"धर्म बोध का सारांश" | Dharm Bodh Ka Saransh | Sant Rampal Ji
कबीर, फल कारण सेवा करै, निशदिन याचै राम।
कह कबीर सेवा नहीं, जो चाहै चौगुने दाम।।
भावार्थ :- जो किसी कार्य की सिद्धि के लिए सेवा (पूजा) करता है, दिन-रात परमात्मा से माँगता रहता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि वह सेवा सेवा नहीं जो चार गुणा धन सेवा के बदले इच्छा करता है।
कबीर, सज्जन सगे कुटम्ब हितु, जो कोई द्वारै आव।
कबहु निरादर न कीजिए, राखै सब का भाव।।
भावार्थ :- भद्र पुरूषों, सगे यानि रिश्तेदारों, कुटम्ब यानि परिवारजनों तथा हितु यानि आपके हितैषियों का आपके द्वार पर आना हो तो कभी अनादर नहीं करना चाहिए। सबका भाव रखना चाहिए।
कबीर, कोड़ी-कोड़ी जोड़ी कर कीने लाख करोर।
पैसा एक ना संग चलै, केते दाम बटोर।।
जो धन हरिके हेत, धर्म राह नहीं लगात।
सो धन चोर लबार गह, धर छाती पर लात।।
भावार्थ :- जो धन परमात्मा के निमित खर्च नहीं होता, कभी धर्म कर्म में नहीं लगता, उसके धन को डाकू, चोर, लुटेरे छाती ऊपर लात धरकर यानि डरा-धमकाकर छीन ले जाते हैं।
सत का सौदा जो करै, दम्भ छल छिद्र त्यागै।
अपने भाग का धन लहै, परधन विष सम लागै।।
भावार्थ :- अपने जीवन में परमात्मा से डरकर सत्य के आधार से सर्व कर्म करने चाहिएं जो अपने भाग्य में धन लिखा है, उसी में संतोष करना चाहिए। परधन को विष के समान समझें।
भूखा जहि घर ते फिरै, ताको लागै पाप।
भूखों भोजन जो देत है, कटैं कोटि संताप।।
भावार्थ :- जिस घर से कोई भूखा लौट जाता है, उसको पाप लगता है। भूखों को भोजन देने वालों के करोड़ों विघ्न टल जाते हैं।
प्रथम संत को जीमाइए। पीछे भोजन भोग।
ऐसे पाप को टालिये, कटे नित्य का रोग।।
भावार्थ :- यदि आपके घर पर कोई संत (भक्त) आ जाए तो पहले उसको भोजन कराना चाहिए, पीछे आप भोजन खाना चाहिए। इस प्रकार अपने सिर पर नित्य आने वाले पाप के कारण कष्ट को टालना चाहिए।
कबीर, यद्यपि उत्तम कर्म करि, रहै रहित अभिमान।
साधु देखी सिर नावते, करते आदर मान।।
भावार्थ :- अभिमान त्यागकर श्रेष्ठ कर्म करने चाहिऐं। संत, भक्त को आता देखकर शीश झुकाकर प्रणाम तथा सम्मान करना चाहिए।
कबीर, बार-बार निज श्रवणतें, सुने जो धर्म पुराण।
कोमल चित उदार नित, हिंसा रहित बखान।।
कबीर, न्याय धर्मयुक्त कर्म सब करैं, न करना कबहू अन्याय।
जो अन्यायी पुरूष हैं, बन्धे यमपुर जाऐं।।
कबीर, गृह कारण में पाप बहु, नित लागै सुन लोय।
ताहिते दान अवश्य है, दूर ताहिते होय।।
कबीर, चक्की चौंकै चूल्ह में, झाड़ू अरू जलपान।
गृह आश्रमी को नित्य यह, पाप पाँचै विधि जान।।
भावार्थ :- गृहस्थी को चक्की से आटा पीसने में, खाना बनाने में चूल्हे में अग्नि जलाई जाती है। चौंका अर्थात् स्थान लीपने में तथा झाड़ू लगाने तथा खाने तथा पीने में पाँच प्रकार से पाप लगते हैं। हे संसारी लोगो! सुनो! इन कारणों से आपको नित पाप लगते हैं। इसलिए दान करना आवश्यक है। ये पाप दान करने से ही नाश होंगे।
कबीर, कछु कटें सत्संग ते, कछु नाम के जाप।
कछु संत के दर्शते, कछु दान प्रताप।।
भावार्थ :- भक्त के पाप कई धार्मिक क्रियाओं से समाप्त होते हैं। कुछ सत्संग-वचन सुनने से ज्ञान यज्ञ के कारण, कुछ नाम के जाप से, कुछ संत के दर्शन करने से तथा कुछ दान के प्रभाव से समाप्त होते हैं।
जैसे वस्त्रा पहनते हैं। मिट्टी-धूल लगने से मैले होते हैं। उनको पानी-साबुन से धोया जाता है। इसी प्रकार नित्य कार्य में पाप लगना स्वाभाविक है। इसी प्रकार वस्त्र की तरह सत्संग वचन, नाम स्मरण, दान व संत दर्शन रूपी साबुन-पानी से नित्य धोने से आत्मा निर्मल रहती है। भक्ति में मन लगा रहता है।
कबीर, जो धन पाय न धर्म करत, नाहीं सद् व्यौहार।
सो प्रभु के चोर हैं, फिरते मारो मार।।
संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि :-
जिन हर की चोरी करी और गए राम गुण भूल।
ते विधना बागुल किए, रहे ऊर्ध मुख झूल।।
यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 13 में कहा है कि जो धर्म-कर्म नहीं करते, जो परमात्मा द्वारा दिए धन से दान आदि धर्म कार्य नहीं करते, वे तो चोर हैं। वे तो अपना शरीर पोषण के लिए ही अन्न पकाते हैं। धर्म में नहीं लगाते, वे तो पाप ही खाते हैं।
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3 Comments
बहुत अच्छा है जी सतगुरु रामपाल जी महाराज की जय हो🙏🏻
ReplyDeleteAnmol gyan
ReplyDeleteAnmol gyan
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