आज Mukti Bodh-मुक्ति बोध में पढ़िए ‘सुमिरन के अंग’’ का सरलार्थ | संत रामपाल जी महाराज
हम पढ़ रहे है मुक्तिबोध (65-66)
◆ वाणी नं. 77 से 87 :-
गरीब, महिमा अबिगत नाम की, जानत बिरले संत। आठ पहर धुनि ध्यान है, मुनि जन रटैं अनंत।।77।।
गरीब, चन्द सूर पानी पवन, धरनी धौल अकास। पांच तत्त हाजरि खड़े, खिजमतिदार खवास।।78।।
गरीब, काल करम करै बदंगी, महाकाल अरदास। मन माया अरु धरमराय, सब सिर नाम उपास।।79।।
गरीब, काल डरै करतार सै, मन माया का नास। चंदन अंग पलटे सबै, एक खाली रह गया बांस।।80।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अबिगत अन्यत न जाइ। बाहिर भीतर एक है, सब घट रह्या समाइ।।81।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी एक। आदि अंत जाके नहीं, ज्यूं का त्यूंही देख।।82।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी ऐंन। महिमा कही न जात है, बोले मधुरै बैन।।83।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आदि। सतगुरु मरहम तासका, साखि भरत सब साध।।84।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी पीर। चरण कमल हंसा रहे, हम हैं दामनगीर।।85।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आप। हद बेहद सें अगम है, जपो अजपा जाप।।86।।
गरीब, ऐसा भगली जोगिया, जानत है सब खेल। बीन बजावें मोहिनी, जुग जंत्र सब मेल।।87।।
◆ सरलार्थ :- उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अनन्त मुनिजन मनमाने नामों की रटना लगा रहे हैं(जाप कर रहे हैं), परंतु अविगत नामों (दिव्य मंत्रों) को तथा उनकी महिमा को बिरला संत ही जानता है।(77)
◆ उस परमात्मा के आदेश से पाँचों तत्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) कार्य करते हैं। वे तो परमेश्वर कबीर जी की खिदमतदार यानि सेवा करने वाले सेवक यानि दास हैं।(78)
◆ उस परमेश्वर की बंदगी यानि नम्र प्रणाम करके नम्र भाव से स्तुति ब्रह्म काल (करम) दया की याचना करते हैं तथा महाकाल (अक्षर पुरूष) भी उस परमेश्वर से अरदास यानि प्रार्थना करके अपने-अपने लोक चला रहे हैं। मन (काल ब्रह्म), माया (देवी दुर्गा) और धर्मराय (काल का न्यायधीश) सबके सिर पर नाम उपासना है यानि सबको भक्ति करना
अनिवार्य है, तब उनका पद सुरक्षित रहता है। (79) (नोट :- अक्षर पुरूष को महाकाल इसलिए कहा है क्योंकि जब इसका एक दिन जो एक हजार युग कहा है, पूरा होता है तो काल ब्रह्म-दुर्गा सहित एक ब्रह्मण्ड का विनाश हो जाता है। सर्व प्राणी अक्षर पुरूष के लोक में रखे जाते हैं।)
‘‘सुमिरन के अंग’’ का सरलार्थ
◆ ज्योति निरंजन काल भी परमेश्वर कबीर जी से भय मानता है। उस परमेश्वर के दिव्य मंत्रों के जाप से मन में विकार उत्पन्न नहीं होते तथा माया का नाश हो जाता है यानि संसारिक पदार्थों का संग्रह करने वाला स्वभाव समाप्त हो जाता है। परमात्मा के आध्यात्म
ज्ञान के प्रवचनों का प्रभाव अच्छी आत्माओं यानि पूर्व जन्म में शुभ संस्कारी प्राणियों पर ही पड़ता है। जो अन्य प्राणियों के शरीरों (कुत्ते-गधे, सूअर के शरीरों) को त्यागकर मानव शरीर प्राप्त करते हैं। उन पर सत्संग वचन का प्रभाव शीघ्र नहीं पड़ता। उदाहरण दिया है कि जैसे वन में चंदन के वृक्ष होते हैं। उनके आसपास अन्य नीम, बबूल, आम, शीशम आदि-आदि वृक्ष भी होते हैं और बाँस भी उगा होता है। चंदन की महक आसपास के अन्य वृक्ष ग्रहण कर लेते हैं और चंदन की तरह खुशबूदार बन जाते हैं, परंतु बाँस के ऊपर चंदन की महक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।(80)
◆ वाणी नं. 81 से 87 तक एक जैसा ही ज्ञान है। परमेश्वर की महिमा सामान्य रूप में बताई है कि वह परमात्मा सज्जन यानि नेक मानव जैसा है। अविगत यानि दिव्य है। (अन्यत न जाई) उसकी खोज में अनेकों स्थानों पर ना जाऐं, उसकी प्राप्ति सतगुरू द्वारा
होगी। उस परमात्मा की शक्ति बाहर यानि शरीर से बाहर तथा भीतर यानि शरीर के अंदर एक समान है। सबके घट (शरीर रूपी घड़े) में रहा समाई यानि व्यापक है।(81)
◆ अचल (स्थिर-स्थाई) अभंगी (जो कभी नहीं टूटे यानि अविनाशी) वह तो एक ही प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) है। उसका आदि (जन्म अर्थात् प्रारम्भ) तथा अंत (मृत्यु) नहीं है। वह तो सदा से ज्यों का त्यों ही दिखाई देता है। आप भी साधना करके उसे देखो।(82)
◆ उस अविनाशी सज्जन परमात्मा की महिमा सम्पूर्ण रूप से कोई नहीं कह सकता क्योंकि वह अचल (स्थिर) तथा अभंगी ऐंन यानि वास्तव में अविनाशी स्थाई परमात्मा है। वह जब मुझे (संत गरीबदास जी को) मिला था तो बहुत प्रिय भाषा बोली थी। (मधुरे माने मीठे, बैन माने वचन।)(83)
◆ उस अचल अभंगी राम का महरम यानि गूढ़ ज्ञान केवल सतगुरू यानि तत्वदर्शी संत ही जानता है। इस बात के साक्षी सब साध (संत जन) हैं।(84)
◆ उस सज्जन सलौने (शुभदर्शी यानि जिसके दर्शन से आनन्द हो) अचल अभंगी राम जो पीर यानि गुरू रूप में प्रकट होते हैं, के चरण कमल यानि शरण में हंसा यानि मोक्ष प्राप्त भक्त रहते हैं। हम (संत गरीबदास जी) उस परमात्मा के साथ ऐसे हैं (दामनगीर) जैसे चोली-दामन का साथ होता है यानि हम उस परमेश्वर के अत्यंत निकट हैं।(85)
वह अचल अभंगी सज्जन सलौना (शुभदर्शी) राम (परमेश्वर कबीर) हद (काल की सीमा) बेहद (सत्यलोक की सीमा) के पार अकह लोक में मूल रूप से रहता है। उसकी प्राप्ति के लिए सतगुरू जी से दीक्षा लेकर अजपा (श्वांस-उश्वांस से) जाप जपो यानि नाम
का सुमरन (स्मरण) करो।(86)
वह परमेश्वर ऐसा भगति (जादूगर) जोगिया (योगी=साधु रूप में प्रकट होने वाला) है। वह सब खेल जानता है कि कैसे जीव की रचना हुई? कैसे यह काल जाल में फँसा? कैसे काल ब्रह्म ने इसको अज्ञान में अंधा कर रखा है? काल का जीव को अपने जाल में फँसाए रखने का क्या उद्देश्य है? (उसको एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को नित खाना पड़ता है) कैसे जीव को काल जाल से छुड़वाया जा सकता है? बीन बजावैं मोहिनी यानि काल प्रेरित सुंदर स्त्रियाँ भक्तों को कैसे मधुर वाणी बोलकर आकर्षित करती हैं। बीन बजाने का भावार्थ यह है कि जैसे सपेरा बीन यंत्र बजाकर सर्प को वश में करता है। ऐसे ही काल के आदेश से सुंदर परियाँ सुरीले गाने गाकर साधकों को अपने जाल में फँसाती हैं। वे सब जोग यानि सब विधि (जुगत से) तथा जंत्र यानि अन्य अदाओं के जंत्र से अपनी ओर खींचती हैं यानि सब आकर्षणों को मिलाकर जीव को फँसाती हैं।(87)
हम मुक्तिबोध पुस्तक का पेज (67-68)
इस प्रकार वाणी में कहा है कि शंकर जी की समाधि तो अडिग (न डिगने वाली) थी जैसा पौराणिक मानते हैं। वह भी मोहे गए। माया के वश हो गए।(88) गंधर्व (एक मानव जाति जो गंधर्व गोत्र की है) तथा गण (देवों के नौकर जैसे शिव के गण, गणेश तो है ही गणों का ईश) तथा ज्ञानी मुनि यानि विद्वान कहे जाने वाले ऋषि जी भी (अजब नवेला नेहे) सुंदर युवा स्त्रियों से (अजब) गजब का (अनोखा) प्यार करते हैं। संत गरीबदास जी कह रहे हैं कि उस निज नाम की क्या महिमा करूं जिससे सब संदेह यानि शंकाऐं समाप्त हो गई हैं अर्थात् सतलोक में जाने के पश्चात् जन्म-मरण तथा विकारों से पूर्ण रूप से पीछा छूट सकता है। सतलोक प्राप्ति (मोक्ष की प्राप्ति) निज नाम से होती है। वह निज नाम (सार नाम) मेरे गुरूदेव जी ने मुझे दे दिया। उस निज नाम की क्या महिमा करूं जिसने मेरा कल्याण कर दिया।(89)
जो सुन्न विदेश यानि आकाश में सुन्न में निवास करने वाला प्रदेशी हमारी आँखों में बसा है यानि आँखों का तारा है। उस अलख यानि अव्यक्त (जो दिखाई नहीं देता) की पलक (आँखों के ऊपर उगे बालों को पलक कहते हैं जो सेलियों के नीचे होती हैं) में खलक (संसार) है यानि उस परमेश्वर को भी संसार के सब जीव उतने ही प्यारे हैं, वह भी खलक को अपनी पलकों पर रखता है। सतगुरू के शब्द यानि मोक्ष करने वाले नाम को समझ और अपना कल्याण करा।(90)
परमेश्वर जो सुन्न में रहने वाला परदेशी है। वह हमारे हृदय में बसा है यानि हम अपने परमेश्वर से बहुत प्यार करते हैं। जिस स्थान पर (सतलोक में) परमेश्वर रहते हैं। वह स्वप्रकाशित है। जैसे हीरा स्वप्रकाशित होता है। वहाँ पर प्रकाश करने के लिए सूर्य की
आवश्यकता नहीं है। वहाँ पर दिन-रात (निश=रात्रि, वासर=दिन) नहीं होते।(91)
वही प्रदेशी सतपुरूष हमारे शरीर में बने त्रिकुटी कमल में अन्य रूप में रहता है। उस शरीर की शोभा शंख पदमों की रोशनी जितनी है। सतलोक में परमेश्वर के एक रोम (शरीर के बाल) की छवि करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चन्द्रमाओं जितनी है। पदम की रोशनी तो एक चन्द्रमा जैसी ही होती है। यानि त्रिकुटी पर सतपुरूष कम तेज वाले शरीर में विद्यमान है। (त्रिकुटी तीर का अर्थ है त्रिकुटी के किनारे। यहाँ तीर का अर्थ किनारा है जैसे यमुना के तीर कृष्ण बंसी बजाई रे) उस परमेश्वर जी ने कोकिल कीर (कोयल पक्षी) जैसी मधुर वाणी बोल-बोलकर ज्ञान बताया था।(92)
उस परमेश्वर की सत्ता यानि अधिपत्य संहस्र कमल (हजार पंखुड़ी वाले कमल) पर भी है क्योंकि वह कुल का मालिक (वासुदेव) है। संहस्र कमल बाग का भावार्थ है कि जहाँ हजार ज्योतियों का बाग-सा लगा है। उस स्थान का मालिक वास्तव में सतपुरूष (अविगत राम) ही है। जैसे चक्रवर्ती सम्राट के आधीन सर्व राजा तथा उनके सुंदर नगर व निवास भी आते हैं। वे उसी के माने जाते हैं। उस परमेश्वर को प्राप्त करने वाले नामों में एक सोहं नाम भी है। अन्य मंत्र (नाम) भी हैं जिनको तरतीजन यानि क्रमवार (बारी-बारी, एक के बाद दूसरा ऐसे तरतीवार) दिया जाता है। सोहं नाम के जाप में ध्यान लगना ही संतों की समाधि है। इसी में धुन (लगन) लगाते हैं। इसको सहज समाधि कहते हैं।(93)
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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