आज आप Mukti Bodh-मुक्ति बोध में पढेंगे कि कैसे कबीर परमात्मा ने काशी में 18 लाख लोगो को भोजन-भण्डारा करवाया तथा अपनी समर्थता का प्रमाण दिया | संत रामपाल जी माहराज
आज पढ़ रहे हैं मुक्तिबोध पेज नंबर 33, 34 पढ़ रहे हैं।
वाणी नं. 30:-
गरीब, बारद ढारी कबीर जी, भगत हेत कै काज।
सेऊ कूं तो सिर दिया, बेचि बंदगी नाज।।30।।
सरलार्थ: संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी का उदाहरण देकर हम भक्तों को समझाया है कि जैसे कबीर भक्त के साथ काशी के पंडितों तथा मुल्ला-काजियों ने ईर्ष्या के कारण झूठी चिट्ठियाँ डाली थी कि कबीर जी भोजन-भण्डारा करेंगे। प्रत्येक भोज के पश्चात् एक मोहर तथा एक दोहर दक्षिणा देंगे। इस कारण 18 लाख (अठारह लाख) साधु-संत-भक्त निश्चित दिन पहुँच गए थे। कबीर जी जुलाहे का कार्य करते थे। जो मेहनताना (salary) मिलता था, उससे अपने परिवार के खर्च का रखकर शेष को
भोजन-भण्डारा करके धर्म में लगा देते थे।
जिस कारण से घर में दो व्यक्ति आ जाऐं तो उनका भी आटा नहीं रहता था। उस दिन अठारह लाख मेहमान उपस्थित थे तो परमेश्वर कबीर जी अन्य रूप केशव बनजारे का धारण करके नौ लाख बैलों की पीठ पर बोडी यानि गधों के बोरे जैसा थैला धरकर उनमें पका-पकाया भोजन भरकर सतलोक से लेकर आए और तीन दिन का भोजन-भण्डारा पत्रों में लिखा था तो तीन दिन ही 18 लाख व्यक्तियों को भोजन कराया तथा प्रत्येक खाने के पश्चात् एक स्वर्ण की मोहर तथा एक दोहर दी गई। जो हरिद्वार से गरीबदास वाले पंथियों ने सदग्रंथ छपाया है, उसमें वाणी इस प्रकार है:-
गरीब, बारद ढुरि कबीर कै, भक्ति हेत के काज।
यथार्थ वाणी ऊपर लिखी है, फिर भी हमने भावार्थ समझना है। जब कबीर जी काशी में लीला से लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में प्रकट होकर लीला करने आए हुए थे। उसी समय एक रामानन्द जी पंडित थे जो प्रसिद्ध आचार्य माने जाते थे। उनको कबीर परमेश्वर जी ने अपने सत्यलोक के दर्शन कराए, अपना परिचय कराया। फिर वापिस शरीर में लाकर छोड़ा। उसके पश्चात् स्वामी रामानन्द जी ने कहा :-
दोहू ठौर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें, आए हो मग जोय।।
बोलत रामानन्द जी, सुन कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में, तुम ही बोलनहार।।
तुम साहब तुम संत हो, तुम सतगुरू तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन, और न दूजा अंश।।
भावार्थ :- स्वामी रामानन्द जी ने कहा है कि हे कबीर जी! आप ऊपर सतलोक में भी हैं, आप यहाँ हमारे पास भी विद्यमान हैं। आप दोनों स्थानों पर लीला कर रहे हैं। वास्तव में आप ही साहब यानि परमात्मा हैं। वास्तव में आप ही पूर्ण संत के गण हैं और वास्तव में सतगुरू भी आप ही हैं तथा एक वास्तविक हंस यानि जैसा भक्त होना चाहिए, वे लक्षण भी आप में ही हैं। कबीर जी एक उदाहरण पेश कर रहे थे कि जैसे मैं मेहनत करके धन कमाता हूँ, भक्ति भी करता हूँ तथा निर्धन होकर भी भोजन-भण्डारा (लंगर) करवाता रहता हूँ। यदि अन्य भक्त भी मेरी तरह पूर्ण विश्वास के साथ ऐसा करेगा तो परमात्मा उस भक्त की ऐसे सहायता करता है जैसे मेरी की है। अठारह लाख साधुओं-भक्तों को तीन दिन भण्डारा-भोजन करा दिया। वास्तव में सब लीला स्वयं कबीर जी ही ने की थी भक्तों का मनोबल बढ़ाने के लिए। वास्तविक कथा इस प्रकार हैः-
‘काशी में भोजन-भण्डारा करना
शेखतकी सब मुसलमानों का मुख्य पीर (गुरू) था जो परमात्मा कबीर जी से पहले से ही खार खाए था अर्थात् पहले से ही ईर्ष्या करता था। सर्व ब्राह्मणों तथा मुल्ला-काजियों व शेखतकी ने मजलिस करके षड़यंत्र के तहत योजना बनाई कि कबीर निर्धन व्यक्ति है। इसके नाम से पत्र भेज दो कि कबीर जी काशी में बहुत बड़े सेठ हैं। उनका पूरा पता है कबीर पुत्र नूरअली अंसारी जुलाहों वाली कॉलोनी, काशी शहर। कबीर जी तीन दिन का धर्म भोजन-भण्डारा करेंगे। सर्व साधु संत आमंत्रित हैं। प्रतिदिन प्रत्येक भोजन करने वाले को एक दोहर (जो उस समय का सबसे कीमती कम्बल के स्थान पर माना जाता था), एक मोहर (10 ग्राम स्वर्ण से बनी गोलाकार की मोहर) दक्षिणा में देगें।
प्रतिदिन जो जितनी बार भी भोजन करेगा, कबीर उसको उतनी बार ही दोहर तथा मोहर दान करेगा। भोजन में लड्डू, जलेबी, हलवा, खीर, दही बड़े, माल पूडे़, रसगुल्ले आदि-2 सब मिष्ठान खाने को मिलेंगे। सूखा सीधा (आटा, चावल, दाल आदि सूखे जो बिना पकाए हुए, घी-बूरा) भी दिया जाएगा। एक पत्र शेखतकी ने अपने नाम तथा दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोधी के नाम भी भिजवाया। निश्चित दिन से पहले वाली रात्रि को ही साधु-संत भक्त एकत्रित होने लगे। अगले दिन भण्डारा (लंगर) प्रारम्भ होना था। परमेश्वर कबीर जी को संत रविदास दास जी ने बताया कि आपके नाम के पत्र लेकर लगभग 18 लाख साधु-संत व भक्त काशी शहर में आए हैं। भण्डारा खाने के लिए आमंत्रित हैं। कबीर जी अब तो अपने को काशी त्यागकर कहीं और जाना पड़ेगा। कबीर जी तो जानीजान थे।
फिर भी अभिनय कर रहे थे, बोले रविदास जी झोंपड़ी के अंदर बैठ जा, सांकल लगा ले। अपने आप झख मारकर चले जाएंगे। हम बाहर निकलेंगे ही नहीं। परमेश्वर कबीर जी अन्य वेश में अपनी राजधानी सत्यलोक में पहुँचे। वहाँ से नौ लाख बैलों के ऊपर गधों जैसा बौरा (थैला) रखकर उनमें पका-पकाया सर्व सामान भरकर तथा सूखा सामान (चावल, आटा, खाण्ड, बूरा, दाल, घी आदि) भरकर पृथ्वी पर उतरे। सत्यलोक से ही सेवादार आए। परमेश्वर कबीर जी ने स्वयं बनजारे का रूप बनाया और अपना नाम केशव बताया। दिल्ली के सम्राट सिकंदर तथा उसका धार्मिक पीर शेखतकी भी आया। काशी में भोजन-भण्डारा चल रहा था। सबको प्रत्येक भोजन के पश्चात् एक दोहर तथा एक मोहर {10 ग्राम सोना (Gold)} दक्षिणा दी जा रही थी। कई बेईमान साधक तो दिन में चार-चार बार भोजन करके चारों बार दोहर तथा मोहर ले रहे थे। कुछ सूखा सीधा (चावल, खाण्ड, घी, दाल, आटा) भी ले रहे थे।
हम पढ़ रहे हैं मुक्तिबोध पेज नंबर 35-36 (कबीर भंडारा भाग- 2)
यह सब देखकर शेखतकी ने तो रोने जैसी शक्ल बना ली और जाँच (Meeting) करने लगा। सिकंदर लोधी राजा के साथ उस टैंट में गया जिसमें केशव नाम से स्वयं कबीर जी वेश बदलकर बनजारे (उस समय के व्यापारियों को बनजारे कहते थे) के रूप में बैठे थे। सिकंदर लोधी राजा ने पूछा आप कौन हैं? क्या नाम है? आप जी का कबीर जी से क्या संबंध है? केशव रूप में बैठे परमात्मा जी ने कहा कि मेरा नाम केशव है, मैं बनजारा हूँ। कबीर जी मेरे पगड़ी बदल मित्र हैं। मेरे पास उनका पत्र गया था कि एक छोटा-सा भण्डारा यानि लंगर करना है, कुछ सामान लेते आइएगा। उनके आदेश का पालन करते हुए सेवक हाजिर है। भण्डारा चल रहा है।
शेखतकी तो कलेजा पकड़कर जमीन पर बैठ गया जब यह सुना कि एक छोटा-सा भण्डारा करना है जहाँ पर 18 लाख व्यक्ति भोजन करने आए हैं। प्रत्येक को दोहर तथा मोहर और आटा, दाल, चावल, घी, खाण्ड भी सूखा सीधा रूप में दिए जा रहे हैं इसको छोटा-सा भण्डारा कह रहे हैं। परंतु ईर्ष्या की अग्नि में जलता हुआ विश्राम गृह में चला गया जहाँ पर राजा ठहरा हुआ था। सिकंदर लोधी ने केशव से पूछा कबीर जी क्यों नहीं आए? केशव ने उत्तर दिया कि उनका गुलाम जो बैठा है, उनको तकलीफ उठाने की क्या आवश्यकता? जब इच्छा होगी, आ जाएंगे। यह भण्डारा तो तीन दिन चलना है।
सिकंदर लोधी हाथी पर बैठकर अंगरक्षकों के साथ कबीर जी की झोंपड़ी पर गए। वहाँ से उनको तथा रविदास जी को साथ लेकर भण्डारा स्थल पर आए। सबसे कबीर सेठ का परिचय कराया तथा केशव रूप में स्वयं डबल रोल करके उपस्थित संतों-भक्तों को प्रश्न-उत्तर करके सत्संग सुनाया जो 24 घण्टे तक चला। कई लाख सन्तों ने अपनी गलत भक्ति त्यागकर कबीर जी से दीक्षा ली, अपना कल्याण कराया। भण्डारे के समापन के बाद जब बचा हुआ सब सामान तथा टैंट बैलों पर लादकर चलने लगे, उस समय सिकंदर लोधी राजा तथा शेखतकी, केशव तथा कबीर जी एक स्थान पर खड़े थे, सब बैल तथा साथ लाए सेवक जो बनजारों की वेशभूषा में थे, गंगा पार करके चले गए। कुछ ही देर के बाद सिकंदर लोधी राजा ने केशव से कहा आप जाइये आपके बैल तथा साथी जा रहे हैं।
जिस ओर बैल तथा बनजारे गए थे, उधर राजा ने देखा तो कोई भी नहीं था। आश्चर्यचकित होकर राजा ने पूछा कबीर जी! वे बैल तथा बनजारे इतनी शीघ्र कहाँ चले गए? उसी समय देखते-देखते केशव भी परमेश्वर कबीर जी के शरीर में समा गए। अकेले कबीर जी खड़े थे। सब माजरा (रहस्य) समझकर सिकंदर लोधी राजा ने कहा कि कबीर जी! यह सब लीला आपकी ही थी। आप स्वयं परमात्मा हो। शेखतकी के तो तन-मन में ईर्ष्या की आग लग गई, कहने लगा ऐसे-ऐसे भण्डारे हम सौ कर दें, यह क्या भण्डारा किया है? महौछा किया है। महौछा उस अनुष्ठान को कहते हैं जो किसी गुरू द्वारा किसी वृद्ध की गति करने के लिए थोपा जाता है। उसके लिए सब घटिया सामान लगाया जाता है। जग जौनार करना उस अनुष्ठान को कहते हैं जो विशेष खुशी के अवसर पर किया जाता है, जिसमें अनुष्ठान करने वाला दिल खोलकर धन खर्च करता है।
संत गरीबदास जी ने कहा है कि :-
गरीब, कोई कह जग जौनार करी है, कोई कहे महौछा। बड़े बड़ाई किया करें, गाली काढे़ औछा।।
सारांश :- कबीर जी ने भक्तों को उदाहरण दिया है कि यदि आप मेरी तरह सच्चे मन से भक्ति करोगे तथा ईमानदारी से निर्वाह करोगे तो परमात्मा आपकी ऐसे सहायता करता है। भक्त ही वास्तव में सेठ अर्थात् धनवंता हैं। भक्त के पास दोनों धन हैं, संसार में जो चाहिए वह भी धन भक्त के पास होता है तथा सत्य साधना रूपी धन भी भक्त के पास होता है एक अन्य करिश्मा जो उस भण्डारे में हुआ वह जीमनवार (लंगर) तीन दिन तक चला था।
दिन में प्रत्येक व्यक्ति कम से कम दो बार भोजन खाता था। कुछ तो तीन-चार बार भी खाते थे क्योंकि प्रत्येक भोजन के पश्चात्द क्षिणा में एक मौहर (10 ग्राम सोना) और एक दौहर (कीमती सूती शॉल) दिया जा रहा था। इस लालच में बार-बार भोजन खाते थे। तीन दिन तक 18 लाख व्यक्ति शौच तथा पेशाब करके काशी के चारों ओर ढे़र लगा देते। काशी को सड़ा देते। काशी निवासियों तथा उन 18 लाख अतिथियों तथा एक लाख सेवादार जो सतलोक से आए थे। उस गंद का ढ़ेर लग जाता, श्वांस लेना दूभर हो जाता, परंतु ऐसा महसूस ही नहीं हुआ।
सब दिन में दो-तीन बार भोजन खा रहे थे, परंतु शौच एक बार भी नहीं जा रहे थे, न पेशाब कर रहे थे। इतना स्वादिष्ट भोजन था कि पेट भर-भरकर खा रहे थे। पहले से दुगना भोजन खा रहे थे। हजम भी हो रहा था। किसी रोगी तथा वृद्ध को कोई परेशानी नहीं हो रही थी। उन सबको मध्य के दिन चिंता हुई कि न तो पेट भारी है, भूख भी ठीक लग रही है, कहीं रोगी न हो जाऐं। सतलोक से आए सेवकों को समस्या बताई तो उन्होंने कहा कि यह भोजन ऐसी जड़ी-बूटियां डालकर बनाया है जिनसे यह शरीर में ही समा जाएगा। हम तो प्रतिदिन यही भोजन अपने लंगर में बनाते हैं, यही खाते हैं। हम कभी शौच नहीं जाते तथा न पेशाब करते, आप निश्चिंत रहो। फिर भी विचार कर रहे थे कि खाना खाया है, परंतु कुछ तो मल निकलना चाहिए।
उनको लैट्रिन जाने का दबाव हुआ। सब शहर से बाहर चल पड़े। टट्टी के लिए एकान्त स्थान खोजकर बैठे तो गुदा से वायु निकली। पेट हल्का हो गया तथा वायु से सुगंध निकली जैसे केवड़े का पानी छिड़का हो। यह सब देखकर सबको सेवादारों की बात पर विश्वास हुआ। तब उनका भय समाप्त हुआ, परंतु फिर भी सबकी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बँधी थी। परमेश्वर कबीर जी को परमेश्वर नहीं स्वीकारा।
पुराणों में भी प्रकरण आता है कि अयोध्या के राजा ऋषभ देव जी राज त्यागकर जंगलों में साधना करते थे। उनका भोजन स्वर्ग से आता था। उनके मल (पाखाने) से सुगंध निकलती थी। आसपास के क्षेत्रा के व्यक्ति इसको देखकर आश्चर्यचकित होते थे। इसी तरह सतलोक का आहार करने से केवल सुगंध निकलती है, मल नहीं। स्वर्ग तो सतलोक की नकल है जो नकली है।
एक अन्य करिश्मा जो उस काशी भण्डारे में हुआ।
तुम साहेब तुम संत हो, तुम सतगुरू तुम हंस।गरीबदास तव रूप बिन, और न दूजा अंश।।बोलत रामानंद जी, सुनो कबीर करतार।गरीबदास सब रूप में, तुम ही बोलनहार।।
गरीब, सोहं ऊपरि और है, सत सुकत एक नाम।सब हंसों का बंस है, सुंन बसती नहिं गाम।।113।।गरीब, सोहं ऊपरि और है, सुरति निरति का नाह।सोहं अंतर पैठकर, सतसुकृत लौलाह।।114।।गरीब, सोहं ऊपरि और है, बिना मूल का फूल।ताकी गंध सुगंध है, जाकूं पलक न भूल।।115।।गरीब, सोहं ऊपरि और है, बिन बेलीका कंद।राम रसाइन पीजियै, अबिचल अति आनंद।।116।।गरीब, सोहं ऊपरि और है, कोइएक जाने भेव।गोपि गोसांई गैब धुनि, जाकी करि लै सेव।।117।।
गरीब, सुरति लगै अरु मनलगै, लगै निरति धुनि ध्यान।च्यार जुगन की बंदगी, एक पलक प्रवान।।118।।
कबीर, माला तो कर में फिरै, जिव्हा फिरै मुख मांही।मनवा तो चहुँ दिश फिरै, यह तो सुमरण नांही।।
गरीब, सुरति लगै अरु मनलगै, लगै निरति तिस ठौर।संकर बकस्या मेहर करि, उभर भई जद गौर।।119।।
गरीब, सुरति लगै और मन लगै, लगै निरति तिसमांहि।एक पलक तहां संचरै, कोटि पाप अघ जाहिं।।120।।
गरीब, अबिगत की अबिगत कथा, अबिगत है सब ख्याल।अबिगत सूं अबिगत मिलै, कर जोरे तब काल।।121।।
गरीब, अमर अनूपम कबीर आप है, और सकल सब खण्ड।सूछम से सूछम सही, पूरन पद प्रचंड।।122।।
समाधान शाखा न पात, कौंन लखै सांई की दाति।।1ं।राता पीरा है अकाश, दम कूं खोजो महतत बास।महतत में एक मूरति ऐंन, मुरली मधुर बजावैं बैन।।2।।अछै बिरछ असथांन हमार, खेलौ हंसा अधिर अधार।कोटिक ब्रह्मा धरते ध्यान, कोटिक शंभू है सुरज्ञान।।3।।नारद बिसनु रटते शेष, कोई क जांनैं सतगुरु उपदेश।सनक सनंदन हैं ल्यौलीन, ध्यान धरैं सतगुरु दुरबीन।।4।।जनक बिदेही और सुखदेव, गोरख दत्त करत हैं सेव।कोटि कला त्रिबैंनी तीर, दासगरीब भजि अबिगत कबीर।।5।।8।।
गरीब, अधमउधारन भगति है, अधम उधारन नांव।अधम उधारक संत है, जिनकी मैं बलि जाँव।।123।।
गरीब, गज गनिका अरु भीलनी, सबरी प्रेम सहेत।केते पतित उधारिया, सतगुरु गावैं नेत।।124।।
गरीब, राम रसाइन पीजिये, यौह औसरि यौह दाव।फिरि पीछै पछिताइगा, चला चली होइ जाव।।125।।
गरीब, राम रसाइन पीजिये, चोखा फूल चुवाइ।सुंनि सरोवर हंस मन, पीया प्रेम अघाइ।।126।।
गरीब, कहता दास गरीब है, बांदी जाम गुलाम।तुम हौ तैसी कीजिये, भगति हिरंबर नाम।।127।।
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