गोपीचंद की कथा-Gopichand Bharthari ki katha | Spiritual Leader Saint Rampal Ji

जानिए वास्तविक गोपीचंद की कथा-Gopichand Bharthari ki katha के बारे में Spiritual Leader Saint Rampal Ji से.


गोपीचंद की कथा-Gopichand Bharthari ki katha

गोपीचंद इकलौते पुत्र थे। पिता का देहांत हो चुका था। कई कन्याऐं (पुत्र) थी। माता जी ने एक दिन अपने पुत्र को स्नान करते देखा। माँ ऊपर की मंजिल पर थी। नीचे गोपीचंद की रानियाँ स्नान की तैयारी कर रही थी। माता ने अपने पुत्रा को देखा तथा अपने पति की याद आई। इसी आयु में इसके पिता की मृत्यु हो गई थी। वे इतने ही सुंदर व युवा थे। उनको काल खा गया। मेरे बेटे को भी काल खाएगा। क्यों न इसको भगवान की भक्ति पर लगा दूँ ताकि मेरा लाल अमर रहे।


गोपीचंद की कथा-Gopichand Bharthari ki katha
गोपीचंद की कथा-Gopichand Bharthari ki katha


आँखों से आँसू निकले और गोपीचंद के शरीर पर गिर गए। गोपीचंद ने देखा कि माँ रो रही है। उसी समय वस्त्र पहनकर माँ के पास गया। रोने का कारण पूछा। कारण बताया तथा स्वयं गोरखनाथ जी के पास लेकर गई और दीक्षा दिला दी। सन्यास दिला दिया। गोपीचंद डेरे में रहने लगा।


गोरखनाथ जी की शिक्षा

श्री गोरखनाथ जी ने परीक्षार्थ गोपीचंद जी को उसी के घर भिक्षा लेने भेजा तथा कहा कि अपनी पत्नी पाटम देई से माता कहकर भिक्षा माँगकर ला। गोपीचंद जी महल के द्वार पर गए। ’माई भिक्षा देना‘, आवाज लगाई। रानी तथा कन्याऐं आवाज पहचानकर दौड़ी-दौड़ी आई। सब रोने लगी। कहा कि आप यहीं रह जाऐं। मत जाओ डेरे में, हमारा क्या होगा? उसी समय वापिस डेरे में आ गया तथा गुरू जी से सब वृत्तांत बताया। फिर गोपीचंद की माता श्री गोरखनाथ जी के पास जाकर गोपीचंद को वापिस माँगने गई। परंतु गोपीचंद जी ने कहा कि माता जी! अब मैं गुरू जी का बेटा हूँ। आपका अधिकार समाप्त हो गया है। अब मैं किसी भी कीमत पर घर नहीं जाऊँगा। जो गुरू जी ने साधना बताई थी, वह भक्ति की।


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यहाँ प्रश्न यह है कि भले ही वह भक्ति मोक्षदायक नहीं थी, परंतु परमात्मा प्राप्ति के लिए गुरू जी ने जो भी साधना तथा मर्यादा बताई, सिर-धड़ की बाजी लगाकर निभाई। वह भिन्न बात है कि मुक्त नहीं हुए। परंतु जिस स्तर की साधना की, उसमें प्रथम रहकर उभरे। संसार में नाम हुआ। किसी न किसी जन्म में परमेश्वर कबीर जी ऐसी दृढ़ आत्माओं को अवश्य शरण में लेते हैं। यदि भक्ति की शुरूआत ही नहीं करते तो नरक में जाना था। राज्य तो रहना ही नहीं था।

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