सुमिरन का अंग का सरलार्थ-श्वांस-उश्वांस से स्मरण | संत रामपाल जी महाराज
श्वांस-उश्वांस से सुमिरन
सत्यनाम के स्मरण को श्वांस-उश्वांस रूपी माला अर्थात् यथार्थ भक्ति साधना कहा जाता है। भावार्थ है कि पूर्ण संत सत्य साधना बताता है। पूर्ण संत किसी भाग्यवान को ही मिलता है। वह विशेष किस्मत वाला ही उस श्वांस-उश्वांस से स्मरण को प्राप्त करके नाम जाप करता है जिससे उस साधक के पाप कर्मों का नाश होकर कर्म बंधन रूपी जाल नष्ट हो जाता है। जिस कारण से वह साधक फिर से जन्म-मरण के चक्र से निकल जाता है, चौरासी (84) लाख प्रकार के जीवों के शरीरों में नहीं भटकता।(2)
वाणी:- कबीर, सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अन्त मध्य सोधिया, दूजा देख्या ख्याल।।(3)
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि भक्ति के लिए की जाने वाली साधनाओं में नाम का स्मरण सार है अर्थात् निष्कर्ष है। भावार्थ है कि जैसे कई साधक केवल सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन अधिक करते हैं जो ज्ञान यज्ञ है। कुछ धार्मिक भण्डारे-भोजन कराने को महत्व देते हैं। कई धर्मशाला, प्याऊ आदि के निर्माण में अधिक समय देते हैं। कई हवन करने में अधिक समय लगाते हैं। परंतु इन सर्व साधनाओं में सबसे अधिक समय नाम स्मरण में लगाना चाहिए। नाम स्मरण न करके अन्य क्रियाओं को करना तो जंजाल बताया है अर्थात् व्यर्थ बताया है। आदि से तथा वर्तमान के अंत तक सब शोध करके देख लिया, नाम का स्मरण करना ही लाभदायक है।
यही प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में भी है, कहा है कि:
वायु अनिलम् अथ इदम् अमृतम् भस्मान्तम् शरीरम्।
ओम् (ॐ) कृतो स्मर, किलबे स्मर, कृतुम् स्मर।।
ओम् (ॐ) कृतो स्मर, किलबे स्मर, कृतुम् स्मर।।
अनुवाद:- (वायु) हवा अर्थात् श्वांस (अनिलम्) अग्नि अर्थात् गर्म (अथ) प्रारंभ कर (इदम्) इस प्रकार स्मरण से (भस्मान्तम् शरीरम्) देहान्त के बाद जो (अमृतम्) अमरत्व मिलेगा, उसके लिए (ओम्) ॐ नाम का (कृतो) कार्य करते-करते (स्मर) स्मरण कर (किलबे स्मर) विशेष कसक के साथ स्मरण कर (कृतुम् स्मर) मानव जीवन का मूल कर्तव्य जानकर स्मरण कर।
भावार्थ:- गर्म श्वांस से आरंभ कर अर्थात् जो श्वांस बाहर छोड़ा जाता है, वह गर्म है। जो सतनाम है, उसमें दो अक्षर है। एक ॐ (ओम्) और दूसरा तत् = यह गुप्त मंत्र है, उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय बताया जाता है। इनमें से एक अक्षर अर्थात् नाम बाहर छोड़ते समय श्वांस के द्वारा जपा जाता है। दूसरा श्वांस अंदर लेते समय उश्वांस द्वारा जपा जाता है। सिद्ध हुआ कि अपने सद्ग्रन्थ नाम स्मरण को अधिक महत्व देते हैं।
वाणी:- कबीर, जिन मुख आत्म राम है, दूजा दुःख अपार।
मनसा वाचा कर्मना, कबीर सुमिरन सार।।(4)
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि आत्मा को वास्तविक सुख परमात्मा से मिलता है। इसके अतिरिक्त सर्व असीमित दुख है। जैसे मानव जीवन में पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों से यहाँ पर कितना बड़ा पद प्राप्त है, चाहे राजा भी बना है, यदि नाम जाप अर्थात् भक्ति नहीं की तो 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाना पड़ेगा जो अपार दुःख है जिसका कोई अन्त नहीं है। अन्त नाम स्मरण से ही होगा, वह मानव जीवन में ही संभव है। इसलिए परमेश्वर कबीर जी ने अति दृढ़ता के साथ कहा है कि मैं मन-कर्म-वचन से कह रहा हूँ कि नाम का स्मरण मोक्ष के लिए मूल रूप है।
वाणी:- कबीर, दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करे ना कोय।
जो सुख में सुमिरन करें, तो दुख काहे को होय।।(5)
कबीर, सुख में सुमिरन किया नहीं, दुख में किया याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद।।(6)
विशेष:- यहाँ पर यह स्पष्ट करना अनिवार्य समझता हूँ कि उपरोक्त वाणी सँख्या 6 का अर्थ ऊपर किया, ठीक है। यह उनके लिए है जिनको दुख के समय परमात्मा की खोज में जाने के पश्चात् भी पूर्ण संत नहीं मिलता, नकली गुरूओं या जंत्र-मंत्र करने वाले तांत्रिकों की भेंट चढ़ जाते हैं। यदि दुख समय में भटकते व्यक्ति को पूर्ण संत मिल जाता है तो उसका संकट निवार्ण हो जाता है, दुख दूर हो जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है:-
कबीर, सतगुरू शरण में आने से, आई टलै बला।
जै भाग्य में शूली हो, काँटे में टल जाय।।
कबीर, सांई यूंही मत जानियो, प्रीत घटे मम चित।
मरूं तो सुमिरत मरूं, जीवित सिमरूं नित्य।।
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी भक्तों को समझाना चाहते हैं कि नामदान होने के पश्चात् परमेश्वर को सामान्य भाव से मत याद करना क्योंकि नाम को प्राप्त करके कुछ व्यक्ति यह समझते हैं कि यह कैसा नाम, कभी सुना ही नहीं। या फिर कई यह भावना बनाते हैं कि इतनी साधना कैसे बनेगी 108 मंत्र जाप करना संभव नहीं। इस प्रकार से भगवान को जानने से श्रद्धा कम हो जाती हैं परमेश्वर कबीर जी ने श्रद्धा की दृष्टि से कहा है कि आप तो एक माला 108 नाम की जाप करने में कठिनाई मानते हो, मैं तो परमात्मा के नाम का स्मरण करते-करते प्राण त्यागने का वरदान माँगता हूँ और जब तक जीवन है, तब तक परमेश्वर को नित्य अर्थात् सदा क्षण-क्षण स्मरण करूँ, ऐसा आशीर्वाद गुरूदेव दें, मैं मेरी मृत्यु हो तब भी मरते-मरते नाम को याद करता हुआ प्राण त्यागूँ और जीवन प्रयन्त कभी स्मरण न भूलूँ।
वाणी:- कबीर, जप तप संयम साधना, सब सुमिरन के मांही।
कबीर, जानै राम जन, सुमिरन बिन कुछ नाहीं।।
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे भक्त! जो तुम अन्य मनमाने नामों का जप करते हो तथा हठयोग करके तप करते हो और अपनी इन्द्रियों पर संयम करने के लिए अनेकों क्रियाऐं करते हो, उसकी बजाय आप सतनाम का स्मरण करो, ये सर्व साधना अपने आप सिद्ध हो जाऐंगी, इस रहस्य को रामजन अर्थात् पूर्ण संत का शिष्य जानता है कि सत्य साधना सतनाम से होती है, इसके बिना अन्य क्रियाऐं व्यर्थ हैं। जैसे कोई विष्णु संहस्रनामा का जाप करता है, कोई गायत्राी मंत्र का (जो यजुर्वेद के अध्याय 36 का मंत्र 3 है, उससे पहले ओम् = ॐ अक्षर जोड़कर गायत्राी मंत्र बनाया है,उसका) जाप करते हैं।
इन्द्रियों पर संयम करने के लिए श्रृंगी ऋषि वन में चला गया। अभ्यास करके इतना संयम कर लिया कि दिन में एक बार वृक्ष की छाल को चाटने मात्र से भूख-प्यास शांत हो जाती थी। राजा दशरथ की लड़की ने वृक्ष के उस स्थान पर शहद लगा दिया जहाँ श्रृंगी ऋषि जीभ से चाटता था। तीसरे दिन श्रृंगी ऋषि ने खीर खानी प्रारंभ कर दी, अंत में उस लड़की से विवाह करके ग्रहस्थ बन गया। सैंकड़ों वर्ष संयम बनाने के लिए साधना की, भक्ति की नहीं, अंत में पहले जैसे ही हो गए। इसलिए परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त तत्वज्ञान में संत गरीबदास जी ने कहा है:-
इन्द्री कर्म ना लगे लगारम, जो भजन करै निर्दुन्द रे।
गरीबदास, जग कीर्ति होगी, जब लग सूरज चंद रे।।
भावार्थ:- यदि परमात्मा के नाम स्मरण में लीन रहे तो इन्द्रियों के विषय विकारों का चिंतन करने का समय ही नहीं मिलेगा। सत्यनाम की साधना से इन्द्री कर्म साधक में लिप्त नहीं होते। परमात्मा के लगातार नाम स्मरण करने से साधक का यश भी पृथ्वी पर बना रहता है। जैसे पूर्व के महान भक्त ध्रू, प्रहलाद, मीरा बाई, भीलनी, धन्ना भक्त, संत रविदास जी, परमेश्वर कबीर जी, संत नामदेव जी, संत गरीबदास जी आदि-आदि महान भक्तों के नाम भक्त समाज में सूरज की तरह रोशन हैं।(8)
वाणी:- कबीर, जिन हर जैसा सुमरिया, ताको तैसा लाभ।
ओसां प्यास न भागही, जब तक धसै नहीं आब।।(9)
सरलार्थ:- जो भक्त जैसी श्रद्धा से तथा अधिकता तथा न्यूनता से भक्ति करता है, उसको उतना ही साधना का लाभ होता है। परमेश्वर कबीर जी ने सटीक उदाहरण दिया है कि जैसे ओस जल जो घास पर रात्रि के समय जमा होता है, यदि कोई उस ओस के जल को जीभ से चाटकर प्यास शांत करना चाहे तो संभव नहीं। प्यास शांत करने के लिए आब अर्थात् पानी में धंसना पड़ेगा अर्थात् प्यास शांत करने के लिए गिलास के गिलास जल पीना पड़ेगा। धँसना का अर्थ है किसी तरल पदार्थ में खड़ा होना, उदाहरण के लिए जब कोई दलदल गारा में प्रवेश कर जाता है तो कीचड़ उसके पैरों से चिपट जाती है। उसको कहते हैं गारा में धँस गया। दूसरा उदाहरण यह जानें जैसे कोई लालची अधिक है तो उसका व्यवहार देखकर अन्य व्यक्ति कहते हैं कि यह तो लालच में धँसा है।
इसी प्रकार ओस जल प्यास शांत करने के लिए पर्याप्त नहीं होता, प्यास शांत करने के लिए अधिक जल पीना पड़ता है। इसी प्रकार आत्मा की भक्ति वाली प्यास शांत करने के लिए अधिक स्मरण, दान-धर्म करना पड़ेगा। जैसे हम तत्वज्ञान न होने के कारण रूई की पतली-सी ज्योति घी में गीली-सुखी करके जलाते थे। वह शीघ्र ही शांत हो जाती थी तथा मंगलवार को सवा रूपये या सवा दो रूपये की बुन्दी प्रसाद बाँटकर अपने आपको धन्य मानते थे। वह हम ओस चाट रहे थे। अब हम सुबह शाम ज्योति (दीप) देशी घी में जलाते हैं, लगभग 100 ग्राम घी प्रतिदिन हवन करते हैं, पाठ करते हैं, हजारों रूपये वर्ष में धर्म पर लगाते हैं, यह हम आब में धँस रहे हैं अर्थात् गट-गट पानी के गिलास पी रहे हैं।(9)
वाणी:- कबीर, सुमिरन की सुध यूं करो, जैसे दाम कंगाल।
कह कबीर विसरै नहीं, पल-पल लेत संभाल।।(10)
शब्दार्थ:- (1- सुध का अर्थ है संभाल, देखरेख, ध्यान 2- दाम = रूपये 3- कंगाल = निर्धन 4- विसरना = भूलना)
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि परमात्मा के नाम के स्मरण की सुध अर्थात् संभाल ऐसे करनी चाहिए जैसे किसी निर्धन ने कुछ रूपये उधार लिए। वे कुछ दिन बाद आने वाले किसी धनी का कर्ज देना था। निर्धन व्यक्ति उन रूपयों को दिन में तथा रात्रि में कई-कई बार संभालता है, देखता है सुरक्षित है, पूरे हैं कि नहीं, कहीं कोई चोर तो नहीं चुरा ले गया। इस प्रकार की चिंता उसको सताती रहती है और निर्धन व्यक्ति अपने दामों (रूपयों) की देखरेख करता है। वह चिंतित रहता है कि यदि रूपये (दाम) चोरी हो गये तो मेरा तो दिवाला ही निकल जाएगा। इसी प्रकार एक साधक को अपने नाम स्मरण रूपी धन की संभाल करनी चाहिए अर्थात् रह-रहकर स्मरण में लगन लगानी चाहिए, स्मरण करना चाहिए, भूल लगे तो फिर तुरंत स्मरण कर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।(10)
वाणी:- कबीर, सुमिरन स्यों मन लाईये, जैसे पानी मीन।
प्राण तजै पल बिछुड़ैं, सार कबीर कह दीन्ह।।(11)
सरलार्थ:- स्मरण से मन को ऐसे लगाकर रखें जैसे मछली पानी से लगाती है। यदि मछली एक पल भी जल से बाहर निकाल दी जाए तो तड़फ-तड़फकर मर जाती है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि यह सार अर्थात् निचोड़ कह दिया है। भावार्थ है कि जैसे मछली जल के अभाव में प्राण त्याग देती है, उसके बिना मरना उचित समझती है। साधक को वह दिन तथा समय जिस दिन किसी कारण से स्मरण न कर सका हो, ऐसा लगना चाहिए जैसे सब कुछ लुट गया हो। तुंरत स्मरण में लगकर क्षतिपूर्ति करनी चाहिए।
वाणी:- कबीर, सत्यनाम सुमरले, प्राण जाहिंगे छूट।
घर के प्यार आदमी, चलते लेंगे लूट।।(12)
अधिक जानकारी के लिए जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित पुस्तकें जरूर पढ़ें:- ज्ञान गंगा, जीने की राह ,गीता तेरा ज्ञान अमृत, गरिमा गीता की, अंध श्रद्धा भक्ति खतरा-ए-जान । जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी से निशुल्क नाम दीक्षा लेने के लिए यह फॉर्म भरें।
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