जो भक्त भक्ति करता हैं उसे भक्त हीं कहते हैं?
मानव शरीर रूपी वस्त्र अनमोल हैं। तत्वज्ञान के अभाव से भक्ति न करके पाप पर पाप करके इस पर दाग लगा रहा है। इस संसार में जीवन अधिक नहीं है। अपने परिवार के पोषण में तथा धन संग्रह करने में जो परेशानी उठा रहा है।
पाप करके धन जोड़ रहा है। मृत्यु के पश्चात् परिवार तथा संपत्ति धन बेगानी हो जाएगी। इसे जोड़ने में किए पाप तुझे नरक में जलाऐंगे। पाप करके दूसरे की (बिरानी) आग में न जलकर मर।
सत्संग सुने बिना पाप-पुण्य तथा शिष्टाचार का ज्ञान नहीं होता। मानव शरारती बुद्धि का हो जाता है। मानवता को भूलकर अपनी शक्ति के द्वारा निर्बल को सताकर सर्प वाला कार्य कर रहा है जो तेरे नाश का कारण बनता है। हे सज्जन पुरूष! यह ज्ञान है जो बिना प्रेम व सच्ची लगन से सत्संग सुने बिना नहीं होता।
जो व्यक्ति भक्ति करता है तो उसे भक्त कहते हैं यानि हंस पक्षी जैसा अहिंसावादी कहा जाता है अर्थात् भक्त किसी को कष्ट नहीं देता। हंस पक्षी भी सरोवर की मछली व कीड़े नहीं खाता। केवल मोती खाता है। काग पक्षी स्वार्थवश जीवित पशु-पक्षी का माँस नोच-नोचकर खाता है, कष्ट देता है। इसी प्रकार सत्संग न सुनने वाला व्यक्ति अध्यात्म ज्ञान के अभाव से स्वार्थवश अन्य से धन लूटता है। चोरी करता है या अन्य कष्ट देता है जो पाप है। हे जीव रूपी भंवरा! विषय विकारों काम, क्रोध, मोह, लोभ रूपी विष के वन न भटक। यह काल लोक तो कष्ट का घर है। उस बिना कष्ट वाले सतलोक में चल, वह सुखदायक बाग है।
नितानंद जी ने कहा है कि मैंने अपने गुरू जी का सत्संग सुना और उनका संकेत समझ गया जो ऊपर बताया है। अपना जीवन धन्य कर लिया। मुझे मेरे प्यारे महबूब गुरू गुमानी दास जी मिले। यह मेरा कोई पूर्व जन्म का सौभाग्य था।
शब्द:
तन मन शीश ईश अपने पै, पहलम चोट चढावै।
जब कोए राम भक्त गति पावै, हो जी।।टेक।।
सतगुरु तिलक अजपा माला, युक्त जटा रखावावै।
जत कोपीन सत का चोला, भीतर भेख बनावै।।1।।
लोक लाज मर्याद जगत की, तृण ज्यों तोड़ बगावै।
कामनि कनक जहर कर जानै, शहर अगमपुर जावै।।2।।
ज्यों पति भ्रता पति से राती, आन पुरुष ना भावै।
बसै पीहर में प्रीत प्रीतम में, न्यूं कोए ध्यान लगावै।।3।।
निन्दा स्तुति मान बड़ाई, मन से मार गिरावै।
अष्ट सिद्धि की अटक न मानै, आगै कदम बढावै।।4।।
आशा नदी उल्ट कर डाटै, आढा बंध लगावै।
भवजल खार समुन्द्र में बहुर ना खोड़ मिलावै।।5।।
गगन महल गोविन्द गुमानी, पलक मांहि पहुंचावै।
नितानन्द माटी का मन्दिर, नूर तेज हो जावै।।6।।
शब्दार्थ :- संत नित्यानंद जी ने भक्ति को सफल करने की विधि बताई है। कहा है कि गुरू जी से दीक्षा लेने के पश्चात् परमेश्वर को पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए और तन-मन-धन अपने परमेश्वर को पहलम चोट चढ़ावै यानि प्रारम्भ से ही कुर्बानी का भाव बन जाए। तब भक्त की गति यानि मुक्ति होगी।
वाणी नं. 1 :- कुछ साधक बाहरी वेश बनाते हैं। वे मस्तिक पर तिलक लगाते हैं। माला से मंत्र जाप करते हैं। सिर पर बड़े-बड़े बाल बढ़ाकर रखते हैं। कच्छे के स्थान पर केवल कोपीन (चार इंच चौड़ा कपड़ा) बाँधते हैं तथा शरीर पर लंबा कुर्ता जो घुटनों से भी नीचे तक लंबा होता है, पहनते हैं। इस बाहरी दिखावे के स्थान पर अपने सतगुरू को सम्मान दो। उसको मस्तिक पर बैठाओ यानि गुरू का भक्त बनकर प्रत्येक मर्यादा व आज्ञा का पालन करके जनता में उदाहरण बने कि भक्त हो तो ऐसा जिससे गुरू जी की शिक्षा-दीक्षा का परिणाम दूर से दिखाई दे जैसे माथे पर तिलक दूर से दिखाई देता है जो भक्त की पहचान है। भक्त की पहचान बाहरी आडम्बर की बजाय क्रिया से करवाई जाए। शुभ कर्म करे, बुराईयों से बचे।
श्वांस के जाप की माला श्वांस-उश्वांस से अजपा जाप करे। सिर पर बड़े बालों की जटा के स्थान पर सतगुरू द्वारा बताई भक्ति की युक्ति को दृढ़ता से अपनाए। गुप्तांग पर केवल कोपीन से संयम नहीं रहता। संयम रहता है जति भाव अपनाने से, वह अपनाए। युवा स्त्री को देखकर मन में दोष न आने दे। सत्य वचन बोले। यह भक्त का असली चोला यानि भक्त दिखाई देने वाला वस्त्रा है। सत्यज्ञान से पता चलता है कि यह सत्य भक्ति कर रहा है या अपना जीवन गलत साधना में नष्ट कर रहा है।(1)
संसार के व्यक्तियों के व्यगों व लाज (शर्म) के कारण भक्ति में बाधा न आने दे। उस लोक लाज यानि यह शर्म कि लोग क्या कहेंगे, मैं सत्संग में जाता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, परंपरागत भक्ति त्याग दी है। इस लोकलाज को तिनके की तरह तोड़कर फैंक दे यानि उसको बाधा न बनने दे। कनक यानि स्वर्ण तथा कामिनि यानि सुंदर युवती को देखकर अपनी नीयत में दोष न आने दे। उसे विष के तुल्य जाने। तब साधक अमर लोक में जा सकेगा।(2)
अपने इष्टदेव के प्रति पतिव्रता स्त्री की तरह समर्पित रहे। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरूष को पति रूप में इच्छा नहीं करती, चाहे कितना ही सुंदर व धनवान हो। अपने परमात्मा की भक्ति को कभी न भूलें। लोग-दिखावा न करके हृदय से मन-मन में श्वांस-उश्वांस से परमात्मा के नाम का स्मरण करता रहे। (भक्त से तात्पर्य है कि स्त्री या पुरूष कोई भी हो।) जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मायके घर चली जाती है तो वह परिवार को पता नहीं लगने देती कि वह अपने पति को याद करती है। इस प्रकार साधक अपना ध्यान प्रभु चिंतन में लगाए।(3)
पूर्ण सतगुरू से सत्य भक्ति प्राप्त करने के पश्चात् कोई भक्त की निंदा करता है तो बुरा न मानें। यदि कोई प्रशंसा करता है तो उससे प्रभावित न हों। सत्य भक्ति शास्त्रानुसार विधि विधान से करते हैं तो साधक को कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो मोक्ष में सहायक नहीं होती। वे सँख्या में आठ हैं। उनके द्वारा साधक किसी को हानि, किसी को लाभ देकर अपनी भक्ति नष्ट करता है। वह चमत्कार दिखाकर प्रसिद्ध तो हो जाता है, परंतु उसका भविष्य नरक बन जाता है। पशु-पक्षियों की योनियों को प्राप्त करता है। इसलिए मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करते हुए साधक इन अष्ट सिद्धियों वाली फोकट प्रभुता में न अटके। इनको त्यागकर मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से इनसे आगे की आशा करे, आगे को बढ़े।(4)
इस पृथ्वी लोक के धन-वैभव, राज, संपत्ति की अनेकों इच्छाओं रूपी नदी को रोके। आढ़ा बंद लगाना यानि दृढ़ निश्यच रूपी मजबूत बन्द लगाए। संसार रूपी खारे यानि दुःखों से भरे समुद्र में फिर जन्म न ले।(5)
जिस इष्ट की भक्ति गुरू बताता है, वह गुरू अपने अनुयाईयों को उस इष्ट के धाम में जो आकाश में है, पहुँचाने में पूरा सहयोग करता है। नित्यानंद जी के गुरू जी श्री गुमानी दास जी श्री विष्णु जी के भक्त थे। नित्यानंद जी ने उसी की प्राप्ति की महिमा बताई है तथा कहा है कि अपनी साधना की शक्ति को सुरक्षित रखने से सूक्ष्म शरीर जो स्थूल शरीर के अंदर है, वह भक्ति की शक्ति से तेजोमय हो जाता है। यदि भक्ति नहीं करता तो वह शरीर मिट्टी के तुल्य था। इस शब्द से यह प्रमाणित हुआ है कि जैसे खिलाड़ी जिला स्तर पर खेलते हैं तो खेल के नियम वही होते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले खेल के होते हैं। नित्यानंद जी तो राज्य स्तर पर खेल खेला करते थे। उसको सफल किया। हम परमात्मा कबीर जी को इष्ट मानकर भक्ति करते हैं, नियम वही हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी हैं।(6)
संत नित्यानंद जी ने अपने जीवन के अंतिम दिन जटैला तालाब पर भक्ति करके व्यतीत किये। जटैला तालाब भिवानी जिले की तहसील दादरी में कई गाँवों की सीमा पर बना है। (गाँव-माजरा, बिगोवा, बास आदि-आदि की सीमा पर है।) संत नित्यानंद जी श्री विष्णु (श्री कृष्ण) जी की भक्ति करते थे। उनके गुरू श्री गुमानी दास जी दिल्ली के संत श्री चरण दास वैष्णव के शिष्य थे। आप जी को ज्ञान होगा कि संत नित्यानंद जी को किस श्रेणी का मोक्ष प्राप्त हुआ है। संत गरीबदास जी को परमात्मा कबीर जी मिले थे। उन्होंने संत गरीबदास जी को बताया कि संत-भक्त किसी भी स्तर की भक्ति कर रहा है, वह आदरणीय है। परंतु जब तक परम सतगुरू (पूर्ण गुरू) नहीं मिलेगा जो दो अक्षर का सच्चा नाम दीक्षा में देता है, तब तक न तो उस गुरू की मुक्ति है और न शिष्य की।
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