मुक्ति बोध-Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांस | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

अब पढ़िए मुक्ति बोध-Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांस Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj (संत रामपाल जी महाराज) के माध्यम से.

Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांस-राग बसंत से शब्द नं. 8:


Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांस


कोई है रे परले पार का, जो भेद कहै झनकार का।।टेक।।
वारिही गोरख वारिही दत, बारिही ध्रू प्रहलाद अरथ।
वारिही सुखदे वारिही ब्यास, वारिही पारासुर प्रकाश।।1।।
वारिही दुरबासा दरबेश, वारिही नारद शारद शेष।
वारिही भरथर गोपीचंद, वारिही सनक सनंदन बंध।।2।।
वारिही ब्रह्मा वारिही इन्द, वारिही सहंस कला गोविंद।
वारिही शिबशंकर जो सिंभ, वारिही धर्मराय आरंभ।।3।।
वारिही धर्मराय धरधीर, परमधाम पौंहचे कबीर।
ऋग यजु साम अथरवन बेद, परमधाम नहीं लह्या भेद।।4।।
अलल पंख अगाध भेव, जैसैं कुंजी सुरति सेव।
वार पार थेहा न थाह, गरीबदास निरगुन निगाह।।5।।8।।

Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांस-राग होरी से शब्द नं. 8

अलल का ध्यान धरौ रे, चीन्हौं पुरुष बिदेही।।टेक।।
उलटि पवन रेचक करि राखौ, काया कुंभ भरौ रे।
अडिग अमांन अडोल अबोलं, टार्यौ नांहि टरौ रे।।1।।
बिन सतगुरु पद दरशत नाहीं, भावै तिहूं लोक फिरौ रे।
गुन इन्द्री का ज्ञान परेरो, जीवत क्यौं न मरौ रे।।2।।
पलकौं दा भौंरा पुरुष बिनांनी, खोटा करत खरौ रे।
कामधेनु दूझे कलवारनि, नीझर अजर जरौ रे।।3।।
कलविष कुसमल बंधन टूटैं, सब दुःख ब्याधि हरौ रे।
गरीबदास निरभै पद पाया, जम सें नांहि डरौ रे।।4।।8।।

Mukti Bodh-सुमिरन के अंग का सारांश

संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी रूपी वन में प्रत्येक प्रकार के पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, फूल, फलदार वृक्ष, मेवा की लता आदि-आदि उगाए हैं। इसका मुख्य कारण यह रहा है कि जो मूल ज्ञान है, उसको गुप्त रखना था। यह परमात्मा कबीर जी का आदेश था। इसी कारण से संत गरीबदास जी ने अनेकों वाणियाँ कही हैं। मन की आदत है कि यदि कम वाणी हैं तो उनको कण्ठस्थ करके अरूचि करता है। ये ढे़र सारी अमृतवाणी लिखवाकर संत गरीबदास जी ने मन को व्यस्त तथा रूचि बनाए रखने का मंत्र बताया है। मन पढ़ता रहता है या सुनता रहता है, आत्मा आनन्द का अनुभव करती है।

वाणी नं. 18 में कहा है कि :

गरीब, राम कहा तो क्या हुआ, उर में नहीं यकीन। चोर मुसें घर लूटहि, पाँच पचीसों तीन।।18।।

भावार्थ :- यदि साधक को परमात्मा पर विश्वास ही नहीं है तो नाम-सुमरण का कोई लाभ नहीं। उसके मानव जीवन को काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी पाँच चोर मुस (चुरा) रहे हैं। इन पाँचों की पाँच-पाँच प्रकृति यानि 25 ये तथा रजगुण के आधीन होकर कोठी-बंगले बनाने में, कभी कार-गाड़ी खरीदने में जीवन नष्ट कर देता है। सतगुण के प्रभाव से पहले तो किसी पर दया करके बिना सोचे-समझे लाखों रूपये खर्च कर देता है।

फिर उसमें त्रुटी देखकर तमोगुण के प्रभाव से झगड़ा कर लेता है। इस प्रकार तीन गुणों के प्रभाव से मानव जीवन नष्ट हो जाता है। यदि तत्वदर्शी संत से ज्ञान सुनकर विश्वास के साथ नाम का जाप करे तो जीवन सफल हो जाता है। जिन-जिन भक्तों ने मर्यादा में रहकर जिस स्तर की भक्ति, दान आदि-आदि किया है, उनको लाभ अवश्य मिला है। उदाहरण बताया है कि :- (वाणी नं. 31 से 39 में)

गोरखनाथ, दत्तात्रे, शुकदेव, पीपा, नामदेव, धन्ना भक्त, रैहदास (रविदास), फरीद, नानक, दादू, हरिदास, गोपीचंद, भरथरी, जंगनाथ (झंगरनाथ), चरपटनाथ, अब्राहिम अधम सुल्तान, नारद ऋषि, प्रहलाद भक्त, धु्रव, विभीक्षण, जयदेव, कपिल मुनि, स्वामी रामानंद, श्री कृष्ण, ऋषि दुर्वासा, शंभु यानि शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि सबकी प्रसिद्धि पूर्व जन्म तथा वर्तमान में की गई नाम-सुमरण (स्मरण) की शक्ति से हुई है, अन्यथा ये कहाँ थे यानि इनको कौन जानता था? इसी प्रकार आप भी तन-मन-धन समर्पित करके गुरू धारण करके आजीवन भक्ति मर्यादा में रहकर करोगे तो आप भी भक्ति शक्ति प्राप्त करके अमर हो जाओगे। जिन-जिन साधकों ने जिस-जिस देव की साधना की, उनको उतनी महिमा मिली है।

कबीर परमात्मा जी ने कहा है कि :-


जो जाकि शरणा बसै, ताको ताकी लाज। जल सौंही मछली चढ़ै, बह जाते गजराज।।

भावार्थ :- जो साधक जिस राम (देव-प्रभु) की भक्ति पूरी श्रद्धा से करता है तो वह राम उस साधक की इज्जत रखता है यानि उसको अपने सामर्थ्य अनुसार अपने क्षेत्र में पूर्ण लाभ देता है। उदाहरण दिया है कि जैसे मछली का जल से अटूट नाता है। वह कुछ समय ही जल से दूर होने पर तड़फ-तड़फकर प्राण त्याग देती है। ऐसी श्रद्धा देखकर जल ने उसको अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी है। उसको कोई रोक-टोक नहीं है। जैसे ऊँचे स्थान (Fall) से 50 फुट से दरिया का जल गिर रहा होता है। वह जल की धारा बड़े से बड़े हाथी यानि गजराज को भी बहा ले जाती है जो हाथियों का राजा होता है। परंतु अपनी पुजारिन मछली को पूरी स्वतंत्रता दे रखी है। वह उस गिरते पानी में नीचे से ऊपर (50 फुट तक) चढ़ जाती है। इसी प्रकार जो साधक जिस प्रभु की पूरी श्रद्धा से भक्ति करता है तो वह प्रभु अपने भक्त को अपने स्तर का लाभ अपनी क्षमता के अनुसार पूरा देता है।

समझने के लिए सामान्य उदाहरण :

अपने देश में अभी तक अंग्रेजों वाली परंपरा का प्रभाव भी है। जैसे किसी सामान्य व्यक्ति को पुलिस थाने से बुलावा आता है तो उसके लिए बड़ी आपत्ति होती है। थाने के आस-पास से भी सामान्य व्यक्ति डरकर जाता है। बुलावा आने पर तो उसके साथ क्या बीतेगी? स्पष्ट है। जाते ही लगभग प्रत्येक पुलिसकर्मी तथा थानेदार का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है। मारपीट तो पहला प्रसाद है। गाली देना पुलिस वालों का मूल मंत्र है।

उसी थाने में किसी का मित्र थानेदार लगा है। वह व्यक्ति वहाँ जाता है तो थानेदार उसे कुर्सी पर बैठाता है, चाय-पानी पिलाता है। इस प्रकार जो व्यक्ति जिस अधिकारी का मित्र है, वह अपने स्तर की राहत अवश्य देता है। वह राहत उस सामान्य व्यक्ति के लिए असहज होती है यानि सामान्य नहीं होती, परंतु वह पर्याप्त भी नहीं है। यदि पुलिस अधीक्षक से मित्रता हो जाए तो थानेदार भी नतमस्तक हो जाता है। यदि मंत्री जी से मित्रता हो जाए तो एस.पी. भी नतमस्तक हो जाता है।

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यदि मुख्यमंतत्री-प्रधानमंत्री के साथ मेल हो जाए तो नीचे के सर्व अधिकारी-कर्मचारी आपके साथ हो जाएंगे। इसी प्रकार यदि कोई किसी देवी-देव, माता-मसानी, सेढ़-शीतला, भैरो-भूत तथा हनुमान जी की भक्ति करता है तो उसको उनका लाभ अवश्य होगा, परंतु गीता अध्याय 16 श्लोक 23,24 में तथा अध्याय 7 श्लोक 12,15 तथा 20 से 23 तक में बताए अनुसार व्यर्थ साधना होने से मोक्ष से वंचित रह जाते हैं। कर्म का फल भी अच्छा-बुरा भोगना पड़ता है। इसलिए यह साधना करके भी हानि होती है। इसलिए संत गरीबदास जी ने वाणी नं. 38 में कहा है कि :-

गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर। और ज्ञान मण्डलीक हैं, चकवै ज्ञान कबीर।।

भावार्थ :- वेदों, गीता, पुराणों, कुरान, बाईबल आदि का ज्ञान तो मण्डलीक यानि अपनी-अपनी सीमा का है।(Divisional है) परंतु परमेश्वर कबीर जी द्वारा बताया आध्यात्म सत्य ज्ञान यानि तत्वज्ञान (सुक्ष्मवेद) चक्रवर्ती ज्ञान है जिसमें सब ज्ञान का समावेश है। वह कबीर वाणी है।

■ वाणी नं. 41.42 :-

गरीब, गगन मण्डल में रहत है, अविनाशी आप अलेख। जुगन-जुगन सत्संग है, धर-धर खेलै भेख।।41।।
गरीब, काया माया खण्ड है, खण्ड राज और पाट। अमर नाम निज बंदगी, सतगुरू सें भई साँट।।42।।
■ भावार्थ :- पूर्ण परमात्मा कबीर जी गगन मण्डल यानि आकाश में रहता है जो अविनाशी अलेख है।{अलेख का अर्थ है जो पृथ्वी से देखा नहीं जा सकता। जिसे अविनाशी अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 23 में कहा है। जैसे कुछ ऋषिजन दिव्य दृष्टि के द्वारा पृथ्वी से स्वर्ग लोक, श्री विष्णु लोक, श्री ब्रह्मा लोक तथा श्री शिव जी के लोक को तथा वहाँ के देवताओं को तथा ब्रह्मा-विष्णु-महेश को देख लेते थे। परंतु ब्रह्म काल को तथा इससे ऊपर अक्षर पुरूष तथा परम अक्षर पुरूष (अविनाशी अलेख) को कोई नहीं देख सकता। जिस कारण से उस परमात्मा का यथार्थ उल्लेख ग्रन्थों में नहीं है। यथार्थ वर्णन सुक्ष्मवेद में है जो स्वयं परमात्मा द्वारा बताया अध्यात्म ज्ञान है। इसलिए उस पूर्ण परमात्मा को अलख
तथा अलेख कहकर उपमा की है।
उस परमेश्वर को देखने के लिए पूर्ण सतगुरू जी से दीक्षा लेकर तब सतलोक जाकर ही देखा जा सकता है।} वह परमात्मा स्वयं अन्य भेख (वेश) धारण करके पृथ्वी पर प्रत्येक युग में प्रकट होता है। अपना तत्वज्ञान (चक्रवर्ती ज्ञान) स्वयं ही बताता है कि यह सब राज-पाट तथा शरीर खण्ड (नाशवान) है। केवल सतगुरू से मिलन तथा उनके द्वारा दिया निज नाम (सत्य भक्ति मंत्र) ही अमर है। यदि सच्चे भक्ति मंत्र प्राप्त नहीं हुए तो अन्य नामों का जाप (सुमरण) तथा यज्ञ करना
सब व्यर्थ है।

सुमरण के अंग की वाणी नं. 20


गरीब, राम नाम निज सार है, मूल मंत्र मन मांहि। पिंड ब्रह्मंड सें रहित है, जननी जाया नाहिं।।20।।

भावार्थ :- संत गरीबदास जी ने कहा है कि मोक्ष के लिए राम के नाम का जाप ही निज सार है। यानि मोक्ष प्राप्ति का निष्कर्ष है। नाम-स्मरण से ही मुक्ति होती है। नाम भी मूल मंत्र यानि यथार्थ नाम हो। जिस पूर्ण परमात्मा का जो मूल मंत्र यानि सार नाम है, वह परमेश्वर पिण्ड यानि नाड़ी तंत्र से बने पाँच तत्व के शरीर से रहित (उसका पाँच तत्व का शरीर नहीं है) है। परमात्मा का जन्म किसी माता से नहीं हुआ।

वाणी नं. 21 :-गरीब, राम रटत नहिं ढील कर, हरदम नाम उचार। अमी महारस पीजिये, योह तत बारंबार।।21।।

भावार्थ : हे साधक! पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर उस राम के नाम की रटना (जाप करने में) में देरी (ढ़ील) ना कर। प्रत्येक श्वांस में उस नाम को उच्चार यानि जाप कर। यह स्मरण का अमृत बार-बार पी यानि कार्य करते-करते तथा कार्य से समय मिलते ही जाप शुरू कर दे। इस अमृत रूपी नाम जाप के अमृत को पीता रहे। यह तत यानि भक्ति का सार है। यदि यथार्थ नाम प्राप्त नहीं है तो चाहे पुराणों में वर्णित धार्मिक क्रियाऐं करोड़ों गाय दान करो, करोड़ों धर्म यज्ञ, जौनार (जीमनवार = किसी लड़के के जन्म पर भोजन कराना) करो, चाहे करोड़ों कुँए खनों (खुदवाओ), करोड़ों तीर्थों के तालाबों को गहरा कराओ जिससे जम मार (काल की चोट) यानि कर्म का दण्ड समाप्त नहीं होगा।

वाणी नं. 22 :-गरीब, कोटि गऊ जे दान दे, कोटि जग्य जोनार। कोटि कूप तीरथ खने, मिटे नहीं जम मार।।

भावार्थ : जैसे किसी देव या संत के नाम का मेला लगता है। उसका स्थान किसी छोटे-बड़े जलाशय के पास होता है। श्रद्धालुओं को उस तालाब से मिट्टी निकलवाने को कहा जाता है तथा उसको पुण्य का कार्य कहा जाता है। यदि सतनाम का जाप नहीं किया तो मोक्ष नहीं होगा। साधक को अन्य साधना का फल स्वर्ग में समाप्त करके पाप को नरक में भोगना होता है। इसलिए सब व्यर्थ है।(22)

वाणी नं. 23 :- गरीब, कोटिक तीरथ ब्रत करी, कोटि गज करी दान। कोटि अश्व बिपरौ दिये, मिटै न खैंचातान।।23।।

भावार्थ : चाहे करोड़ों तीर्थों का भ्रमण करो, करोड़ों व्रत रखो, करोड़ों गज (हाथी) दान करो, चाहे करोड़ों घोड़े विप्रों (ब्राह्मणों) को दान करो। उससे जन्म-मरण तथा कर्म के दण्ड से होने वाली खेंचातान (दुर्गति) समाप्त नहीं हो सकती।(23)

वाणी नं. 24 :- गरीब, पारबती कै उर धर्या, अमर भई क्षण मांहिं। सुकदेव की चौरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।24।।

भावार्थ है कि जैसे पार्वती पत्नी शिव शंकर को जितना अमरत्व (वह भगवान शिव जितनी आयु नाम प्राप्ति के बाद जीएगी, फिर दोनों की मृत्यु होगी। इतना मोक्ष) भी देवी जी को शिव जी को गुरू मानकर निज मंत्रों का जाप करने से प्राप्त हुआ है।

ऋषि वेद व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी को अपनी पूर्व जन्म की सिद्धि का अहंकार था। जिस कारण से बिना गुरू धारण किए ऊपर के लोकों में सिद्धि से उड़कर चला जाता था। जब श्री विष्णु जी ने उसे समझाया और स्वर्ग में रहने नहीं दिया, तब उनकी बुद्धि ठिकाने आई। राजा जनक से दीक्षा ली। तब शुकदेव जी की उतनी मुक्ति हुई, जितनी मुक्ति उस नाम से हो सकती थी। परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार राजा जनक को भी त्रेतायुग में मिले थे। उनको केवल हरियं नाम जाप करने को दिया था क्योंकि वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। वही मंत्र शुकदेव को प्राप्त हुआ था। जिस कारण से वे श्री विष्णु लोक के स्वर्ग रूपी होटल में आनन्द से निवास कर रहे हैं। वहीं से विमान में बैठकर अर्जुन के पौत्र यानि अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित को भागवत (सुधा सागर की) कथा सुनाने आए थे। फिर वहीं लौट गए।
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। साधना चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।

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