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घोर तप करने वाले मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते
कहीं संत सत्संग करता है तो उसे विशेष तड़फ के साथ परमात्मा की महिमा सुननी चाहिए। उसका श्रोताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। श्रोताओं को भी उसी तड़फ (ररंकार वाली लगन) से सत्संग सुनना चाहिए। उससे वक्ता तथा श्रोता दोनों को ज्ञान यज्ञ का समान लाभ मिलता है।
घोर तप करने वाले मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते |
घोर तप करने वाले मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि तप करना शास्त्र विरूद्ध है। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6 में कहा है कि जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाने घोर तप को तपते हैं, वे राक्षस स्वभाव के हैं। उपरोक्त कथा से भी तपस्वियों का चरित्र स्पष्ट है कि हाहा-हूहू के मन में क्या बकवास आई? अपनी आध्यात्म शक्ति की जाँच कराने चले। मतंग ऋषि के डिल-डोल (अत्यंत मोटे) शरीर को देखकर दोष निकालने लगे।
भगवान की रचना का मजाक करना परमात्मा का मजाक है। मतंग तपस्वी ने भी विवेक से काम न लेकर स्वभाव ही बरता। दोनों को शॉप दे दिया। जिस कारण से वे पशु तथा जलचर योनि को प्राप्त हुए। दस हजार वर्ष तक संघर्ष करते रहे, कितने कष्ट उठाए। यदि मतंग ऋषि उनको समझाते कि साधको शक्ति तो परमात्मा में है, शेष हम तो उसके मजदूर हैं। जितनी मजदूरी (साधना) करते हैं, उतनी ध्याड़ी यानि भक्ति शक्ति (सिद्धि) दे देते हैं। साधकों को अपनी शक्ति का अभिमान नहीं करना चाहिए। अपनी साधना आजीवन करनी चाहिए। इस प्रकार समझाने से वे भक्त अवश्य अपना मूर्ख उद्देश्य त्यागकर कष्ट से बच जाते। परंतु यह बुद्धि न गुरू में, न चेलों में, फिर तो यही ड्रामा चलेगा।
तपस्या से क्या लाभ होता है?
गरीब, तप से राज, राज मध्य मानम्। जन्म तीसरे शुकर श्वानम्।।
भावार्थ :- तप से राज्य की प्राप्ति होती है यानि राजा बनता है। राजा में अहंकार अधिक होता है। अहंकार के कारण अनेकों पाप कर डालता है। फिर अगले जन्म में शुकर (सूअर) तथा श्वान (कुत्ता) बनता है। पहला मनुष्य जीवन शास्त्र विरूद्ध साधना (तप) करके नष्ट किया। दूसरा जीवन राज करके खो दिया।
■ शास्त्रों में प्रमाण है:-
‘‘तपेश्वरी सो राजेश्वरी, राजेश्वरी सो नरकेश्वरी’’
भावार्थ :- जितना अधिक समय तक तप करेगा, वह (‘तपेश्वर’ यानि तपस्वियों में श्रेष्ठ माना जाता है) उतना ही अधिक समय तक राज्य करेगा। (राजेश्वरी का अर्थ है राजाओं में श्रेष्ठ है यानि लम्बे समय तक तथा विशाल साम्राज्य पर राज्य करेगा) जो जितने अधिक समय तक तथा विशाल क्षेत्र पर राज्य करेगा, वह उतने अधिक पाप का भागी होगा जिससे नरक का समय भी अधिक होगा। उसको नरकेश्वरी कहा है कि वह नरक को अन्य से अधिक समय तक भोगेगा। फिर कभी मानव जन्म मिलेगा, कोई परम संत (तत्वदर्शी संत) मिले या न मिले। यदि तत्वदर्शी संत नहीं मिला तो फिर वही प्रक्रिया। तप करो, राज करके नरक में गिरो।
गरीब, यह हरहट का कुंआ लोई। यो गल बंध्या है सब कोई।।
कीड़ी-कुंजर (चींटी-हाथी) और अवतारा। हरहट डोर बंधे कई बारा।।
भावार्थ :- पुराने समय में सिंचाई के लिए एक कुंआ खोदा जाता था। उससे पानी निकालने के लिए एक पहिये जैसा बड़ा चक्र लोहे का बनाया जाता था जो लकड़ी के सहारे कुऐं के ऊपर मध्य में रखा जाता था। उसके ऊपर लंबी चैन की तरह बाल्टियाँ लगाई जाती थी। कुंए से कुछ दूरी पर कोल्हू जैसा यंत्र लगाकर बैलों के द्वारा चलाया जाता था। बाल्टियाँ जो चैन (पटे) पर लगी होती थी, वे बैल द्वारा घुमाने से खाली नीचे कुंए में चली जाती थी, पानी से भरकर ऊपर आती थी। ऊपर एक नाले में खाली होकर फिर नीचे कुंए में भरने के लिए जाती थी। यह क्रम सारा दिन और महीनों चलता रहता था।
इसका उदाहरण देकर संत गरीबदास जी ने समझाया है कि जब तक तत्वदर्शी संत (सतगुरू, सच्चा गुरू) नहीं मिलता, तब तक जीव स्वर्ग-नरक, पृथ्वी पर ऐसे चक्र काटता रहता है जैसे रहट की बाल्टियाँ नीचे कुंए से जल भरकर लाती हैं। ऊपर नाले में खाली होकर पुनः कुंए में चली जाती हैं। उसी प्रकार जीव पृथ्वी पर पाप-पुण्य से भरकर ऊपर स्वर्ग-नरक में अपने कर्म सुख-दुःख भोगकर खाली होकर पृथ्वी पर जन्मता-मरता रहता है। इस जन्म-मरण के हरहट (रहट) वाले चक्र में चींटी (कीड़ी), कुंजर (हाथी) और अवतारगण यानि श्री राम, श्री कृष्ण, श्री विष्णु, श्री ब्रह्मा तथा श्री शिव जी आदि-आदि भी चक्कर काट रहे हैं। इसी के गल बंधे हैं यानि कर्मों के रस्से से बँधकर इस चक्र में गिरे हैं।
गज-ग्राह की कथा का निर्कष?
जो सिद्ध करना था वह यह है कि :-पाली (चरवाहा) तो मनुष्य था। उसको परमात्मा मिलना और सुख देना पूर्व जन्म के संस्कार से ही था तथा सच्ची लगन का परिणाम भी, परंतु मोक्ष नहीं। इस गज-ग्राह कथा में दोनों ही पशु थे। फिर भी भगवान ने अनहोनी कर दी। परंतु पूर्व जन्म का संस्कार ही प्राप्त हुआ। संत गरीबदास जी ने समझाना चाहा है कि जो गुरू बनकर जनता को भ्रमित करते हैं, वे पूर्व जन्म के पुण्यकर्मी प्राणी हैं और वर्तमान में जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। उनसे तो सामान्य व्यक्ति जो पूर्व जन्म का पुण्यकर्मी है और वर्तमान में विशेष पाप नहीं कर रहा है तो यदि उस पर कोई आपत्ति आती है तो परमात्मा उसके बचे हुए पुण्यों के आधार से चमत्कार कर देता है, परंतु नकली गुरू पद पर विराजमान व्यक्ति अपने पुण्यों तथा भक्ति शक्ति को दुआ (आशीर्वाद) तथा बद्दुआ (शॉप) देकर नष्ट कर देता है।
पंडित गए नरक में, भक्ति से खाली हाथ। भाग्य से मिले जीव को परम संत का साथ।
बिन सतगुरू पावै नहीं खालक खोज विचार। चौरासी जग जात है, चिन्हत नाहीं सार।।
■ भावार्थ :- नकली गुरू (ब्राह्मण) नरक में जाते हैं। भक्ति कर्म शास्त्रा के विरूद्ध होने से भक्ति की शक्ति प्राप्त न करके खाली हाथ चले गए। पूर्व जन्म में शुभ कर्मों के संयोग बिना परम संत यानि तत्वदर्शी संत नहीं मिलता और सतगुरू के बिना खालिक (परमात्मा) का विचार यानि यथार्थ ज्ञान नहीं मिलता। जिस कारण से संसार के व्यक्ति चौरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों को प्राप्त करते हैं क्योंकि वे सार नाम, मूल ज्ञान (तत्वज्ञान) को नहीं पहचानते। वाणी नं. 26 का भावार्थ है कि परमात्मा में पूर्ण विश्वास करके क्रिया करने से लाभ होता है, औपचारिक्ता से नहीं।
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