श्री रामचन्द्र जी को वनवास क्यों हुआ? | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

जानिए आखिर क्यों श्री रामचन्द्र जी को वनवास का दुःख क्यों भोगना पड़ा? | संत रामपाल जी महाराज


श्री रामचन्द्र जी को वनवास क्यों भोगना पड़ा?

नारद जी साधना करने वन में गए थे। बारह वर्ष साधना करके लौटे तो अपने पिता ब्रह्मा से कहा कि मैंने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया है। ब्रह्मा जी ने कहा कि अच्छी बात है। परंतु अपनी उपलब्धि को बताना नहीं चाहिए। आप श्री विष्णु जी से तो ये बात बिल्कुल ना कहना। नारद जी तो उमंग से भरा था। श्री विष्णु जी के पास गए। उनको अपनी साधना की सफलता बताई कि मैंने अपनी इन्द्रियों पर काबू पा लिया है। यह कहकर कुछ देर बाद चल पड़े। श्री विष्णु जी ने एक मायावी शहर बसाया। उसमें राजा की लड़की का विवाह का स्वयंवर रचा। मनमोहक माहौल था।

नारद ने सुने विवाह के गीत। नारद विवाह कराने के लिए अत्यधिक प्रेरित हुआ। रूप के लिए भगवान विष्णु से उसका रूप माँगा। भगवान ने बंदर का मुख नारद को लगा दिया। लड़की ने श्री विष्णु जी को वरमाला डाल दी जो स्वयंवर में आया था। नारद को पता चला कि मेरे साथ विष्णु ने धोखा किया है तो श्राप दे दिया कि आप भी मेरे की तरह एक जीवन स्त्री के लिए तड़फ-तड़फ कर मरोगे। श्री रामचन्द्र के रूप में विष्णु जी का जन्म अयोध्या के राजा दशरथ के घर हुआ। फिर वनवास हुआ। सीता पत्नी श्रीराम भी साथ में वन में गई। सीता का अपहरण हुआ। श्री राम ने सारा जीवन पत्नी के वियोग में बिताया।


पारख के अंग की वाणी नं. 193,194

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गरीब, गण गंधर्व और मुनीजन, तेतीसौं तत्त्व सार। अपने जन कै कारणै, उतरे बारमबार।।193।।
गरीब, अनंत कोटि औतार है, नौ चितवै बुधि नाश। खालिक खेलै खलक में, छै ऋतु बारहमास।।194।।


सरलार्थ :- जितने भी देव, गण, मुनिजन, तेतीस करोड़ देवता हैं। ये परमात्मा की भक्ति करके इस पद को पाए हुए हैं। यदि इनके साथ भी कोई शरारत करके हानि पहुँचाता है तो उसकी रक्षा के लिए भी परमात्मा कबीर जी ही सहायता करने ऊपर से आते हैं। अवतरित होते हैं। (अवतार धारण करते हैं।) वे परमात्मा अपने जन (भक्त जन) के कारण बार-बार अवतार लेते हैं। जैसे प्रहलाद भक्त की रक्षा के लिए नरसिंह रूप धारण करके अचानक आए और अपना कार्य करके चले गए। तत्त्वज्ञान हीन प्रचारक जिनकी बुद्धि का नाश हो चुका है, वे केवल नौ अवतार मानते हैं। (खालिक) मालिक तो (खलक) संसार में (छःऋतु-बारह मास) सदा (खेलै) लीला करता रहता है।


जैसे श्री नानक जी ने भी कहा है कि


‘‘अंधुला नीच जाति प्रदेशी मेरा छिन आवै तिल जावै। जाकी संगत नानक रहंदा क्योंकर मोंहडा पावै।।’’


अर्थात् जुलाहा जाति में प्रकट मेरा प्रदेशी परमात्मा कबीर एक पल में पृथ्वी पर दिखाई देता है। दूसरे क्षण में ऊपर सचखण्ड में होता है। उस समर्थ परमात्मा कबीर जी की शरण में मैं (नानक जी) रहता हूँ। उसकी थाह उसका (मोहंड़ा) अंत कैसे पाया जा सकता है? परमात्मा के तो अनंत अवतार हो चुके हैं। वह तो एक पल में पृथ्वी पर, दूसरे पल (क्षण) में सतलोक में आता-जाता रहता है यानि कभी भी प्रकट हो जाता है।

पारख के अंग की वाणी नं. 195,199


गरीब, पीछै पीछै हरि फिरैं, आगै संत सुजान। संत करैं सोई साच है, च्यारि जुग प्रवान।।195।।

सरलार्थ :- अपने सच्चे भक्त के साथ-साथ पीछे-पीछे परमात्मा रहता है। संत जो करते हैं, सच्चा कार्य करते हैं यानि सही करते हैं। कभी किसी का अहित नहीं करते। चारों युगों में प्रमाण रहा है कि संत सही क्रिया करते हैं। भलाई के शुभ कर्म करते हैं।(195)


गरीब, सांई सरीखे साधू हैं, इन समतुल नहीं और। संत करैं सो होत है, साहिब अपनी ठौर।।196।।

सच्चे साधक परमात्मा के समान आदरणीय हैं। इनके समान अन्य की तुलना नहीं की जा सकती। परमात्मा अपने सच्चे भक्त को अपनी शक्ति प्रदान कर देते हैं। परमात्मा कबीर जी कहते हैं कि मेरी बजाय इन संतों से माँगो। संत परमात्मा से प्राप्त शक्ति से अपने अनुयाईयों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। उनकी रक्षा करते हैं। परमात्मा कबीर जी उनके बीच में कोई दखल नहीं देते।(196) इसलिए कहा है कि :- संत करें सो होत है, साहिब अपनी ठौर।

गरीब, संतौं कारण सब रच्या, सकल जमी असमान। चंद सूर पानी पवन, यज्ञ तीर्थ और दान।।197।।

परमात्मा ने भक्तों के लिए पृथ्वी तथा इसके सहयोगी सूर्य, आकाश, हवा, व जल अन्य ग्रह बनाए हैं ताकि वे भक्ति करके अपना कल्याण करवा सकें। तीर्थ स्थान भी भक्तों का साधना स्थल है। दान की परंपरा भी भक्ति में अति सहयोगी है। परंतु दान संत (गुरू) को दिया जाए। कुपात्र को दिया दान तो रण-रेह (अन उपजाऊ) भूमि में बीज डालकर खराब करने के समान है।(197)

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