रंका-बंका की कथा | Story of Ranka-Banka Explained by Sant Rampal Ji Maharaj

रंका-बंका की कथा | Story of Ranka-Banka Explained by Sant Rampal Ji Maharaj



परमेश्वर कबीर जी से चम्पाकली ने पूछा कि हे भगवान! इस पाप की संपत्ति और रूपये का क्या करूं? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि बेटी! इस नरक के धन को दान कर दे। घर पर जाकर चम्पाकली ने विचार किया कि यदि सर्व धन दान कर दिया तो खाऊँगी क्या? कोई कार्य और है नहीं। चम्पाकली सत्संग में अधिक समय जाने लगी।
एक दिन सत्संग में बताया गया कि :- रंका (पुरूष) तथा बंका (स्त्री) परमात्मा के परम भक्त थे। तत्वज्ञान को ठीक से समझा था। उसी आधार से अपना जीवन यापन कर रहे थे। उनकी एक बेटी थी जिसका नाम अबंका था। (अंबिका को अबंका कहते थे।) एक दिन नामदेव भक्त ने अपने गुरू जी से कहा कि गुरूदेव आपके भक्त रंका व बंका बहुत निर्धन हैं। आप उन्हें कुछ धन दे दो तो उनको जंगल से लकडियाँ लाकर शहर में बेचकर निर्वाह न करना पड़े। दोनों जंगल में जाते हैं। लकडि़याँ चुगकर लाते हैं। भोजन का काम कठिनता से चलता है। गुरूदेव बोले, भाई! मैंने कई बार धन देने की कोशिश की है, परंतु ये सब दान कर देते हैं। दो-तीन बार तो मैं स्वयं वेश बदलकर लकड़ी खरीदने वाला बनकर गया हूँं। उनकी लकडि़यों की कीमत अन्य से सौ गुणा अधिक दी थी।
उनकी लकडि़याँ प्रतिदिन दो-दो आन्ना की बिकती थी। मैंने दस रूपये में खरीदी थी। उन्होंने चार आन्ना रखकर शेष रूपये मेरे को सत्संग में दान कर दिए। अब आप बताओ कि कैसे धन दूँ? भक्त नामदेव जी ने फिर आग्रह किया कि अबकी बार धन देकर देखो, अवश्य लेंगे। गुरू तथा नामदेव जी उस रास्ते पर गए जिस रास्ते से रंका-बंका लकड़ी लेकर जंगल से आते थे। गुरू जी ने रास्ते में सोने  बहुत सारे आभूषण डाल दिए जो लाखों रूपयों की कीमत के थे। नामदेव तथा गुरूदेव एक झाड़ के पीछे छिपकर खड़े हो गए। रंका आगे-आगे चल रहा था सिर पर लकडियाँ रखकर तथा उसके पीछे लकडियाँ लेकर बंका दो सौ फुट के अंतर में चल रही थी। भक्त रंका जी ने देखा कि स्वर्ण आभूषण बेशकीमती हैं और बंका नारी जाति है, कहीं आभूषणों को देखकर लालच आ जाए और अपना धर्म-कर्म खराब कर ले।
इसलिए पैरों से उन आभूषणों पर मिट्टी डालने लगा। भक्तमति बंका भी पूरे गुरू की चेली थी। उसने देखा कि पतिदेव गहनों पर मिट्टी डाल रहा है, उद्देश्य भी जान गई। आवाज लगाकर बोली कि चलो भक्त जी! क्यों मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो। बंका जी समझ गए कि इरादे की पक्की है, कच्ची नहीं है। दोनों उस लाखों के धन का उल्लंघन करके नगर को चले गए। गुरू जी ने कहा कि देख लिया भक्त नामदेव जी! भक्त हों तो ऐसे। एक दिन शाम 4 बजे गुरू जी सत्संग कर रहे थे। सत्संग स्थल रंका जी की झोंपड़ी से चार एकड़ की दूरी पर था। रंका तथा बंका दोनों सत्संग सुनने गए हुए थे। उनकी बेटी अबंका (आयु 19 वर्ष) झोंपड़ी के बारह चारपाई पर बैठी थी।

झोंपड़ी में आग लग गई। सब सामान जल गया। अबंका दौड़ी-दौड़ी आई और देखा कि सत्संग चल रहा था। गुरू जी सत्संग सुना रहे थे। श्रोता विशेष ध्यान से सत्संग सुनने में मग्न थे। शांति छायी थी। अबंका ने जोर-जोर से कहा कि माता जी! झोंपड़ी में आग लग गई। सब सामान जल गया। माता बंका उठी और बेटी को एक ओर ले गई और पूछा कि क्या बचा है? बेटी अबंका ने बताया कि एक चारपाई बाहर थी, वही बची है। भक्त रंका भी उठकर आ गया था। दोनों ने कहा कि बेटी!
उस चारपाई को भी आग के हवाले करके आजा, सत्संग सुन ले। झोंपड़ी नहीं होती तो आग नहीं लगती, आग नहीं लगती तो सत्संग के वचनों का आनंद भंग नहीं होता। अबंका गई और चारपाई को झोंपड़ी वाली आग में डालकर सत्संग सुनने आ गई। सत्संग के पश्चात् घर गए। उस समय का खाना सत्संग में लंगर में खा लिया था। रात्रि में जली झोंपड़ी के पास एक पेड़ के नीचे बिना बिछाए सो गए।

भक्ति करने के लिए वक्त से उठे तो उनके ऊपर सुंदर झोंपड़ी थी तथा सर्व बर्तन तथा आटा-दाल आदि-आदि मिट्टी के घड़ों में भरा था। उसी समय आकाशवाणी हुई कि भक्त परिवार! यह परमात्मा की मेहर है। आप इस झोंपड़ी में रहो, यह आज्ञा है गुरूदेव की। तीनों प्राणियों ने कहा कि जो आज्ञा गुरूदेव! सूर्योदय हुआ तो नगर के व्यक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि जो झोंपड़ी दूसरे वृक्ष के साथ डली थी, उस पुरानी की राख पड़ी थी। नई झोंपड़ी एक सप्ताह से पहले बन नहीं सकती थी। सबने कहा कि यह तो इनके गुरू जी का चमत्कार है। नगर के लोग देखें और गुरू जी से दीक्षा लेने का संकल्प करने लगे। हजारों नगरवासियों ने दीक्षा ली। (यह सब लीला परमेश्वर कबीर जी ने काशी शहर में प्रकट होने से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व की थी। उस समय भक्त नामदेव जी को भी शरण में लिया था।)

उपरोक्त कथा प्रसंग सुनकर भक्तमति चम्पाकली के मन का भय समाप्त हो गया और सर्व सम्पत्ति तथा धन परमात्मा कबीर गुरू जी को समर्पित कर दिया। परमात्मा ने कहा कि बेटी! जब तू ही मेरी हो गई तो सम्पत्ति तो अपने आप ही मेरी हो गई। इस मेरी सम्पत्ति को उतनी रख ले जितने में तेरा निर्वाह चले, शेष दान करती रह। भक्तमति चम्पाकली ने वैसा ही किया। मकान रख लिया और अधिकतर रूपये गुरू जी की आज्ञानुसार भोजन-भण्डारे (लंगर) में दान कर दिए।

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