सत्संग से मिली भक्ति की राह
संत नित्यानंद जी का बचपन का नाम नंदलाल था। वे ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। संत गरीबदास जी (गाँव छुड़ानी जिला-झज्जर) के कुछ समय समकालीन थे। संत गरीबदास जी का जीवन सन् 1717-1778 तक रहा था। उस समय ब्राह्मणों का विशेष सम्मान किया जाता था। सर्वोच्च जाति मानी जाती थी। जिस कारण से गर्व का होना स्वाभाविक था। नंदलाल जी के माता-पिता का देहांत हो गया था। उस समय वे 7.8 वर्ष के थे। आप जी के नाना जी नारनौल के नवाब के कार्यालय में उच्च पद पर विराजमान थे। आप जी का पालन-पोषण नाना-नानी जी ने किया।
शिक्षा के उपरांत नाना जी ने अपने दोहते नंदलाल को नारनौल में तहसीलदार लगवा दिया। एक तो जाति ब्राह्मण, दूसरे उस समय तहसीलदार का पद। जिस कारण से अहंकार का होना सामान्य बात है। तहसीलदार जी का विवाह भी नाना-नानी ने कर दिया था। तहसीलदार जी के महल से थोड़ी दूरी पर एक वैष्णव संत श्री गुमानी दास जी अपने किसी भक्त के घर सत्संग कर रहे थे। वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। सर्व संत जन अपने सत्संग में परमात्मा कबीर जी की अमृतवाणी का सहयोग अवश्य लेते थे। सत्संग में बताया गया कि मानव जीवन किसलिए प्राप्त होता है, परंतु सत्संग न सुनने के कारण सांसारिक उठा-पठक में अपना अनमोल मानव जीवन नष्ट कर जाता है। अज्ञान के कारण जीव धन, पद तथा जाति का अभिमान करता है। भक्ति न करने वाला प्राणी अगले जन्म में गधे-कुत्ते, बैल आदि पशु-पक्षियों के शरीर में कष्ट उठाता है। इसलिए अभिमान त्यागकर पूर्ण संत से दीक्षा लेकर अपना कल्याण करवाना चाहिए। अन्यथा पर्वत से भारी कष्ट भोगना पड़ेगा।
सत्संग की आवाज सुनकर तहसीलदार मकान की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गया। पूरा सत्संग सुना। दीक्षा लेने की प्रबल प्रेरणा बन गई, परंतु जाति और पद का अहंकार परेशान कर रहा था। ब्राह्मणों की कितनी इज्जत है। फिर मैं तहसीलदार हूँ। सत्संग में सामान्य लोग जाते हैं। मुझे शर्म लगेगी। कैसे जाऊँगा आश्रम में? स्वामी गुमानी दास जी का आश्रम नारनौल शहर से लगभग डेढ़ (1) कि.मी. पर था। अंत में एक दिन निर्णय लिया कि सुबह वक्त से आश्रम में पहुँच जाऊँगा। अन्य व्यक्ति जाऐंगे, तब तक तो दीक्षा लेकर लौट आऊँगा। सत्संग करके संत जी आश्रम में चले गए। सुबह उठकर कुछ देर सैर करते थे। एक दिन नंदलाल जी घोड़े पर बैठकर सुबह आश्रम की ओर जा रहे थे। गुमानी दास जी सैर के लिए उसी रास्ते पर जा रहे थे। संत जी ने सिर के बाल कटा रखे थे, उस्तरा फिरा रखा था। सिर पर कोई वस्त्र नहीं था। नंदलाल जी ब्राह्मण होने के नाते सौंण-कसौंण पर विश्वास रखते थे। किसी अच्छे कार्य के लिए जाते और आगे से कचकोल काढ़े (सिर पर उस्तरा फिराऐ) कोई आ जाता तो अपना जाना रद्द कर देते थे। आश्रम में दीक्षा लेने जा रहे थे, जिंदगी का सर्वोत्तम दिन था। आगे से सिर पर उस्तरा फिराए एक व्यक्ति मिल गया।
नंदलाल जी का माथा ठनका और क्रोध आया। विचार किया कि आज दीक्षा का अवसर नहीं छोड़ना है, परंतु अपने सौण-कसौण को भी निस्क्रिय करना था। इसलिए अपने आप समाधान निकाल लिया कि इस मनहूस के सिर में टोला (हाथ की एक ऊँगली का उल्टा भाग) मार देता हूँ, कसौण समाप्त हो जाएगा। इसी उद्देश्य से घोड़ा उस व्यक्ति (संत गुमानी दास जी) के पास जाकर रोका और कहा कि हे कम्बख्त! तूने आज ही सिर मुंडवाकर मेरे सामने आना था। आज मैं अपनी जिंदगी के सबसे उत्तम कार्य के लिए आश्रम में जा रहा था। यह कहकर गुमानी दास जी के सिर पर टोले मारे और घोड़ा आश्रम की ओर चला दिया। संतो के साथ ऐसी घटनाऐं आम होती हैं। वे अधिक ध्यान नहीं देते। विचार तो किया कि व्यक्ति सभ्य तथा कोई उच्च अधिकारी तथा उच्च कुल का लग रहा था, कार्य पालियों वाले कर गया। नंदलाल आश्रम में गया। वहाँ संत के शिष्य मिले, राम-राम हुई। आने का कारण बताया। घोड़ा वृक्ष से बाँध दिया और संत जी के आसन के पास बिछी बोरी पर बैठ गया। संत गुमानी दास जी सैर के पश्चात् स्नान करके आसन पर बैठे तो घोड़ा देखा। फिर समझते देर न लगी।
नंदलाल जी ने देखा तो शर्म के मारे नीची गर्दन कर ली। गुमानी दास को आश्रम के भक्तों ने बता दिया था कि यह तहसीलदार जी दीक्षा लेने आए हैं। नंदलाल जी संत के चरणों में गिर गए और टोला मारने का कारण बताया। संत गुमानी दास जी ने कहा कि हे भक्त! जब हम एक आन्ने का घड़ा कुम्हार के पास से लेने जाते हैं तो उसको टोले मार-मारकर बजाकर जाँचते हैं कि कहीं फूटा तो नहीं है। आप जी तो जिंदगी का सौदा करने आए हो, आपने गुरू जी बजाकर देख लिया तो कोई पाप नहीं किया। नितानंद जी संत जी के शीतल स्वभाव से और भी अधिक प्रभावित हुए। दीक्षा ले ली। संत गुमानी दास जी ने उनका नाम बदलकर नित्यानंद रख दिया। जब सत्संग से जीने की राह मिली
तो नितानंद जी ने वाणी बोली :-
ब्राह्मण कुल में जन्म था, मैं करता बहुत मरोड़।
गुरू गुमानी दास ने, दिया कुबुद्धि गढ़ तोड़।।1
फिर कितने आधीन हुए, वह इस वाणी से पता चलता है :-
सिर सौंपा गुरूदेव को, सफल हुआ यह शीश।
नित्यानंद इस शीश पर, आप बसै जगदीश।।;2
भावार्थ :- जब तक सत्संग के विचार सुनने को नहीं मिलते तो भूलवश मानव अहंकार में सड़ता रहता है। जब ज्ञान होता है कि आज राजा है, मृत्यु उपरांत गधा, कुत्ता बनेगा तो इस अहंकार का क्या बनेगा? इसलिए भक्त अपने उस अड़ंगे को ज्ञान से साफ करके भक्ति पथ पर चलते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। श्रीलंका के राजा रावण ने भक्ति बहुत की, परंतु अहंकार नहीं गया। जिस कारण से विनाश को प्राप्त हुआ। रावण भी ब्राह्मण था। नित्यानंद जी भी ब्राह्मण थे। सत्संग सुनकर निर्मल हो गए। रावण को सत्संग सुनने को नहीं मिला। जिस कारण से जीवन व्यर्थ गया और अमिट कलंक भी लग गया। नित्यानंद जी ने कहा कि मेरा जन्म ब्राह्मण कुल में होने के कारण जाति अभिमान के कारण पूर्ण मरोड़ (अहंकार) करता था। जब गुरू जी गुमानी दास जी के सत्संग वचन सुने तो जाति का अहंकार रूपी कुबुद्धि का गढ़ समाप्त हो गया। जीवन सफल हुआ।(1)
वाणी नं. 2 का भावार्थ :- सत्संग सुनकर नित्यानंद जी बहुत आधीनी करने लगे। अहंकार त्याग दिया। कहा कि मैंने अपने गुरू जी को अपना सिर दान कर दिया यानि जैसे गुरू जी रखेंगे, वैसे ही रहूँगा। मेरा सिर सफल हो गया, अन्यथा किसी रोग के कारण जीवन चला जाता। अब मेरे सिर पर परमात्मा का निवास है। मेरी रक्षा परमात्मा करता है। मुझे कोई चिंता नहीं।
नित्यानंद जी का शब्द :-
और बात तेरे काम ना आवै सन्तों शरणै लाग रे।
क्या सोवै गफलत में बन्दे जाग-जाग नर जाग रे।।
तन सराय में जीव मुसाफिर करता रहे दिमाग रे।
रात बसेरा करले डेरा चलै सवेरा त्याग रे। और बात-------।
उमदा चोला बना अनमोला लगे दाग पर दाग रे।
दो दिन क गुजरान जगत में जलै बिरानी आग रे। और बात----।
कुबद्ध कांचली चढ रही चित पर तू हुआ मनुष से नाग रे।
सूझै नहीं सजन सुख सागर बिना प्रेम बैराग रे। और बात-----।
हर सुमरै सो हंस कहावै कामी क्रोधी काग रे।
भंवरा ना भरमै विष के बन में चल बेगमपुर बाग रे। और बात---।
शब्द सैन सतगुरु की पहचानी पाया अटल सुहाग रे।
नितानन्द महबूब गुमानी प्रकटे पूर्ण भाग रे। और बात--------।
(वास्तव में यह ऊपर लिखा शब्द कबीर साहेब जी का है। फिर भी हमने ज्ञान प्राप्त करना है।)
शब्दार्थ :- हे मानव (स्त्री/पुरूष)! परमात्मा की चर्चा व भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई बात यानि चर्चा तेरे काम की नहीं है। आपको तत्वज्ञान नहीं है। इसलिए मोह-ममता व अज्ञानता की नींद में सो रहा है यानि परमात्मा को भूला है।
जाग-जाग यानि संभल जा और संतों से सत्संग सुनकर आत्म कल्याण करवा। यह मानव शरीर में जीव ऐसे हैं जैसे यात्रा किसी होटल में कमरा किराए पर लेकर रात्रि व्यतीत करता है और सुबह त्यागकर अपने कार्य पर चला जाता है। इसी प्रकारइस शरीर रूपी होटल में जीव यात्रा के समान है। जब मृत्यु का समय आएगा,
तब सवेरा हो जाएगा यानि शरीर रूपी सराय यानि होटल को त्यागने का समय हो गया है। आप शरीर त्यागकर भक्ति न करके खाली हाथ जाओगे।
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