Mukti Bodh-मुक्ति बोध: साधक की आयु वृद्धि होती है या नहीं | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

आज हम हम पढ़ रहे हैं Mukti Bodh-मुक्ति बोध के पेज नंबर का 52-53 जिसमें हम जानेगे कि क्या साधक की आयु वृद्धि होती है या नहीं | संत रामपाल जी महाराज


आयु वृद्धि होती है या नहीं?


एक ऋषि था। उसको किसी ने हस्तरेखा देखकर बताया कि आपकी तीन दिन आयु शेष है। वह ऋषि चिंतित हुआ और बोला कि कोई उपाय बताओ जिससे मेरी आयु चार वर्ष बढ़ जाए, मैं भक्ति करना चाहता हूँ। ऋषि को उस ज्योतिष शास्त्र ने बताया कि आप तो अच्छे उद्देश्य के लिए आयु वृद्धि चाह रहे हो, चलो प्रजापति ब्रह्मा जी के पास चलते हैं। वे जीवों के उत्पत्तिकर्ता हैं। ब्रह्मा जी के पास गए और उद्देश्य बताया तो ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं तो उत्पत्ति तो कर सकता हूँ। आयु की वृद्धि का अधिकार मेरे पास नहीं है। फिर सोचा कि विष्णु जी के पास चलते हैं। ऋषि जी का उद्देश्य अच्छा है। तीनों विमान में बैठकर विष्णु जी के पास गए। उद्देश्य बताया तो विष्णु जी ने कहा कि यह काम तो शंकर जी का है। वह संहार करते हैं, उन्हीं से प्रार्थना की जाए। ऋषि जी का जीवन वृद्धि का उद्देश्य भक्ति के लिए अच्छा है।

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विष्णु जी, ब्रह्मा जी तथा वे दोनों सब शंकर जी के पास गए। उनको उद्देश्य बताया तो शंकर जी ने कहा कि ऋषि जी का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है, परंतु मेरे को तो जो आदेश धर्मराज से आता है, उन्हीं की मृत्यु का आदेश यमदूतों-भूतों को करता हूँ। चलो! धर्मराज के पास चलते हैं। उस दिन उस ऋषि जी की मृत्यु का दिन था। तीनों (ब्रह्मा-विष्णु-शिव) देवता तथा ऋषि और ज्योतिष शास्त्री मिलकर धर्मराज के कार्यालय में गए तथा ऋषि की आयु वृद्धि के लिए कहा तथा उद्देश्य बताया कि यह केवल भक्ति के लिए आयु वृद्धि चाहता है। धर्मराज ने उस ऋषि का खाता (Account) खोला तो उसमें उसी दिन उसी समय मृत्यु लिखी थी। उस ऋषि की तुरंत मृत्यु हो गई। तीनों देवता धर्मराज से नाराज हो गए। कहा कि आपने हमारी इज्जत नहीं रखी।


आपने यह अच्छा नहीं किया। धर्मराज ने वह लेख दिखाया जो उस ऋषि की मृत्यु के विषय में था। उसमें लिखा था कि ऋषि जी की मृत्यु धर्मराज के कार्यालय में ब्रह्मा-विष्णु-शिव तथा ज्योतिष शास्त्री की उपस्थिति में दिन के इतने बीत जाने पर हो। आप जी ने तो मेरा कार्य सुगम कर दिया। यह लेख मैं नहीं लिखता। यह तो विधाता की ओर से अपने आप लिखे जाते हैं। यदि आप आयु बढ़वाना चाहते हैं तो अपनी आयु में से दान कर दो तो मैं इसकी आयु बढ़ा सकता हूँ। यह बात सुनकर सब चले गए। यह कथा सुनाकर नारद जी ने कहा कि इस बचे हुए समय में खूब नारायण-नारायण करले। नारद जी चले गए। अजामेल की चिंता ओर बढ़ गई कि भक्ति का लाभ क्या हुआ? दो वर्ष जीवन शेष था। परमेश्वर कबीर जी एक ऋषि वेश में अजामेल के घर प्रकट हुए।


अजामेल ने श्रद्धा से ऋषि का सम्मान किया। अपनी समस्या बताई। ऋषि रूप में सतपुरूष जी ने कहा कि आप मेरे से दीक्षा लो। आपकी आयु बढ़ा दूँगा। लेकिन अजामेल ने नारद जी से कथा सुनी थी कि जो आयु लिखी है, वह बढ़-घट नहीं सकती। विचार किया कि दीक्षा लेकर देख लेते हैं। दोनों ने दीक्षा ली। नारायण नाम का जाप त्याग दिया। नए गुरू जी द्वारा दिया नाम जाप किया।
मृत्यु वाले वर्ष का अंतिम महीना आया तो खाना कम हो गया, परंतु मंत्र का जाप निरंतर किया। अंतिम दिन भोजन भी नहीं खाया, मंत्र जाप दृढ़ता से करता रहा। वर्ष पूरा हो गया। एक महीना ऊपर हो गया, परंतु भय फिर भी बरकरार था। ऋषि वेश में परमेश्वर आए। दोनों पति-पत्नी देखते ही दौड़े-दौड़े आए।

चरणों में गिर गए। गुरूदेव आपकी कृपा से जीवन मिला है। आप तो स्वयं परमेश्वर हैं। परमेश्वर जी ने कहा कि :- मासा घटे ना तिल बढ़े, विधना लिखे जो लेख। साच्चा सतगुरू मेट कर, ऊपर मारे मेख।। अब आपकी आयु के लेख मिटाकर कील गाड़ दी है। जब मैं चाहूँगा, तब तेरी मृत्यु होगी। दोनों मिलकर भक्ति करो। अपने पुत्र को भी उपदेश दिलाओ। पुत्र को उपदेश दिलाया। भक्ति करके मोक्ष के अधिकारी हुए।


वाणी नं. 39 का सारांश यह है कि सदना ने बकरे के मुख से सुने उपदेश (प्रवचन) से गुरू बनाकर राम नाम का अमृत पीया, भक्ति की और अजामेल का मोक्ष भी तब हुआ, जब वह पूर्ण परमात्मा के प्रति समर्पित हुआ।(39)


● वाणी नं. 40

गरीब, नाम जलंधर कूं लिया, पारा ऋषि प्रवान। धन सतगुरु दाता धनी, दई बंदगी दान।।40।।

● भावार्थ :- जलन्धर नाथ तथा ऋषि पारासर ने भी भक्ति की। उनको स्वर्ग स्थान ही
मिला। परंतु मुझे पूर्ण सतगुरू मिले हैं जिन्होंने भक्ति-बंदगी दान दी यानि अपनी कृपा से
स्वयं मेरे पास प्रकट होकर दीक्षा दी।

● वाणी नं. 41 :-


गरीब, गगन मंडल में रहत है, अविनाशी आप अलेख। जुगन जुगन सतसंग है, धरि धरि खेले भेख।।41।।

● भावार्थ :- जैसा कि ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र 26-7, मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1-2, मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3, मण्डल नं. 9 सूक्त 96 मंत्र 16-20, मण्डल नं. 9 सूक्त 94 मंत्र 2, मण्डल नं. 9 सूक्त 95 मंत्र 1, मण्डल नं. 9 सूक्त 20 मंत्र 1 में

कहा है कि परमेश्वर आकाश में सर्व भुवनों (लोकों) के ऊपर के लोक में तीसरे भाग में विराजमान है। वहाँ से चलकर पृथ्वी पर आता है। अपने रूप को सरल करके यानि अन्य वेश में हल्के तेजयुक्त शरीर में पृथ्वी पर प्रकट होता है। अच्छी आत्माओं को यथार्थ आध्यात्म ज्ञान देने के लिए आता है। अपनी वाक (वाणी) द्वारा ज्ञान बताकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ विचरण करता है। अपनी महिमा के ज्ञान को कवित्व से यानि दोहों, शब्दों, चौपाईयों के माध्यम से बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। यही प्रमाण संत गरीबदास जी ने इस अमृतवाणी में दिया है कि परमेश्वर गगन मण्डल यानि आकाश खण्ड (सच्चखण्ड) में रहता है।

वह अविनाशी है, अलेख जिसको सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। सामान्य व्यक्ति उनकी महिमा का उल्लेख नहीं कर सकता। वह वहाँ से चलकर आता है। प्रत्येक युग में प्रकट होता है। भिन्न-भिन्न वेश बनाकर सत्संग करता है यानि तत्वज्ञान के प्रवचन सुनाता है। कबीर जी ने बताया है कि :-

सतयुग में सत सुकृत कह टेरा, त्रोता नाम मुनीन्द्र मेरा।
द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया।।


गरीब, सतगुरू पुरूष कबीर हैं, चारों युग प्रवान। झूठे गुरूवा मर गए, हो गए भूत मसान।।


मुक्तिबोध पेज नंबर 54




राग बिलावल का शब्द नं. 25 पढ़ें, भक्ति की अजब प्रेरणा है।

कर साहिब की भक्ति, बैरागर लै रे। समरथ सांई शीश पर, तो कूं क्या भै रै।।टेक।। शील संतोष बिबेक हैं, और ज्ञान दिवाना। दया धर्म चित चौंतरै, बांचो प्रवाना।।1।।


धर्म ध्वजा जहा फरहरैं, होंहि जगि जौंनारा। कथा कीरतन होत हैं, साहिब दरबारा।।2।।
समता माता मित्र हैं, रख अकल यकीनं। सत्तर पड़दे खुल्हत हैं, दिल में दुरबीनं।।3।।
जा कै पिता बिबेक से, और भाव से भाई। या पटतर नहीं और है, कछु बयाह न सगाई।।4।।
दृढ कै डूंगर चढ गये, जहां गुफा अनादं। लागी शब्द समाधि रे, धन्य सतगुरु साधं ।।5।।
सहमुखी जहां गंग है, तालव त्रिबैनी। जहां ध्यान असनान कर, परवी सुख चैनी।।6।।
कोटि कर्म कुसमल कटैं, उस परबी न्हाये। वोह साहिब राजी नहीं, कछु नाचे गाये।।7।।
अगर मूल महकंत हैं, जहां गंध सुगंधा। एक पलक के ध्यान सैं, कटि हैं सब फंदा।।8।।
दो पुड़ की भाठी चवै, जहां सुष्मण पोता। इडा पिंगुला एक कर, सुख सागर गोता।।9।।
अबल बली बरियाम है, निरगुण निरबानी। अनंत कोटि बाजे बजैं, बाजै सहदानी।।10।।

तन मन निश्चल हो गया, निज पद सें लागे। एक पलक के ध्यान सैं, दूंदर सब भागे।।11।। प्रपटन के घाट में, एक पिंगुल पंथा। छूटैं फुहारे नूर के, जहां धार अनंता।।12।।

झिलमिल झिलमिल होत है, उस पुरि में भाई। घाट बाट पावै नहीं, है द्वारा राई।।13।।
तहां वहां संख सुरंग हैं, मघ औघट घाटा। सतगुरु मिलैं कबीर से, तब खुलैं कपाटा।।14।।
संख कंवल जहां जगमगे, पीतांबर छाया। सूरज संख सुभान हैं, अबिनाशी राया।।15।।
अगर डोर सें चढि गये, धरि अलल धियाना। दास गरीब कबीर का, पाया अस्थाना।।16।।25।।

◆ वाणी नं. 42:-

गरीब, काया माया खंड है, खंड राज और पाठ। अमर नाम निज बंदगी, सतगुरु सें भइ साट।।42।।

● सरलार्थ :- संत गरीबदास जी ने बताया है कि काया यानि शरीर तथा माया यानि धन, राजपाट यानि राज्य सब खण्ड (नाश) हो जाता है। केवल निज नाम (वास्तविक भक्ति मंत्र) के नाम की साधना सतगुरू से लेकर की गई कमाई (भक्ति धन) अमर है।

◆ वाणी नं. 43:-

गरीब, अमर अनाहद नाम है, निरभय अपरंपार। रहता रमता राम है, सतगुरु चरण जुहार।।43।।

● सरलार्थ :- परमात्मा रमता यानि विचरण करता हुआ चलता-फिरता है। वह सतगुरू
रूप में मिलता है। उसके चरणों में प्रणाम करके भक्ति की भीख प्राप्त करें। उनके द्वारा
दिया गया नाम अनाहद (सीमा रहित) अमर (अविनाशी) मोक्ष देने वाला है। वह नाम प्राप्त
कर जो निर्भय बनाता है। उसकी महिमा का कोई वार-पार नहीं है अर्थात् वास्तविक मंत्र की महिमा असीम है।

● वाणी नं. 44:-

गरीब, अविनासी निहचल सदा, करता कूं कुरबान। जाप अजपा जपत है, गगन मंडल धरि ध्यान।।44।।
● सरलार्थ :- उस अविनाशी कर्ता (सृष्टि रचनहार) पर कुर्बान हो जा जो निश्चल
(स्थाई) है। उसके नाम का अजपा यानि मन-मन में श्वांस द्वारा स्मरण कर (जाप कर) और
गगन मण्डल में ध्यान रख कि परमेश्वर (सतपुरूष) ऊपर सतलोक में विराजमान है। मैंने
भी वहीं जाना है। वह सुखदाई स्थान है। वहाँ जन्म-मरण नहीं है। कोई राग-द्वेष नहीं है। सब प्रेम से रहते हैं। युवा रहते हैं।

● वाणी नं. 45:-

गरीब, बिन रसना ह्नै बदंगी, निज चसमों दीदार। निज श्रवण बानी सुनै, निरमल तत्त्व निहार।।45।

◆सरलार्थ :- सतगुरू द्वारा दीक्षा में दिए वास्तविक नामों का जाप विधि अनुसार करने से यानि बिना रसना (जीभ) के बंदगी (नम्र भाव से स्मरण) यानि अजपा जाप करने से बिन चिसमों (बिना चर्म दृष्टि) के यानि दिव्य दृष्टि से परमेश्वर का दीदार (दर्शन) होता है। बिन श्रवण (बिना कानों) के यानि आत्मा के कानों से आए लोक की वाणी सुनाई देती है। उस निर्मल तत्व यानि पवित्रा परमेश्वर को निहार यानि एकटक देख।


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