सुखदेव ऋषि के जन्म की कथा-Story of Sukhdev Rishi Hindi | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

जानिए सुखदेव ऋषि के जन्म की कथा-Story of Sukhdev Rishi Hindi के बारे में | Spiritual Leader Saint Rampal Ji Maharaj

सुखदेव की उत्पत्ति की कथा


सुखदेव ऋषि के जन्म की कथा-Story of Sukhdev Rishi Hindi
Story of Sukhdev Rishi Hindi

गरीब, सुकदेव सुखमें ऊपजे, राई सींग समोइ। नवनाथ अरु सिद्ध चौरासी, संगि उपजेथे दोइ।।

सरलार्थ:- जिस समय भगवान शिव जी ने पार्वती जी को अमर मंत्र दिया। उस समय एक स्थान पर सूखा वृक्ष था। उसके नीचे आसन लगाया। कारण यह था कि इस अमर नाम को कोई अन्य जीव सुन ले और वह भी अमर हो जाए और बुरे स्वभाव का जीव यदि आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न हो जाएगा तो वह उसका दुरूपयोग करके भले व्यक्तियों को सताएगा। इसलिए सब गुरूजन एकान्त स्थान पर केवल उपदेश देने योग्य हुए व्यक्तियों को ही बैठाकर नाम देते हैं। भगवान शंकर जी ने अपने हाथों से ताली बजाई जिसका भयंकर नाद (शोर-आवाज) हुआ। आसपास के पशु तथा पक्षी डरकर दूर चले गए। सूखा वृक्ष इसलिए चुना था कि कोई पक्षी आएगा तो तुरंत दिखाई देगा। उस वृक्ष की खोखर (वृक्ष के थोथे तने) में मादा तोते ने अण्डे पैदा कर रखे थे। एक अण्डा अस्वस्थ था, अन्य स्वस्थ थे। वे शंकर जी की ताली (हाथों से की आवाज) से ही पक्षी बनकर उड़ गए। वह खराब (गन्दा हुआ) अण्डा रह गया। जिस जीव को वह अण्डा प्राप्त हुआ था, वह उस अण्डे में बैठा था। उसके परिपक्व होने तथा स्वयं को शरीर प्राप्त करने का इंतजार कर रहा था। जैसे बच्चा गर्भ में आने से ही माता-पिता उसे अपना मान बैठते हैं।

शमशान घाट से हड्डियाँ क्यों उठाते है?

इसी प्रकार जीव जिस शरीर या अण्डे में प्रवेश होता है तो उसे अपना मान लेता है। मृत्यु के उपरांत शमशान घाट पर अंतिम संस्कार के पश्चात् बची हुई हड्डियों के टुकड़ों को उठाकर किसी अथाह दरिया में बहा देते हैं जिसको अस्थियाँ उठाना या फूल उठाना कहते हैं। उसका कारण यह कि जो जीव उस मानव शरीर (स्त्री या पुरूष) में रहा है, उसका उस शरीर में अधिक मोह हो जाता है। जैसे मानव को कोई असाध्य रोग हो जाता है तो अपने शरीर की रक्षार्थ सर्व धन लगा देता है। शरीर इतना प्रिय लगता है। मृत्यु के उपरांत यदि उस प्राणी को अन्य शरीर नहीं मिला तो वह प्रेत योनि में जाता है। भूत बनकर सुक्ष्म शरीर में रहता है। वह धर्मराज के दरबार से हिसाब करवाता है। यदि प्रेत योनि प्राप्त करता है तो अपने घर आता है।

अपने परिवार के व्यक्तियों से मिलकर बातें करने की कोशिश करता है। कहता है कि क्यों रो रहे हो? मैं आ गया हूँ। परंतु सुक्ष्म शरीर होने के कारण परिवार के व्यक्ति न उसे देख पाते हैं और न उसकी आवाज सुनते हैं। तब उसको अन्य प्रेत बताते हैं कि ये तेरे को देख नहीं पा रहे हैं क्योंकि तेरा स्थूल शरीर नहीं रहा। फिर वह प्रेत अपने शरीर की खोज में शमशान घाट पर जाता है। वहाँ शरीर जला दिया गया होता है। अपने शरीर की शेष बची अस्थियों को अपनी मानता है। उनसे चिपककर रहता है। जब उन अस्थियों को उठाकर दरिया में बहाने जाते हैं तो भी वह जीव उनसे चिपका रहता है। जब दरिया में डाल देते हैं तो वह उनसे अलग हो जाता है। अधिकतर प्रेत वहीं रह जाते हैं, कुछ एक उन परिवार वालों के साथ घर आ जाते हैं।

यदि अस्थियाँ न उठाई जाऐं तो वह प्रेत बनकर शमशान घाट पर डेरा डाल लेता है, परंतु जिन्होंने परमेश्वर कबीर जी की शरण ले रखी है, वे प्रेत नहीं बनते। अनुपदेशी जिन्होंने गुरू से नाम लेकर भक्ति नहीं की, वे प्रेत बनकर कभी शमशान पर, कभी घर या खेतों में या जो भी कारोबार होता है, उसके आसपास घूमते रहते हैं। परिवार के सदस्यों को या अन्य को परेशान करते हैं। इसलिए नकली गुरूओं की बताई भक्ति से प्रेत बना। फिर उसको ठिकाने लगाने के लिए अस्थियाँ उठाकर दरिया में डालने की रीति (परम्परा) शुरू कर दी। यदि कोई वापिस आ जाता हरिद्वार हर की पौड़ी से और परिवार को परेशान करता तो उसकी गति कराने की परम्परा प्रारम्भ कर दी। तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छः माही, फिर बरसी मनाने लगे। फिर भी बात नहीं बनी। भूत तंग करता रहता तो उसके श्राद्ध प्रारम्भ किए कि अब यह पित्तर बन गया है। उसकी गति हो गई है। फिर पिण्ड भरवाओ आदि-आदि क्रियाऐं परिवारजनों पर थोंपी गई।

शिव जी का पार्वती को मंत्र देना 

उसी स्वभाव से अण्डे से एक जीव चिपका था। श्री शिव जी ने पार्वती जी को पूर्ण परमात्मा की कथा सुनाई जो परमेश्वर कबीर जी से सुनी थी। फिर प्रथम मंत्रा देवी पार्वती जी को सुनाया। कमलों का भेद बताने लगे। पार्वती जी समाधिस्थ हो गई। पहले तो हाँ-हाँ-हूँ कर रही थी। बाद में वह गंदा (खराब) अण्डा स्वस्थ होकर उसमें तोते का बच्चा बन गया और हाँ-हाँ करने लगा। आवाज में अंतर जानकर शिव जी ने पार्वती की ओर देखा तो वह तो समाधि में थी। अंतर दृष्टि से देखा तो एक तोता सर्व ज्ञान सुन चुका था। शिव जी उस तोते को मारने के लिए उठे तो वह तोता उड़ चला। शिव जी भी आकाश मार्ग से उसका पीछा करने लगे। वेदव्यास ऋषि जी की पत्नी ने जम्भाई ली तो उसके मुख के द्वारा तोते वाला जीव उस ऋषि की पत्नी के शरीर में गर्भ में चला गया।


तोते वाला शरीर वहीं त्याग दिया। शिव जी सब देख रहे थे। शिव जी ने वेदव्यास जी की पत्नी से कहा कि आपके गर्भ में मेरे ज्ञान व भक्ति मंत्र का चोर है। उसने अमर कथा सुन ली है। वह भी अमर हो गया है। (जितना अमरत्व उस मंत्र से होता है) व्यास जी भी वहीं आ गए तथा शिव जी को प्रणाम किया। आने का कारण जाना तो कहा कि हे भोलेनाथ! आप कह रहे हो कि वह अमर हो गया है। यदि वह जीव अमर हो गया है तो आप मार नहीं सकते। अब गर्भ में तो आप उसको बिल्कुल भी नहीं मार पाओगे। यह सुनकर शिव जी चले गए। पार्वती जी को समाधि से जगाया और अपने निवास पर चले गए। जिस स्थान पर शिव जी ने पार्वती जी को अमर मंत्र दिया था, उस स्थान को ‘‘अमरनाथ’’ के नाम से जाना जाता है।

सुखदेव जी का 12 वर्ष तक गर्भ में रहना

12 (बारह) वर्ष तक व्यास जी की पत्नी को बच्चा उत्पन्न नहीं हुआ। तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) व्यास ऋषि की कुटी पर आए और गर्भ में बैठे जीव से कहा कि आप जन्म लो, बाहर आओ। गर्भ में जीव को अपने पूर्व के जन्मों का ज्ञान होता है। जीव ने कहा, स्वामियो! बाहर आते ही आपकी माया (गुणों का प्रभाव) जीव को भूल पैदा कर देती है। जीव अपना उद्देश्य भूल जाता है। आप अपनी माया को कुछ देर रोको तो मैं बाहर आऊँ। व्यास जी की पत्नी ने कहा कि मेरे गर्भ में लड़का है। मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है। इस लड़के ने सुख दिया है। इसका नाम मैं सुखदेव रखूँगी। तीनों देवताओं ने उसको शुकदेव नाम दिया क्योंकि वह शुक (तोते) के शरीर में भक्ति-शक्ति युक्त हुआ था। तीनों देवों ने कहा कि हे शुकदेव! हम अपनी गुण शक्ति को केवल इतनी देर तक रोक सकते हैं, जितनी देर गाय या भैंसे के सींग पर राई का दाना टिक सकता है यानि रखते ही गिर जाता है।
शुकदेव ने कहा कि ऐसा ही करो। तीनों देवों ने अपनी गुण शक्ति को एक क्षण के लिए रोका। शुकदेव गर्भ से बाहर आया। तीनों देव चले गए। उस समय में 93 (तिरानवें) अन्य बच्चों का जन्म हुआ।

शुकदेव ऋषि और मोह

उन सबको तथा शुकदेव को अपने उद्देश्य का ज्ञान रहा। वे सब महान भक्त-संत, सिद्ध बने। उनमें से 9 (नौ) तो नाथ प्रसिद्ध हुए तथा 84 (चौरासी) सिद्ध बने और एक शुकदेव ऋषि बना। सुखदेव के गर्भ से बाहर आते ही बारह वर्ष का शरीर बन गया। वह उठकर अपनी ओरनाल को (जो नली माता की नाभि से बच्चे की नाभि से जुड़ी होती है। उसके माध्यम से माता के शरीर से बच्चे की परवरिश होती है। उसकी लंबाई लगभग 1) फुट तक होती है।) अपने कंधे पर डालकर चल पड़ा। यह विचार किया कि कहीं दूर जाकर काट फेंकूंगा। कारण यह था कि सुखदेव जी नहीं चाहते थे कि मेरा परिवार में मोह बढ़े और मैं भक्ति नहीं कर पाऊँगा। दूसरी ओर व्यास ऋषि ने कहा कि बेटा हमने तेरे उत्पन्न होने की बारह वर्ष प्रतिक्षा की है। आप जाने की तैयारी कर रहे हो। हमने बेटे का क्या सुख देखा? आप घर त्यागकर ना जाओ। सुखदेव ने कहा, ऋषि जी! आप वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान होकर भी मोह के दलदल में फँसे हो। मुझे भी फँसाने का प्रयत्न कर रहे हो। मेरे को अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान है। अनेकों बार आप मेरे पिता बने। अनेकों बार मैं आपका पिता बना। 


अनेकों बार हमने चौरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाए। अबकी बार मुझे मेरे लक्ष्य का ज्ञान है। मैं भक्ति करके अपना जन्म सफल करूँगा। यह वार्ता सुखदेव जी ने अपने माता-पिता की ओर पीठ करके की और आकाश में उड़ गए। पूर्व जन्म की भक्ति से प्राप्त सिद्धि-शक्ति बची थी, उससे उड़ गया। उसी के अभिमान से कोई गुरू नहीं किया।
फिर श्री विष्णु जी ने अपने लोक वाले स्वर्ग से निकाल दिया और कहा कि यदि यहाँ स्थान चाहते हो तो राजा जनक मिथिलेश से दीक्षा लो और भक्ति करके आओ। सुखदेव जी ने वैसा ही किया।
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