मुक्ति बोध-Mukti Bodh-भैंस का सींग भगवान बना | Spiritual Leader Saint Ramapl Ji

आज मुक्ति बोध-Mukti Bodh में जानिए कैसे ‘‘भैंस का सींग भगवान बना’’ | संत रामपाल जी महाराज

एक पाली (भैंसों को खेतों में चराने वाला) अपनी भैंसों को घास चराता-चराता मंदिर के आसपास चला गया। मंदिर में पंडित कथा कर रहा था। भगवान के मिलने के पश्चात् होने वाले सुख बता रहा था कि जिसको भगवान मिल गया तो सब कार्य सुगम हो जाते हैं परमात्मा भक्त के सब कार्य कर देता है। भगवान भक्त को दुःखी नहीं होने देता। इसलिए भगवान की खोज करनी चाहिए। पाली भैंसों ने तंग कर रखा था। एक किसी ओर जाकर दूसरे की फसल में घुसकर नुकसान कर देती, दूसरी भैंस किसी ओर। खेत के मालिक आकर पाली को पीटते थे। कहते थे कि हमारी फसल को हानि करा दी। अपनी भैंसों को संभाल कर रखा कर। पाली ने जब पंडित से सुना कि भगवान मिलने के पश्चात् सब कार्य आप करता है, भक्त मौज करता है तो पंडित जी के निकट जाकर चरण पकड़कर कहा कि मुझे भगवान दे दो। मैं भैंसों ने बहुत दुःखी कर रखा हूँ।


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पंडित जी ने पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से कहा कि कल आना। पाली गया तो पंडित ने पहले ही भैंस का टूटा हुआ सींग जो कूड़े में पड़ा था, उठाकर उसके ऊपर लाल कपड़ा लपेटकर लाल धागे (नाले=मौली) से बाँधकर कहा कि ले, यह भगवान है। इसकी पूजा करना, इसको पहले भोजन खिलाकर बाद में स्वयं खाना। कुछ दिनों में तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर यह भगवान मनुष्य की तरह बन जाएगा। तब तेरे सब कार्य करेगा। यह तेरी सच्ची श्रद्धा पर निर्भर है कि तू कितनी आस्था से सच्ची लगन से क्रिया करता है। यदि तेरी भक्ति में कमी रही तो भगवान मनुष्य के समान नहीं बनेगा।


पाली उस भैंस के सींग को ले गया। उसके सामने भोजन रखकर कहा कि खाओ भगवान! भैंस का सींग कैसे भोजन खाता? पाली ने भी भोजन नहीं खाया। इस प्रकार तीन-चार दिन बीत गए। पाली ने कहा कि मर जाऊँगा, परंतु आप से पहले भोजन नहीं खाऊँगा। मेरी भक्ति में कमी रह गई तो आप मनुष्य नहीं बनोगे। मैं भैंसों ने बहुत दुःखी कर रखा हूँ। परमात्मा तो जानीजान हैं। जानते थे कि यह भोला भक्त मृत्यु के निकट है।


उस पाखण्डी ने तो अपना पीछा छुड़ा लिया। मैं कैसे छुड़ाऊँ? चौथे दिन पाली के सामने उसी भैंस के सींग का जवान मनुष्य बन गया। पाली ने बांहों में भर लिया और कहने लगा कि भोजन खा, फिर मैं खाऊँगा। भगवान ने ऐसा ही किया। फिर अपने हाथों पाली को भोजन डालकर दिया। पाली ने भोजन खाया। भगवान ने कहा कि मेरे को किसलिए लाया है? पाली बोला कि भैंस चराने के लिए चल, भैंसों को खेत में खोल, यह लाठी ले। अब सारा कार्य आपने करना है, मैं मौज करूँगा। परमात्मा ने लाठी थामी और सब भैंसों की अपने आप रस्सी खुल गई और खेतों की ओर चल पड़ी।


कोई भैंस किसी ओर जाने लगे तो लाठी वाला उसी ओर खड़ा दिखाई देता। भैंसे घास के मैदान में भी घास चरने लगी। दूसरों की खेती में कोई नुक्सान नहीं हो रहा था। पाली की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। वह अपने गुरू जी पंडित जी का धन्यवाद करने मंदिर में गया। पंडित डर गया कि यह झगड़ा करेगा, कहेगा कि अच्छा मूर्ख बनाया, परंतु बात विपरित हुई। पाली ने गुरू जी के चरण छूए तथा कहा कि गुरू जी चौथे दिन आदमी रूप में भगवान बन गया। मैंने भी भोजन नहीं खाया, प्राण निकलने वाले थे। उसी समय वह लाल वस्त्र में बँधा भगवान जवान लड़का बन गया।

मेरी ही आयु के समान। अब सारा कार्य भगवान कर लेता है। मैं मौज करता हूँ। उसके भोले-भाले अंदाज से बताई कथा सत्य लग रही थी, परंतु विश्वास नहीं हो रहा था। पंडित जी ने कहा कि मुझे दिखा सकते हो, कहाँ है वह युवा भगवान। पाली बोला कि चलो मेरे साथ। पंडित जी पाली के साथ भैंसों के पास गया। पूछा कि कहाँ है भगवान? पाली बोला कि क्या दिखाई नहीं देता, देखो! वह खड़ा लाठी ठोडी के नीचे लगाए। पंडित जी को तो केवल लाठी-लाठी ही दिखाई दे रही थी क्योंकि उसके कर्म लाठी खाने के ही थे। पाली से कहा कि मुझे लाठी-लाठी ही दिखाई दे रही है। कभी इधर जा रही है, कभी उधर जा रही है।


तब पाली ने कहा कि भगवान इधर आओ। भगवान निकट आकर बोला, क्या आज्ञा है? पंडित जी को आवाज तो सुनी, लाठी भी दिखी, परंतु भगवान नहीं दिखे। पाली बोला, आप मेरे गुरू जी को दिखाई नहीं दे रहे हो, इन्हें भी दर्शन दो। भगवान ने कहा, ये पाखण्डी है। यह केवल कथा-कथा सुनाता है, स्वयं को विश्वास नहीं। इसको दर्शन कैसे हो सकते हैं? पंडित जी यह वाणी सुनकर लाठी के साथ पृथ्वी पर गिरकर क्षमा याचना करने लगा। भगवान ने कहा, यह भोला बालक मर जाता तो तेरा क्या हाल होता?

मैंन इसकी रक्षा की।

पाली के विशेष आग्रह से पंडित जी को भी विष्णु रूप में दर्शन दिए क्योंकि वह श्री विष्णु जी का भक्त था। फिर अंतर्ध्यान हो गया। प्रिय पाठकों से निवेदन है कि इस कथा का भावार्थ यह न समझना कि पाली की तरह हठ योग करने से परमात्मा मिल जाता है। यदि कुछ देर दर्शन भी दे गए और कुछ जटिल कार्य भी कर दिए। इससे जन्म-मरण का दीर्घ रोग तो समाप्त नहीं हुआ। वह तो पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहकर आजीवन साधना करने से ही समाप्त होगा। पाली तथा पंडित पिछले जन्म में परमात्मा के परम भक्त थे, परंतु अपनी गलती से मुक्त नहीं हो पाए थे। उनको अबकी बार पार करना था। उस कारण से यह सब कारण बनाए थे। पूर्व जन्म की भक्ति के प्रभाव से मानव परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। मार्ग ठीक न मिलने से शास्त्र विरूद्ध क्रिया करता रहता है। जैसे पंडित जी कर रहा था।


संत रामपाल जी है एक सच्चे वैद्य

जैसे पाली को यह विश्वास होना कि यह लाल कपड़े में लिपटा भगवान मनुष्य बन जाएगा, फिर दृढ़ता से क्रिया करना, यह पूर्व जन्म के भक्ति कर्मों का प्रभाव होता है। मोक्ष तो पूर्ण सतगुरू से सत्य मंत्र लेकर जाप करने से ही संभव है। संत गरीबदास जी ने वाणी रूपी वन में प्रत्येक प्रकार के पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां लगाई हैं। तत्वदर्शी संत रूपी वैद्य ही जन्म-मरण के रोग के नाश की औषधि तैयार करके कल्याण करता है। इस तरह की लीला जो गुरू के भक्त नहीं होते, उनमें युगों पर्यान्त करोड़ों में से किसी एक के साथ होती है। यदि इतने से ही सब कुछ होता हो तो अन्य मंत्र जाप करने, धर्म करने की प्रेरणा की तथा वाणी लिखने की क्या आवश्यकता थी? इस तरह की लीला करके परमात्मा भक्तों में विश्वास बनाए रखता है। भक्ति से मोक्ष होता है। गुरू के भक्तों के लिए तो परमात्मा अनेकों अनहोनी लीलाऐं भी करता रहता है, मोक्ष भी देता है।


प्रभुओं में समर्थ प्रभु ही कल्याणकारक है। (सांई माने मालिक-प्रभु) संतों में तत्वदर्शी संत ही उद्धार करने वाले हैं। नामों में सत्यनाम तथा सारनाम ही मोक्ष के हैं तथा परमात्मा की शक्ति का कोई अंत नहीं। वेद में (कविरमितौजा) यानि कविर्देव (अमित) असीमित (औजा) शक्ति वाले हैं।


परमात्मा कबीर जी ने की द्रोपदी की रक्षा 

द्रोपदी पूर्व जन्म में परमात्मा की भक्ति करती थी। परमात्मा अनेकों वेश बनाकर भक्तों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। परमात्मा गुरू-ऋषि रूप में नगरी के पास आश्रम बनाकर रहते थे। कंवारी द्रोपदी को भी अन्य सहेलियों के साथ प्रथम मंत्र पाँच नाम वाला प्राप्त था। विवाह के पश्चात् पाण्डवों के साथ श्री कृष्ण जी को गुरू धारण कर लिया था। जो यथार्थ नाम इन देवों के हैं, उनका जाप करती थी। जिस कारण परमेश्वर जी ने अंधे का रूप धारकर साड़ी का टुकड़ा दान लिया। फिर उसकी रक्षा की यानि द्रोपदी का चीर बढ़ाया। दुःशासन जैसे योद्धा चीर उतारते-उतारते थक गए, ढ़ेर लग गया, परंतु चीर का अंत नहीं आया। इस प्रकार दान करने की प्रेरणा किसी जन्म में निज नाम की भक्ति करने
का फल है।


परमेश्वर मुनिन्द्र ऋषि जी

श्री रामचन्द्र जी ने श्रीलंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बनाना चाहा तो परमेश्वर जी मुनिन्द्र ऋषि के रूप में वहाँ गए। निकट के पहाड़ के चारों ओर अपनी डण्डी (छोटी लाठी) से रेखा खींचकर उसके अंदर के पत्थर हल्के कर दिए, तब पुल बना था। जब गज (हाथी) तथा ग्राह (मगरमच्छ) आपस में लड़ रहे थे तो हाथी का पैर मगरमच्छ ने पकड़कर जल में खींचा तो हाथी ने आधा राम (रा......) कहा था। उसी समय परमात्मा ने सुदर्शन चक्र मगरमच्छ के माथे पर मारा, तब हाथी की जान बची। इस वाणी में यह बताना चाहा है कि परमात्मा का जाप ऐसे भाव से करे जैसे हाथी को अपनी जान की भीख भगवान से माँगने के लिए सुमरन (स्मरण) किया था तो परमात्मा ने उसकी विपत्ति टाली। वही बात यहाँ भी स्पष्ट है कि ऐसी घटनाऐं युगों पर्यन्त घटती हैं। हाहा-हूहू नाम के दो तपस्वी थे। वे ही हाथी तथा मगरमच्छ बने थे। पिछली भक्ति संस्कारवश उनकी रक्षा हुई थी।


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