यथार्थ भक्ति बोध-पांच यज्ञ कौनसी है? -Yatharth Bhakti Bodh | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

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पाठ करना क्या है?

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पाठ: सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय पाठ कहलाता है। जैसे श्री मद्भगवत गीता के श्लोकों को प्रतिदिन पढ़ना। कुछ भक्त कहते हैं कि हम प्रतिदिन गीता के एक अध्याय का पाठ करते है। कुछ भक्त (साधक) वेद मन्त्रों का नित्य पाठ करते हैं। कुछ भक्त किसी सन्त की अमृतवाणी से कुछ पाठ या शब्दों का नित्य पठन-पाठन करते हैं। मुसलमान भक्त कुरान शरीफ से कुछ वाणी (आयतें) पढ़ते हैं या पाँच समय निमाज (प्रभु स्तुति) करते हैं। यह सब पाठ कहलाता है। किसी ग्रन्थ का अखण्ड पाठ करना या वैसे आदर से किसी समय ग्रन्थ को पढ़ना, वेदों या गीता को पढ़ना यह सब भी पाठ साधना ही कहलाती है। ज्ञान ग्रहण के उद्देश्य से ग्रन्थों को पढ़ना भी पाठ साधना ही कही जाती है। इसे ज्ञान यज्ञ भी कहा जाता है। यज्ञ: यज्ञ का अर्थ है धार्मिक अनुष्ठान। 


पांच यज्ञ कौनसी है? 

  1. धर्म यज्ञ
  2. ध्यान यज्ञ
  3. हवन यज्ञ
  4. प्रणाम यज्ञ
  5. ज्ञान यज्ञ।

  • धर्म यज्ञ

धर्म यज्ञ कई प्रकार से की जाती है। जैसे भूखे को भोजन कराना, पक्षियों को दाना-पानी डालना, पशुओं के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करना, पशुशालाएं बनवाना, मनुष्यों के लिए प्याऊ (पीने के पानी की व्यवस्था करना) बनवाना, धर्मशाला बनवाना, निर्धनों को कम्बल दान करना या अन्य वस्त्रा दान करना, धार्मिक भोजन भण्डारे करना। प्राकृतिक आपदाओं (अकाल गिरना, बाढ़ आना) में खाद्य पदार्थों और दवाईयों के लिए दान करना, दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना आदि-आदि अनेकों प्रकार से धर्मयज्ञ की जाती है। परन्तु आध्यात्म मार्ग में धर्म यज्ञ पूर्ण गुरु के द्वारा की जाती है। वह वास्तव में धर्म यज्ञ होती है।

कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।


प्रश्न: क्या गुरु धारण किए बिना धर्म यज्ञ का कोई लाभ नहीं है पहले तो बताया है कि उपरोक्त सर्व धर्मयज्ञ कहलाती हैं। अब कहा कि गुरु बिन धर्म (दान) यज्ञ वास्तविक नहीं होती अर्थात् वास्तविक नहीं है तो लाभ भी वास्तविक नहीं होगा। कृप्या स्पष्ट करें।
उत्तर: गुरु धारण करने के पश्चात् धर्म (दान) यज्ञ का पूर्ण लाभ मिलता है क्योंकि पूर्ण गुरु शास्त्रोक्त विधि से भक्ति कर्म (साधना) करता है। उसमें एक नाम जाप यज्ञ भी करता है। जिस का विस्तारपूर्वक विवरण आगे लिखा जाएगा। यदि गुरु धारण किए बिना मनमर्जी से कुछ धर्म किया तो उसका फल भी मिलेगा क्योंकि जैसा कर्म मानव करता है, उसका फल परमात्मा अवश्य देता है, परन्तु न तो मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है और न ही मानव जन्म मिलना सम्भव है।


बिना गुरु (निगुर) धार्मिक व्यक्ति को किये गये धर्म का फल पशु-पक्षी आदि की योनियों में प्राप्त होगा। जैसे हम देखते हैं कि कई कुत्ते कार-गाड़ियों में चलते हैं। मनुष्य उस कुत्ते का ड्राईवर होता है। वातानुकुल कक्ष में रहता है। विश्व के 80 प्रतिशत मनुष्यों को ऐसा पौष्टिक भोजन प्राप्त नहीं होता जो उस पूर्व जन्म के धर्म के कारण कुत्ते को प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म में किए धर्म (पुण्य-दान) को कुत्ते के जन्म में प्राप्त करके वह प्राणी फिर अन्य पशुओं या अन्य प्राणियों का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार 84 लाख प्रकार की योनियों को भोगता है। कष्ट पर कष्ट उठाता है। यदि वह मनमुखी धर्म करने वाला धार्मिक व्यक्ति कुत्ते के जीवन में धर्म का फल पूरा करके सूअर का जन्म प्राप्त कर लेता है तो उसको अब कौन-सी सुविधा प्राप्त हो सकती है। यदि उस प्राणी ने मानव शरीर में गुरु बनाकर धर्म (दान-पुण्य) यज्ञ की होती तो वह या तो मोक्ष प्राप्त कर लेता।


यदि भक्ति पूरी नहीं हो पाती तो मानव जन्म अवश्य प्राप्त होता तथा मानव शरीर में वे सर्व सुविधाऐं भी प्राप्त होती जो कुत्ते के जन्म में प्राप्त थी। मानव जन्म में फिर कोई साधु सन्त-गुरु मिल जाता और वह अपनी भक्ति पूरी करके मोक्ष का अधिकारी बनता। इसलिए कहा है कि यज्ञों का वास्तविक लाभ प्राप्त करने के लिए पूर्ण गुरु को धारण करना अनिवार्य है।

कबीर, सतगुरु (पूर्ण गुरु) के उपदेश का, लाया एक विचार।
जै सतगुरु मिलता नहीं, तो जाते यम द्वार।।
कबीर, यम द्वार में दूत सब, करते खैंचातान।
उनसे कबहु ना छूटता, फिरता चारों खान।।
कबीर, चार खान में भ्रमता, कबहु न लगता पार।
सो फेरा (चक्र) सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
कबीर, राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिनहुं भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन।।

  • ध्यान यज्ञ

ध्यान के विषय में आम धारणा है कि एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक मन को रोकने का प्रयत्न करने का नाम ध्यान है। पूर्व के ऋषियों ने लम्बे समय तक हठयोग के माध्यम से ध्यान यज्ञ किया। उन्होंने शरीर में परमात्मा को खोजने, परमात्मा के दर्शन के लिए ध्यान यज्ञ किया। शरीर में प्रकाश देखा जिसको ईश्वरीय प्रकाश (Divine Light) कहते हैं। अन्त में ऋषियों ने अपना अनुभव बताया कि परमात्मा निराकार है। ध्यान अवस्था में परमात्मा का प्रकाश ही देखा जा सकता है। विचार करने की बात है कि कोई कहे कि सूर्य निराकार है। केवल सूर्य का प्रकाश देखा जा सकता है। यह बात कितनी सत्य है। इसी प्रकार आज तक सर्व ध्यानियों का अनुभव है। कुछ वर्षों तक ध्यान-समाधि करने के पश्चात् फिर सामान्य जीवन जीते थे तथा परमात्मा की अन्य साधना भी ऋषि लोग किया करते थे। यह ध्यान नहीं हठ योग के द्वारा कठिन तप होता है।


जो श्री मद्भगवत गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में बताया है कि जो मनुष्य शास्त्राविधि रहित घोर तप को तपते हैं। अहंकार और दम्भ (पाखण्ड) से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त हैं। (17/5) वे शरीर रुप में स्थित कमलों में स्थित प्राणियों के प्रधान देवताओं को और शरीर के अन्दर अन्तःकरण में स्थित मुझ ब्रह्म को भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर (राक्षस) स्वभाव वाले जान। (17/6) भावार्थ है कि जो ध्यान हठ योग के माध्यम से ऋषि लोग क्रिया करते थे, वह किसी वेद या चारों वेदों के सारांश श्री मद्भगवत गीता में करने को नहीं कहा है। यह ऋषियों का सिद्धियाँ प्राप्त करने मनमाना आचरण है

इससे परमात्मा प्राप्ति नहीं है क्योंकि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्र विधि को त्यागकर जो मनमाना आचरण करते हैं उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न कोई कार्य की सिद्धि होती है, न उनकी गति (मोक्ष) होती है अर्थात् व्यर्थ। (16/23) इससे तेरे लिये अर्जुन कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। उपरोक्त उल्लेख से स्पष्ट हुआ है कि ऋषियों द्वारा किया गया ध्यान शास्त्रविधि रहित होने से व्यर्थ है।


  • हवन यज्ञ क्या है?


गाय या भैंस के घी को अग्नि में स्वाह करना ‘‘हवन यज्ञ’’ कहलाता है। पूर्व के ऋषि तथा वर्तमान में आचार्य तथा ऋषि व सन्त साधक हवन करने के लिए लकड़ी का प्रयोग करते हैं। यह शास्त्रोक्त विधि नहीं है। शास्त्राविधि अनुसार हवन करने के लिए रुई की बाती बनाकर मिट्टी या धातु के बर्तन (कटोरे) में रखकर भैंस या गाय का घी जलाकर मंगलाचरण पढ़कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। यह ‘हवन यज्ञ’ है। इसके साथ वेद मन्त्र या अमृतवाणी का उच्चारण भी किया जा सकता है। वैसे बिना वाणी या मन्त्रोच्चारण के भी शास्त्राविधि अनुसार रुई ज्योति में घी डालकर जलाने से ‘हवन यज्ञ’ हो जाता है क्योंकि घी के जलने से लाभ होता है।

लकड़ी जलाकर यदि हवन किया जाता है तो कार्बन डाई ऑक्साईड अधिक निकलती है। एक क्विन्टल घी को हवन करने के लिए 10 किलो ग्राम लकड़ी जलती है। रुई 100 ग्राम एक क्विन्टल घी को हवन कर देती है। इसमें कार्बन डाई ऑक्साईड नाम मात्र ही बनती है। ज्योति यज्ञ करने का प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 8 सूक्त 46 मन्त्र 10 में है। रुई की बाती बनाकर कटोरे में खड़ा कर दिया जाता है। फिर घी डालकर मंगलाचरण पढ़ते-पढ़ते ज्योति प्रज्वलित की जाती है। यह दो प्रकार की होती है। देवी-देवताओं के उपासक टेढ़ी ज्योति जलाते हैं। गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में अन्य देवताओं की पूजा करना व्यर्थ कहा है। यह टेढ़ी ज्योति यज्ञ की परम्परा प्राचीन है। प्रत्येक हिन्दु के घर में दोनों समय (सुबह और शाम) ज्योति यज्ञ किया जाता, यह हवन यज्ञ प्रत्येक के घर में होता था। वर्तमान में बीसवीं सदी में कुछ पंथों का उत्थान हुआ है।

  • प्रणाम यज्ञ

 प्राचीन काल में एक अजाजील नाम का साधक था। वह केवल प्रणाम यज्ञ किया करता था। उसने अपने जीवन में ग्यारह अरब बन्दगी (प्रणाम) किये। जब भगवान के लोक में गया, तब भगवान विष्णु ने उसकी परिक्षा ली तो उसका अभिमान समाप्त नहीं था। उसने भगवान की आज्ञा का पालन अहंकारवश नहीं किया। जिस कारण से उसकी सर्व प्रणाम यज्ञ का फल नष्ट हो गया तथा पुनः पृथ्वी पर जन्म लेकर पशु-पक्षियों की योनियों में भटकने लगा। आधीनी भक्त का गहना होता है। आधीन बनने के लिए ‘प्रणाम यज्ञ’ करना अति अनिवार्य है। सूक्ष्मवेद में तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष मार्ग तत्व ज्ञान (सूक्ष्मवेद) में सम्पूर्ण लिखा है। सूक्ष्मवेद स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) अपने मुख कमल से बोलता है।


वह तत्वज्ञान तत्वदर्शी सन्तों को ज्ञात होता है। इसलिए उस तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्वदर्शी सन्तों को दण्डवत प्रणाम करके नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से तत्वदर्शी सन्त तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 65 में कहा है कि अर्जुन! मुझ में मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर, ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा। इस प्रकरण से स्पष्ट है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने के लिए दण्डवत् प्रणाम करना होता है तथा ब्रह्म तक की भक्ति करने वाले केवल करबद्ध होकर नमस्कार (प्रणाम) करते हैं।


भक्ति व साधना उसी साधक की सफल होती है जिसमें नम्रता (आधीनी) होती है, दास भाव होता है।

गरीब, आधीनी के पास है पूर्ण ब्रह्म दयाल।
मान बड़ाई मारिए बे अदबी सिरकाल।।

दासा तन में दर्श है सब का होजा दास।
हनुमान का हेत ले रामचन्द्र के पास।।

विभीषण का भाग बड़ेरा, दास भाव आया तिस नेड़ा।।
दास भाव आया बिसवे बीसा, जाकूं लंक देई बकशीशा।।

दास भाव बिन रावण रोया, लंक गंवाई कुल बिगोया।।
भक्ति करी किया अभिमाना, रावण समूल गया जग जाना।।

ऐसा दास भाव है भाई। लंक बखसते बार ना लाई।।
तातें दास भाव कर भक्ति कीजै, सबही लाभ प्राप्त कीजै।।

गरीब बेअदबी भावै नहीं साहब के तांही,
अजाजील की बन्दगी पल मांहे बहाई।।

उपरोक्त अमृतवाणी सूक्ष्मवेद की है। इनका भावार्थ है कि भक्त में विनम्रता होनी चाहिए। जिस कारण से भक्त की भक्ति सफल होती है। यदि भक्त साधना भी करता है और अहंकार भी रखता है तो उसकी साधना व्यर्थ हो जाती है। उदाहरण दिए हैं कि:-
हनुमान जी भगवान भक्त थे। श्री रामचन्द्र जी के साथ अति आधीन होकर रहते थे। जिस कारण से श्री रामचन्द्र जी अपने प्रिय विनम्र भक्त से विशेष प्यार करते थे। रावण लंका देश का राजा था। उसने श्री शिव जी (तमगुण) की भक्ति भी की और अहंकार भी अत्यधिक रखा। जिस कारण से श्रीलंका का राज्य भी गँवाया तथा कुल का नाश भी कराया। इसके विपरीत रावण का भाई विभिषण था जो विनम्र था तथा मुनीन्द्र ऋषि से दीक्षित भी था। जिस कारण से श्री रामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभिषण नम्र भक्त को बखशीश कर दिया, मुफ्त में दे दिया। इसलिए परमात्मा से सर्व लाभ लेने के लिए दासभाव अर्थात नम्रतापूर्वक भक्ति करनी चाहिए।


  •  ज्ञान यज्ञ


सद्ग्रन्थों का अध्ययन तथा तत्वदर्शी संत का सत्संग ‘ज्ञान यज्ञ‘ कहलाता है। गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में कहा है कि हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ‘‘ज्ञान यज्ञ’’ श्रेष्ठ है। सारे के सारे कर्म अर्थात् सर्व सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 33) गीता अध्याय 4 श्लोक 32 से 41 तक यही बताया है कि:-


भावार्थ:- मनमाना आचरण करके जो द्रव्यमय यज्ञ करते हैं। जैस कहीं पर मंदिर बनवा दिया। कहीं कम्बल बाँट दिए, कहीं भोजन-भण्डारा कर दिया। इस तरह से किए जाने वाले धन से धार्मिक कर्म द्रव्यमय यज्ञ अर्थात् धर्मयज्ञ कहलाते हैं। इस प्रकार परंपरागत किए जाने वाले धर्मखर्च से पहले तत्वज्ञान को जानना चाहिए। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 से 41 तक यही बताया है कि सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) स्वयं परम अक्षर ब्रह्म ही अपनी वाणी से बोल कर बताता है। उस को तत्वदर्शी सन्त जानते हैं। उन से जानों। उस ज्ञान को जानकर साधक फिर कर्मों में नहीं बँधता। सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तत्वज्ञान के आधार से भक्ति कार्य करने से साधक को परम गति (पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है। अधिक प्रमाण इसी यज्ञ प्रकरण में ‘धर्म यज्ञ’ में पृष्ठ पर पढ़ें जो पहले लिख दिया है। यह स्पष्ट किया गया है कि देखा-देखी लोकवेद के आधार से धर्म के नाम पर खर्च करने की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से सत्संग सुनना श्रेष्ठ है। फिर गुरुदीक्षा लेकर उनके मार्गदर्शन अनुसार धर्म के नाम पर दान करना शास्त्रानुकूल साधना होने से श्रेयकर है। ज्ञान यज्ञ समझने के लिए पढ़ें पुस्तक ‘आध्यात्मिक ज्ञान गंगा’ ज्ञान यज्ञ का कुछ अंश आप जी को इस ‘भक्ति बोध’ के अनुवाद में भी पढ़ने को मिलेगा।


अधिक जानकारी के लिए जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित पुस्तकें जरूर पढ़ें:- ज्ञान गंगा, जीने की राह ,गीता तेरा ज्ञान अमृत, गरिमा गीता की, अंध श्रद्धा भक्ति खतरा-ए-जान । जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी से नाम दीक्षा लेने के लिए यह फॉर्म भरें


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