जानिए आखिर क्यों व्रत करना शास्त्रविरुद्ध साधना हैं राजा अंबरीष की कथा (Raja Ambrish ki katha) के साथ संत रामपाल जी महाराज जी के माध्यम से
राजा अंबरीष की कथा-Raja Ambrish ki katha
सत्ययुग में अंबरीष नाम के एक धार्मिक राजा हुए हैं। वही आत्मा त्रोतायुग में राजा जनक हुए जो सीता जी के पिता थे। वही राजा अंबरीष व राजा जनक वाली आत्मा कलयुग में श्री नानक देव (सिख धर्म प्रर्वतक) हुए। राजा अंबरीष के ईष्ट देव श्री विष्णु जी थे। किसी गुरू जी से दीक्षा लेकर साधना करते थे। राजा अंबरीष भक्ति को प्राथमिकता देते थे। उसके लिए अन्न-जल का संयम रखते थे कि मन भक्ति में लगे। भक्त अंबरीष ने महीने के आहार का नियम बना रखा था। वे प्रतिदिन एक रोटी कम खाते थे। उस समय मानव शरीर लंबा-चौड़ा होता था। मानव की लंबाई सौ फुट के आसपास होती थी। इसके अनुसार मोटाई भी अधिक होती थी। भोजन की खुराक (क्पमज) भी अधिक होती थी।
राजा अंबरीष की कथा-Raja Ambrish ki katha: गुरू जी ने एकादशी (ग्यारस) का व्रत रखना भी भक्ति कर्म बता रखा था। अंबरीस को वेद ज्ञान भी था। उनकी आत्मा मानती थी कि व्रत रखना वेद में नहीं लिखा है। गुरू को भी नाराज नहीं करना चाहा। इसलिए अपने आहार को इस प्रकार नियमित किया कि एकादशी को भोजन न करना पड़े। जैसे एक दिन में पेट भरने के लिए सामान्य तौर पर ग्यारह रोटी भोजन करते थे तो उसको प्रतिदिन इस तरह कम करते थे कि एकादशी को बिल्कुल न खाना पड़े। जैसे कृष्ण पक्ष की अमावस्या को रोटी व अन्य सब्जी खाते थे तो प्रतिदिन एक रोटी व उसी अनुसार सब्जी भी कम कर देते थे।
राजा अंबरीष और ऋषि दुर्वासा
तो एकादशी को कुछ नहीं खाते थे। फिर इसी तरह प्रतिदिन एक-एक रोटी बढ़ाते थे। यह प्रति महीने का क्रम था। एक बार एकादशी को ऋषि दुर्वासा जी, राजा अंबरीष जी के दरबार में आए। राजा ने ऋषि जी का आदर-सत्कार किया। भोजन के लिए निवेदन किया। ऋषि दुर्वासा ने कहा कि भोजन तैयार करवाओ। तब तक मैं दरिया पर स्नान करके आता हूँ। ऋषि जी को लौटने में देरी हो गई। राजा अंबरीष के गुरूजी ने राजा को व्रत समापन करने को कहा। अंबरीष ने विचार किया कि ऋषि दुर्वासा के आने पर ही जल आचमन करूँगा। परंतु ऋषि नहीं आए। गुरू जी ने एकादशी समाप्त होने से पहले जल का आचमन अंबरीष को करवा दिया। ऋषि दुर्वासा लौटे तो अंबरीष से कहा कि आप भी हमारे साथ बैठकर खाना खाओ। अंबरीष ने सब बात बताई कि आज मेरा एकादशी का व्रत था। एकादशी आज के दिन ग्यारह बजे समाप्त हो गई है। इससे पहले एकादशी के व्रत को समापन करना अनिवार्य था।
राजा अंबरीष की कथा (Raja Ambrish ki katha): ऋषि दुर्वासा का क्रोधित होना
मैंने जो खाना था, खा लिया। अब आज कुछ नहीं खाना है। ऋषि दुर्वासा तो क्रोध से भरे रहते थे। अंबरीष से कहा कि तेरे घर पर ऋषि आए हैं। तूने ऋषियों से पहले भोजन करके हमारा अपमान किया है। यह कहकर ऋषि ने राजा को उपदेश दिया कि यह कर्म-काण्ड वेद विरूद्ध है। इसे नहीं करना चाहिए, व्यर्थ है। राजा ने कहा जो आपकी आज्ञा।
ऋषि दुर्वासा बिना आहार किए ही चला गया। अगली बार भी दुर्वासा जान-बूझकर एकादशी को आया। राजा ने उसी तरह एकादशी का व्रत समापन किया। ऋषि जान-बूझकर उस दिन और देर से स्नान करके आए। खाने के समय राजा के साथ बैठकर भोजन करने का आदेश दिया। राजा ने वही विवशता बताई कि मैंने एकादशी के व्रत का समय पर उद्यापन करना पड़ा। आज भोजन नहीं खा सकता, क्षमा करो। आप भोग लगाओ और हमें कृतार्थ करो।
ऋषि दुर्वासा और सुदर्शन चक्र
यह उत्तर राजा का सुनकर ऋषि दुर्वासा आग-बबूला होकर बोला, मैंने तुझे एकादशी का व्रत न रखने को कहा था। आपने मेरा अपमान किया है। राजा ने कहा कि ऋषि जी! मैं व्रत नहीं रखता। यह तो अन्न-जल का संयम बनाकर साधना करता हूँ। परंतु ऋषि दुर्वासा ने सुदर्शन चक्र को आदेश दिया कि राजा का सिर काट दे। सुदर्शन चक्र तुरंत सक्रिय हुआ। आग की लपटें निकलने लगी। सुदर्शन चक्र ने भयंकर रूप धारण किया और राजा अंबरीष की ओर चला जो वहाँ से दस कदम (लगभग 50-60 फुट) दूरी पर जमीन पर आसन लगाए बैठा था। राजा के चरण छूकर सुदर्शन चक्र वापिस दुर्वासा ऋषि की ओर मुड़ा और ऋषि के शांत करने पर भी शांत नहीं हुआ तो ऋषि को समझते देर न लगी कि चक्र तेरे को भस्म करेगा। अपने प्राणों की रक्षा के लिए पहले अपने ईष्ट देव श्री शिव जी के पास गए। सब बात बताई तथा रक्षा की प्रार्थना की। श्री शिव जी से भी सुदर्शन चक्र शांत नहीं हुआ तो ऋषि से कहा कि भाग! भाग! हमें भी मरवाएगा। ऋषि दुर्वासा श्री ब्रह्मा जी के पास गया।
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राजा अंबरीष की कथा-Raja Ambrish ki katha: वहाँ से भी भगा दिया और बताया कि विष्णु के पास जा। अंबरीष विष्णु का भक्त है। दुर्वासा को भी पता था। इसलिए वहाँ नहीं जाना चाहता था। परंतु मरता क्या न करता वाली बात सामने थी। ऋषि दुर्वासा सिद्धि से उड़ा जा रहा था। श्री विष्णु के रूप में परमात्मा पूर्ण ब्रह्म तेतीस करोड़ देवाताओं की सभा लगाए हुए थे। परमात्मा को सब पता था कि दुर्वासा विष्णु के पास जाएगा। इसलिए विष्णु के सभा स्थल से दस योजन (एक योजन 4 कोस का, एक कोस 3 किलोमीटर का यानि एक सौ बीस किलोमीटर) दूर लीला करने के लिए सभा लगाए हुए थे। परमात्मा भक्त की महिमा बनाते हैं। ऋषि दुर्वासा कभी पीछे मुड़कर सुदर्शन चक्र की ओर देख रहा था कि कितना दूर पीछे है तो कभी आगे को देखकर उड़ा जा रहा था। परमात्मा के दरबार में पृथ्वी पर चलकर दौड़कर गया। तब परमात्मा ने पूछा कि ऋषि जी! कैसे स्पीड खींच रखी है। यह सुदर्शन चक्र तेरे पीछे-पीछे किस कारण से लगा हैं?
सुकर्मी पतिब्रता के अंग की वाणी से
वाणी नं. 95 :-
गरीब बूझे विसंभर नाथ चक्र क्यों चोट चलाई। क्या गुस्ताकी कीन्हीं कथा मोहे बेग सुनाई।।
अर्थात् परमात्मा ने विष्णु रूप में ऋषि दुर्वासा से पूछा कि सुदर्शन चक्र ने आप के ऊपर आक्रमण किस कारण से किया? शीघ्र बताओ। क्या गुस्ताखी (शरारत) की है?
दुर्वासा ने बताया :- वाणी नं. 96.100 :-
गरीब, अंबरीस मत लोक, बसे एक राजा सूचा। करै एकादस ब्रत, ज्ञान कछु अधिका ऊंचा।। ृ 96।।
गरीब, हम कीन्हा ब्रह्मज्ञान, ऊन्हैं सिरगुण उपदेसा। छांड एकादस बरत, कह्या हम लग्या अंदेसा।।97।।
गरीब, हम दीना चक्र चलाई, काटि सिर इसका लीजै। औह चक्र पग छूहि, उलट करि दिगबिजै किजै।।98।।
गरीब, हम भागे भय खाइ, चक्र छूटे गैंनारा। तीन लोक में गवन किये, राखे नहिं किन्हैं अधारा।।99।।
गरीब, अब आये तुम पास, जानराइ जानत सोई। हम कूं ल्यौ छिपाइ, चक्र मारे नहिं मोहि।।100।।
- मृत लोक (पृथ्वी) के ऊपर अंबरीष नाम का एक सच्चा-सुच्चा राजा निवास करता है। वह एकादशी का व्रत करता है, परंतु उसका ज्ञान उत्तम है।(96)
- मैंने उनको ज्ञान समझाया और कहा कि आप एकादशी का व्रत त्याग दो। परंतु राजा अपनी बात को ऊपर रखते हुए अपना ज्ञान बोलने लगा। इससे मुझे क्रोध आ गया।(97)
- मैंने सुदर्शन चक्र को आज्ञा दी कि राजा अंबरीष का सिर काट दे। सुदर्शन चक्र चला और राजा के चरण छूकर उल्टा मेरे को मारने के लिए चल पड़ा।(98)
- मैं डरकर भागा। तीनों लोकां में रक्षा के लिए गया, परंतु किसी ने शरण नहीं दी।(99)
- हे जानी जान! अब मैं आपकी शरण में आया हूँ। मेरे को छुपा लो। सुदर्शन चक्र मुझे मारे ना, मेरी रक्षा करो।(100)
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