरित्र पूछो धर्मदास। जब तक तुम शरीर में रहोगे, तब तक काल निकट नहीं आएगा। तेरे शरीर त्यागने के पश्चात् काल तेरे कुल (वंश) के निकट आएगा और तेरे वंश का यथार्थ नाम दीक्षा खंडित करेगा। तेरे वंश वालों में यह अभिमान होगा कि हम धर्मदास के कुल के हैं, हम सबके तारणहार हैं। आपस में तो झगड़ा करेंगे ही, वे जो मेरा भेजा नाद (वचन का पुत्र यानि शिष्य) परंपरा वाले से जो मेरा सुपंथ (यथार्थ कबीर पंथ) चलाएगा, उसकी निंदा करके पाप के भागी होंगे, पार तो हो ही नहीं सकेंगे। इसलिए अपने वंश को समझा देना कि जब काल का दॉव लग जाए, वंश परंपरा कुपंथ पर चले तो मैं अपना नाद (शिष्य) परम्परा का अपना अंश भेजूंगा, उसको प्रेम से मिलें और उससे दीक्षा ले लें। जैसे मेरा पुत्र कमाल था जिसको मैंने मृतक से जीवित किया था। उसको दीक्षा भी दी थी। वह स्वयंभू गुरू बन गया था। अपना जीवन नष्ट किया और अनेकों को भी ले डूबा।
(विस्तार से वर्णन अध्याय ‘‘कमाल बोध‘‘ के सारांश में पृष्ठ 431 से 437 पर पढ़ें।)
पृष्ठ 139 पर :-

कमाल को अभिमान हो गया था। मैंने उसको त्याग दिया था। मेरे को अहंकारी प्राणी पसंद नहीं हैं। हम तो भक्ति के साथी हैं, हाथी-घोड़ों को नहीं चाहता। जो प्रेम भक्ति करता है, उसको हृदय में रखता हूँ। इसलिए नाद पुत्र को (शिष्य परंपरा वाले को) दीक्षा देने का अधिकार यानि गुरू पद सौंपूंगा। मेरा पंथ नाद से ही उजागर होगा यानि प्रसिद्ध होगा। तेरे वंश वाले बहुत अहंकार करेंगे। धर्मदास जी ने चिंता जताई कि आप नाद वाले को गुरू पद दोगे, परंतु मेरे वंश वाले कैसे मोक्ष प्राप्त करेंगे? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तेरे वंश वाले हों, चाहे अन्य जीव हों, जो मेरे द्वारा भेजे अंश (नाद अंश) से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहेंगे तो कैसे पार नहीं होंगे? जो हमारे वचन को मानेगा, वही वंश वाला मुझे प्यारा लगेगा। बिना वचन यानि नाद वाले को गुरू माने बिना पार नहीं हो सकता, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। तेरे बयालीस (42) पीढ़ी को मैंने एक वचन से पार कर दिया है। वह वचन यह है कि (नाद परंपरा) वाले से दीक्षा लेकर पार हो जाएंगे। बिन्द वाले वंश कहलाते हैं और वचन (नाद) वाले बिना वे अपने घर यानि सतलोक नहीं जा सकते।

धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला

अनुराग सागर पृष्ठ 140 का सारांश :-
(कबीर वचन ही चल रहे हैं)
परमेश्वर कबीर जी बता रहे हैं कि मेरा नाद का पुत्र चूड़ामणी है। यह मेरा शिष्य है और आपका वंश (बिन्द) पुत्र है। यह मेरी आज्ञा से पंथ चलाएगा, जीवों का कल्याण करेगा। परंतु हे धर्मदास! तेरा वंश (कुल) के लोग अज्ञानी हैं। वे ठीक से ज्ञान नहीं समझेंगे। मेरे अंश को (जो मैं भेजूंगा) नहीं समझ सकेंगे और अन्य काल के दूतों से भ्रमित होकर कुमार्ग पर चलेंगे।
जो कुछ आगे तेरी वंश गद्दी वालों के साथ होगा, वह सुन! चूड़ामणी के पश्चात् छठी पीढ़ी वाले महंत को काल द्वारा चलाए गए 12 पंथों में से पाँचवां टकसारी पंथ होगा, वह ठगेगा। अपना ज्ञान सुनाकर प्रभावित करके काल जाल में डालेगा। तेरा छठी पीढ़ी वाला (पोता) उस टकसारी पंथ वाले से दीक्षा लेगा और उसी वाला आरती-चौंका किया करेगा। (वही हुआ, वर्तमान में जो दीक्षा बाँधवगढ़ गद्दी वाले महंत दे रहे हैं तथा जो आरती-चौंका कर रहे हैं, वह वही काल के दूत टकसारी वाली है) हे धर्मदास! इस प्रकार तेरा वंश अज्ञानी होकर काल के धोखे में पड़कर नरक में जाएगा। तेरा वंश मेरी वह दीक्षा जो मैंने चूड़ामणी को दी है, उसको छोड़ देगा। टकसारी वाली दीक्षा लेकर अपना जीवन नाश करेगा। ऐसे तेरा वंश (कुल) दुर्मति को प्राप्त होगा। वे तेरे वंश वाले ठग मेरे नाद अंश को बाधित करेंगे, पाप के भागी होंगे।




‘‘धर्मदास वचन‘‘
हे परमात्मा! पहले तो आप कह रहे थे कि तेरे बयालीस पीढ़ी को पार कर दूंगा। अब आप कह रहे हो कि काल जाल में फंसेगे। ये दोनों बात कैसे सत्य होंगी?
‘‘कबीर जी वचन‘‘
परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! तुम सावधान होवो और अपने वंश को समझा देना कि जिस समय काल झपट्टा लगाएगा यानि मार्ग से तेरे वंश को भ्रमित करेगा तो मैं अपना नाद यानि शिष्य परंपरा वाला हंस प्रकट करूंगा। यथार्थ कबीर पंथ यानि भक्ति मार्ग से भटके मानव को सत्य भक्ति पर दृढ़ करूंगा। उसी से दीक्षा लेकर तेरे वंश वाले मोक्ष प्राप्त करेंगे। वचन वंश (चुड़ामणि की संतान) भी नाद यानि शिष्य शाखा वाले से दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्ति करेगा।
विशेष विवेचन :- कुछ व्यक्ति इस प्रकरण को सुनकर भ्रम फैलाते हैं कि रामपाल के बिन्द वालों से इस पंथ का नाश होगा। हम रामपाल के नाद वाले (शिष्य) हैं। हमारे से यह पंथ आगे फैलेगा। हमें दान का पैसा दो, रामपाल वालों को न दो। ऐसे व्यक्ति काल के दूत हैं। वे अपने स्वार्थवश ऐसा भ्रम फैलाते हैं। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि धर्मदास के बिन्द वाले गुरू पद प्राप्त करके भक्ति विधि में परिवर्तन करके सत्य साधना त्यागकर काल साधना करते-कराते हैं। भक्ति विधि तथा ज्ञान गलत होने से यथार्थ पंथ का नुकसान होता है। मेरे पश्चात् कलयुग में कोई गुरू पद पर रहेगा ही नहीं। यह तेरहवां (13वां) अंतिम पंथ है। यह दास (रामपाल दास) अंतिम सतगुरू है। मेरे प्रकाश पुंज शरीर यानि क्टक् वाले स्वरूप से नाद दीक्षा दी जा रही है। यही आगे चलेगी। यह प्रक्रिया सन् 2009 से चल रही है। लाखों अनुयाई बन चुके हैं।
प्रत्येक को लाभ हो रहा है और होता रहेगा। अब न तो भक्ति विधि यानि भक्ति के मंत्र बदल सकते हैं, न ज्ञान। फिर पंथ नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं रहता। नाद और बिंद का झंझट ही समाप्त हो गया है। से गुरू जी के नाम को दिलाने की सेवा नाद वालों को मिले, चाहे बिन्द वालों को, पंथ नष्ट नहीं हो सकता। आगे ही बढ़ेगा।
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। संत रामपाल जी महाराज YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।


Post a Comment

0 Comments