परमात्मा कबीर जी का कलयुग में प्रकट होने का प्रकरण | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

जानिए ‘परमात्मा कबीर जी का कलयुग में प्रकट होने का प्रकरण के बारे में संत रामपाल जी के माध्यम से


पारख के अंग की वाणी नं. 376-380 :-


God-kabir-in-kalyuga



सरलार्थ :- वाणियों में परमात्मा कबीर जी के कलयुग में प्राकाट्य का प्यारा वर्णन है जो इस प्रकार हैः-


गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मांड में, बंदी छोड कहाय। सो तौ एक कबीर हैं, जननी जन्या न माय।।377।।

वाणी नं. 376-380 में परमात्मा कबीर जी की महिमा का वर्णन है। कहा है कि कबीर परमेश्वर बंदी छोड़ हैं। अनंत करोड़ ब्रह्माण्डों में बन्दी छोड़ के नाम से प्रसिद्ध हैं। बन्दी छोड़ का अर्थ है कैदी को कारागार से छुड़ाने वाला। हम सब जीव काल ज्योति निरंजन की कारागार में बंदी (कैदी) हैं। इस बंदीगृह से केवल कबीर परमात्मा की छुड़ा सकते हैं इसलिए सब ब्रह्माण्डों में परमात्मा कबीर जी एकमात्र बन्दी छोड़ हैं। केवल कबीर परमेश्वर जी ही एकमात्र हैं जिनका जन्म माता के गर्भ से नहीं हुआ।(376)


गरीब, चौरासी बंधन कटे, कीनी कलप कबीर। भवर चतुरदश लोक सब, टूटे जम जंजीर।।

जो परमात्मा कबीर जी की शरण में आ जाते हैं, कबीर परमेश्वर जी की कृपा से चौरासी लाख योनियों में जाने वाले बंधन कट जाते हैं। (कर्मों के कारण बंधन होता है। वे पाप कर्म परमात्मा कबीर जी की कृपा से नष्ट हो जाते हैं। सतनाम के जाप से पाप नाश होते हैं।) (377)


गरीब, शब्द स्वरूप साहिब धनी, शब्द सिंध सब मांहि। बाहर भीतर रमि रह्या, जहाँ तहां सब ठांहि।।378।।
गरीब, जल थल पथ्वी गगन में, बाहर भीतर एक। पूरणब्रह्म कबीर हैं, अबिगत पुरूष अलेख।। 379।।


परमात्मा कबीर जी (शब्द स्वरूपी) अविनाशी रूप हैं। उनकी (शब्द सिंधु) वचन शक्ति समुद्र की तरह अथाह है। जीव एक तुम्बे की तरह है जो समुद्र में पड़ा है। उसके अंदर भी जल बाहर भी जल होता है। ऐसे परमात्मा कबीर जी की शक्ति के अंदर सब ब्रह्माण्डों के जीव हैं। परमात्मा इस प्रकार सर्वव्यापक कहा जाता है। कबीर जी पूर्णब्रह्म हैं। (अविगत पुरूष अलेख) दिव्य अवर्णननीय परमेश्वर है। (378-379)


गरीब, सेवक होय करि ऊतरे, इस पथ्वी के मांहि। जीव उधारन जगतगुरू, बार बार बलि जांहि।। 380।।

परमात्मा कबीर जी वेदों में बताए उनकी महिमा के अनुरूप लीला करते हैं। ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्रा 3, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मंत्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मंत्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16.20 आदि-आदि अनेकों मंत्रों में कहा है कि परमात्मा (कविर्देव) कबीर परमेश्वर है जो आकाश में सबसे ऊपर वाले स्थान पर बैठा है। वहाँ से गति करके आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है।

उनको उपदेश देता है। तत्त्वज्ञान का प्रचार अपनी (कविर्गिर्भिः) कबीर वाणी द्वारा (काव्येन) कवित्व से यानि कवियों की तरह साखी, शब्द, चौपाईयों द्वारा बोल-बोलकर करता है। जिस कारण से (कविनाम पदवी) कवियों में से प्रसिद्ध कवि की उपाधि प्राप्त करता है। जैसे परमात्मा कबीर जी को ‘‘कवि’’ भी कहा जाता है। परमात्मा कबीर जी पृथ्वी पर कवियों की तरह आचरण करता हुआ विचरण करता है। परमात्मा कबीर जी अपनी वाणी बोलकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। भक्ति के गुप्त नाम का आविष्कार करता है।(380)


कबीर परमेश्वर जी का कलयुग में अवतरण


‘‘भक्त सुदर्शन के माता-पिता वाले जीवों के कलयुग के अन्य मानव जन्मों की जानकारी’’

भक्त सुदर्शन के माता-पिता प्रथम बार कुलपति ब्राह्मण (पिता) तथा महेश्वरी (माता) रूप में जन्में। दोनों का विवाह हुआ। संतान नहीं हुई। एक दिन महेश्वरी जी सूर्य की उपासना करते हुए हाथ फैलाकर पुत्रा माँग रही थी। उसी समय कबीर परमेश्वर जी उसके हाथों में बालक रूप बनाकर प्रकट हो गए। सूर्य का पारितोष (तोहफा) जानकर बालक को घर ले गई। वे बहुत निर्धन थे। उनको प्रतिदिन एक तोला सोना परमात्मा के बिछौने के नीचे मिलने लगा। यह भी उन्होंने सूर्यदेव की कृपा माना। पाँच वर्ष की आयु का होने पर उनको भक्ति बताई, परंतु बालक जानकर उनको परमात्मा की एक बात पर भी विश्वास नहीं हुआ। उस जन्म में उन्होंने परमात्मा को नहीं पहचाना। जिस कारण से परमेश्वर कबीर जी बालक रूप अंतर्ध्यान हो गए।

दोनों पति-पत्नी पुत्र मोह में व्याकुल हुए। परमात्मा की सेवा के फलस्वरूप उनको अगला जन्म भी मानव का मिला। चन्दवारा शहर में पुरूष का नाम चंदन तथा स्त्री का नाम उद्धा था। ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ। दोनों निःसंतान थे। एक दिन उद्धा सरोवर पर स्नान करने गई। वहाँ कबीर परमेश्वर जी कमल के फूल पर शिशु रूप धारण करके विराजमान हुए। उद्धा बालक कबीर जी को उठाकर घर ले गई। लोकलाज के कारण चन्दन ने पत्नी से कहा कि इस बालक को जहाँ से लाई थी, वहीं छोड़कर आ। कुल के लोग मजाक करेंगे। दोनों पति-पत्नी परमात्मा को लेकर जल में डालने चले तो परमात्मा उनके हाथों से गायब हो गए। दोनों बहुत व्याकुल हुए। परमात्मा का पारितोष न लेने के भय से सारी आयु रोते रहे। अगला जन्म भी मानव का हुआ।
कथा इस प्रकार है :-


भक्त सुदर्शन वाल्मीकि की संषिप्त कथा

भक्त सुदर्शन वाल्मीकि के माता-पिता वाले जीवों को कलयुग में तीसरा भी मानव शरीर प्राप्त हुआ। भारत वर्ष के काशी शहर में सुदर्शन के पिता वाले जीव ने एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया तथा गौरीशंकर नाम रखा गया तथा सुदर्शन जी की माता वाले जीव ने भी एक ब्राह्मण के घर कन्या रूप में जन्म लिया तथा सरस्वती नाम रखा। युवा होने पर दोनों का विवाह हुआ। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया करता। गौरीशंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता था उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रशंसा करते थे।


जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस कारण से वे ब्राह्मण उस गौरीशंकर ब्राह्मण से ईर्ष्या रखते थे। इस बात का पता मुसलमानों को लगा कि एक गौरीशंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दू धर्म के प्रचार को जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरीशंकर से ईर्ष्या रखते हैं। इस बात का लाभ मुसलमानों ने उठाया। गौरीशंकर व सरस्वती के घर के अन्दर अपना पानी छिड़क दिया। अपना झूठा पानी उनके मुख पर लगा दिया। कपड़ों पर भी छिड़क दिया तथा आवाज लगा दी कि गौरीशंकर तथा सरस्वती मुसलमान बन गए हैं।


पुरूष का नाम नूरअली उर्फ नीरू तथा स्त्री का नाम नियामत उर्फ नीमा रखा। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों को पता चला तो उनका दाव लग गया। उन्होंने तुरन्त ही ब्राह्मणों की पंचायत बुलाई तथा फैसला कर दिया कि गौरीशंकर तथा सरस्वती मुसलमान बन गए हैं अब इनका ब्राह्मण समाज से कोई नाता नहीं रहा है। इनका गंगा में स्नान करने, मन्दिर में जाने तथा हिन्दू ग्रन्थों को पढ़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। गौरीशंकर (नीरू) जी कुछ दिन तो बहुत परेशान रहे। जो कथा करके धन आता था उसी से घर का निर्वाह चलता था। उसके बन्द होने से रोटी के भी लाले पड़ गए। नीरू ने विचार करके अपने निर्वाह के लिए कपड़ा बुनने का कार्य प्रारम्भ किया। जिस कारण से जुलाहा कहलाया।


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कपड़ा बुनने से जो मजदूरी मिलती थी उसे अपना तथा अपनी पत्नी का पेट पालता था। जिस समय धन अधिक आ जाता तो उसको धर्म में लगा देता था। विवाह को कई वर्ष बीत गए थे। उनको कोई सन्तान नहीं हुई। दोनों पति-पत्नी ने बच्चे होने के लिए बहुत अनुष्ठान किए। साधु सन्तों का आशीर्वाद भी लिया परन्तु कोई सन्तान नहीं हुई। हिन्दुओं द्वारा उन दोनों का गंगा नदी में स्नान करना बन्द कर दिया गया था। उनके निवास स्थान से लगभग चार कि.मी. दूर एक लहर तारा नामक सरोवर था जिस में गंगा नदी का ही जल लहरों के द्वारा नीची पटरी के ऊपर से उछल कर आता था।

इसलिए उस सरोवर का नाम लहरतारा पड़ा। उस तालाब में बड़े-2 कमल के फूल उगे हुए थे। मुसलमानों ने गौरीशंकर का नाम नूर अल्ली रखा जो उर्फ नाम से नीरू कहलाया तथा पत्नी का नाम नियामत रखा जो उर्फ नाम से नीमा कहलाई। नीरू-नीमा भले ही मुसलमान बन गए थे परन्तु अपने हृदय से साधना भगवान शंकर जी की ही करते थे तथा प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पूर्व लहरतारा तालाब में स्नान करने जाते थे।



ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398) सोमवार को भी ब्रह्म मुहूर्त (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पहले होता है) में स्नान करने के लिए जा रहे थे। नीमा रास्ते में भगवान शंकर से प्रार्थना कर रही थी कि हे दीनानाथ! आप अपने दासों को भी एक बच्चा-बालक दे दो आप के घर में क्या कमी है प्रभु ! हमारा भी जीवन सफल हो जाएगा। दुनिया के व्यंग्य सुन-2 कर आत्मा दुःखी हो जाती है। मुझ पापिन से ऐसी कौन सी गलती किस जन्म में हुई है जिस कारण मुझे 

बच्चे का मुख देखने को तरसना पड़ रहा है। हमारे पापों को क्षमा करो प्रभु! हमें भी एक बालक दे दो। यह कह कर नीमा फूट-2 कर रोने लगी तब नीरू ने धैर्य दिलाते हुए कहा हे नीमा! हमारे भाग्य में सन्तान नहीं है यदि भाग्य में सन्तान होती तो प्रभु शिव अवश्य प्रदान कर देते। आप रो-2 कर आँखे खराब कर लोगी। बालक भाग्य में है नहीं जो वृद्ध अवस्था में ऊंगली पकड़ लेता। आप मत रोओ आप का बार-2 रोना मेरे से देखा नहीं जाता।

यह कह कर नीरू की आँखे भी भर आई। इसी तरह प्रभु की चर्चा व बालक प्राप्ति की याचना करते हुए उसी लहरतारा तालाब पर पहुँच गए। प्रथम नीमा ने प्रवेश किया, पश्चात् नीरू ने स्नान करने को तालाब में प्रवेश किया। सुबह का अंधेरा शीघ्र ही उजाले में बदल जाता है। जिस समय नीमा ने स्नान किया था उस समय तक तो अंधेरा था। जब कपड़े बदल कर पुनः तालाब पर उस कपड़े को धोने के लिए गई, जिसे पहन कर स्नान किया था, उस समय नीरू तालाब में प्रवेश करके गोते लगा-2 कर मल मल कर स्नान कर रहा था।


नीमा की दृष्टि एक कमल के फूल पर पड़ी जिस पर कोई वस्तु हिल रही थी। प्रथम नीमा ने जाना कोई सर्प है जो कमल के फूल पर बैठा अपने फन को उठा कर हिला रहा है। उसने सोचा कहीं यह सर्प मेरे पति को न डस ले नीमा ने उसको ध्यानपूर्वक देखा वह सर्प नहीं है कोई बालक है जिसने एक पैर अपने मुख में ले रखा है तथा दूसरे को हिला रहा है। नीमा ने अपने पति से ऊँची आवाज में कहा देखियो जी! एक छोटा बच्चा कमल के फूल पर लेटा है। वह जल में डूब न जाए। नीरू स्नान करते-2 उस की ओर न देख कर बोला नीमा! बच्चों की चाह ने तुझे पागल बना दिया है।

अब तुझे जल में भी बच्चे दिखाई देने लगे हैं। नीमा ने अधिक तेज आवाज में कहा मैं सच कह रही हूँ, देखो सचमुच एक बच्चा कमल के फूल पर, वह रहा, देखो! देखो--- नीमा की आवाज में परिवर्तन व अधिक कसक देखकर नीरू ने उस ओर देखा जिस ओर नीमा हाथ से संकेत कर रही थी। कमल के फूल पर नवजात शिशु को देखकर नीरू ने आव देखा न ताव झपट कर कमल के फूल सहित बच्चा उठाकर अपनी पत्नी को दे दिया। नीमा ने परमेश्वर कबीर जी को सीने से लगाया, मुख चूमा, पुत्रवत् प्यार किया जिस परमेश्वर की खोज में ऋषि-मुनियों ने जीवन भर शास्त्रविधि विरूद्ध साधना की उन्हें नहीं मिला।


वही परमेश्वर भक्तमती नीमा की गोद में खेल रहा था। जिस शान्तिदायक परमेश्वर को आन्नद की प्राप्ति के लिए प्राप्त करने की इच्छा से साधना की जाती है वही परमेश्वर नीमा के हाथों में सीने से लगा हुआ था। उस समय जो शीतलता व आनन्द का अनुभव भक्तमती नीमा को हो रहा होगा उस की कल्पना ही की जा सकती है। नीरू स्नान करके जल से बाहर आया। नीरू ने सोचा यदि हम इस बच्चे को नगर में ले जाएँगे तो शहर वासी हम पर शक करेंगे सोचेंगे कि ये किसी के बच्चे को चुरा कर लाए हैं। कहीं हमें नगर से निकाल दें। इस डर से नीरू ने अपनी पत्नी से कहा नीमा! इस बच्चे को यहीं छोड़ दे इसी में अपना हित है। नीमा बोली हे पति देव ! यह भगवान शंकर का दिया खिलौना है। इस बच्चे ने पता नहीं मुझ पर क्या जादू कर दिया है कि मेरा मन इस बच्चे के वश हो गया है। मैं इस बच्चे को नहीं त्याग सकती।


नीरू ने नीमा को अपने मन की बात से अवगत करवाया। बताया कि यह बच्चा नगर वासी हम से छीन लेगें, पूछेंगे कहाँ से लाए हो? हम कहेंगे लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर मिला है। हमारी बात पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा। हो सकता है वे हमें नगर से भी निकाल दें। तब नीमा ने कहा मैं इस बालक के साथ देश निकाला भी स्वीकार कर लूँगी। परन्तु इस बच्चे को नहीं त्याग सकती। मैं अपनी मृत्यु को भी स्वीकार कर लूँगी। परन्तु इस बच्चे से भिन्न नहीं रह सकूँगी।


नीमा का हठ देख कर नीरू को क्रोध आ गया तथा अपने हाथ को थप्पड़ मारने की स्थिति में उठा कर आँखों में आँसू भरकर करूणाभरी आवाज में बोला नीमा मैंने आज तक तेरी किसी भी बात को नहीं ठुकरवाया। यह जान कर कि हमारे कोई बच्चा नहीं है मैंने तुझे पति तथा पिता दोनों का प्यार दिया है। तू मेरे नम्र स्वभाव का अनुचित लाभ उठा रही है। आज मेरी स्थिति को न समझ कर अपने हठी स्वभाव से मुझे कष्ट दे रही है। विवाहित जीवन में नीरू ने प्रथम बार अपनी पत्नी की ओर थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया था तथा कहा कि या तो इस बच्चे को यहीं रख दे वरना आज मैं तेरी बहुत पिटाई करूँगा।


उसी समय नीमा के सीने से चिपके बालक रूपधारी परमेश्वर बोले हे नीरू! आप मुझे अपने घर ले चलो आप पर कोई आपत्ति नहीं आएगी। मैं सतलोक से चलकर तुम्हारे हित के लिए यहाँ आया हूँ। नवजात शिशु के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर नीरू (नूर अल्ली) डर गया कहीं यह कोई देव या पित्तर या कोई सिद्ध पुरूष न हो और मुझे शाप न दे दे। इस डर से नीरू कुछ नहीं बोला घर की ओर चल पड़ा। पीछे-2 उसकी पत्नी परमेश्वर को प्यार करती हुई चल पड़ी।


प्रतिदिन की तरह ज्येष्ठ मास की पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (1398 ई.) सोमवार को भी एक अष्टानन्द नामक ऋषि, जो स्वामी रामानन्द ऋषि जी के शिष्य थे काशी शहर से बाहर बने लहरतारा तालाब के स्वच्छ जल में स्नान करने के लिए प्रतिदिन की तरह गए। ब्रह्म मुहूर्त का समय था (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पूर्व का होता है) ऋषि अष्टानन्द जी ने लहरतारा तालाब में स्नान किया। वे प्रतिदिन वहीं बैठ कर कुछ समय अपनी पाठ पूजा किया करते थे। ऋषि अष्टानन्द जी ध्यान मग्न होने की चेष्टा कर ही रहे थे उसी समय उन्होंने देखा कि आकाश से एक प्रकाश पुंज नीचे की ओर आता दिखाई दिया। वह इतना तेज प्रकाश था उसे ऋषि जी की चर्म दृष्टि सहन नहीं कर सकी। जिस प्रकार आँखे सूर्य की रोशनी को सहन नहीं कर पाती। सूर्य के प्रकाश को देखने के पश्चात् आँखे बन्द करने पर सूर्य का आकार दिखाई देता है उसमें प्रकाश अधिक नहीं होता।


इसी प्रकार प्रथम बार परमेश्वर के प्रकाश को देखने से ऋषि जी की आँखे बन्द हो गई बन्द आँखों में शिशु को देख कर फिर से आँखे खोली। ऋषि अष्टानन्द जी ने देखा कि वह प्रकाश लहरतारा तालाब पर उतर गया। जिससे पूरा सरोवर प्रकाश मान हो गया तथा देखते ही देखते वह प्रकाश जलाशय के एक कोने में सिमट गया। ऋषि अष्टानन्द जी ने सोचा यह कैसा दृश्य मैंने देखा? यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरा दृष्टिदोष है? इस के विषय में गुरूदेव, स्वामी रामानन्द जी से पूछूँगा। यह विचार करके ऋषि अष्टानन्द जी अपनी शेष साधना को छोड़ कर अपने पूज्य गुरूदेव के पास गए। स्वामी रामानन्द जी को सर्व घटनाक्रम बताकर पूछा हे गुरूदेव! यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरी भ्रमणा है? मैंने प्रकाश आकाश से नीचे की ओर आते देखा जिसे मेरी आँखे सहन नहीं कर सकी। आँखे बन्द हुई तो नवजात शिशु दिखाई दिया। पुनः आँखें खोली तो उस प्रकाश से पूरा जलाशय ही जगमगा गया, पश्चात् वह प्रकाश उस तालाब के एक कोने में सिमट गया।

मैं आप से कारण जानने की इच्छा से अपनी साधना बीच में ही छोड़ कर आया हूँ। कृपया मेरी शंका का समाधान कीजिए। ऋषि रामानन्द स्वामी जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द से कहा हे ब्राह्मण! यह न तो तेरी भक्ति की उपलब्धि है न आप का दृष्टिदोष ही है। इस प्रकार की घटनाएँ उस समय होती हैं।

जिस समय ऊपर के लोकों से कोई देव पृथ्वी पर अवतार धारण करने के लिए आते हैं। वह किसी स्त्री के गर्भ में निवास करता है। फिर बालक रूप धारण करके नर लीला करके अपना अपेक्षित कार्य पूर्ण करता है। कोई देव ऊपर के लोकों से आया है। वह काशी नगर में किसी के घर जन्म लेकर अपना प्रारब्ध पूरा करेगा। उपरोक्त वचनों द्वारा ऋषि रामानन्द स्वामी जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द की शंका का समाधान किया। उन ऋषियों की यही धारणा थी की सर्व अवतार गण माता के गर्भ से ही जन्म लेते हैं।


पारख के अंग की वाणी नं. 385.391


गरीब, कोई कहै बरूण धर्मराय है, कोई कोई कहते ईश। सोलह कला सुभांन गति, कोई कहै जगदीश।।385।।
गरीब, भक्ति मुक्ति ले ऊतरे, मेटन तीनूं ताप। मोमन के डेरा लिया, कहै कबीरा बाप।।386।।
गरीब, दूध न पीवै न अन्न भखै, नहीं पलने झूलंत। अधर अमान धियान में, कमल कला फूलंत।।387।।
गरीब, कोई कहै छल ईश्वर नहीं, कोई किंनर कहलाय। कोई कहै गण ईश का, ज्यूं ज्यूं मात रिसाय।।388।।
गरीब, काशी में अचरज भया, गई जगत की नींद। एैसे दुल्हे ऊतरे, ज्यूं कन्या वर बींद।।389।।
गरीब, खलक मुलक देखन गया, राजा परजा रीत। जंबूदीप जिहाँन में, उतरे शब्द अतीत।।390।।
गरीब, दुनी कहै योह देव है, देव कहत हैं ईश। ईश कहै परब्रह्म है, पूरण बीसवे बीस।।391।।


सरलार्थ :- बालक को लेकर नीरू तथा नीमा अपने घर जुलाहा मोहल्ला (कॉलोनी) में आए। जिस भी नर व नारी ने नवजात शिशु रूप में परमेश्वर कबीर जी को देखा वह देखता ही रह गया। परमेश्वर का शरीर अति सुन्दर था। आँख जैसे कमल का फूल हो, घुँघराले बाल, लम्बे हाथ। लम्बी-2 अँगुलियाँ शरीर से मानो नूर झलक रहा हो। पूरी काशी नगरी में ऐसा अद्धभुत बालक नहीं था। जो भी देखता वहीं अन्य को बताता कि नूर अली को एक बालक तालाब पर मिला है आज ही उत्पन्न हुआ शिशु है। डर के मारे लोक लाज के कारण किसी विधवा ने डाला होगा। बालक को देखने के पश्चात् उसके चेहरे से दृष्टि हटाने को दिल नहीं करता, आत्मा अपने आप खिंची जाती है। पता नहीं बालक के मुख पर कैसा जादू है? पूरी काशी परमेश्वर के बालक रूप को देखने को उमड़ पड़ी। स्त्री-पुरूष झुण्ड के झुण्ड बना कर मंगल गान गाते हुए, नीरू के घर बच्चे को देखने को आए। बच्चे (कबीर परमेश्वर) को देखकर कोई कह रहा था, यह बालक तो कोई देवता का अवतार है, कोई कह रहा था। यह तो साक्षात् 

विष्णु जी ही आए लगते हैं। कोई कह रहा था यह भगवान शिव ही अपनी काशी नगरी को कृत्तार्थ करने को उत्पन्न हुए हैं। कोई कह रहा था। यह तो किन्नर का अवतार है, कोई कह रहा था। यह पित्तर नगरी से आया है। यह सर्व वार्ता सुनकर नीमा अप्रसन्न हो कर कहती थी कि मेरे बच्चे के विषय में कुछ मत कहो। हे अल्लाह! मेरे बच्चे की इनकी नजर से रक्षा करना। तुमने कभी बच्चा देखा भी है कि नहीं। ऐसे समूह के समूह मेरे बालक को देखने आ रहे हो। आने वाले स्त्री-पुरूष बोले हे नीमा। हमने बालक तो बहुत देखे हैं परन्तु आप के बालक जैसा नहीं देखा। इसीलिए हम इसे देखने आए हैं। ऊपर अपने-2 लोकों से श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिवजी भी झांक कर देखने लगे। काशी के वासियों के मुख से अपने में से (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा शिव में से) एक यह बालक होने की बात सुनकर बोले कि यह बालक तो किसी अन्य लोक से आया है। इस के मूल स्थान से हम भी अपरिचित हैं परन्तु है बहुत शक्ति युक्त कोई सिद्ध पुरूष है।


‘‘नीरू को धन की प्राप्ति’’

बालक की प्राप्ति से पूर्व दोनों जने (पति-पत्नी) मिलकर कपड़ा बुनते थे। 25 दिन बच्चे की चिन्ता में कपड़ा बुनने का कोई कार्य न कर सके। जिस कारण से कुछ कर्ज नीरू को हो गया। कर्ज मांगने वाले भी उसी पच्चीसवें दिन आ गए तथा बुरी भली कह कर चले गए। कुछ दिन तक कर्ज न चुकाने पर यातना देने की धमकी सेठ ने दे डाली। दोनों पति -पत्नी अति चिन्तित हो गए। अपने बुरे कर्मों को कोसने लगे। एक चिन्ता का समाधान होता है, दूसरी तैयार हो जाती है। माता-पिता को चिन्तित देख बालक बोला हे माता-पिता! आप चिन्ता न करो। आपको प्रतिदिन एक सोने की मोहर (दस ग्राम स्वर्ण) पालने के बिछौने के नीचे मिलेगी। आप अपना कर्ज उतार कर अपना तथा गऊ का खर्च निकाल कर शेष बचे धन को धर्म कर्म में लगाना। उस दिन के पश्चात् दस ग्राम स्वर्ण प्रतिदिन नीरू के घर परमेश्वर कबीर जी की कृपा से मिलने लगा। यह क्रिया एक वर्ष तक चलती रही।


परमेश्वर कबीर जी ने मुहर (सोने का सिक्का) मिलने वाली लीला को गुप्त रखने को कहा था एक दिन नीमा की प्रिय सखी उसी समय नीरू के घर पर आई जिस समय वह कबीर जी को जगाने का प्रयत्न कर रही थी। नीमा की सखी ने वह स्वर्ण मुहर देख ली तथा बोली इतना सोना आपके पास कैसे आया। नीमा ने अपनी प्रिय सखी से सर्व गुप्त भेद कह सुनाया कि हमें तो एक वर्ष से यह मुहर प्रतिदिन प्राप्त हो रही है। हमारे घर पर भाग्यशाली लड़का कबीर जब से आया है। हम तो आनन्द से रहते हैं। अगले दिन ही सोना मिलना बंद हो गया। नीरू तथा नीमा दोनों मिलकर कपड़ा बुनकर अपने परिवार का पालन पोषण करने लगे। बड़ा होकर बालक कबीर भी पिता के काम में हाथ बटाने लगा। थोड़े ही समय में अधिक बुनाई करने लगा।


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